Author : Vivek Mishra

Expert Speak Raisina Debates
Published on Oct 24, 2024 Updated 0 Hours ago

भारत और कनाडा के संबंधों में आई कड़वाहट सत्ता के बदलते आयामों को रेखांकित करती है. क्योंकि आज भारत जैसे देश अपनी राष्ट्रीय अखंडता को कूटनीतिक नियम क़ायदों के ऊपर प्राथमिकता दे रहे हैं.

भारत-कनाडा संबंध: संप्रभुता के युग में कूटनीति का नया अध्याय

कनाडा और भारत के बीच हाल के समय में हुए कूटनीतिक टकराव ने तनाव बढ़ा दिया है और इसकी वजह से दोनों देशों ने एक दूसरे के राजनयिकों को अपने अपने यहां से निष्कासित कर दिया, जिससे दोनों देशों के आपसी संबंधों के भविष्य पर सवालिया निशान खड़ा हो गया है. हमें इस कूटनीतिक संघर्ष की बारीक़ी को समझने के लिए इसे राज्यवाद और इसके बुनियादी उसूलों के चश्मे से देखने की ज़रूरत है. क्या किसी देश की संप्रभुता के लिए ख़तरे ऐसी वजह बन सकते हैं, जिस कारण से वो परंपरागत तरीक़े से अलग तरह से प्रतिक्रिया दें?

 इस वक़्त अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में ये बहस ज़ोर-शोर से छिड़ी है कि शायद हम एक बार फिर से संप्रभुता के युग की ओर लौट रहे हैं. वैसे तो इस परिचर्चा को पूरी तरह से नई नहीं कहा जा सकता है. क्योंकि 1648 में वेस्टफेलिया की संधि के साथ राज्यवादी रियासती व्यवस्था की स्थापना के बाद से दुनिया में ये बहस कई बार छिड़ चुकी है. इसका सबसे ताज़ा उदाहरण तो पिछली सदी के आख़िर में देखने को मिला था, जब संप्रभुता और भूमंडलीकरण के बीच टकराव और होड़ का विवाद उठा था. लेकिन, हालिया बहस से एक बात तो स्पष्ट है कि राज्यवाद के सबसे बुनियादी सिद्धांत के तौर पर संप्रभुता एक बार फिर उभरकर सामने आई है. इतिहास के अलग अलग दौर में उभरती हुई ताक़तें संप्रभुता की परिचर्चा को अपने अपने तरीक़े से छेड़ती आई हैं. 19वीं सदी में जब अमेरिका की ताक़त बढ़ रही थी, तो उसकी संप्रभुता के विस्तार कोतय नियतिकहकर उस वक़्त जायज़ ठहराया गया था, जब अमेरिका ने मेक्सिको के 55 फ़ीसद इलाक़े को अपने में मिला लिया था. इनमें अमेरिका के मौजूदा सूबों कैलिफोर्निया, नेवादा, यूटा, न्यू मेक्सिको, एरिज़ोना, कोलोराडो के अलावा ओक्लाहोमा, कंसास और व्योमिंग राज्यों के कुछ हिस्से भी शामिल हैं. 20वीं सदी में विकासशील देशों की ज़्यादातर संप्रभुता को उपनिवेशवाद के तौर पर बिना किसी हिसाब किताब के पश्चिम के हवाले कर दिया गया था. पिछली सदी के आख़िर में और मौजूदा सदी की शुरुआत से ही भूमंडलीकरण ने सुनिश्चित किया कि कई मामलों में संप्रभुता देशों की सीमाओं से परे हो चुकी थी. कुछ लोगों ने तर्क दिया कि संप्रभुता को हम जिस तरह से देखते थे, वो समाप्त हो चुकी है. बहुत से देशों ने दोहरी नागरिकता देनी शुरू कर दी. पूरब से पश्चिम की ओर अप्रवास बढ़ा और इंटरनेट द्वारा अकल्पनीय सरहदों की दीवारें गिरा देने की वजह से दुनिया के तमाम हिस्सों में रहने वाले लोगों के बीच आपसी संपर्क बढ़ गया. इसका लाभ भारत और कनाडा के रिश्तों को भी हुआ, जिसकी वजह से आज 21वीं सदी के राष्ट्रों की अवधारणा की पहचान बन चुके सांस्कृतिक और नस्लीय परिवर्तन भी हुए. हालांकि आज चूंकि देशों के बीच संप्रभुता की चिंताएं वक़्त के साथ साथ और गहरी जड़ें जमा चुकी है, तो इसने अपने स्याह पहलू को भी उजागर किया है. कनाडा और भारत के बीच मौजूदा विवाद की एक बड़ी वजह संप्रभुता से जुड़ा ये स्याह पहलू ही है.

 कनाडा और भारत के बीच हाल के समय में हुए कूटनीतिक टकराव ने तनाव बढ़ा दिया है और इसकी वजह से दोनों देशों ने एक दूसरे के राजनयिकों को अपने अपने यहां से निष्कासित कर दिया, जिससे दोनों देशों के आपसी संबंधों के भविष्य पर सवालिया निशान खड़ा हो गया

भारत की संप्रभुता के लिए ख़तरा समझे जाने वाले तत्वों को कनाडा जिस तरह पनाह दे रहा है, वो इस बात का आदर्श उदाहरण कि कनाडा का घरेलू उदारवाद किस तरह से पटरी से उतर गया है. दूसरे देशों में अपराध करके कनाडा में पनाह लेने वालों को संरक्षण देने के लिए आज लोकतांत्रिक आज़ादी का मुखौटा पहनाया जा रहा है. देशों की संप्रभुता को लेकर इक्कीसवीं सदी की परिचर्चाएं संप्रभुता के देशों से हटकर व्यक्तियों के हाथ में जाने पर केंद्रित थीं. लेकिन, जब हम इसे देशों के बीच आपसी रिश्तों की नज़र से देखते हैं, तो व्यक्तियों की संप्रभुता की दावेदारी पर देशों की संप्रभुता को तरज़ीह मिल जाती है. किसी भी इंसान के संप्रभु अधिकार असल में किसी देश की अपनी संप्रभुता की हिफ़ाज़त करने और उसे जताने की क्षमता पर निर्भर करती है, फिर वो चाहे देश के भीतर हो या फिर देश के बाहर. भारत और इसके सिख समुदाय ने खालिस्तान आंदोलन को पीछे छोड़ दिया है और आगे की तरफ़ बढ़ रहे हैं. वहीं कनाडा में ये आंदोलन सुलग रहा है. इसी से दोनों लोकतांत्रिक देशों के बीच असंतुलन का अंदाज़ा हो जाता है. ये मतभेद तब और बढ जाते हैं जब मौजूदा हालात कनाडा के उदारवादी सत्ताधारी वर्ग और मुख्य रूप से उसकी लिबरल पार्टी की राजनीति के ख़िलाफ़ होते हैं.

 भारत और कनाडा के बीच बढ़ती सियासी दूरी शक्ति के बदलते आयाम और देशों की उस पर प्रतिक्रिया के लिहाज़ से भी एक सबक़ सिखाने वाला है. आधुनिक देश और विशेष रूप से भारत जैसे देश जो दुनिया में अपने बढ़ते दबदबे को लेकर सजग हैं, वो अधिक आक्रामक विदेश नीति के रास्ते पर चल रहे हैं, जिसमें पारंपरिक और अपेक्षित नरम कूटनीतिक संवाद पर राष्ट्रीय अखंडता को प्राथमिकता दी जाती है.

हालात बदल गए हैं

 आज भारत ने ज़्यादातर मामलों में कनाडा को पीछे छोड़ दिया है. भारत, दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, जबकि कनाडा नौवें स्थान पर है. भारत ने 2022 में कनाडा को 5.37 अरब डॉलर के सामान का निर्यात किया था, जबकि कनाडा ने भारत को 4.32 अरब डॉलर की वस्तुओं का निर्यात किया. आज कनाडा में पढ़ रहे विदेशी छात्रों में सबसे ज़्यादा तादाद भारतीयों की है. आज कनाडा के संस्थानों में लगभग 6 लाख भारतीय छात्र पढ़ रहे हैं. कनाडा में भारतीय मूल के 14 लाख नागरिकों की मौजूदगी, दोनों देशों के रिश्तों में जटिलता का एक और पहलू जोड़ती है. आज कनाडा में भारतीय मूल के लोगों की उपस्थिति काफ़ी मज़बूत है. भारत और कनाडा के रिश्तों का अच्छा पहलू दिखाने वाले इन आंकड़ों के बावजूद, मौजूदा कूटनीतिक संकट उस असंतुलन को दिखाता है, जिसे शायद कनाडा स्वीकार करने को तैयार नहीं है. भारत और कनाडा के रिश्तों की दशा-दिशा तय करने वाले तत्व आज काफ़ी बदल गए हैं; भारत की बढ़ती ताक़त और प्रभाव पहले केविकसित और विकासशीलऔर पूरब पश्चिम के नैरेटिव को चुनौती देते हैं.

 आज जब दुनिया दोबारा संप्रभुता के दौर में दाख़िल हो रही है, तब देशों को ख़तरों के तेज़ी से बदल रहे स्वरूपों को समझने और इनसे निपटने के लिए तैयार रहना होगा.

मौजूदा भू-राजनीतिक मंज़र में भारत ने जो आक्रामक रुख़ अपनाया है, वो बहुत सोच-समझकर विदेश नीति में किए गए बदलाव का प्रतीक है, जिसे करना ज़रूरी था. आज भारत छुपे हुए ख़तरों के अलावा उन चुनौतियों के प्रति भी सक्रियता से जवाब दे रहा है, जो पारंपरिक प्रतिद्वंदिताओं से परे जाती हैं. इस विवाद की जड़ में संप्रभुता का सवाल है, जो दुनिया की मौजूदा भू-राजनीति में चल रही उथल-पुथल के पीछे की भी एक बड़ी वजह है. यूक्रेन में युद्ध और इज़राइल एवं हमास के बीच चल रहा संघर्ष ये रेखांकित करता है कि संप्रभुता की परिकल्पना केवल बुनियादी है बल्कि अंतरराष्ट्रीय संघर्षों की भी एक बड़ी वजह है, जो किसी देश के आक्रामक रवैये को आकार देने में राज्यवाद के अन्य सिद्धांतों पर अक्सर हावी हो जाती है. दुनिया भर में और ख़ास तौर से कनाडा और अमेरिका में रह रहे खालिस्तान समर्थकों के बीच आपसी तालमेल और अलगाववाद की फिर से उठती मांग आज भारत की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता के लिए चुनौती बनते जा रहे हैं. भारत, खालिस्तानी अलगाववादियों को अपनी संप्रभुता के लिए सीधी चुनौती के तौर पर देखता है, क्योंकि वो कनाडा की सीमा के भीतर रहकर एक नस्लवादी एजेंडे को बढ़ावा देते हैं. भारत की ऐसे तत्वों के प्रत्यर्पण और इस एजेंडे को बढ़ावा देने वालों के प्रति जवाबदेही की मांग केवल राजनीतिक दांव भर नहीं है, बल्कि अपनी राष्ट्रीय अखंडता के संरक्षण को लेकर एक वाजिब चिंता भी है. ये ऐसा जज़्बात है जिसको कनाडा को समझना ही होगा, ख़ास तौर से इसलिए और क्योंकि ख़ुद कनाडा भी क्विबेक जैसे सूबे में क्षेत्रीय अलगाववाद की चुनौती का सामना कर चुका है.

 कनाडा अक्सर अपने भीतर विरोध के सुरों को जगह देने के लिए गर्वोक्ति व्यक्त करता है. फिर भी वो संप्रभुता के लिए अंदरूनी चुनौतियों से निपटने और किसी देश की क्षेत्रीय अखंडता को चुनौती देने वाली बाहरी समस्या के बीच फ़र्क़ को स्वीकार करने से इनकार कर रहा है. हो सकता है कि कनाडा के नागरिक क्यूबेक क्षेत्र जैसी स्वायत्तता की अंदरूनी मांग को बर्दाश्त करने को अपने देश की ख़ूबी समझें. लेकिन, उन्हें ये समझना होगा कि बाहरी तत्वों की वजह से भारत की स्थिति जटिल है, जो किसी दूसरे देश की हौसला अफ़ज़ाई से और पेचीदा हो जाती है.

 अक्सर किसी देश की ताक़त और उसकी संप्रभुता की दावेदारी जताने के बीच सीधा संबंध होता है. आज जब दुनिया दोबारा संप्रभुता के दौर में दाख़िल हो रही है, तब देशों को ख़तरों के तेज़ी से बदल रहे स्वरूपों को समझने और इनसे निपटने के लिए तैयार रहना होगा. कनाडा के लिए भारत की अपनी संप्रभुता को लेकर वाजिब और वास्तविक चिंताओं को स्वीकार करने पर ही दोनों देशों के आपसी संबंधों का भविष्य टिका हुआ है. अगर कनाडा वैश्विक ताक़त के बदलते मंज़र की अनदेखी करता रहेगा, तो इससे भारत के साथ उसके रिश्तों को और नुक़सान होने का जोखिम पैदा होगा. फिर इनका असर केवल आपसी व्यापार और कूटनीति पर पड़ेगा, बल्कि ख़ुद कनाडा की एशिया में अपनी भूमिका पर पड़ेगा, जिसका दृष्टिकोण उसकी हिंद प्रशांत को लेकर रणनीति में नज़र आता है. इन बदलावों को स्वीकार करने में नाकामी से दोनों देशों के ऐतिहासिक संबंधों को भारी चोट पहुंचने का डर है. आज जब हम संप्रभुता के इस युग से गुज़र रहे हैं, तो ख़तरों के बदलते स्वरूपों के साथ साथ उभरती हुई ताक़तों द्वारा उनसे निपटने के तौर तरीक़ों में भी बदलाव आते दिखेंगे, ख़ास तौर से उन ख़तरों को लेकर, जो किसी देश की सीमा के बाहर मौजूद हों.

 

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