हाल ही हुए गत माह दोनों और के द्विपक्षीय संबंधो को और मज़बूती देने की दिशा में भारत और नेपाल के प्रयास, फिर से समाचारों में थे, चूंकि, प्रचंड के नाम से जाने जाने वाले पुष्प कुमार दहल, भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा के औपचारिक निमंत्रण पर भारत की यात्रा पर आये थे. इस मुलाकात में, भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर और उसके उपरांत भारतीय राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल ने भी शिरकत की थी, जिससे इंडो-नेपाल की रणनीतिक गठजोड़ की प्रासंगिकता में इज़ाफा हुआ. ये पूरी प्रक्रिया दल से दल सम्बन्धी ‘बीजेपी को जाने’ नामक पार्टी के अभियान की अंदरूनी प्रक्रिया थी, ताकि दो पक्षों के बीच के परस्पर हित को ध्यान में रखते हुए, पार्टी से पार्टी के संबंधों को सटीक रूप से बढ़ाने और एक उचित ऑफिस प्रबंधन बनाये जाने को लेकर था; जो आगे चलकर बदले में परस्पर हितों को सुरक्षित रख सके. आश्चर्यजनक रूप से ये बैठक भी तीन माह पूर्व हुए, नेपाल के प्रधानमंत्री सह सत्तासीन नेपाली कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शेर बहादुर देउबा के दौरे के उपरांत हुआ, जो भाजपा के मुख्यालय का दौरा करने वाले प्रथम नेपाली प्रधानमंत्री बने.
प्रचंड के नाम से जाने जाने वाले पुष्प कुमार दहल, भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा के औपचारिक निमंत्रण पर भारत की यात्रा पर आये थे. इस मुलाकात में, भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर और उसके उपरांत भारतीय राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल ने भी शिरकत की थी.
नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी, नेपाल-माओईस्ट सेंटर के चेयरमैन और इस हिमालयी राष्ट्र के भूतपूर्व प्रधानमंत्री, दहल भी वर्तमान गठबंधन की सरकार के एक प्रमुख सहयोगी हैं. उसी कारण से, इस दौरे के दरम्यान जो बातचीत उनके साथ हुई, उससे काठमांडू, नयी दिल्ली से क्या अपेक्षा रखता है, वो ज़ाहिर होने की पूरी उम्मीद है. इसलिए जब, दहल ने शांति और मित्रता (1950) के साथ ही खुलकर दोनों देशों के बीच के कुछ अनसुलझे मुद्दों के निप्टारण के लिये एक संशोधित संधि के रूप में स्पष्ट रूप से समय की ज़रूरत की ओर इशारा किया, तो उसने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा. ऐसा इसलिये हुआ क्योंकि विगत कई वर्षों के दौरान निश्चित तौर पर पूरे विश्व ने दोनों देशों के बीच के द्विपक्षीय संबंधों में होने वाले उतार-चढ़ाव और उपजे असंतुलन को बड़ी ही दिलचस्पी के साथ देखा है.
1950 की संधि और स्थायी समस्याएं
1950 की संधि को खासकर के उस वक़्त प्रचारित और मान्यता प्रदान की जा रही थी, जब सम्पूर्ण विश्व उस वक्त़ चल रहे शीत युद्ध की कीमत अदा कर रहा था, और चीन के कब्ज़े वाले तिब्बती क्षेत्र से इसकी भौगोलिक निकटता की वजह से, भारत के लिए नेपाल का महत्त्व काफी महत्वपूर्ण होता जा रहा था. उसी तरह से स्थलसीमा से घिरे इस राष्ट्र के भीतर सत्तासीन राणा शासक के खिलाफ़ चल रहे आतंरिक संघर्ष, की जड़ें संभावित तौर पर भारत से जुड़ीं होने की वजह से, इसके त्वरित समाधान की ज़रुरत बन गयी थी. अतः इस लोकतांत्रिक आन्दोलन पर अंकुश लगाने के लिए भारत के साथ एक विशिष्ठ संबंन्ध स्थापित करना शासकों के लिए अत्यंत ही आवश्यक हो गया था. दस्तावेज़ों में दर्ज किये गए प्रावधान, दोनों तरफ से सीमापार लोगों के निर्विघ्न गैर-प्रतिबंधित आवागमन के परस्पर सामाजिक-आर्थिक जरूरतों पर आधारित थी. (धारा-7 के तहत) इस दस्तावेज में साफ़-साफ़ लिखा गया था कि नेपाल में प्राकृतिक ऊर्जा के क्षेत्र में, भारतीयों को वरीयता दिए जाने जैसे अन्य प्रावधानों के अलावा जो कि विकास के कार्यक्रम में मददगार साबित हो सकती है, एक देश का नागरिक दूसरे देश के भीतर चल रहे ओद्यौगिक एवं आर्थिक विकास में स्वतंत्रतापूर्वक भाग ले सकता है. हालाँकि, गलतफ़हमी की पहली लकीर सन 1959 में ही खिंच गयी थी जब संधि के अलावा दोनों देशों के वार्ताकारों के बीच हुई वार्ता में की गई बातचीत का ब्यौरा एवं दस्तावेज़ लीक हो गयी, जिस कारण जनता में नकारात्मक भावनाओं का प्रभाव पडा. इसके बाद भी दोबारा दोनों देशों के संबंधों में तल्ख़ी आयी – जब एक समझौते पर हस्ताक्षर के दौरान नेपाला के राजा मोहन शमशेर जंग बहादुर राणा के समकक्ष भारत के प्रतिनिधी के तौर पर भारतीय राजदूत चंद्रेश्वर नारायण सिंह को खड़ा किया गया. इस बेमेल पात्रता वाली स्थिति की वजह से ऐसा समझा गया कि ये नेपाल जो कि एक छोटा राष्ट्र है, उसके अपमान का कारक है और जिससे उसके भीतर भारत के प्रति एक किस्म के अंसतोष की स्थिती पैदा हो गयी.
गलतफ़हमी की पहली लकीर सन 1959 में ही खिंच गयी थी जब संधि के अलावा दोनों देशों के वार्ताकारों के बीच हुई वार्ता में की गई बातचीत का ब्यौरा एवं दस्तावेज़ लीक हो गयी, जिस कारण जनता में नकारात्मक भावनाओं का प्रभाव पडा.
तबसे लेकर, समय-समय पर, नेपाल की और से ये संधि जांच के अंतर्गत आती रही हैं, जिसमें खासकर धारा 1, 2, 5, 6, 7 और 10 में त्रुटियाँ ढूँढी जा रही हैं. चंद दिक्कतें ऐसे मुद्दों पर भी उठी जो नेपाली दावों पर आधारित थी, जिसमें उन्होंने भारत पर (1962) चीन, या फिर पश्चिमी पाकिस्तान (1965) और पूर्वी पाकिस्तान (1971 के बाद बांग्लादेश) के खिलाफ़ हुए युद्ध की सूचना नहीं देने का आरोप लगाया, जिसे भारत ने सिरे से नकार दिया. इसके बाद फिर आवास हेतु सामान अधिकार, रोज़गार के अवसर, और एक दूसरे के क्षेत्र में संपत्तियों के अधिग्रहण को लेकर भी विरोधाभास की स्थिति उत्पन्न हो गयी. हालाँकि, 1980 के उपरांत, दोनों ही देश इस संधि की धाराओं के अनुपालन में बुरी तरह से विफल रहे हैं. एक तरफ जहाँ नेपाल, विदेशियों के लिए लाये गए वर्क परमिट सिस्टम के बाद भी, अपने उस निर्णय पर अडिग नहीं रह पाए; भारत के नॉर्थ-ईस्ट प्रांत (विशेषकर मेघालय और असम), में आये नेपाली नागरिकों को प्रवासी विरोधी भावनाओं की वजह से वापिस उनके देश भेज दिया गया. उसी तरह से, भारतीय सेना के गोरखा रेजीमेंट में भारतीय गोरखाओं के सामने नेपाली गोरखाओं की नियुक्ति को लेकर लगाईं गयी सीमा या प्रतिबन्ध, भी इनकी भावनों के खिलाफ़ ही था. पुनः नेपाल की और से आरोपों की बौछार शुरू हो गयी हैं कि हालाँकि, भारत नें नेपाली व्यापारियों के लिए एंटी मोनोपोली और संतुलित उपचार का वादा किया था, इसके बावजूद, वे भारतीय बाज़ार में खुद को स्थापित कर पाने में असफल रह गए हैं, जबकि सार्वजानिक और निजी क्षेत्रों में, नेपाली अर्थव्यवस्था का भारतीय व्यापारियों ने बड़ा फायदा उठाया है.
वर्तमान सच
भारत-नेपाल संबंधों की वर्तमान सच्चाई में भी इस बात को लेकर सहमति बनी कि, 21वीं सदी के पिछले दशक के दौरान हुई संधि की पुनर्विवेचना की जाये क्योंकि, इस वक़्त तक, दोनों देश पहले से ही दो प्रमुख आर्थिक तंगी (एक 1989 और दूसरा उसके उपरान्त 2015) की मार झेल चुका था. इसलिए, जब भारत इस बात पर राजी हुआ कि वो 2016 के एमिनेंट पर्सन्स ग्रुप (EPG) का दोबारा अवलोकन करेगा तब 2016 में इसको लेकर बैठकों की शुरुआत हुई. जिसमें इस बात पर सहमति थी कि वे लोग गंभीर विचार-विमर्श के लिये टेबल पर आये हैं. क्योंकि स्पष्ट तौर पर इस वक्त तक, भारत नेपाल में चीन के बढ़ते दखल और असर दोनों को भली-भांति पहचान चुका था और सच्चाई ये है कि, दोनों ही चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव में प्रबुद्ध सहयोगी हैं.
चंद दिक्कतें ऐसे मुद्दों पर भी उठी जो नेपाली दावों पर आधारित थी, जिसमें उन्होंने भारत पर (1962) चीन, या फिर पश्चिमी पाकिस्तान (1965) और पूर्वी पाकिस्तान (1971 के बाद बांग्लादेश) के खिलाफ़ हुए युद्ध की सूचना नहीं देने का आरोप लगाया, जिसे भारत ने सिरे से नकार दिया.
एक तरफ, जब नेपाल भारत के साथ सीमा विवाद से जूझ रहा था, जिनमें सबसे ताज़ातरीन रही हैं लिम्पियाधुरा, लिपुलेख और सुस्ता क्षेत्र पर आधारित कालापानी मैप विवाद (2019), उस दौरान नेपाल-चीन की योजना के अंतर्गत ट्रांस हिमालयन मल्टी-डायमेंशनल कनेक्टिविटी नेटवर्क अथवा नेपाल-चीन रेल लिंक और इंडस्ट्रियल पार्क संबंधी कंसल्टेटिव मीटिंग सफल रही है. दिलचस्प तौर पर, अक्टूबर 2021 में, ऐसे ही एक मीटिंग में स्वयं प्रचंड जो कि खुद सीपीएन (माओईस्ट) का नेतृत्व कर रहे थे, अन्य राजनितिक दलों के साथ मिल कर ऐसे ही प्लान ऑफ़ एक्शन को मूर्त रूप दे रहे थे. ऐसी विपरीत परिस्थिति में, जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनके नेपाली सहयोगी के.पी.शर्मा ओली के साथ, EPG मीटिंग को मुख्यतः 2016 में शुरू किया गया था, उसका कोई ठोस नतीजा सामने आता नहीं दिखता है. जबकि, बार-बार सीमा और हाइड्रोपावर जैसे मुद्दे – जो नेपाल की संपत्ति, व्यापार और संसाधनों के आदान प्रदान से संबंधित एक बेहद ज़रूरी संपत्ति है.
बहरहाल, भारत सरकार द्वारा संचालित ‘पडोसी सर्वप्रथम नीति’ के साथ-साथ ‘सबका साथ सबका विकास’ के नज़रिये से प्राप्त हो रहे फायदे से नेपाल भली-भाँति परिचित हैं. इसलिए, अपने भारत दौरे पर आने और राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री से मिलने से पूर्व ही, प्रचंड, लिऊ के नेतृत्व में चीनी प्रतिनिधिमंडल से मिल चुके थे. नेपाल, इस स्थिती में नहीं है कि वो भारत के साथ के गठबंधन साझेदारी के प्रति किसी प्रकार की भी बेपरवाही दिखाये. इसके साथ ही, बंगाल की खाड़ी क्षेत्र में मल्टी-सेक्टोरल टेक्नोलॉजी और आर्थिक सहयोग (बिम्सटेक) या फिर बांग्लादेश-भूटान-भारत – नेपाल (बीबीआईएन) ट्रांसपोर्ट और आर्थिक कॉरिडोर की पहल आदि के विवेकपूर्ण घटनाक्रमों पर नेपाल की पैनी नज़र टिकी हुई है, जिनके लिए उसे भारत के साथ समान सहयोग की अपेक्षा है. ऐसी परियोजनाओं की मदद से, नेपाल क्रॉस बॉर्डर रेल लिंक और जनकपुर – जयनगर रेलवे प्रोजेक्ट या फिर जनकपुर – अयोध्या ट्विन सिटी प्रोजेक्ट समझौते में प्रकट हो पाने में सक्षम होंगे, जो कि ‘दोनों देशों की और से किसी प्रकार की राजनैतिक महत्वकांक्षा की कमी’ की वजह से रुका पड़ा है. ये वो चंद द्विपक्षीय कनेक्टिविटी की पहल थी, जिसके समाधान के प्रति प्रचंड ने इशारा किया था.
भारत सरकार द्वारा संचालित ‘पडोसी सर्वप्रथम नीति’ के साथ-साथ ‘सबका साथ सबका विकास’ के नज़रिये से प्राप्त हो रहे फायदे से नेपाल भली-भाँति परिचित हैं. इसलिए, अपने भारत दौरे पर आने और राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री से मिलने से पूर्व ही, प्रचंड, लिऊ के नेतृत्व में चीनी प्रतिनिधिमंडल से मिल चुके थे.
आगे जोड़ते हुए, बीजेपी एकमात्र ऐसी पार्टी है जिससे नेपाली राजनैतिक नेतृत्व लगातार मिलती आ रही है, इससे ऐसा प्रतीत होता है कि भविष्य में भी, नेताओं का ये विशेष समूह, अपने निजी फायदे के मद्देनज़र एक दूसरे की सत्ता को समर्थन देता रहेगा और साथ ही और भी बेहतर तरीके से एक दूसरे के साथ संवाद करते रहना चाहेगा. नेपाल जैसे देश में, जहाँ अक्सरहाँ सरकारें बदलती रहती हैं, भारतीय सीमा से लगती नेपाल के दक्षिणी क्षेत्र, उसमें भी खासकर के मधेसी क्षेत्र में बीजेपी का समर्थन काफी महत्वपूर्ण है, जिनका नेपाली राजनीति में काफी गहरा प्रभुत्व है.
फिर भी, जो बात उल्लेख करने योग्य है, वो है दोनों देशों विशेषकर नेपाल का जोश और उत्साह, क्योंकि जिस भौगोलिक स्थान पर वो स्थित है, वहां उसकी साख, खासकर के दांव पर है. ऐसा द्विपक्षीय आदान-प्रदान निस्संदेह शीघ्र ही उत्पादक एवं फलदायी होगी, ऐसी काफी उम्मीदें हैं.
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