Author : Sohini Nayak

Published on Jul 14, 2022 Updated 0 Hours ago
भारत-भूटान जलशक्ति सहयोग: मौजूदा स्थिति का आकलन

भारत और भूटान के बीच सहयोग के लगभग सभी क्षेत्रों में विशेष द्विपक्षीय संबंध बेहद महत्वपूर्ण है. इनमें बेहद प्रासंगिक जलविद्युत का उत्पादन भी शामिल है. हिमालय में बसे इस साम्राज्य की पहली पंचवर्षीय योजना की शुरुआत यानी 60 के दशक से उसका पड़ोसी देश भारत वहां की बिजली परियोजनाओं से जुड़े समझौतों को सफलतापूर्वक पूरा करने में खुले दिल से योगदान कर रहा है. इसका आरंभ 1961 के जल्धाका समझौते से हुआ था. इस मेलजोल का नतीजा ऐतिहासिक प्रस्तावों जैसे कि 1987 में 336 मेगा वॉट (MW) की चुखा जलविद्युत परियोजना की शुरुआत के रूप में निकला. ये समुद्र से दूर देश भूटान का पहला मेगा प्रोजेक्ट था जिसके लिए फंड का पूरा इंतज़ाम भारत सरकार ने किया था. 60 प्रतिशत फंड जहां अनुदान के रूप में दिया गया था वहीं 40 प्रतिशत फंड कर्ज़ के तौर पर जिसका भुगतान प्रोजेक्ट शुरू होने के बाद अगले 15 वर्षों में 5 प्रतिशत की ब्याज दर से किया जाना था. उस वक़्त से दोनों देशों ने जलविद्युत के क्षेत्र में सहयोग के समझौते (जुलाई 2006) के साथ एक-दूसरे के प्रति भरोसा मज़बूत किया है. इस समझौते में दूसरी परियोजनाओं के लिए रूप-रेखा निर्धारित की गई है. 

पहले प्रस्ताव को लेकर जहां भारत सरकार ने बांध के निर्माण की व्यावहारिकता के बारे में जवाब नहीं दिया है, वहीं दूसरा प्रस्ताव मुख्य रूप से निर्माण और पूंजी के साथ-साथ हिस्सेदारों के बीच ज़िम्मेदारियों के बंटवारे, समाधान की ज़रूरत और तत्काल रूप से लागू करने को लेकर विवाद में फंसा हुआ है.

लेकिन वक़्त बीतने के साथ इस क्षेत्र में सहयोग के मानदंड का मॉडल ख़त्म होने लगा है. भूटान की राष्ट्रीय परिषद की दलील है कि इसका एक सबसे सामान्य कारण पहले से निर्माणाधीन परियोजनाओं को पूरा करने में देरी और तय समय से काफ़ी आगे जाना रहा है जिसकी वजह से परियोजना की लागत में भी काफ़ी बढ़ोतरी होती है. इसका सबसे ताज़ा उदाहरण पुनातसांगचू I जलविद्युत परियोजना और खोलोंगचू जलविद्युत परियोजना- जो ड्रक ग्रीन पावर कॉरपोरेशन और भारत की सतलुज जल विद्युत निगम लिमिटेड के बीच पहला संयुक्त उपक्रम है- हैं जो अपने निर्धारित समय पर पूरा होने में असफल रही हैं. पुनातसांगचू I जलविद्युत परियोजना को 2016 में पूरा होना था और इसकी शुरुआती लागत 35.148 अरब नेगुलत्रम (भूटानी मुद्रा) थी लेकिन अब ये बढ़कर 93.756 अरब नेगुलत्रम हो गई है. इसी तरह खोलोंगचू जलविद्युत परियोजना को 2020 में पूरा होना था और इसकी शुरुआती लागत 33.05 अरब नेगुलत्रम थी जो कि बढ़कर 54.818 अरब नेगुलत्रम हो गई. 

भूटान की नेशनल असेंबली में वित्तीय वर्ष 2022-23 के लिए बजट विनियोग विधेयक पर चर्चा से ये सामने आया कि गतिरोध की वजह दोनों पड़ोसी देशों के बीच आम राय की कमी है. पहले प्रस्ताव को लेकर जहां भारत सरकार ने बांध के निर्माण की व्यावहारिकता के बारे में जवाब नहीं दिया है, वहीं दूसरा प्रस्ताव मुख्य रूप से निर्माण और पूंजी के साथ-साथ हिस्सेदारों के बीच ज़िम्मेदारियों के बंटवारे, समाधान की ज़रूरत और तत्काल रूप से लागू करने को लेकर विवाद में फंसा हुआ है. इस तरह स्पष्ट रूप से अनुकूल भारत-भूटान जलविद्युत सहयोग पर न सिर्फ़ मौजूदा समय में ख़तरा है बल्कि चीन के द्वारा इसी तरह के जलविद्युत निवेशों से भी चुनौती मिल रही है जिसका समर्थन चीन समर्थक भूटान के कारोबारी तेज़ आर्थिक विकास के लिए कर रहे हैं. 

तात्कालिक कारण

भूटान ने हमेशा से अपने समृद्ध जल संसाधनों को निवेश के लिए एक बेहद महत्वपूर्ण क्षेत्र के रूप में माना है. इस बात को ‘भूटान 2020: शांति, समृद्धि और ख़ुशी के लिए एक नज़रिया’ में भी बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया गया है. लेकिन 30,000 मेगा वॉट की जलविद्युत शक्ति की सैद्धांतिक संभावना के बावजूद तकनीकी-आर्थिक रूप से ये क्षमता 23,675 मेगा वॉट पर अटकी हुई है. इस तरह भूटान को अपनी जलविद्युत क्षमता को पूरा करने के लिए मदद की ज़रूरत है. 

विश्व बैंक ने भूटान की जीडीपी के मुक़ाबले विदेशी कर्ज़ को 99 प्रतिशत निर्धारित किया और इस प्रकार भूटान की गिनती विश्व के 73 निम्न और मध्यम आय वाले देशों में 10 सबसे ज़्यादा कर्ज़दार देशों के रूप में की गई. इसलिए अगर भारत ने सावधानी से क़दम आगे नहीं बढ़ाया तो उस पर ये निशाना साधा जा सकता है कि वो कर्ज़ का जाल बिछाता है.

इस परिदृश्य में भूटान ने हमेशा से ख़ुद के फ़ायदे में भारत को एक साझेदार के तौर पर देखा है लेकिन कुछ वर्ष पहले भूटान को ये एहसास हुआ कि भारत के साथ साझेदारी वाली परियोजनाओं में न सिर्फ़ देरी हो रही है बल्कि धीरे-धीरे भारी मात्रा में कर्ज़ भी बढ़ता जा रहा है. इसके अलावा भारत सस्ती दर पर बिजली ख़रीद रहा है. पहली बात ये कि दोनों पड़ोसी देश बिजली की दर के मुद्दे पर उचित रूप से बातचीत करने में सक्षम नहीं रहे हैं, भूटान से ख़रीदी जाने वाली बिजली की दर औसतन कम रही है. भूटान के द्वारा अक्सर ये बात उठाई जाती रही है कि भारत के द्वारा भूटान से ख़रीदी जाने वाली बिजली का बाज़ार मूल्य भारत में उपलब्ध घरेलू जलविद्युत के मुक़ाबले सस्ता है. दूसरी बात ये कि 2017 में मांगदेछू, पुनातसांगचू I और II परियोजनाओं को लेकर भूटान पर भारत का कर्ज़ लगभग 12,300 करोड़ भारतीय रुपया था जो कि भूटान के कुल कर्ज़ के 77 प्रतिशत के बराबर और भूटान की जीडीपी के 87 प्रतिशत के बराबर था. इसी तरह विश्व बैंक ने भूटान की जीडीपी के मुक़ाबले विदेशी कर्ज़ को 99 प्रतिशत निर्धारित किया और इस प्रकार भूटान की गिनती विश्व के 73 निम्न और मध्यम आय वाले देशों में 10 सबसे ज़्यादा कर्ज़दार देशों के रूप में की गई. इसलिए अगर भारत ने सावधानी से क़दम आगे नहीं बढ़ाया तो उस पर ये निशाना साधा जा सकता है कि वो कर्ज़ का जाल बिछाता है. ये उसी तरह की आलोचना है जैसी कि बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव की वजह से चीन की होती है. 

ज़्यादा विस्तार से कहें तो भूटान के द्वारा पिछले दशक से जिस वित्तीय बोझ का सामना किया जा रहा है, वो स्पष्ट है. इसकी वजह ये है कि भूटान का साझेदार भारत शुरुआती 60:40 के मॉडल (जिसमें 60 प्रतिशत अनुदान और 40 प्रतिशत कर्ज़ होता था) से हटकर 30:70 के मॉडल (जिसमें 30 प्रतिशत अनुदान और 70 प्रतिशत कर्ज़ होता है) पर पहुंच गया है. इस मॉडल को पुनातसांगचू परियोजना को छोड़कर 2020 तक पूरा होने वाली सभी परियोजनाओं पर लागू कर दिया गया. पुनातसांगचू परियोजना को पुराने मॉडल के मुताबिक़ रहने दिया गया. ब्याज़ दर काफ़ी ज़्यादा होने और प्रति यूनिट बिजली की बिक्री से शुद्ध लाभ कम होने के साथ जलविद्युत क्षेत्र के व्यावसायिक मुनाफ़े पर सवाल खड़े होने लगे हैं. इसके साथ-साथ भारत ने भूटान की आगामी जलविद्युत परियोजनाओं में 51 प्रतिशत स्वामित्व भी हासिल कर लिया है. इसकी वजह से भूटान के लोगों में भारत के असली इरादे को लेकर संदेह होने लगा है. इस संदेह का कारण मुख्य रूप से भूटान जैसे देशों में भारत के द्वारा विकास की सहायता के कार्यक्रम के हिस्से के तौर पर उसकी बेतुकी और विघटित रणनीति है. 

भूटान के चेंबर ऑफ़ कॉमर्स ने भी स्थानीय कंपनियों को बड़ी भूमिका देने और निर्णय लेने की स्थिति में लाने का मुद्दा उठाया है. एक बार फिर से ये बात कहना ज़रूरी है कि भले ही परियोजनाएं भूटान में स्थित हैं लेकिन उसमें बड़ी संख्या में भारतीय नागरिक काम कर रहे हैं. इसकी वजह से स्थानीय समुदाय के लोगों से रोज़गार के अवसरों को छीना जा रहा है.

इसके अलावा भूटान के लोगों के एक बड़े हिस्से के बीच जलविद्युत परियोजनाओं में भारत की भागीदारी को लेकर नकारात्मक भावना बढ़ती जा रही है. इसकी वजह ये है कि भूटान के लोगों को अक्सर ये लगता है कि भारत की प्राइवेट कंपनियों के शामिल होने के बाद उनके साथ दोयम दर्जे के भागीदारों की तरह सलूक किया जा रहा है. भूटान के लोगों के ऐसा महसूस करने का कारण ये है कि बड़े भारतीय हिस्सेदारों के मुक़ाबले भूटान की कंपनियों से छोटा-मोटा काम करवाया जाता है. भूटान के चेंबर ऑफ़ कॉमर्स ने भी स्थानीय कंपनियों को बड़ी भूमिका देने और निर्णय लेने की स्थिति में लाने का मुद्दा उठाया है. एक बार फिर से ये बात कहना ज़रूरी है कि भले ही परियोजनाएं भूटान में स्थित हैं लेकिन उसमें बड़ी संख्या में भारतीय नागरिक काम कर रहे हैं. इसकी वजह से स्थानीय समुदाय के लोगों से रोज़गार के अवसरों को छीना जा रहा है. 2015 में 60,000 भारतीय नागरिक मुख्य रूप से भूटान के जलविद्युत क्षेत्र में काम करने के लिए रह रहे थे. इन लोगों के अलावा 8,000 से लेकर 10,000 तक भारतीय नागरिक रोज़ाना खुली सीमा को पार करके काम करने के लिए भूटान जाते थे. 

निष्कर्ष 

कई विद्वानों ने ये दलील दी है कि 2020 तक परियोजनाओं को पूरा करने की समय सीमा वास्तविकता से दूर थी. इसकी वजह कोविड-19 महामारी, भूगर्भीय स्थिति और जलविद्युत परियोजनाओं के विकास के साथ जुड़ी दूसरी पर्यावरणीय मुश्किलों को बताया गया. लेकिन असली कारण पूरी तरह से एक-दूसरे की प्रतिबद्धताओं में कम होता भरोसा है, अतीत में सफलताओं के बावजूद पारस्परिक रूप से फ़ायदेमंद साझेदारी को लेकर घटता विश्वास है. लेकिन इस अविश्वास के बावजूद दोनों देशों के बीच राजनीतिक रूप से मज़बूत संपर्क उम्मीद की किरण है, दोनों देश 1947 से एक-दूसरे के साथ विशेष संबंध के बारे में जानते हैं. ऐसा ही एक उदाहरण मांगदेछू परियोजना है जिस पर भारत के मुक़ाबले भूटान को ज़्यादा अधिकार हासिल है. इस परियोजना में 70 प्रतिशत वित्तीय फंडिंग कर्ज़ के रूप में है और इसलिए भूटान बिजली के निर्यात मूल्य को तय कर सकता है. इस तरह की समझ प्राथमिक रूप से इस तथ्य पर आधारित है कि भारत ने वास्तव में भूटान की आर्थिक प्रगति में योगदान किया है, अक्सर भारत को भूटान के ऐसे साझेदार के रूप में बताया जाता है जिसने प्रति वर्ष प्रति एकड़ गंवाई गई ज़मीन पर 10,000 यूनिट की मुफ़्त बिजली की सुविधा दी है जिसका फ़ायदा आख़िरकार लोगों को मिलता है या फिर जो फायदा परियोजना की बिजली की निर्यात दर के मुताबिक़ नकदी में भी मिल सकता है. इससे छोटे पैमाने पर स्थानीय उद्योंगों को स्थापित करने में मदद मिली है और सीधे तौर पर भूटान की अर्थव्यवस्था में सहायता मिलती है. 

महामारी और सीमा पार से सामानों की आपूर्ति में रुकावट के बावजूद 2019 के मुक़ाबले 2020 में जलविद्युत परियोजनाओं से भूटान के राजस्व में 10 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है. ये नदियों में पानी के बेहतर प्रवाह और बिजली प्लांट के समय पर रखरखाव की वजह से संभव हो पाया था. इसलिए हर बात मुश्किल नहीं है और अगर परियोजनओं को लेकर मौजूदा देरी और द्विपक्षीय ग़लतफहमी को दूर कर दिया जाए तो हालात अनुकूल हो जाएंगे और आख़िर में इसका फ़ायदा आम लोगों को होगा जो इस संबंध में सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा हैं. लेकिन इसके साथ-साथ भूटान के लिए ये सही वक़्त है जब वो अपने पड़ोस के देशों जैसे कि बांग्लादेश में दूसरे मौक़ों के बारे में पड़ताल करे क्योंकि बांग्लादेश में भी बिजली की कमी है. बांग्लादेश में बिजली की मांग 2016 के 11,404 मेगा वॉट के मुक़ाबले 2030 तक तीन गुना बढ़कर 33,708 मेगा वॉट हो जाएगी. बांग्लादेश को कुछ हद तक बिजली का निर्यात करने के उद्देश्य से 1,125 मेगा वॉट की दोरजीलंग परियोजना को विकसित करने के लिए भारत, बांग्लादेश और भूटान के बीच त्रिपक्षीय समझौता वास्तव में “विदेशी मुद्रा में बाज़ार आधारित दर की व्यवस्था” को लेकर भूटान के और ज़्यादा खुलने में मदद कर सकता है. इस तरह भारत को भी इस तथ्य पर ज़रूर ध्यान देना चाहिए कि परियोजना में ज़्यादा देरी का नतीजा बेहतर द्विपक्षीय और तेज़ी से आगे बढ़ रहे जलविद्युत सहयोग के बहुपक्षीय मंच के लिए एक अवसर को गंवाने के रूप में निकल सकता है. 

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.