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भारत-जापान साझीदारी को भारत-प्रशांत क्षेत्र की शांति एवं स्थिरता में योगदान देने वाला एक महत्वपूर्ण तत्व माना जाता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की 11-12 नवंबर को वार्षिक द्विपक्षीय सम्मेलन में भाग लेने के लिए टोक्यो की सफल यात्रा दोनों देशों के द्विपक्षीय संबंधों में एक और उल्लेखनीय मील का पत्थर बन गया है। इस सम्मेलन के महत्व को दोनों देशों द्वारा अपनी साझीदारी को व्यापक बनाने एवं उनमें विविधता लाने के लिए किए जा रहे उनके सतत प्रयासों में देखा जाना चाहिए। दोनों नेताओं द्वारा जारी संयुक्त वक्तव्य इसका प्रमाण प्रस्तुत करता है। आज भारत-जापान की वचनबद्धता न केवल आर्थिक मुद्धों पर केंद्रित है बल्कि उनमें क्षेत्रीय सुरक्षा, सामुद्रिक मुद्धे, आतंकरोध, ऊर्जा सुरक्षा, संयुक्त राष्ट्रसंघ सुधार, जलवायु परिवर्तन आदि समेत दिलचस्पी के व्यापक क्षेत्र शामिल हैं।
भारत के लिए इस सम्मेलन की सबसे प्रमुख उपलब्धि असैन्य परमाणु सहयोग पर ऐतिहासिक समझौता है जो पिछले छह वर्षों से फलीभूत नहीं हो पा रहा था। महत्वाकांक्षी विकास लक्ष्यों वाले भारत जैसे विशाल देश को अपने ऊर्जा संसाधनों के संवर्द्धन की सख्त आवश्यकता है। बिजली उत्पादन का भारत का वर्तमान स्तर अर्थव्यवस्था की तेजी से बढ़ती मांग को पूर नहीं कर सकता। इसके अतिरिक्त, भारत कच्चे तेल का तीसरा सबसे बड़ा आयातक और कार्बन डाॅयक्साइड की तीसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक देश है। चूंकि परमाणु ऊर्जा अपेक्षाकृत सस्ती एवं किफायती होगी, इसलिए भारत को इसका दोहन करने का हरसंभव प्रयास करना होगा। बिजली की आसमान छूती मांग की पूर्ति करने के लिए ऊर्जा की नियमित आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए यह एकमात्र यथार्थवादी विकल्प है। वर्तमान में भारत की परमाणु बिजली इसके कुल बिजली उत्पादन का केवल तीन प्रतिशत है, लेकिन इसकी इच्छा अगले 20 वर्षों में इसे बढ़ाकर 25 प्रतिशत तक करने की है। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए, भारत की अगामी दशकों में लगभग आठ परमाणु रिएक्टरों के निर्माण की योजना है। अगर भारत जापान की उन्नत अत्याधुनिक रिएक्टर प्रौद्योगिकियों पर भरोसा कर सकता है तो यह परमाणु बिजली उत्पादन में भारत की प्रगति में तेजी ला सकता है और जापान के साथ अपने घनिष्ठ परस्पर हितों का लाभ उठा सकता है। जापान खुद भी शांतिपूर्ण उपयोगों के लिए अपनी परमाणु प्रौद्योगिकियों के निर्यात को बढ़ावा देने की प्रक्रिया में है। इसने पहले ही कई देशों के साथ समझौता कर रखा है और ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, सऊदी अरब, मैक्सिको एवं वियतनाम जैसे देशों के साथ असैन्य नाभिकीय समझौते पर हस्ताक्षर करने की प्रक्रिया में है। लेकिन भारत के साथ सहयोग समझौते में जो देरी हुई है, उसकी वजह यह है कि जापान ने अपनी परमाणु प्रौद्योगिकियों को किसी भी ऐसे देश के साथ साझा नहीं किया है जो नाभिकीय अप्रसार समझौते (एनपीटी) का हस्ताक्षरकर्ता नहीं है। बहरहाल, यह दो अपवादों को नजरअंदाज नहीं करता। पहला, यह कि जापान ने 1972 में फ्रांस के साथ एक समझौता किया था। दूसरा, 1982 में चीन के साथ ऐसा ही समझौता किया गया था। हालांकि, फ्रांस और चीन दोनों ही उस वक्त एनपीटी के हस्ताक्षरकर्ता नहीं थे, उन्हें एनपीटी के तहत परमाणु शक्तियों के रूप में स्वीकृति दी गई थी जिस पर उन्होंने 1992 में हस्ताक्षर किया।
जापानी मीडिया भारत जापान समझौते को इन सभी मुश्किलों की रोशनी में देखता है। उधर वामपंथी रूझान वाले दैनिक समाचार पत्रों अशाही और मैनिचि परमाणु शक्ति के पुनरूत्थान के खिलाफ लगातार मुहिम चला रहे हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि पूर्व प्रधानमंत्री जुनिचिरू कोईजुमी ने हाल ही में कहा है कि अगर जापान की विपक्षी पार्टियां एक साथ आ सकें और नाभिकीय मुद्दे को एकमात्र गंभीर चुनावी मुद्दे के रूप में प्रचारित कर सकें तो वे सत्ता हासिल करने में सक्षम हो जाएंगे। एक पूर्व एलडीपी प्रधानमंत्री का ऐसा बयान निश्चित रूप से उस अपील की तीव्रता को प्रदर्शित करता है तो परमाणु मुद्दा पैदा कर सकता है।
अशाही और मैनिचि तर्क देते है कि वर्तमान समझौते के मूल पाठ के भीतर ही एक सुस्पष्ट ‘निष्फलीकरण’ खंड को शामिल न करना जापानी सरकार का एक गंभीर दोष था। मैनिचि संदेह प्रकट करता है कि भारत इस तर्क के द्वारा कि जापान के साथ हस्ताक्षरित अतिरिक्त नोट बाध्यकारी नहीं है, परीक्षण करने के अपने अधिकार को त्यागना नहीं चाहता क्योंकि पाकिस्तान के पास नाभिकीय हथियार है और वह एनपीटी हस्ताक्षरकर्ता सदस्य नहीं है। अशाही समेत जापान में कई लोगों का यह तर्क है कि इस समझौते ने परमाणु अप्रसार एवं निशस्त्रीकरण लक्ष्यों के एक अद्वितीय योद्धा के रूप में जापान की साख को क्षति पहुंचाई है। अशाही शिकायत करता है कि समझौते के तहत जापान ने बिना समुचित एवं पर्याप्त गारंटी कि भारत परमाणु परीक्षण नहीं करेगा, उसे परमाणु प्रौद्योगिकी प्रदान करने संबंधी समझौते पर सहमति जता दी है।
समझौते के अनुच्छेद 14 में समझौते को समाप्त करने एवं अनुवर्ती उपायों के लिए प्रक्रियाओं से जुड़े विवरणों को परिभाषित किया गया है। लेकिन इसमें भारत द्वारा परीक्षण किए जाने की स्थिति में समझौते को रद्द करने के बारे में बहुत कम कहा गया है। एक अलग नोट में, दोनों देशों ने 5 सितंबर 2008 को वियना में आयोजित आईएईए में भारत के तत्कालीन विदेश मंत्री जी प्रणब मुखर्जी द्वारा दिए गए वक्तव्य को अंगीकार किया है। उस भाषण में श्री मुखर्जी ने परमाणु परीक्षण पर एक स्वैच्छिक एकपक्षीय अधिस्थगन के प्रति भारत की वचनबद्धता को रेखांकित किया था।
अतिरिक्त नोट में, जापान ने यह कहा है कि 5 सितंबर 2008 के वक्तव्य के उल्लंघन से संबंधित किसी भी भारतीय कदम को इस समझौते से हटना माना जाएगा और जापान समझौते के अनुच्छेद 14 के अनुरूप परमाणु सामग्री के पुन: प्रसंस्करण का स्थगन करने के लिए स्वतंत्र होगा। लेकिन भारत का मानना है कि नोट की शर्ते बाध्यकारी नहीं हैं। इसकी व्यापक रूप से चर्चा है कि भारत अतिरिक्त नोट पर जापान के विचारों एवं विशिष्ट संवेदनशीलताओं को रिकार्ड करने के रूप में विचार करता है और भारत ने अमेरिका एवं अन्य देशों के साथ किए गए इस प्रकार के समझौतों में जो कह रखा है, उससे अलग कोई और अतिरिक्त प्रतिबद्धताएं, नहीं की हैं। अवधारणाओं में इस अंतर का किस हद तक विपक्षी राजनीतिक दलों एवं परमाणु विरोधी समूहों द्वारा दोहन किया जाएगा, इस पर ऐबे एवं उनके सहयोगियों की करीबी नजर रहेगी, इसके पहले कि वे जापानी डाएट के अनुमोदन के लिए समय का चुनाव करें।
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