अगस्त 2021 में भारत ने एक महीने के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की ज़िम्मेदारी संभाल ली. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की प्रक्रिया के नियमों के मुताबिक़, परिषद की अध्यक्षता इसके 15 सदस्यों के बीच उनके नाम के पहले अक्षर के हिसाब से हर महीने बदलती रहती है. अगस्त 2021 के बाद, भारत को सुरक्षा परिषद की सदस्यता दोबारा दिसंबर 2022 में मिलेगी. भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने ज़ोर देकर कहा है कि भारत, अपनी अध्यक्षता के दौरान ‘अंतरराष्ट्रीय नियमों और आपसी बातचीत को बढ़ावा देने’ पर ज़ोर देगा. भारत ने इस महीने समुद्री सुरक्षा, शांति स्थापना और आतंकवाद निरोध पर उच्च स्तर की तीन विशेष बैठकें आयोजित करके अपनी प्राथमिकताएं भी ज़ाहिर कर दी हैं.
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के अध्यक्ष के पास प्रक्रिया संबंधी कई शक्तियां होती हैं: वो बैठकें बुलाकर उनकी अध्यक्षता कर सकते हैं. अस्थायी एजेंडे को मंज़ूरी दे सकते हैं. अध्यक्षीय बयान जारी कर सकते हैं और परिषद की बैठकों के रिकॉर्ड पर दस्तख़त कर सकते हैं. अपना कार्यकाल शुरू होने से पहले सुरक्षा परिषद के अध्यक्ष अगले एक महीने के दौरान किए जाने वाले कामों की योजना बनाते हैं. व्यवहार में तो अध्यक्ष देश की टीम संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के दूसरे सदस्यों से भी सलाह मशविरे करती है और नाश्ते पर होने वाली एक अनौपचारिक बैठक में कार्यक्रमों के ड्राफ्ट पर भी चर्चा होती है. इस महीने की कार्य योजना से पास-पड़ोस के क्षेत्रों से जुड़ी भारत की ज़रूरतें ज़ाहिर होती हैं. जैसे कि अफ़ग़ानिस्तान, सीरिया, सोमालिया और मध्य पूर्व के हालात और इस समय दुनिया भर में चल रहे संयुक्त राष्ट्र शांति मिशन की समीक्षा.
इस महीने की कार्य योजना से पास-पड़ोस के क्षेत्रों से जुड़ी भारत की ज़रूरतें ज़ाहिर होती हैं. जैसे कि अफ़ग़ानिस्तान, सीरिया, सोमालिया और मध्य पूर्व के हालात और इस समय दुनिया भर में चल रहे संयुक्त राष्ट्र शांति मिशन की समीक्षा.
पहले के कार्यकाल
ये पहली बार नहीं है, जब भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के अस्थायी सदस्य के तौर पर इसका अध्यक्ष बना है. 1945 में सुरक्षा परिषद की स्थापना के बाद से अब तक भारत 1950-51, 1967-68, 1972-73, 1977-78, 1984-85, 1991-92 और 2011-12 में दो साल के लिए सुरक्षा परिषद का अस्थायी सदस्य रहा है. जहां तक परिषद की अध्यक्षता की बात है, तो ये भारत का दसवां कार्यकाल है. सुरक्षा परिषद के अध्यक्ष के तौर पर भारत के पुराने कार्यकाल, परिचर्चा के विषय और उस दौरान पास किए गए प्रस्ताव नीचे की सारणी में दिए गए हैं. इन बैठकों में जिन विषयों पर चर्चा हुई उन्हें इस तरह से बांटा गया है: (1) राष्ट्रीय मसले जो किसी एक देश या क्षेत्र में ‘शांति और स्थिरता’ बनाए रखने से जुड़े हैं; (2) थीम पर आधारित मुद्दे, जो व्यापक विषयों पर चर्चा से जुड़े हैं जैसे कि रोकथाम वाली कूटनीति और शांति स्थापना. इन बैठकों के नतीजे ‘प्रस्तावों’ जो बाध्यकारी होते हैं और जिन्हें स्वीकार करने के लिए कम से कम नौ वोट चाहिए, जिन्हें स्थायी सदस्यों द्वारा वीटो न किया जाए और ‘अध्यक्षीय बयान’ में बांटे गए हैं. इन बयानों पर सुरक्षा परिषद के सभी सदस्यों के बीच सहमति और उनका समर्थन होना चाहिए.
जब अक्टूबर 1977 में भारत सुरक्षा परिषद का अध्यक्ष था, तो दक्षिण अफ्रीका की रंगभेदी सरकार की कड़े शब्दों में निंदा की गई थी. दक्षिण अफ्रीका पर भारत का ज़ोर इसलिए था, क्योंकि भारत ने ज़ुल्म, बेलगाम हिंसा और नस्लवाद के सख़्त ख़िलाफ़ रवैया अपना रखा था.
इससे पहले जब भारत सुरक्षा परिषद का अध्यक्ष रहा तो उस दौर की प्राथमिकताएं, तब की जियोपॉलिटिकल हालात की तस्वीर पेश करती थीं. मिसाल के तौर पर, जब अक्टूबर 1977 में भारत सुरक्षा परिषद का अध्यक्ष था, तो दक्षिण अफ्रीका की रंगभेदी सरकार की कड़े शब्दों में निंदा की गई थी. दक्षिण अफ्रीका पर भारत का ज़ोर इसलिए था, क्योंकि भारत ने ज़ुल्म, बेलगाम हिंसा और नस्लवाद के सख़्त ख़िलाफ़ रवैया अपना रखा था. इसके बाद, भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के अध्यक्ष के तौर पर लीबिया पर प्रस्ताव को स्वीकार कराया. इसके तहत, दक्षिण अफ्रीका को हथियार निर्यात करने पर बाध्यकारी प्रतिबंध लगाए गए. 1991 में भारत की अध्यक्षता के दौरान इराक़ और कुवैत के बीच युद्ध एजेंडे में शामिल किया गया. वहीं, 1992 में पूर्व युगोस्लाविया के विघटन पर सुरक्षा परिषद में विस्तार से परिचर्चा की गई थी.
गई थी।
टेबल: पूर्व में सुरक्षा परिषद के अध्यक्ष के तौर पर भारत के कार्यकाल पर एक नज़र
ध्यक्षता का साल |
बैठक के मुख्य मुद्दे |
प्रस्ताव और बयान |
जून 1950 |
राष्ट्रीय मुद्दे: कोरिया गणराज्य पर आक्रमण की शिकायत |
दो संकल्प (कोरिया गणराज्य) |
सितंबर 1967 |
– |
कोई संकल्प नहीं अपनाया |
दिसंबर 1972 |
राष्ट्रीय मुद्दे: नामीबिया और साइप्रस |
दो संकल्प (नामीबिया और साइप्रस) |
अक्टूबर 1977 |
राष्ट्रीय मुद्दे: दक्षिण अफ्रीका; फिलिस्तीनी जनता द्वारा अपने अटूट अधिकारों के इस्तेमाल का वाल |
एक संकल्प (दक्षिण अफ्रीका) |
फरवरी 1985 |
राष्ट्रीय मुद्दे: मध्य पूर्व; चाड |
कोई संकल्प नहीं अपनाया |
अक्टूबर 1991 |
राष्ट्रीय मुद्दे: कंबोडिया; साइप्रस; इराक और कुवैत के बीच की स्थिति |
चार प्रस्ताव (कंबोडिया, साइप्रस और इराक और कुवैत) |
दिसंबर 1992 |
राष्ट्रीय मुद्दे: सोमालिया; बोस्निया और हर्जेगोविना; पूर्व यूगोस्लाविया की स्थिति से संबंधित आइटम; साइप्रस; मोज़ाम्बिक; अंगोला; कब्जे वाले अरब क्षेत्रों की स्थिति
विषयगत मुद्दे: शांति के लिए एक एजेंडा: निवारक कूटनीति, शांति स्थापना और शांति स्थापना
|
छह संकल्प (सोमालिया, यूगोस्लाविया, साइप्रस, मोजाम्बिक, बोस्निया और हर्जेगोविना, अरब क्षेत्र)
चार राष्ट्रपति के बयान (अंगोला, कंबोडिया, शांति के लिए एक एजेंडा, बोस्निया और हर्जेगोविना)
|
अगस्त 2011 |
राष्ट्रीय मुद्दे: सोमालिया; मध्य अफ्रीकी क्षेत्र; फ़िलिस्तीनी प्रश्न सहित मध्य पूर्व की स्थिति; कोसोवो (सर्बिया); लीबिया
विषयगत मुद्दे: संयुक्त राष्ट्र शांति अभियान
|
एक संकल्प (मध्य पूर्व)
दो राष्ट्रपति के बयान (मध्य पूर्व, संयुक्त राष्ट्र शांति अभियान)
|
नवंबर 2012 |
राष्ट्रीय मुद्दे: सोमालिया; लीबिया; तिमोर-लेस्ते; बोस्निया और हर्जेगोविना; सूडान; फ़िलिस्तीनी प्रश्न सहित मध्य पूर्व की स्थिति; कांगो; इराक; सियरा लिओन
विषयगत मुद्दे: अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा का रखरखाव; महिला और शांति और सुरक्षा
|
छह संकल्प (बोस्निया और हर्जेगोविना, सूडान, कांगो, सोमालिया)
दो राष्ट्रपति के बयान (अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा का रखरखाव, सिएरा लियोन)
|
स्रोत: संयुक्त राष्ट्र
चूंकि, अंतरराष्ट्रीय शाति और सुरक्षा बनाए रखने की पहली ज़िम्मेदारी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की ही है, तो पूर्व में भारत की अध्यक्षता के दौरान उठाए गए बहुत से मुद्दे दुनिया के तमाम देशों में संघर्ष के हालात और हमलों से जुड़े हुए हैं. हालांकि, ऐसा नहीं है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद, हथियारबंद संघर्ष के अंतरराष्ट्रीय संकट का संज्ञान लेती हो. वैसे तो संयुक्त राष्ट्र का कोई भी सदस्य देश किसी भी विषय को सुरक्षा परिषद के एजेंडे में रख सकता है. लेकिन, इसके विधायी काम के कार्यक्रम को सदस्य देश ही बदल सकते हैं. इस प्रक्रिया में सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्य (P5) अहम भूमिका निभाते हैं. अगर किसी विषय पर इन पांच स्थायी सदस्यों में मतभेद है, तो असहमति की काफ़ी संभावना होती है. ऐसे में कोई प्रस्ताव पारित नहीं होता, और फिर ये सदस्य देश कोई मसला न छूने का विकल्प अपना सकते हैं. इस स्थिति में भले ही संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की गतिविधियां प्रक्रियाओं और नियमों पर आधारित हों. लेकिन, एजेंडा तय करना, मोटे तौर पर एक राजनीतिक प्रक्रिया ही होता है.
विरोधाभासी भूमिकायें
इसके अलावा परिषद के अध्यक्ष को दो विरोधाभासी भूमिकाएं भी निभानी होती हैं. पहले तो अध्यक्ष के तौर पर अपनी ज़िम्मेदारियों का निर्वाह करना होता है. वहीं दूसरी भूमिका के तहत, वो सुरक्षा परिषद के सदस्य के तौर पर अपने देश के सरकार के प्रतिनिधि होते हैं. शायद यही वजह है कि भारत ने इस बार अध्यक्ष के तौर पर जो पहला प्रस्ताव स्वीकार किया वो ‘समुद्री सुरक्षा’ से जुड़ा था. हाल में सुरक्षा परिषद में ‘समुद्री सुरक्षा को बढ़ाने पर हुई परिचर्चा- अंतरराष्ट्रीय सहयोग बढ़ाने की ज़रूरत’ की अध्यक्षता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने की. उन्होंने सभी देशों से अपील की कि वो समुद्री सुरक्षा के लिए आपसी सहमति पर आधारित सहयोग एक ढांचे के लिए राज़ी हों. प्रधानमंत्री ने इसके लिए पांच मुख्य बातों पर ज़ोर दिया. इनमें व्यापार, कनेक्टिविटी, पर्यावरण, क़ुदरती आपदा और समुद्री ख़तरे और विवादों का शांतिपूर्ण निपटारा शामिल हैं. अध्यक्ष के बयान का ज़ोर अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों को प्राथमिकता देना, और इस बात पर ज़ोर देना कि महासागरों में हर गतिविधि को क़ानूनी जामा, संयुक्त राष्ट्र के समुद्री सुरक्षा के क़ानूनों के समझौते (UNCLOS) से ही मिलता है. भारत के लिए ये एक बड़ी उपलब्धि है क्योंकि अध्यक्ष के बयान पर सभी सदस्यों की सहमति ज़रूरी होती है और इन्हें मंज़ूरी दिलाना मुश्किल होता है. वैसे तो चीन ने UNCLOS से जुड़े बयान की भाषा पर शुरुआत में ऐतराज़ जताया था. लेकिन, ख़बरों के मुताबिक़, भारतीय वार्ताकारों ने प्रस्ताव की भाषा में इस तरह से बदलाव किया, जिससे ये सभी देशों को स्वीकार हो गया.
अध्यक्ष के बयान का ज़ोर अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों को प्राथमिकता देना, और इस बात पर ज़ोर देना कि महासागरों में हर गतिविधि को क़ानूनी जामा, संयुक्त राष्ट्र के समुद्री सुरक्षा के क़ानूनों के समझौते (UNCLOS) से ही मिलता है.
ये देखना दिलचस्प होगा कि सुरक्षा परिषद के अध्यक्ष के तौर पर अपने कार्यकाल के दौरान आगे के दिनों में भारत इस मौक़े का इस्तेमाल किस तरह अपनी प्राथमिकता वाले मुद्दों को आगे बढ़ाने के लिए करता है. पहले के कार्यकाल की तुलना में इस बार भारत की अध्यक्षता के दौरा प्राथमिकता वाले मुद्दे दुनिया के इस वक़्त के हालात की तस्वीर पेश करते हैं. जैसे कि अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी. इन सबसे इतर, सुरक्षा परिषद की अक्सर इस बात के लिए आलोचना होती रही है कि वो विवादित मसलों को छूने से बचती रही है. इसके अलावा परिषद की सदस्यता के पुराने पड़ चुके नुस्ख़े को लेकर भी इसकी आलोचना होती आई है. भारत G4 के अन्य सदस्यों (ब्राज़ील जापान और जर्मनी) के साथ मिलकर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के विस्तार का समर्थन करता रहा है. हालांकि, उसे अब तक इसमें कामयाबी नहीं मिली है. इसलिए, इस बार परिषद की अध्यक्षता भारत को इस बात का मौक़ा देती है कि वो नेतृत्व के हुनर दिखाकर ख़ुद को विश्व समुदाय के एक ज़िम्मेदार सदस्य के रूप में साबित करे और वैश्विक प्रशासन को लेकर अपनी प्रतिबद्धता भी जताए.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.