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25 दिसंबर 2023 को भारत के विदेश मंत्री डॉ. एस. जयशंकर ने रूस का पांच दिनों का दौरा किया. इस दौरान मास्को और सेंट पीटर्सबर्ग में कूटनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक जुड़ावों वाले व्यापक कार्यक्रम हुए.
संशयवादियों का तर्क है कि दोनों देशों के बीच सम्मिलनों का दायरा सिमट रहा है और स्थिरतापूर्ण रिश्ते गतिहीन हो गए हैं.
भारत-रूस रिश्तों की स्थिति की धारणा आशावादी और निराशावादी पूर्वाग्रह की परीक्षा बन गई है. आशावादी पर्यवेक्षक दोनों देशों के बीच सदाबहार दोस्ती, द्विपक्षीय रिश्तों में उल्लेखनीय स्थिरता और यूरेशिया में शक्ति संतुलन बरक़रार रखने की आपसी दिलचस्पी पर भरोसा करते हैं, जो दोनों देशों के भू-राजनीतिक दृष्टिकोणों को स्वाभाविक रूप से एकजुट करते हुए जोड़ती है. संशयवादियों का तर्क है कि दोनों देशों के बीच सम्मिलनों का दायरा सिमट रहा है और स्थिरतापूर्ण रिश्ते गतिहीन हो गए हैं. ख़ासतौर से इसलिए क्योंकि दोनों ही देश धीरे-धीरे एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वियों (अमेरिका और चीन) की ओर झुकते जा रहे हैं.
जयशंकर की रूस यात्रा कई मायनों में अद्भुत थी. पहला, रूस में इतना लंबा प्रवास (जिसमें राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से मुलाक़ात भी शामिल है) भारतीय अधिकारियों के लिए, ख़ासतौर से फ़रवरी 2022 (यूक्रेन युद्ध की शुरुआत) के बाद से एक दुर्लभ अभ्यास है. दूसरा, भले ही इस यात्रा का कार्यक्रम पहले से तय हो गया था, लेकिन भारत सरकार ने ऐन मौक़े पर ही इस दौरे का ऐलान किया. ये क़वायद यूक्रेन युद्ध के बाद के रुझान के मुताबिक है, जिसमें रूस के साथ भारत के कुछ राजनयिक और सैन्य संबंधों को छिपाया जा रहा है या उसे अर्द्ध-सरकारी दर्जा दिया जा रहा है. तीसरा, इस यात्रा के नतीजतन तीन समझौतों पर हस्ताक्षर हुए- कुडनकुलम परमाणु बिजली संयंत्र की नई इकाइयां तैयार करने; दवाओं और स्वास्थ्य के क्षेत्र में सहयोग पर; और 2024-2028 में विदेशी मामलों के मंत्रालयों के बीच परामर्शों को लेकर- हालांकि इन तमाम विषयों की केवल संक्षिप्त रूप से चर्चा की गई और इनका अधिक ब्योरा नहीं दिया गया है. चौथा, जयशंकर ने मास्को और सेंट पीटर्सबर्ग में रूसी विशेषज्ञों और विद्वानों के साथ चर्चा में अधिक ध्यान लगाया, जिससे दोनों देशों के बीच शैक्षणिक क्षेत्र में नए रास्ते खुल सकते हैं.
लगातार दूसरे वर्ष सालाना शिखर सम्मेलन का आयोजन नहीं होने की सूरत में जयशंकर की
लगातार दूसरे वर्ष सालाना शिखर सम्मेलन का आयोजन नहीं होने की सूरत में जयशंकर की यात्रा यक़ीनन रूसी नेतृत्व को ये भरोसा दिलाने की क़वायद थी कि भारत, रूस से अपना मुंह नहीं फेर रहा है. भारत-रूस बैठकों के अनेक सिद्धांतों- जैसे "रणनीतिक सम्मिलन", "आपसी फ़ायदों" वाले कार्य, साझा भूराजनीतिक हित, और बहुध्रुवीयता की क़वायद- से ऐसी धारणा बन सकती है कि दोनों देशों के बीच राजनीतिक आत्मीयता दोबारा पटरी पर आ गई है. हालांकि वास्तविकता अधिक पेचीदा लगती है.
वैसे तो भारत की बहु-रेखीय नीति और पश्चिम द्वारा अलग-थलग किए जाने की क़वायद से बच निकलने की रूसी जद्दोजहद के चलते दोनों देशों में क़रीबी संपर्क ज़रूरी हो जाता है, लेकिन भारत और रूस के लिए अपने रणनीतिक दृष्टिकोणों में बढ़ती खाई को पाटना बेहद मुश्किल होता जा रहा है. यूक्रेन में युद्ध के बारे में डॉ. जयशंकर से बात करते हुए पुतिन को सधे शब्दों का इस्तेमाल करना पड़ा और इसे "विश्व में जारी मौजूदा उथल-पुथल" और "हॉट स्पॉट्स" के तौर पर संदर्भित करना पड़ा. रूसी राष्ट्रपति ने भारत को "यूक्रेन के हालात" पर "अतिरिक्त जानकारी" मुहैया कराने की इच्छा दिखाई, ज़ाहिर तौर पर इसकी वजह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दृष्टिकोण को प्रभावित करने की उम्मीद थी. ये भोली-भाली क़वायद दिखाई देती है क्योंकि यूक्रेन पर भारत का रुख़ निरंतर तटस्थता भरा रहा है. ये कोई संयोग नहीं है कि रूस की अपनी यात्रा के कुछ ही दिनों बाद जयशंकर ने अपने यूक्रेनी समकक्ष देमित्रो कुलेबा के साथ फोन पर बातचीत की. इस दौरान उन्होंने न केवल युद्ध को लेकर यूक्रेन का परिप्रेक्ष्य सुना बल्कि "द्विपक्षीय सहयोग को आगे बढ़ाने पर चर्चा" भी की, जिनमें भारत-यूक्रेन अंतर-सरकारी आयोग में संभावित रूप से नई जान फूंकने का मसला भी शामिल है.
हिंद-प्रशांत एक और भू-क्षेत्र है जहां भारत और रूस अलग-अलग भाषाएं बोलते हैं. प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव "एशिया-प्रशांत के भीतर की प्रक्रियाओं" और "आसियान में प्राप्त सहमतियों के विपरीत" आगे बढ़ते क्षेत्रीय घटनाक्रमों को लेकर रूस की बेचैनी के बारे में अस्पष्ट ज़ुबान में बोल रहे थे. ज़ाहिर तौर पर ये क्वॉड और ऑकस के लिए अप्रत्यक्ष रूप से एक बार और फटकार थी, जो रूस और भारत के बीच क्षेत्रीय दृष्टिकोणों में निरंतर जारी भेद की ओर इशारा करती है.
फ़िलहाल, दोनों पक्षों ने ऊर्जा साझेदारी में एक आकर्षक मौक़ा ढूंढ लिया है. भारत के लिए मुद्रास्फीति कम करने, औद्योगिक विकास में रफ़्तार लाने और यूरोप को तेल उत्पादों का निर्यात स्थापित करने के लिहाज़ से रूसी कच्चे तेल का आयात उपयोगी रहा है. इससे रूस को भी अपना ख़ज़ाना दोबारा भरने में मदद मिली है. इस व्यवस्था के नतीजतन भारत-रूस व्यापार में अभूतपूर्व बढ़ोतरी हुई है, जो वित्त वर्ष 2022-2023 में (https://tradestat.commerce.gov.in/eidb/default.asp) तक़रीबन 50 अरब अमेरिकी डॉलर तक जा पहुंची, और वित्त वर्ष 2023-2024 में इसके और आगे निकल जाने की पूरी संभावना है. दोनों देशों के बीच उभरते ग्रे मार्केट के आंकड़ों से व्यापार कारोबार में कई अरब डॉलर की बढ़ोतरी हो सकती है.
भारत-रूस व्यापार समुद्री रास्तों से होने वाली आपूर्तियों के चलते फल-फूल रहा है.
ऊर्जा साझेदारी से परे आर्थिक रिश्तों का विकास अब भी सीमाओं से बंधा हुआ है. ग़ैर-तेल व्यापार, कुल व्यापार कारोबार का महज़ पांचवां हिस्सा है. रूस से भारत के तेल आयात में उतार-चढ़ाव की आशंका रहती है और अगर क़ीमतें भारतीय रिफ़ाइनरियों के लिए प्रतिकूल रहीं तो इसमें व्यापक रूप से कटौती की जा सकती है. रूस के साथ भारत के व्यापार में असंतुलन इतना गहरा है कि इसने देशों को रुपए-मूल्य में निर्दिष्ट व्यापार का एक कार्यकारी समझौता करने से रोक दिया है. दिरहम और युआन जैसी वैकल्पिक मुद्राओं का उपयोग अन्य ख़तरे साथ लाता है और स्थायी समाधान नहीं बन सकता. रूस को भारत का निर्यात उतार-चढ़ाव के साथ तक़रीबन 3-4 अरब अमेरिकी डॉलर पर बना हुआ है. ऐसे में भारत और यूरेशियाई आर्थिक संघ (EAEU) के बीच मुक्त व्यापार समझौता व्यवहार्य दिखाई नहीं देता. नए सिरे से शुरू वार्ता प्रक्रिया के लिए ये एक मसला है जो सात वर्षों से लंबित है. चूंकि भारत अपने उत्पादों के लिए बेहतर बाज़ार पहुंच की उम्मीद करता है, रूस इस बात पर ज़ोर दे रहा है कि भारत द्वारा EAEU मुक्त व्यापार क्षेत्र में शामिल होने के बाद ही ऐसा संभव हो सकेगा. इससे द्विपक्षीय व्यापार में जटिलता आ गई है, जिसमें भारत के निर्यातों के आगे बढ़ने की संभावनाएं काफ़ी कम हो गई हैं. द्वितीयक प्रतिबंधों का ख़तरा एक और मसला है जिसके चलते भारत के अनेक कारोबार इस झमेले में नहीं पड़ना चाहेंगे. पारंपरिक समझ के विपरीत, पर्याप्त कनेक्टिविटी का अभाव प्राथमिक बाधा नहीं है. भारत-रूस व्यापार समुद्री रास्तों से होने वाली आपूर्तियों के चलते फल-फूल रहा है. अंतरराष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारे (INSTC) के रेलवे बुनियादी ढांचे में सुधार, जल्द सड़ जाने वाले कुछ कार्गो के लिए वांछनीय हो सकता है, लेकिन व्यापार में बढ़ोतरी के लिए ये शायद ही प्रमुख शर्त है.
भारत और रूस जिन जटिलताओं से जूझ रहे हैं उन्हें भारतीय समुदाय के साथ बैठक में विदेश मंत्री जयशंकर की प्रतिक्रिया में बेहतरीन ढंग से बताया गया था: “फ़िलहाल बहुत ही असामान्य स्थिति है. हम सभी जानते हैं कि ये एक असामान्य स्थिति क्यों है. लेकिन तथ्य ये है कि […] हम आज उन तरीक़ों को ढूंढने की कोशिश कर रहे हैं जिनके ज़रिए [हमारे] बैंक एक दूसरे के साथ कामकाज करते हैं.” चूंकि इस ‘असामान्य स्थिति’ के लगभग दो वर्ष बीत चुके हैं, ज्वलंत सवाल ये है कि रूस के साथ अपने आर्थिक संबंधों को आगे बढ़ाने में भारत किस हद तक दिलचस्पी और प्रतिबद्धता रखता है.
रूस के साथ रिश्तों में आई रुकावट को दूर करना भारत के लिए सौदेबाज़ियों में आगे बढ़ने के कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण है.
भारत इस साझेदारी में उस स्तर पर निवेश करने के लिए उत्सुक दिखाई नहीं देता, जो पश्चिम के प्रमुख साझीदारों के साथ उसके जुड़ावों को बाधित कर दे. भारत को एहसास है कि रूस, ख़ासतौर से अगर चीन के साथ उसका मिलन हो जाए, अब भी खेल बिगाड़ने वाला ख़तरनाक खिलाड़ी बन सकता है. लिहाज़ा रूस का त्याग करना और उससे शत्रुता भारत के लिए फ़ायदे का सौदा नहीं है. इसके साथ ही, भारत की आर्थिक वृद्धि के लिए रूस निर्णायक किरदार नहीं है. रूस के साथ या उसके बग़ैर, भारत आने वाले वर्षों में आगे बढ़ता रहेगा और महत्वपूर्ण क्षेत्रों में साझेदारों और निवेशकों की पूरी श्रृंखला उसके साथ रहेगी. लिहाज़ा, रूस के साथ रिश्ते को गतिमान रखने का भारत का इरादा सुरक्षित पक्ष में बने रहने की क़वायद ज़्यादा है, ख़ासकर इसलिए क्योंकि अमेरिका-चीन के बीच बढ़ती रस्साकशी क़ाबू से बाहर हो सकती है. रूस के साथ रिश्तों में आई रुकावट को दूर करना भारत के लिए सौदेबाज़ियों में आगे बढ़ने के कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण है.
जब तक रूस युद्ध में है और उसपर प्रतिबंध का घेरा है, तब तक सबसे संभावित परिदृश्य ये है कि द्विपक्षीय सौदों का एक बड़ा हिस्सा बीच में ही अटका रहेगा और आख़िरकार कारगर नहीं होगा. भले ही भारत और रूस क़रीबी रिश्ते बरक़रार रखने के संकेत दे रहे हों, लेकिन संबंधों में किसी बदलाव की उम्मीद करना मुश्किल है.
अलेक्सेई ज़ाखारोव ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटेजिक स्टडीज़ प्रोग्राम के विज़िटिंग फेलो हैं.
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Aleksei Zakharov is a Fellow with ORF’s Strategic Studies Programme. His research focuses on the geopolitics and geo-economics of Eurasia and the Indo-Pacific, with particular ...
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