Author : Derek Grossman

Expert Speak Raisina Debates
Published on Mar 22, 2023 Updated 1 Days ago

रूस और अमेरिका के बीच मध्यस्थता करने और यूक्रेन संघर्ष को ख़त्म करने के लिए भारत से बेहतर स्थिति में कोई भी देश नहीं है.

यूक्रेन को लेकर अमेरिका-रूस के बीच भारत पुल का काम कर सकता है

भारत ने कोशिश की लेकिन नाकाम रहा. मार्च की शुरुआत में यूक्रेन संकट की निंदा के लिए दिल्ली में आयोजित G20 के विदेश मंत्रियों की बैठक के दौरान अमेरिका एवं उसको सहयोगियों और रूस एवं चीन के बीच सर्वसम्मति बनाने के लिए भारत की कूटनीतिक कोशिशों को लेकर ये एक त्वरित और ख़राब राय है. भारत के विदेश मंत्री सुब्रमण्यम जयशंकर ने ये कहते हुए इस बात को स्वीकार किया कि "हमने प्रयास किया लेकिन उन देशों के बीच फ़ासला बहुत ज़्यादा था."

भारत भले ही संघर्ष को लेकर महाशक्तियों के बीच मौजूदा तकरार की वजह से हिस्सेदार देशों को G20 का एक साझा घोषणापत्र जारी करने के लिए मनाने में विफल रहा लेकिन अमेरिका और रूस के बीच भविष्य में मध्यस्थता के लिए भारत की महत्वपूर्ण भूमिका को कम करके नहीं आंका जाना चाहिए. 

भारत भले ही संघर्ष को लेकर महाशक्तियों के बीच मौजूदा तकरार की वजह से हिस्सेदार देशों को G20 का एक साझा घोषणापत्र जारी करने के लिए मनाने में विफल रहा लेकिन अमेरिका और रूस के बीच भविष्य में मध्यस्थता के लिए भारत की महत्वपूर्ण भूमिका को कम करके नहीं आंका जाना चाहिए. वास्तव में इस बात पर विश्वास करने की अच्छी वजह है कि यूक्रेन समेत दोनों पक्षों को बातचीत की मेज पर लाने में किसी भी देश के मुक़ाबले भारत के पास सबसे अच्छा मौक़ा है. ये आख़िर में इस संघर्ष को ख़त्म करने की दिशा में बेहद अहम होगा.

मध्यस्थता की भूमिका के लिए भारत आदर्श रूप से उपयुक्त क्यों है?

1947 में स्वतंत्रता के समय से ही भारत ने गुटनिरपेक्ष विदेश नीति को बनाए रखा है. लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि भारत व्यावहारिक रूप से एक देश के ऊपर दूसरे देश का समर्थन करने से परहेज करता है. भारत की ये विदेश नीति सभी देशों के लिए खुले दरवाज़े की तरह है. मिसाल के तौर पर भारत के कूटनीतिक संबंध न केवल क्यूबा, ईरान और उत्तर कोरिया जैसे देशों के साथ हैं बल्कि अमेरिका के पक्के समर्थकों जैसे कि ऑस्ट्रेलिया, जापान और नेटो के साथ भी है. यूक्रेन युद्ध को लेकर बातचीत के संदर्भ में इस सामान्य तथ्य की वजह से भारत एक भरोसेमंद देश होगा क्योंकि उसने लगभग हर किसी के साथ बिना किसी पूर्व शर्त या संदेह के बातचीत का स्वागत किया है.

एक और कारण जिससे भारत की मध्यस्थता की भूमिका समझ में आती है, वो ये है कि यूक्रेन युद्ध में सबसे ज़्यादा शामिल दो महाशक्तियों रूस और अमेरिका के साथ भारत की बहुत अच्छी साझेदारी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने अपनी भू-राजनीति में "बहु गठबंधन" की शुरुआत करके गुटनिरपेक्षता की नीति को नया आयाम दिया है. ये वास्तव में एक प्रतिरक्षा की रणनीति है. कई देशों के साथ गठबंधन के ज़रिए भारत उन सभी देशों के साथ सहयोग को मज़बूत करके किसी एक महाशक्ति के जाल में फंसने से परहेज करना चाहता है. भारत को उम्मीद है कि महाशक्तियों के बीच मुक़ाबला तेज़ होने की स्थिति में ये दृष्टिकोण भारत की सामरिक स्वायत्तता को बनाए रखेगा. अभी तक भारत को इस मामले में काफ़ी सफलता मिली है.

भारत को उम्मीद है कि महाशक्तियों के बीच मुक़ाबला तेज़ होने की स्थिति में ये दृष्टिकोण भारत की सामरिक स्वायत्तता को बनाए रखेगा. अभी तक भारत को इस मामले में काफ़ी सफलता मिली है.

उदाहरण के लिए, चूंकि भारत ने यूक्रेन संकट की निंदा करने से इनकार कर दिया है तो रूस छूट के साथ कच्चे तेल का भारत का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता बन गया है. न सिर्फ़ एक तेज़ी से विकसित होते देश बल्कि अब दुनिया में सबसे ज़्यादा जनसंख्या वाले देश के तौर पर भी भारत की ऊर्जा से जुड़ी विशाल आवश्यकताओं पर विचार करते हुए ये कोई छोटी-मोटी कामयाबी नहीं है. वैसे तो पश्चिमी देश इस क़दम से बेचैन हैं लेकिन ये भारत को रूस के मामले में परिस्थितियों का काफ़ी फ़ायदा उठाने का अवसर भी देता है क्योंकि रूस पश्चिमी देशों की आर्थिक पाबंदी के बावजूद तेल बेचने के लिए बेकरार है. शीत युद्ध के समय से रूस के साथ भारत का पुराना और क़रीबी संबंध उसे बिना किसी पलटवार के महीन तौर पर रूस की नीतियों की आलोचना करने की अनुमति देता है. मिसाल के तौर पर पिछले साल इंडोनेशिया में आयोजित G20 शिखर सम्मेलन के दौरान मोदी ने रूस के राष्ट्रपति पुतिन की आंखों में आंख डालते हुए कहा था “आज का युग युद्ध का युग नहीं है और मैंने आपसे इसको लेकर फ़ोन पर बात की थी.”

अमेरिका के साथ भारत की साझेदारी कम-से-कम उतनी ही मज़बूत है जितनी कि रूस के साथ है और कहा जाता है कि ये दोनों देशों के संबंधों के इतिहास में सबसे अच्छा है. 2014 में मोदी के सत्ता में आने के बाद भारत ने अमेरिका के साथ मज़बूत रिश्तों को प्राथमिकता दी है. इसका मुख्य उद्देश्य पूरे इंडो-पैसिफिक के साथ-साथ भारत को चीन से अलग करने वाली सीमा की विवादित ज़मीन को लेकर चीन की बढ़ती हठधर्मिता थी. 2017 में डोकलाम- जो कि चीन, भारत और भूटान के बीच भू-सामरिक तौर पर संवेदनशील ट्राई-जंक्शन सीमा है- में चीन के द्वारा सड़क निर्माण का नतीजा भारत और चीन की सेना के बीच महीने भर के लंबे सैन्य गतिरोध के रूप में निकला. इसने मोदी के द्वारा अमेरिकी समर्थन का स्वागत करने में बढ़ोतरी की. बाद में उसी साल भारत चीन का मुक़ाबला करने के लिए क्वॉड- समान विचार वाले लोकतांत्रिक देशों के बीच एक सुरक्षा संवाद जिसमें ऑस्ट्रेलिया, जापान और अमेरिका शामिल हैं- को दोबारा शुरू करने के लिए सहमत हुआ. जून 2020 में भारत के द्वारा नियंत्रित क्षेत्र गलवान घाटी में चीन के सैनिकों की तैनाती, जिसका नतीजा कई दशकों में सबसे खूनी संघर्ष के रूप में निकला, के बाद बहुपक्षीय एवं द्विपक्षीय सहयोग बना हुआ है.

रूस और अमेरिका के साथ मज़बूत रिश्तों के आगे भारत अपने आप में एक उभरती महाशक्ति है. इसका मतलब ये है कि रूस और अमेरिका के साथ-साथ चीन, पश्चिमी यूरोप के देश और दूसरे देश युद्ध को लेकर भारत के रवैये को गंभीरता से लेते है. जैसा कि अभी तक G20 की कार्यवाहियों ने दिखाया है, भारत अब समूचे विकासशील दुनिया की आवाज़ और अंतरात्मा है. मार्च की शुरुआत में विदेश मंत्रियों की बैठक के दौरान अपने शुरुआती भाषण में मोदी ने वैश्विक शासन व्यवस्था की नाकामी पर अफ़सोस जताया और कहा कि “हमें ये स्वीकार करना चाहिए कि इस विफलता के भयंकर नतीजे का सामना सबसे ज़्यादा विकासशील देश कर रहे हैं.” उन्होंने ये भी कहा कि “हमारी ज़िम्मेदारी उनकी तरफ़ भी है जो इस कमरे में नहीं है. कई विकासशील देश अपने नागरिकों के लिए खाद्य और ऊर्जा सुरक्षा को सुनिश्चित करने समय भारी-भरकम कर्ज़ के बोझ से जूझ रहे है.”

यूक्रेन संघर्ष में विकासशील दुनिया मायने रखती है क्योंकि इसमें दुनिया के बहुतायत देश शामिल है जिनमें से कई देश महाशक्तियों के बीच भू-सामरिक प्रतिस्पर्धा के निशाने पर है. संघर्ष की शुरुआत के समय से संयुक्त राष्ट्र में वोटिंग पैटर्न को देखें तो वो पश्चिमी देशों की अगुवाई में आर्थिक प्रतिबंध के ख़िलाफ़ हैं लेकिन ये भी मानते है कि रूस को अपने पड़ोसी पर हमला नहीं करना चाहिए था और उसे युद्ध से पहले की स्थिति को बहाल करना चाहिए. भारत इस संतुलित दृष्टिकोण को प्रस्तुत करता है जो कि भविष्य के शांति समझौते के सुर और रूप-रेखा को निर्धारित करता है.

"भारत मध्यस्थता में शामिल होने को लेकर बहुत उत्साही नहीं लगता है क्योंकि ये भारत की लड़ाई नहीं है. पिछले साल जयशंकर ने ज़ोर देकर कहा था कि “यूरोप को इस मानसिकता से आगे बढ़ना होगा कि यूरोप की समस्याएं पूरे विश्व की समस्याएं है लेकिन विश्व की समस्याएं यूरोप की समस्याएं नहीं है.”

अंत में, संघर्ष में मध्यस्थता करने के मामले में भारत की तरह अच्छी स्थिति में कोई भी देश नहीं है. उदाहरण के तौर पर, विकासशील देश का प्रतिनिधित्व करने के मामले में भारत के इकलौते असली प्रतिस्पर्धी चीन ने स्पष्ट रूप से रूस के पीछे पूरी ताक़त लगा दी है. इस तरह चीन की बातें, जैसे कि हाल ही में प्रकाशित 12 सूत्रीय यूक्रेन शांति योजना, काफ़ी पक्षपाती बन गई हैं. युद्ध की शुरुआत के समय इंडोनेशिया और इज़रायल ने भी यूक्रेन और रूस के बीच कूटनीतिक समाधान का प्रयास किया था. लेकिन दोनों देशों की कोशिशें नाकाम हो गईं जिसकी वजह काफ़ी हद तक ये थी कि न तो पुतिन, न ही यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदीमीर ज़ेलेंस्की बातचीत करने के लिए तैयार थे. हालांकि इसकी एक वजह ये भी थी कि न तो इंडोनेशिया, न ही इज़रायल रूस को लेकर अपनी परिस्थिति का फ़ायदा उठाने की स्थिति में थे. नेटो का साथी तुर्किए रूस और यूक्रेन को शांति वार्ता शुरू करने के लिए प्रेरित कर रहा है लेकिन तुर्किए के साथ दिक़्क़त ये है कि वो रूस को उकसाने के लिए पश्चिमी देशों पर आरोप भी लगाता है और फिलहाल भूकंप के बाद की स्थिति से निपटने में व्यस्त है. ऐसा देश जिसके रूस और अमेरिका- दोनों के साथ शानदार संबंध है वो है वियतनाम. लेकिन वियतनाम पूरी तरह से इस मुद्दे पर अलग है और उसने इस युद्ध से जुड़े संयुक्त राष्ट्र के लगभग सभी प्रस्तावों पर अनुपस्थित रहने का फ़ैसला लिया. दूसरे देश भी दिमाग़ में आ सकते हैं लेकिन वास्तविकता यह है कि कोई भी देश भारत की तरह बिल्कुल फिट नहीं बैठता.

निस्संदेह एक प्रमुख चुनौती ये है कि भारत मध्यस्थता में शामिल होने को लेकर बहुत उत्साही नहीं लगता है क्योंकि ये भारत की लड़ाई नहीं है. पिछले साल जयशंकर ने ज़ोर देकर कहा था कि “यूरोप को इस मानसिकता से आगे बढ़ना होगा कि यूरोप की समस्याएं पूरे विश्व की समस्याएं है लेकिन विश्व की समस्याएं यूरोप की समस्याएं नहीं है.” लेकिन कुछ हफ़्ते पहले G20 के वित्त मंत्रियों की बैठक के दौरान भारत ने साफ़ तौर पर चीन और रूस को पिछले साल के G20 शिखर सम्मेलन के दौरान के बाली घोषणा पत्र को फिर से दोहराने के लिए काफ़ी संगठित कोशिश की जो उत्साहजनक है. बाली घोषणा पत्र में सभी देशों से कहा गया है कि वो “अंतरराष्ट्रीय क़ानून और बहुपक्षीय प्रणाली को बनाए रखें जो शांति और स्थिरता की रक्षा करती है” और कहा गया है कि “परमाणु हथियारों का इस्तेमाल या इस्तेमाल की धमकी स्वीकार्य नहीं है. संघर्षों का शांतिपूर्ण समाधान, संकटों के समाधान की कोशिशों के साथ-साथ कूटनीति और संवाद महत्वपूर्ण है. आज का युग युद्ध का नहीं होना चाहिए.”

घोषणापत्र का अंतिम वाक्य पूरी तरह से मोदी के द्वारा पुतिन को दी गई सलाह से आया था जो एक बार फिर इस बात को दोहराता है कि कम-से-कम पिछले साल भारत की स्थिति वास्तव में अंतर्राष्ट्रीय सर्वसम्मति की थी. वर्तमान समय और इस साल सितंबर में G20 शिखर सम्मेलन के बीच इस मंच के अध्यक्ष के रूप में भारत को इस बात की प्रेरणा मिलेगी कि वो एक सर्वसम्मति बनाए और आख़िर में एक साझा घोषणापत्र जारी करें. ये भारत को अपनी प्राथमिकताओं की परवाह किए बिना मध्यस्थता की भूमिका में धकेल देगा.

एक और बड़ी समस्या पूरी तरह भारत के नियंत्रण से बाहर प्रतीत होती है: सिर्फ़ और सिर्फ़ पुतिन ही ये तय करेंगे कि शांति कब लानी है. लेकिन ये मुमकिन है कि सितंबर तक सर्द मौसम के आने से पहले रूस का आक्रमण और यूक्रेन का जवाबी आक्रमण कमज़ोर पड़ने लगेगा. इससे G20 शिखर सम्मेलन के दौरान बातचीत का एक अवसर हासिल होगा. अगर भारत के पास ये अवसर है तो उसे विश्व शांति के हित में इसका भरपूर फ़ायदा उठाने की कोशिश करनी चाहिए.

विदेश नीति को लेकर भारत का अति-यथार्थवादी दृष्टिकोण अमेरिका और रूस के बीच एक पुल की तरह काम करने से प्रभावित नहीं होगा. इसके विपरीत अगर युद्ध को ख़त्म करने में सीमित सफलता भी मिलती है तो ये उभरती महाशक्ति के रूप में भारत की विश्वसनीयता में बढ़ोतरी करेगी, भारत ऐसी महत्वपूर्ण उपलब्धि को हासिल करने में सक्षम बनेगा जिसे अन्य देश नहीं कर पाए. केवल ये संभावना ही भारत को अपनी गतिविधि में तेज़ी लाने के लिए काफ़ी है.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.