Published on Oct 08, 2021 Updated 0 Hours ago

भारत का स्वभाव अंतर्मुखी व्यक्ति जैसा है.  

भारत: एक महाशक्ति या बड़ी हस्ती और वजूद वाला देश?

माइकल वुड की मशहूर बीबीसी डॉक्यूमेंट्री स्टोरी ऑफ़ इंडिया में भारतीय उपमहाद्वीप के कोने-कोने में उनकी यात्राओं का ब्यौरा दिया गया है. इसमें भारत के प्राचीन इतिहास, परंपराओं और संस्कृति का बखान किया गया है. कुल मिलाकर इस डॉक्यूमेंट्री में दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यताओं के पालने के तौर पर भारत के दर्जे को स्वीकार किया गया है. उनका विचार है कि, “जैसे-जैसे पश्चिमी जगत के प्रभुत्व वाला संक्षिप्त कालखंड अपने अंत की ओर पहुंच रहा है, इतिहास का एक अहम किरदार फिर से उभरने लगा है.” एक प्राचीन सांस्कृतिक केंद्र से वाणिज्यिक ताक़त के तौर पर उभरने की ये एक सटीक मिसाल है. भारत ने 21वीं सदी की शुरुआत ग्लोबल साउथ यानी विकासशील देशों के एक प्रमुख खिलाड़ी के तौर पर की. आर्थिक महाशक्ति के रूप में धीरे-धीरे ही सही पर भारत पूरी शिद्दत के साथ नित नई ऊंचाइयां छू रहा है.

 वैसे तो भारत के भविष्य को लेकर आशावादी होने की निश्चित तौर पर अपनी वजहें हैं, लेकिन इस दिशा में किसी भी तरह का अनुमान लगाते वक़्त बेहद सतर्क रहने की ज़रूरत है. 

शीत युद्ध का दौर तो 20वीं सदी के साथ ही ख़त्म हो गया था, लेकिन इसके साथ ही द्वैतवाद के रूप में नए प्रकार के दर्शन को “हाथी और ड्रैगन” के बीच की दौड़ के रूप में सामने रखा गया. इस रेस में दुनिया की प्राचीनतम सभ्यताओं वाले रूप से आगे निकलकर समृद्ध देश अपने दूसरे अवतार से जुड़ा इतिहास फिर से लिख रहे हैं. इतना ही नहीं आर्थिक मोर्चे पर भी उनकी करिश्माई कामयाबी दिखने लगी है. भारत और चीन ब्रिक के हिस्सेदार थे. आगे चलकर ये ब्रिक्स हो गया. गोल्डमैन सैक्स ने ये नामकरण किया है. ब्राज़ील, रूस, भारत और चीन शुरुआत से इस जमावड़े में शामिल थे. आगे चलकर दक्षिण अफ़्रीका भी इससे जुड़ गया. ये तमाम देश ग्लोबल साउथ में तेज़ी से बढ़ती उन अर्थव्यवस्थाओं के प्रतीक हैं, जो अपनी आर्थिक कामयाबियों के क़िस्से ख़ुद लिख रहे हैं. ये तमाम देश दुनिया की महाशक्तियों के बीच अपना स्थान ख़ुद ही पक्का कर रहे हैं.

तब से लेकर अबतक भारत की विकास यात्रा को लेकर पोथियां लिखने का दौर जारी है. भारत द्वारा जी7 देशों की बराबरी करने या उन्हें पछाड़ने को लेकर भविष्यवाणियों और गाथाओं का सिलसिला बरकरार है. हर कोई ये अनुमान लगाने में जुटा है कि आख़िर भारत कब “महाशक्ति” का ताज हासिल कर लेगा.

भारत की लगातार बढ़ती अर्थव्यवस्था के पीछे यहां मौजूद युवाओं की एक विशाल आबादी का हाथ है. 35 साल से कम उम्र वाले ये युवा भारत की कार्यकारी जनसंख्या का आधार हैं. ये भारतीय आबादी का सबसे अहम हिस्सा हैं. आर्थिक महाशक्ति के तौर पर भारत के उभार के पीछे यही युवा आबादी उत्प्रेरक का काम कर रही है. इस पूरे कालखंड में दशकों तक चली अपनी एक संतान वाली नीति के चलते चीन में बुज़ुर्गों की आबादी बढ़ती चली गई है. देश की जनसंख्या में उम्रदराज़ लोगों की बढ़ती आबादी से पेंशन और स्वास्थ्य से जुड़ी सुविधाओं के रूप में लागत के तौर पर सरकारी ख़ज़ाने पर बोझ बढ़ा है. इतना ही नहीं आर्थिक सुस्ती के ख़तरे के बीच ये समस्या और विकराल बनकर उभरी है. ऐसे में चीन के नज़रिए से अमेरिका को उसके दर्जे से नीचे झुकाना और भारत से आगे बने रहना बेहद चुनौतीपूर्ण हो जाता है.

हमने दो विशाल परमाणु शक्तियों को किसी भी क़ीमत पर अपनी राजनीतिक विचारधाराओं की हिफ़ाज़त करते हुए देखा. अमेरिका के लिए ये लोकतंत्र की सर्वोच्चता और साम्यवाद के नुकसानदेह फैलाव की रोकथाम करने से जुड़ा मसला था. लिहाज़ा वो वियतनाम और कोरिया से जुड़े मसलों के साथ जुड़ा. 

वैसे तो भारत के भविष्य को लेकर आशावादी होने की निश्चित तौर पर अपनी वजहें हैं, लेकिन इस दिशा में किसी भी तरह का अनुमान लगाते वक़्त बेहद सतर्क रहने की ज़रूरत है. भारत की आर्थिक तरक्की के संदर्भ में सिर्फ़ मीठी-मीठी कल्पनाओं की नहीं बल्कि खट्टे और नमकीन हक़ीक़तों का भी ध्यान रखना चाहिए. आख़िरकार नमक का भारतीय इतिहास में बेहद पवित्र स्थान रहा है. महात्मा गांधी ने इसी नमक के लिए लंबी पदयात्रा की थी. दरअसल 20वीं सदी की पारंपरिक महाशक्तियों जैसे अमेरिका, भूतपूर्व सोवियत संघ और उसके उत्तराधिकारी रूस और अब चीन- इन सबने भूराजनीतिक और फ़ौजी ताक़त के ज़रिए ही अपनी सत्ता के आधार को विस्तार दिया है.

जैसा कि इस लेखक ने पहले भी लिखा है, “युद्ध के बाद की वैश्विक अर्थव्यवस्था ने ब्रेटेन वूड्स सिस्टम का उदय होते देखा. इस दौरान बहुपक्षवाद को आकार देने में अमेरिका की मुख्य भूमिका रही. लंबे अर्से से अमेरिकी विदेश नीति के प्रमुख सिद्धांतों में वैश्विक मसलों से जुड़ाव की वक़ालत की जाती रही है. लिहाज़ा दुनिया में अगर कहीं भी साम्यवाद ने सिर उठाया तो उसके दुष्प्रभावों की रोकथाम करना अमेरिका के लिए चिंता का सबब बना. उसी तरह दुनिया के किसी हिस्से में अगर लोकतंत्र को किसी तरह की आंच आई या उसका अभाव दिखा तो अमेरिका वहां के मसलों में शामिल रहा. अगर मतभेदों को कुचलने, तानाशाही के पनपने, देशों की राजधानियों में हिंसक दंगे भड़कने की कोई भी ख़बर आईं तो सीधे तौर पर इसका मतलब था अमेरिका की नाराज़गी बढ़ना या उसका चिढ़ जाना.”

महाशक्तियों के बीच की सियासत

शीत युद्ध के दौरान साफ़ तौर पर महाशक्तियों के बीच की प्रतिस्पर्धा के मियरशीमर के सिद्धांत की झलक मिली. उस वक़्त हमने दो विशाल परमाणु शक्तियों को किसी भी क़ीमत पर अपनी राजनीतिक विचारधाराओं की हिफ़ाज़त करते हुए देखा. अमेरिका के लिए ये लोकतंत्र की सर्वोच्चता और साम्यवाद के नुकसानदेह फैलाव की रोकथाम करने से जुड़ा मसला था. लिहाज़ा वो वियतनाम और कोरिया से जुड़े मसलों के साथ जुड़ा. इस सिलसिले में उसने कई तानाशाहों को खड़ा किया. इनमें मोबुतु सेसे सेको और ऑगस्टो पिनोशे शामिल हैं. इतना ही नहीं इस क़वायद में अमेरिका ने पाकिस्तान के फ़ौजी तानाशाहों से भी साठगांठ बनाई. दरअसल अमेरिका साम्यवाद के ख़िलाफ़ इन तमाम किरदारों के समर्थन को लेकर आश्वस्त था. रूस ने भी पूर्वी यूरोप में वॉरसा समझौते के ज़रिए वहां के कई देशों को अपना शागिर्द बना लिया. इतना ही नहीं उसने अफ़ग़ान गृह युद्ध के दौरान दखल देते हुए अफ़ग़ानिस्तान पर चढ़ाई कर दी. रूस की इस चाल का मकसद अपनी पुरानी सरहदों के आर-पार दोस्ताना समाजवादी सरकारें कायम करना था.

अफ़ग़ानिस्तान की सरज़मीं पर तेज़ी से बदलते हालातों के मद्देनज़र भारत क्षेत्रीय सुरक्षा को लेकर चिंतित है. हालांकि इससे जुड़ी चिंताओं के बावजूद भारत ने कोई फ़ौजी उपाय अपनाने का रुख़ नहीं दिखाया है. 

विश्व पटल पर चीन की आक्रामकता उसके आर्थिक जुड़ावों के ज़रिए आई है. इस संदर्भ में बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (चीन का ‘नया सिल्क रूट’) प्रमुख है. ये एक भू-आर्थिक परियोजना है. इसका मकसद मध्य एशिया के बाज़ारों को आर्थिक और भौतिक रूप से चीन के क़रीब लाना है. चीन की इस पूरी क़वायद में मध्य एशिया के छोटे देशों को निर्माण कार्यों के लिए कर्ज़ मुहैया कराकर अपनी ओर आकर्षित करने का उपाय शामिल है. इसी तरह एशियन इंफ़्रास्ट्रक्चर इनवेस्टमेंट बैंक (एआईआईबी) के ज़रिए भी चीन अपना दबदबा कायम करता है. इतना ही नहीं शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के माध्यम से भी चीन इस इलाक़े में अपना प्रभाव बढ़ा रहा है. इस संगठन को “पूरब का गठजोड़” कहा जाता है. इसकी वजह ये है कि एशिया-प्रशांत क्षेत्र में इसकी धुरी बनती जा रही है. इसे इस इलाक़े की सुरक्षा के प्रमुख स्तंभ के तौर पर देखा जाता है. दुनिया भर में चीन की मौजूदगी बढ़ती जा रही है. एक और जहां ऑस्ट्रेलिया के मेलबर्न शहर के सेंट्रल बिज़नेस डिस्ट्रिक्ट में चीन ने निवेश कर रखा है तो वहीं संसार के दूसरे छोर पर मौजूद लैटिन अमेरिका के उभरते बाज़ारों में भी चीनी निवेश शामिल है. इतना ही नहीं हॉर्न ऑफ़ अफ़्रीका में स्थित जिबूती में चीन का फ़ौजी अड्डा सक्रिय है.

दूसरी ओर भारत ने सही मायनों में अपने आस-पड़ोस में भी विरले ही अपना दबदबा दिखाया है. हालांकि इसके दो प्रमुख अपवाद हैं. पहला 1971 का बांग्लादेशी स्वतंत्रता संग्राम है. दूसरी घटना 1980 के दशक के आख़िर की है. तब भारत ने श्रीलंका में भारतीय शांति सैनिकों (आईपीकेएफ़) की तैनाती की थी. हालांकि हिंदुस्तान की तरफ़ से उठाए गए इस क़दम के पीछे का आकलन पूरी तरह से ग़लत साबित हुआ. भारत की इस चूक को अक्सर अंतरराष्ट्रीय पटल पर अमेरिका द्वारा वियतनाम के संदर्भ में की गई ग़लतियों की तरह देखा जाता है. बहरहाल इन दोनों के अलावा भारत ने कई ऐतिहासिक शांति स्थापना मिशनों में भी योगदान दिया है.

बहरहाल अफ़ग़ानिस्तान की सरज़मीं पर तेज़ी से बदलते हालातों के मद्देनज़र भारत क्षेत्रीय सुरक्षा को लेकर चिंतित है. हालांकि इससे जुड़ी चिंताओं के बावजूद भारत ने कोई फ़ौजी उपाय अपनाने का रुख़ नहीं दिखाया है. दरअसल इसके पीछे भारत का परंपरागत सिद्धांत काम कर रहा है. भारत बाहरी टकरावों में अपनी टांग फंसाने में विश्वास नहीं करता और सामरिक स्वायत्ता का पक्षधर है. ये उसूल भारत की कूटनीति और सामरिक नीतियों में गहरी पैठ बनाए हुए हैं. ग़ौरतलब है कि राष्ट्रपति बाइडेन अफ़ग़ानिस्तान के संदर्भ में राष्ट्र निर्माण के दायित्वों से पल्ला झाड़ चुके हैं. उन्होंने सार्वजनिक एलान किया है कि अफ़ग़ानी राष्ट्र निर्माण का लक्ष्य अब अमेरिकी वरीयता सूची में नहीं है. भारत का नज़रिया इसके ठीक विपरीत है. अफ़ग़ानिस्तान के साथ भारत के जुड़ावों का प्रमुख तत्व राष्ट्र निर्माण से जुड़ी गतिविधियां ही रही हैं. भारत ने अफ़ग़ानिस्तान में बुनियादी ढांचे के विकास के पीछे 3 अरब डॉलर (224 करोड़ रु) की भारी-भरकम रकम खर्च की है. इसमें काबुल में नए संसद भवन का निर्माण भी शामिल है. प्रधानमंत्री मोदी ने 2015 में इसका उद्घाटन किया था. उसी तरह 2016 में तैयार सलमा डैम का निर्माण भी भारतीय निवेश के ज़रिए ही हुआ है. अफ़ग़ानिस्तान के विकास में भारत ने शुरू से ही अहम योगदान दिया है. इनमें अफ़ग़ानी छात्रों के लिए वज़ीफ़े, खाद्य सहायता, बिजली से जुड़ी सुविधाओं का विस्तार, बांधों और डैम का निर्माण, सड़कें, हाईवे, स्कूल और अस्पतालों का विकास शामिल हैं.

दोस्ती सब से, गठजोड़ किसी से नहीं

भारत की सोच और रुख़ बिल्कुल अलग हैं. भारत का नज़रिया ‘दोस्ती सब से, गठजोड़ किसी से नहीं’ के सिद्धांत पर आधारित रहा है. आज़ादी के वक़्त भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने काफी सोच समझकर “गुट निरपेक्ष” रहने का फ़ैसला लिया था. गुट निरपेक्ष आंदोलन से प्रभावित उस दौर में भारत ने ये रास्ता अपनाया था. हालांकि सामाजिक-आर्थिक मसलों पर भारत ने पश्चिमी समाज के पूंजीवादी रुख़ की बजाए फ़ेबियनवादी समाजवाद का ढांचा अपनाया. नेहरू विश्व मंच पर किसी भी किस्म की गुटबाज़ी में पड़ने के ख़िलाफ़ थे. अपनी स्वायत्त नीति के प्रति उनका दृढ़ विश्वास था. एक ऐसी नीति जिसमें एक किस्म के पश्चिमी चेहरों (पूर्ववर्ती ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ भारत के उपनिवेशवादी इतिहास के मद्देनज़र) को अमेरिकी कॉरपोरेशंस के रूप में दूसरे प्रकार के पाश्चात्य चेहरों से बदलने के विचार का विरोध शामिल था. देश के विभाजन, ख़ूनख़राबे और अफ़रातफ़री से भरे उस दौर में ऐसी ही नीतियों की दरकार थी. ग़ौरतलब है कि उस समय भारत में आधुनिक लोकतांत्रिक शासन प्रणाली की नींव रखी जा रही थी.

भारत जैसे विशाल आकार और बड़ी आबादी वाले देश में प्रतिभाशाली लोगों की कोई कमी नहीं है. इसके बावजूद भारत सरकार के विदेश मंत्रालय के सबसे ऊंचे दर्जे यानी भारतीय विदेश सेवा (आईएफ़एस) में सिर्फ़ 900 राजनयिक ही काम कर रहे हैं. न्यूज़ीलैंड और सिंगापुर जैसे देश जिनकी आबादी करीब 50 लाख है 

कई लोग भारत की विदेश नीति को बुजदिली भरा बताकर उसकी आलोचना करते हैं. दरअसल भारतीय विदेश नीति संस्कृत के सिद्धांत “वसुधैव कुटुंबकम” पर आधारित रही है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ-साथ भारत के तमाम सरकारी अधिकारी समय समय पर इसी मंत्र का हवाला देते रहे हैं. इस मंत्र का मतलब है “सारा संसार एक परिवार की तरह है.” हालांकि अंतरराष्ट्रीय संबंधों के कई जानकार इसे आदर्शवादी, अनाड़ी और यथार्थवादी रुख़ से परे बताकर इसकी घोर निंदा करते रहे हैं.

भारत जैसे विशाल आकार और बड़ी आबादी वाले देश में प्रतिभाशाली लोगों की कोई कमी नहीं है. इसके बावजूद भारत सरकार के विदेश मंत्रालय के सबसे ऊंचे दर्जे यानी भारतीय विदेश सेवा (आईएफ़एस) में सिर्फ़ 900 राजनयिक ही काम कर रहे हैं. न्यूज़ीलैंड और सिंगापुर जैसे देश जिनकी आबादी करीब 50 लाख है, वहां भी इतने ही राजनयिक हैं. चीन और अमेरिका जैसे दुनिया के ताक़तवर मुल्कों के पास कूटनीतिज्ञों की बड़ी फ़ौज है. विदेशी धरती पर उनके मिशनों और राजनयिकों की भरमार है. ज़ाहिर तौर पर भारत भी इन देशों की कतार में शुमार होना चाहेगा.

प्रतिभाशाली लोगों से भरे भारत जैसे बड़े देश का औपचारिक तौर पर विदेशी धरती पर प्रतिनिधित्व करने वाले लोगों की तादाद मुट्ठी भर क्यों है…इसके पीछे कई कारण मौजूद हैं. दरअसल इसके लिए ब्रिटिश-सिविल सेवा के ज़माने का घिसा पिटा ढांचा और परीक्षाओं से जुड़ी प्रणाली ज़िम्मेदार है. इसके साथ ही विदेश मंत्रालय को मिलने वाला फ़ंड भी एक कारक है. बहरहाल इन मसलों पर आगे कभी विस्तार से बात होगी. संक्षेप में कहें तो भारतीय विदेश सेवा का घरेलू संस्करण भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) अब भी भारत में सबका पसंदीदा क्षेत्र है. स्वतंत्रता के बाद के शुरुआती कालखंड से ही आईएएस को बाक़ी सेवाओं पर वरीयता हासिल है. दरअसल उस ज़माने में घरेलू राष्ट्र निर्माण को लुभावने और आदर्शवादी विदेश नीतियों के मुक़ाबले वरीयता दी गई थी.

आर्थिक मोर्चे पर भारत के सामने अब भी पहाड़ जैसी चुनौतियां मौजूद हैं. ख़ासतौर से भूमि, श्रम और टैक्स के मसलों में बड़े पैमाने पर सुधारों की दरकार है. अपनी विकास यात्रा में आय के स्रोतों में विविधता लाने के लिए भारत ने कृषि से सीधे सेवा क्षेत्र में छलांग लगा दी. भारत का विनिर्माण क्षेत्र लंबे अर्से से सेवा क्षेत्र के मुक़ाबले दोयम दर्जे का रहा है. साफ़ है कि भारत में खेती से फ़ैक्ट्री के उस मॉडल को दरकिनार किया गया जिसका सहारा लेकर चीन आज इतना ताक़तवर मुल्क बन गया है.

आर्थिक मोर्चे पर भारत के सामने अब भी पहाड़ जैसी चुनौतियां मौजूद हैं. ख़ासतौर से भूमि, श्रम और टैक्स के मसलों में बड़े पैमाने पर सुधारों की दरकार है. 

अंत में हम ज्याफ़्रे ब्लेनी की क़िताब द टायरेनी ऑफ़ डिस्टेंस की मिसाल ले सकते हैं. इस क़िताब में बताया गया है कि किस प्रकार ऑस्ट्रेलिया के भौगोलिक परिवेश ने उसकी राष्ट्रीय पहचान बनाई. दरअसल भौगोलिक रूप से ऑस्ट्रेलिया बाक़ी दुनिया से अलग-थलग है, लेकिन उसकी इसी ख़ासियत ने उसकी पहचान बनाने में मदद की. अमेरिका को भी ऐसा ही लाभ हासिल है. उसके पूर्वी और पश्चिम तट दुनिया के दो महासागरों पर स्थित हैं. इस वजह से उसे दुनिया के तमाम अशांत क्षेत्रों से भौगोलिक दूरी हासिल है. इन हालातों ने वहां स्थिरता बनाए रखने में बहुत मदद पहुंचाई है. आज भारत के पड़ोस में ख़तरनाक हालात बन गए हैं. अफ़ग़ानिस्तान के मौजूदा घटनाक्रम ने इन्हें और पेचीदा बना दिया है. भारत के पड़ोस में पाकिस्तान और चीन के रूप में परमाणु क्षमता से लैस दो ग़ैर-दोस्ताना ताक़तें मौजूद हैं. एक के साथ ऐतिहासिक रूप से भारत की शत्रुता है जबकि दूसरा भारत को रणनीतिक रूप से अपने रास्ते का कांटा समझता है. पाकिस्तान और चीन दोनों एक-दूसरे को अच्छे-बुरे दिनों का दोस्त समझते हैं. लिहाज़ा इस बात की पूरी संभावना है कि दोनों मिलकर सामरिक रूप से भारत के उभार को रोकने की कोशिशों में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेंगे.

भूराजनीतिक, आर्थिक और ऐतिहासिक विश्लेषणों के अलावा परेशान करने वाली एक और सच्चाई भी है. अगर किसी देश की पहचान को (किसी शख्स की पहचान की ही तरह) बाहरी दुनिया से उसके जुड़ावों के दौरान शख्सियत के तौर पर उभार कर देखें तो भारत का स्वरूप बड़े जमावड़ों में पहुंचने वाले एक ऐसे सौम्य और सामाजिक व्यक्ति के तौर पर है जो बातचीत तो सबके साथ करता है लेकिन ठोस रूप से किसी के साथ भी गठजोड़ नहीं करता. दूसरे शब्दों में भारत का स्वभाव अंतर्मुखी व्यक्ति जैसा है.

शायद भारत के तात्कालिक लक्ष्यों में कोई बहुत बड़ी महाशक्ति बनने का सपना नहीं है. कम से कम मौजूदा प्रमाणों से यही लगता है.

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