Author : Kabir Taneja

Expert Speak Raisina Debates
Published on Mar 12, 2024 Updated 0 Hours ago

इज़रायल के द्वारा श्रेणीबद्ध ढंग से हमास को ख़त्म करने के बाद भी इस बात की संभावना है कि ये संगठन दूसरे अवतार में फिर से खड़ा हो जाएगा.

आतंक के ख़िलाफ़ भारत और इज़रायल का अनुभव और आतंकी संगठनों को 'मात' देने का विचार

गाज़ा में हमास के ख़िलाफ़ इज़रायल का युद्ध, जिस अभियान के अब पांच महीने से ज़्यादा हो गए हैं, उग्रवादी और राजनीतिक इकाई के रूप में हमास को ख़त्म करने के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के प्रचारित मक़सद से जारी है. इसके अलावा नेतन्याहू ने इस संगठन को पराजित करने के लिएज़रूरत पड़ने पर पूरी दुनिया के ख़िलाफ़ खड़े रहनेकी शपथ ली है

7 अक्टूबर को इज़रायल के ख़िलाफ़ आतंकी हमले की गूंज अभी भी सुनाई दे रही है क्योंकि गज़ा के तेज़ी से सिकुड़ते इलाक़े में कई दर्जन इज़रायली बंधक अभी भी हमास की क़ैद में हैं. पिछले दिनों एक विश्लेषण में स्कॉलर और पूर्व सैनिक जॉन स्पेंसर ने दलील दी कि मौजूदा इज़रायली सैन्य अभियान की तुलना दूसरे सामरिक मोर्चों यानी यूक्रेन, इराक़ और सीरिया के हाल के उदाहरणों से लेकर दूसरे विश्व युद्ध जैसी ऐतिहासिक घटनाओं तक से करना बेकार है. दूसरे स्कॉलर जैसे कि लियोनार्ड वेनबर्ग और एरी पेरलाइगर का अनुमान है कि हमास के नेतृत्व को पकड़ने या उनकी हत्या से आतंकी संगठन का 30 प्रतिशतख़ात्माहुआ है. अपनी पड़ताल के समर्थन में वेनबर्ग और पेरलाइगर जो परिकल्पना (हाइपोथीसिस) पेश करते हैं वो ये है कि किसी भी आतंकी संगठन के इच्छित राजनीतिक उद्देश्यों के लिए नाकामी सबसे सामान्य नतीजा है. इस बीच दूसरे विद्वान जैसे कि जोसेफ स्टाइब भी सबक सीखने के लिए इतिहास पर बहुत ज़्यादा भरोसा करने के ख़िलाफ़ चेतावनी देते हैं. 

भारत इसी तरह से दूसरे संगठनों के साथ लश्कर-ए-तैयबा (LeT) और जैश-ए-मोहम्मद (JeM) जैसे पाकिस्तान प्रायोजित संगठनों से कई दशकों से सीमा पार आतंकवाद का सामना कर रहा है.

आतंकी संगठनों को ख़त्म करना या हराना एक विवादित विचार है. इतिहास में आतंकी या उग्रवादी समूहों के ऐसे कई उदाहरण हैं जिन्हें पूरी तरह से नहीं तो व्यावहारिकता से परे कमज़ोर किया जा चुका है. इज़रायल के लिए जहां हमास, फिलिस्तीनी इस्लामिक जिहाद (PIJ) और हिज़्बुल्लाह नज़दीकी और सीधे ख़तरे हैं, वहीं भारत इसी तरह से दूसरे संगठनों के साथ लश्कर--तैयबा (LeT) और जैश--मोहम्मद (JeM) जैसे पाकिस्तान प्रायोजित संगठनों से कई दशकों से सीमा पार आतंकवाद का सामना कर रहा है. 

भारत का अनुभव

भारत के भीतर देश में पले-बढ़े जिहादी संगठनों जैसे कि इंडियन मुजाहिदीन (IM) और स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (SIMI) ने अतीत में महत्वपूर्ण चुनौतियां पैदा की हैं. IM 2005 के दिल्ली बम ब्लास्ट के बाद सुर्खियों में आया जिसमें राजधानी के सबसे भीड़भाड़ वाले कुछ बाज़ारों में 60 से ज़्यादा लोगों की मौत हो गई और 200 से ज़्यादा लोग घायल हो गए. ये आतंकी हमला दिवाली त्योहार के दो दिन पहले हुआ जब सार्वजनिक जगहों में बहुत ज़्यादा भीड़ थी. पाकिस्तान से काम करने वाले LeT ने झूठे नाम माहेज़--इंक़्लाब से इस वारदात की ज़िम्मेदारी ली. ऐसा करके वो ये दिखाना चाहता था कि घरेलू स्तर पर भारत के जिहादी संगठनों के द्वारा क्षमता तैयार करने का रुझान बढ़ रहा है. इस तरह उसने IM को बचाने की विश्वसनीय कोशिश की. हालांकि IM को बेहतर ढंग से समझने के लिए (जो कि आसान काम नहीं है) सिमी में इसकी जड़ों और उन बुनियादी राजनीतिक घटनाओं को समझना महत्वपूर्ण है जिनके इर्द-गिर्द इसने अपनी गतिविधियों को तेज़ करने की उम्मीद की थी. दो प्रमुख घटनाएं हैं जिनको लेकर भारत में जिहादी समूह आज भी नैरेटिव बनाना जारी रखे हुए हैं: पहली घटना है दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद का विध्वंस और दूसरी घटना है 2002 में गुजरात राज्य में गोधरा सांप्रदायिक दंगा. वैसे भारत सरकार के द्वारा 2001 में सिमी पर पाबंदी लगाई गई थी (जिसे अदालत के द्वारा 2008 में कुछ समय के लिए हटाया गया था), वहीं IM पर 2010 में प्रतिबंध लगाया गया

सिमी की स्थापना 1977 में उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में मोहम्मद अहमदुल्लाह सिद्दीक़ी नाम के एक भौतिकी के छात्र के द्वारा की गई थी. सिद्दीक़ी बाद में पत्रकारिता एवं मीडिया में मास्टर और डॉक्टरेट करने के लिए अमेरिका गए. आधुनिक उत्तर प्रदेश का भूगोल इस्लाम की चरम व्याख्या के लिए नया नहीं है. उदाहरण के लिए, यहीं पर मदरसा दारुल उलूम देवबंद, जिसकी स्थापना 1866 में हुई थी, है जो सुन्नी देवबंदी इस्लामिक आंदोलन का घर बनता जा रहा है. तालिबान भी इस आंदोलन को मानने वालों में से है. दूसरी तरफ यूपी वही जगह है जहां ईरान के धार्मिक नेता अयातुल्लाह रुहोल्लाह मुसावी खुमैनी का परिवार कुछ समय के लिए रहा था. 1850 के आसपास अंग्रेजों के द्वारा तत्कालीन अवध साम्राज्य को मिलाने से पहले यहां फारसी मूल के इमामिया शिया मुसलमानों का शासन था

80 और 90 के दशक में फारस की खाड़ी पहले से ही विचारधारा, कट्टरपंथ और भारत के कानून से फरार चल रहे अपराधियों समेत संगठित अपराध का एक गढ़ था.

सिद्दीक़ी ने भारतीय समाज के भीतर और देश के मुख्यधारा के मीडिया की बातचीत में मुसलमानों के ख़िलाफ़ पक्षपात का समाधान करने के लिए विपरीत नज़रिए (एंटीथेटिकल विज़न) के आधार पर सिमी की स्थापना की. लेकिन सिद्दीकी के अपने शब्दों में जिस सिमी की उन्होंने स्थापना की वो उस सिमी सेपूरी तरह अलगथा जो बाद में चर्चित हो गया क्योंकि जमात--इस्लामी-हिंद जैसे दूसरे संगठनों की पकड़ उस पर मज़बूत हो गई. IM के बारे में माना जाता है कि इसका गठन सिमी से अलग होने वाले समूह ने किया था. IM ने ज़्यादा कट्टर रास्ते को अपनाया. किसी भी पुराने हथियारबंद संगठन की तर्ज पर अपने मक़सद को आगे बढ़ाने के लिए IM ने फंड जमा करने और हथियारों तक पहुंच बनाने के लिए ख़ुद को संगठित अपराध के साथ मिला लिया. 80 और 90 के दशक में फारस की खाड़ी पहले से ही विचारधारा, कट्टरपंथ और भारत के कानून से फरार चल रहे अपराधियों समेत संगठित अपराध का एक गढ़ था. सिमी के भीतर कुछ समूह पैन-इस्लामिक मक़सदों से धीरे-धीरे जुड़ रहे थे. इस तरह ये संगठन पाकिस्तान के अलावा दूसरों के लिए भी आकर्षक बन रहा था

1981 में सिमी ने फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन (PLO) के तत्कालीन नेता यासिर अराफात, जो अक्सर भारत की यात्रा करते थे, के लिए समर्थन को लेकर मतभेदों की वजह से जमात के साथ अपने रिश्तों को ख़त्म कर लिया. सिमी के भीतर कम-से-कम कुछ गुटों का ये मानना था कि अराफात पश्चिमी देशों की कठपुतली हैं. इन मतभेदों के साथ 2002 के बाद सार्वजनिक रूप से ज़्यादा कार्रवाई ने सिमी के कई युवा सदस्यों को विकल्प की तलाश करने की तरफ मोड़ दिया. कथित तौर पर इस घटनाक्रम ने कश्मीर में लड़ाई के लिए तैयारी करने वाले पाकिस्तान समर्थित संगठनों और एक अधिक आज़ाद राह पर चलने की इच्छा रखने वाले संगठनों के लिए नौजवान विचारकों का एक आकर्षक समूह मुहैया कराया. 

तकनीकी तौर पर IM के ख़िलाफ़ कार्रवाई अभी भी जारी है और चुनौतियां इसी में हैं. IM के ढीले-ढाले संगठन और उससे भी ढीले वैचारिक और राजनीतिक उद्देश्यों की वजह से इस इकोसिस्टम को ध्वस्त करना एक हमेशा जारी रहने वाली प्रक्रिया बनी रह सकती है. 2022 में भारत सरकार ने अपने गैर-कानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम 1967 के तहत आतंकी संगठनों से संबंध रखने के आरोप में पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (PFI) पर पाबंदी लगा दी. 2006 में दक्षिण भारत के राज्य केरल में स्थापित PFI पर सिमी, जमात-उल-मुजाहिदीन बांग्लादेश और इस्लामिक स्टेट (ISIS या अरबी में दाएश) से संबंध रखने का आरोप है.  

IM के पूर्व सदस्यों और भारत के दूसरे आतंकी संगठनों के सदस्यों ने विदेशों जैसे कि अफ़ग़ानिस्तान में भी अपनी छाप छोड़ी है. उदाहरण के लिए, असीम उमर अल क़ायदा इन इंडियन सबकॉन्टिनेंट (AQIS) का अमीर (प्रमुख) बना. असीम उमर हरकत-उल-मुजाहिदीन (HuM) में शामिल होने के लिए 1995 में यूपी के संभल से पाकिस्तान गया था. वो 2014 में AQIS के गठन के समय से उसका प्रमुख था और 2019 में अमेरिकी-अफ़ग़ान बलों ने उसे मार गिराया

इंडियन मुजाहिदीन: द एनिमी विदिन के अंतिम अध्याय में इस बात पर प्रकाश डाला है कि एक संगठन के तौर पर IM भले ही अहम नहीं हो लेकिन उसका कैडर व्यापक आतंकी गतिविधियों का हिस्सा बना हुआ है. 

IM कैडर के बारे में ये भी माना जाता है कि वो ISIS में जा मिले जो IM की देवबंदी विचारधारा की तुलना में एक सलाफी संगठन है. स्कॉलर विक्रम राजकुमार इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि IM कैडर के द्वारा ISIS की तरफ विचारधारा में इस तरह का एकतरफा बदलाव दक्षिण एशिया, ख़ास तौर पर भारत, में जिहादी संगठनों के बर्ताव को देखते हुए एक महत्वपूर्ण क्षण है क्योंकि अतीत में उन्होंने ख़ुद को किसी विदेशी आतंकी संगठन के साथ विशेष रूप से नहीं जोड़ा था. ISIS और उसकी ख़िलाफ़त ने 2015-16 में अपने चरम पर रहने के दौरान दुनिया भर के देशों से लड़ाकों को आकर्षित करन के लिए मानकों को तोड़ दिया. पत्रकार शिशिर गुप्ता ने 2011 की अपनी किताब इंडियन मुजाहिदीन: एनिमी विदिन के अंतिम अध्याय में इस बात पर प्रकाश डाला है कि एक संगठन के तौर पर IM भले ही अहम नहीं हो लेकिन उसका कैडर व्यापक आतंकी गतिविधियों का हिस्सा बना हुआ है. उसे अक्सर पाकिस्तान से मदद मिलती है और वो भौगोलिक तौर पर अरब देशों की राजधानी से लेकर कराची और लाहौर जैसे शहरों तक पश्चिम और दक्षिण एशिया में मौजूद है. आख़िरकारघोस्ट (प्रेत)’ संगठनों के रूप में IM और सिमी के ख़िलाफ़ भारतीय सुरक्षा एजेंसियों की लड़ाई जारी है. हालांकि IM और सिमी का सिर्फ नाम ही बचा है जबकि उनकी मूल विचारधारा और सदस्य दूसरे संगठनों और इकाइयों में शामिल हो गए हैं (या व्यक्तियों, ठेकेदारों, फ्रीलांसर और संगठित अपराधियों के तौर पर).

अंतत: भारत के सुरक्षा संस्थानों के लिए काम करने वाली नीतियां वो हैं, जिन्हें स्कॉलर सेठ जी. जोन्स और मार्टिन सी. लिबिकी ने धारणात्मक रूप सेपुलिसिंगके तहत उजागर किया है. कानून और व्यवस्था के अभियानों के तहत एक धीमे और लंबे दृष्टिकोण ने कई सिमी और IM समर्थक मामलों को कोर्ट के सामने लाने और आख़िर में उन पर मुकदमा चलाने का काम किया. बहुत कम मामले सैन्य स्वरूप के थे. ये उतना ही रणनीतिक फैसला था जितना कि इस तथ्य से प्रेरित कि सरकार को अपने ही लोगों के एक बड़े हिस्से के ख़िलाफ़ युद्ध के लिए जाते हुए नहीं देखा जा सकता है. इसी तरह की सोच भारतीय सुरक्षा संस्थानों के द्वारा वामपंथी आतंकवाद के ख़िलाफ़ भी अपनाई गई है. इसमें भी समानांतर राजनीतिक रास्ता और यहां तक कि माफी और रोज़गार के बदले में आत्मसमर्पण की नीतियों के माध्यम से पुनर्वास के लिए जगह भी शामिल है. जब ज़रूरत पड़ती है तो रणनीतिक अभियान पारंपरिक सेना की जगह अर्धसैनिक बलों के द्वारा चलाया जाता है

निष्कर्ष

वैसे तो इज़रायल की भौगोलिक वास्तविकताएं बिल्कुल अलग हैं लेकिन रणनीतिक, सामरिक और यहां तक कि ऐतिहासिक रूप से पूरी तरह सेना के ज़रिए हमास को ख़त्म करने का उसका मौजूदा तरीका लंबे समय में कारगर नहीं हो सकता है. हमास जैसे प्रतिबंधित आतंकी संगठनों की दुनिया भर में निंदा की जाती है लेकिन दूसरी बातों समेतक्रांतिऔरउपनिवेशवाद ख़त्म करनेजैसे विचारों के इर्द-गिर्द अपने नैरेटिव को सफलतापूर्वक छिपाने से उन्हें फायदा मिलता है, विशेष रूप से 7 अक्टूबर के बाद. ये भारत के कश्मीर में उग्रवाद से बहुत ज़्यादा अलग नहीं है जहां आतंकी संगठन ख़ुद को सरकार के ख़िलाफ़ मसीहा के तौर पर पेश करते हैं लेकिन उनका मक़सद मुख्य रूप से सत्ता और नियंत्रण हासिल करना होता है. तुलना करें तो 2019 में पुलवामा आतंकी हमले के कुछ दिनों के बाद भारत के द्वारा पाकिस्तान के बालाकोट में जवाबी हमला भारत के पक्ष में (सफलतापूर्वक) बेहतर स्थिति बनाने के मक़सद से किया गया था. सरकार के आंकड़ों के मुताबिक अशांत कश्मीर में आतंकवादी घटनाओं में कमी आई है और ये 2018 के 228 से घटकर नवंबर 2023 तक 43 हो गई है

भारत के कश्मीर में उग्रवाद से बहुत ज़्यादा अलग नहीं है जहां आतंकी संगठन ख़ुद को सरकार के ख़िलाफ़ मसीहा के तौर पर पेश करते हैं लेकिन उनका मक़सद मुख्य रूप से सत्ता और नियंत्रण हासिल करना होता है. 

अंत में, भले ही 7 अक्टूबर को इज़रायल नाकाम हो गया था मगर आतंकवाद विरोधी अभियान चलाने या सुरक्षित देश बनाने में उसे दूसरों से उपदेश लेने की ज़रूरत नहीं है. हालांकि इस्लामिक आतंकवाद को लेकर अनुभव के मामले में इज़रायल और भारत के बीच समानताओं को ध्यान में रखते हुए इज़रायल के लिए एक महत्वपूर्ण नतीजा ये होगा कि वो इस बात का फिर से मूल्यांकन करें या सफाई दे कि वो हमास कीहारको कैसे परिभाषित करता है. इसे एक ही विचारधारा या घरेलू शिकायतों के इर्द-गिर्द बार-बार नए नाम से इकट्ठा होने वाले संगठनों से निपटने के भारत के तजुर्बे के संदर्भ में देखा जा सकता है. संक्षेप में कहें तो इज़रायल के द्वारा ऊपर से नीचे तक हमास को ख़त्म करने के बाद भी इस बात की संभावना है कि ये संगठन एक नए अवतार में फिर से खड़ा हो उठेगा और एक बार फिर फिलिस्तीन मुद्दे का इस्तेमाल सबसे आसानी से राजनीतिक और वैचारिक तौर पर फलने-फूलने के लिए करेगा.


कबीर तनेजा ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटेजिक स्टडीज़ प्रोग्राम में फेलो हैं

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