Author : Abhishek Mishra

Published on Jun 24, 2020 Updated 0 Hours ago

आज वैश्विक संस्थाओं में लोकतांत्रिक सुधार अति आवश्यक हो गया है. यही कारण है कि भारत और अफ्रीका दोनों ने ही संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी और अस्थायी सदस्यों की संख्या बढ़ाने का समर्थन किया है.

भारत, अफ्रीका और बहुपक्षीयवाद: एक नए आयाम की तलाश

कोविड-19 महामारी ने अंतरराष्ट्रीय सहयोग के मिज़ाज को पूरी तरह से बदलने का काम किया है. साथ ही साथ सार्वजनिक स्वास्थ्य के इस संकट के कारण वैश्विक संस्थाओं की कमियां और कमज़ोरियां खुल कर सामने आ गई हैं. पश्चिमी व्यवस्था या जिसे हम ‘अटलांटिक व्यवस्था’ कहते हैं, उसमें अमेरिका व विकसित यूरोपीय देश शामिल हैं. और इन देशों को बहुपक्षीयवाद का सबसे बड़ा पुरोधा कहा जाता है. लेकिन, ये देश कोविड-19 की महामारी से निपटने में असफल रहे हैं. साथ ही साथ दुनिया के सामने उत्पन्न इस अभूतपूर्व संकट के समय ये देश एक अर्थपूर्ण नेतृत्व प्रदान कर पाने में भी विफल रहे हैं. तमाम वैश्विक संस्थाओं में बहुपक्षीयवाद के सिद्धांत का बहुत तेज़ी से क्षरण हो रहा है. क्योंकि, इस महामारी के दौर में ज़्यादातर देश अपनी अंदरूनी चुनौतियों पर अधिक ध्यान दे रहे हैं. वो स्वास्थ्य के इस विशाल संकट से घरेलू स्तर पर निपटने की रणनीति बना रहे हैं. उनका ज़ोर इस बात पर है कि वो अपने यहां के निर्माण क्षेत्र की कमियां दूर करके उसे और अधिक कार्यकुशल और अधिक उत्पादकता वाला बनाएं. जिससे अन्य देशों से आयात पर उनकी निर्भरता कम हो. इसके अतिरिक्त हर राष्ट्र अपने यहां से उत्पादों के निर्यात पर पाबंदियां लगाकर अपनी घरेलू मांग को संरक्षण दे रहा है. और ये तब हो रहा है जब वैश्विक स्तर पर परिवहन सीमित हो गया है. इस दौरान जलवायु परिवर्तन से निपटने, और स्थायी विकास के लक्ष्य हासिल करने के लिए वित्तीय सहयोग भी कम हो गया है. ऐसा लगता है कि एकपक्षीयवाद और बहुपक्षीय वाद के बीच संघर्ष से ही आने वाले समय में अंतरराष्ट्रीय सहयोग की रूप रेखा तैयार होगी.

ऐसा लगता है कि एकपक्षीयवाद और बहुपक्षीय वाद के बीच संघर्ष से ही आने वाले समय में अंतरराष्ट्रीय सहयोग की रूप रेखा तैयार होगी.

अफ्रीका और बहुपक्षीयवाद

भूमंडलीकरण के अपने पांव समेटने के बीच ऐसी गतिविधियों ने विकासशील और कम आमदनी वाले देशों की चुनौतियों, कमज़ोरियों और जोखिमों को बढ़ा दिया है. दक्षिणी दुनिया कहे जाने वाले इनमें से अधिकतर देश अफ्रीकी महाद्वीप के हैं. अफ्रीका के लिए कोविड-19 की महामारी बेहद बुरे वक़्त में आई है. ठीक उस समय जब अफ्रीकी महाद्वीप ने एकजुट होकर एक ही सुर में पूरे महाद्वीप में मुक्त व्यापार क्षेत्र स्थापित करने को लेकर इसी वर्ष जुलाई महीने में परिचर्चा शुरू करने की योजना बनाई थी, उस समय कोविड-19 ने दुनिया पर हमला बोल दिया. अपने राजनीतिक मतभेदों और नीतिगत अस्पष्टताओं को एक तरफ़ करके अफ्रीकी देशों ने तय किया था कि वो महाद्वीप के स्तर पर साझा दृष्टिकोण आर्थिक निर्णय लेने की प्रक्रिया की ओर बढ़ेंगे. हालांकि, अफ्रीकी देशों के बीच क्षेत्रीय और महाद्वीपीय स्तर पर सहयोग और समेकन, लंबे समय से इसकी विकास से जुड़ी रणनीति का एक महत्वपूर्ण अंग रहा है. लेकिन, अफ्रीका के कुल व्यापार में अफ्रीकी महाद्वीप के आपसी व्यापार का हिस्सा महज़ 13 प्रतिशत ही है. इसीलिए, पूरे अफ्रीकी महाद्वीप को एक व्यापारिक क्षेत्र के रूप में स्थापित करने के फ़ैसले से अफ्रीकी देशों के बीच उत्पादों और सेवाओं का व्यापार आज इसलिए और भी महत्वपूर्ण हो गया है, ताकि इसकी मदद से अफ्रीका बाहरी आर्थिक मदद के दुष्चक्र से बाहर निकल सके. कोविड-19 की महामारी ने कुछ और किया हो न किया हो, इसने अफ्रीकी देशों को इस बात का एहसास ज़रूर करा दिया है कि वो तुरंत आपस में मिल कर ऐसे क़दम उठाएं, ताकि वो आपस में जुड़ी और एक दूसरे पर निर्भर दुनिया में वैश्विक और तमाम अफ्रीकी देशों की चुनौतियों से पार पा सकें.

ये सोचना ग़लत होगा कि अफ्रीका, वैश्विक बहुपक्षीय वाद का एक सक्रिय सदस्य नहीं बल्कि इसका सबसे बड़ा लाभार्थी है. अफ्रीकी देश, लंबे समय से बहुपक्षीय व्यवस्थाओं के मज़बूत समर्थक रहे हैं. उन्हें ये लगता है कि विकास, समृद्धि और शांति को बढ़ावा देने में बहुपक्षीय व्यवस्थाों का मूल्यवान योगदान है. लेकिन, दुर्भाग्य से इस दिशा में अफ्रीकी देशों द्वारा किए गए प्रयासों की अक्सर अनदेखी हो जाती है. अफ्रीकी देशों ने न केवल संयुक्त राष्ट्र, गुट निरपेक्ष आंदोलन और G-77 देशों के मंच पर ऐसे प्रयासों का समर्थन किया है. बल्कि, अफ्रीकी देशों ने अफ्रीकी एकता संगठन (OAU) की स्थापना आज से क़रीब आधी सदी पहले वर्ष 1963 में ही कर ली थी. अफ्रीकी एकता संगठन के वारिस अफ्रीकी संघ में (African Union) महाद्वीप के स्तर पर आठ क्षेत्रीय संगठन काम करते हैं, जिनके अंतर्गत अफ्रीका के सभी क्षेत्र आ जाते हैं. इसके अतिरिक्त अफ्रीकी देश, पैन-अफ्रीकन पार्लियामेंट, अफ्रीकी विकास बैंक, आर्थिक सामाजिक और सांस्कृतिक परिषद, अफ्रीकन कोर्ट ऑन ह्यूमन ऐंड पीपुल्स राइट, अफ्रीकी आयोग ऑन ह्यूमन ऐंड पीपुल्स राइट, अफ्रीकन कमीशन ऑन ह्यूमन ऐंड पीपुल्स राइट्स और बेहद विशिष्ट अफ्रीकी पियर रिव्यू मेकेनिज़्म के माध्यम से बहुपक्षीय वाद को पालते-पोसते रहे हैं. ये सभी संगठन मिल कर अच्छी प्रशासनिक व्यवस्था को स्थापित करने और बढ़ावा देने का काम करते हैं.

ये सोचना ग़लत होगा कि अफ्रीका, वैश्विक बहुपक्षीय वाद का एक सक्रिय सदस्य नहीं बल्कि इसका सबसे बड़ा लाभार्थी है. अफ्रीकी देश, लंबे समय से बहुपक्षीय व्यवस्थाओं के मज़बूत समर्थक रहे हैं. उन्हें ये लगता है कि विकास, समृद्धि और शांति को बढ़ावा देने में बहुपक्षीय व्यवस्थाों का मूल्यवान योगदान है

अफ्रीका महाद्वीप में दुनिया के एक चौथाई देश और क़रीब सवा अरब की आबादी आबाद है. ऐसे में एक नई विश्व व्यवस्था और नई प्रशासनिक व्यवस्था को लेकर होने वाली परिचर्चाओं से अफ्रीका को अलग नहीं रखा जा सकता है. इस विषय में किसी भी निर्णय प्रक्रिया में अफ्रीका महाद्वीप को शामिल करना आवश्यक है. अफ्रीकी देशों को हमेशा निर्देश पाने और मानने वाले राष्ट्र के दर्जे में नहीं रखा जा सकता है. इसकी जगह अफ्रीकी देशों को ऐसी व्यवस्था और प्रबंधन का हिस्सा बनाना होगा ताकि उनका व्यवहारिक रूप से समावेश हो. वैश्विक प्रशासन व्यवस्था को सुधारने में उनके उचित सुझाव लिए जा सकें. दक्षिण अफ्रीका के इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंटरनेशनल अफ़ेयर्स (SAIIA) की एलिज़ाबेथ सिडीरोपोलस इस बात का समर्थन कहते हुए कहती हैं कि, ‘‘बहुपक्षीय व्यवस्थाओं में सुधार लाकर उन्हें सुदृढ़ बनाने की प्रक्रिया में एक मज़बूत अफ्रीकी आवाज़ की भागीदारी आवश्यक है.’ इसीलिए, इक्कीसवीं सदी के बेहद पेचीदा हो चले वैश्विक प्रशासन के संचालन के लिए उभरने वाली नई वैश्विक संस्थाओं में अलग अलग आवाज़ों का समावेश ज़रूरी है. इसमें बहुत से क्षेत्रों का मेल होना चाहिए और अफ्रीकी देशों की भी भागीदारी होनी चाहिए.

हालांकि, अफ्रीकी देशों के लिए ये फ़ायदे का सौदा होगा कि वो ऐसे प्रयासों का समर्थन करें, जो उनके जैसी सोच और नैतिक मूल्य रखने वाले देशों या गठबंधनों की है. जो इस बात के लिए प्रतिबंध हैं कि विकासशील और उभरते हुए देशों की आवाज़ को वैश्विक ‘बहुपक्षीय संगठनों में जगह मिलनी चाहिए. उन्हें निर्णय लेने की प्रक्रिया में शामिल किया जाना चाहिए. यहीं पर भारत और अफ्रीका के बीच सहयोग की तस्वीर बनती दिखती है. भारत, दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक व्यवस्था है. जहां पर दुनिया की कुल आबादी का छठा हिस्सा आबाद है. और अफ्रीका में संयुक्त राष्ट्र के एक चौथाई सदस्य देश हैं. इन दोनों को बहुपक्षीय संगठनों की निर्णय प्रक्रिया के मंच से अलग नहीं रखा जा सकता है. विश्व में बहुपक्षीय व्यवस्था के विकास को बढ़ावा देने के लिए भारत और अफ्रीका के बीच सहयोग बहुत आवश्यक है. इससे दोनों भागीदारों के हितों का संरक्षण भी होगा. और महामारी के बाद की दुनिया में आपसी सहयोग की व्यवस्था के निर्माण में भी मदद मिलेगी.

भारतअफ्रीका और वैश्विक प्रशासन

बुनियादी तौर पर भारत और अफ्रीका के बीच साझेदारी का मक़सद अधिक स्वायत्तता हासिल करने और ये सुनिश्चित करने का है कि दक्षिण के राष्ट्रों को प्राथमिकता दी जाए. हालांकि वैश्विक प्रशासन के जिन संस्थानों का गठन दूसरे विश्व युद्ध के बाद किया गया था, जैसे कि संयुक्त राष्ट्र, विश्व व्यापार संगठन या अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष. इन सभी ने अपनी अपनी भूमिकाओं को बख़ूबी संपादित किया है. लेकिन, ये त्वरित गति से परिवर्तित हो रहे वैश्विक परिदृश्य के अनुसार स्वयं को ढालने और विकासशील देशों को उचित अनुपात में प्रतिनिधित्व देने में असफल रहे हैं. इसीलिए, आज वैश्विक संस्थाओं में लोकतांत्रिक सुधार अति आवश्यक हो गया है. यही कारण है कि भारत और अफ्रीका दोनों ने ही संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी और अस्थायी सदस्यों की संख्या बढ़ाने का समर्थन किया है. यहां तक कि भारत और अफ्रीका के संबंध को निर्देशित करने वाले दस नीति निर्देशक सिद्धांत, जिनका प्रतिपादन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जुलाई 2018 में किया था, उनका एक निर्देशक सिद्धांत कहता है कि: जैसे भारत और अफ्रीका ने मिल कर उपनिवेशवाद का मुक़ाबला किया था, उसी तरह हम एक न्यायपूर्ण, प्रतिनिधिकारी और लोकतांत्रिक विश्व व्यवस्था के लिए भी मिल कर काम करेंगे. ये एक ऐसी विश्व व्यवस्था होगी जिसमें अफ्रीका और भारत में रहने वाली दुनिया की एक तिहाई आबादी की आवाज़ शामिल हो.

भारत, अफ्रीकी देशों के साथ साझेदारी करना चाहता है. ताकि, भारत और अफ्रीका मिल कर विकास के पथ पर अग्रसर हो सकें. ये विकास की ऐसी प्रक्रिया हो जो जनता पर आधारित हो. इसीलिए, अफ्रीका के साथ भारत की साझेदारी समानता, आपसी लाभ, एक दूसरे के सम्मान और एकजुटता के सिद्धांत पर आधारित है. अफ्रीका के साथ भारत के सहयोग का मॉडल मांग पर आधारित है. जिसमें एक दूसरे से सलाह मशविरा और एक दूसरे के विकास में भागीदारी को तरज़ीह दी जाती है. और जो साझेदारी स्थानीय स्तर पर क्षमताएं विकसित करने का प्रयास करती है. इस साझेदारी का मक़सद अफ्रीका की संभावनाओं को सीमित करना नहीं, बल्कि उसे तमाम बंदिशों से आज़ाद कराना है. ऐसी साझेदारी से प्राप्त होने वाले सभी लाभों को बराबरी से अलग अलग भौगोलिक क्षेत्र में वितरित करना चाहिए. इस साझेदारी के फ़ायदों से किसी क्षेत्र को वंचित नहीं रहना चाहिए. लेकिन, भारत और अफ्रीका के बीच साझेदारी की मुख्य चुनौती ये होगी कि विकसित देश उत्तर और दक्षिण के प्रति अपनी प्रतिबद्धताओं से पीछे न हटें. और वो लगातार विकासशील देशों को वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराते रहें, जो कमज़ोरियों को दूर करने और नई परिस्थितियों के अनुसार ढालने के लिए ज़रूरी हैं.

भारत और अफ्रीका के बीच साझेदारी की मुख्य चुनौती ये होगी कि विकसित देश उत्तर और दक्षिण के प्रति अपनी प्रतिबद्धताओं से पीछे न हटें. और वो लगातार विकासशील देशों को वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराते रहें, जो कमज़ोरियों को दूर करने और नई परिस्थितियों के अनुसार ढालने के लिए ज़रूरी हैं.

एक सुधारवादी बहुपक्षीय वाद के लिए भारत के प्रयास का लक्ष्य मूल रूप से सकारात्मक सुधार है. इस प्रयास में अफ्रीकी देशों के लिए महत्वपूर्ण भूमिका होगी. क्योंकि संयुक्त राष्ट्र में उनकी संख्या काफ़ी अधिक है. भारत के इस रुख़ को कई बार अलग अलग मंचों, जैसे कि गुट निरपेक्ष आंदोलन, ब्रिक्स (BRICS) और आईबीएसए (IBSA) पर स्पष्ट रूप से रखा जा चुका है. क्योंकि लंबे समय से ध्रुवीकरण, गठबंधन और आकलन, उपनिवेशवाद और शीत युद्ध की विचारधाराओं के आधार पर निर्मित होते रहे हैं.

यहां ध्यान देने लायक़ एक बात बेहद महत्वपूर्ण है कि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने हाल ही में प्रसारित राष्ट्र के नाम संदेश में कोविड-19 की महामारी से पैदा हुई चुनौतियों से निपटने के लिए देश को आत्मनिर्भर बनाने का तर्क मज़बूती से रखा था. हालांकि, इसका ये अर्थ नहीं है कि भारत अपने बाज़ार के संरक्षण की दीवार खड़ी करके स्वयं को उसके पीछे छुपा लेगा. प्रधानमंत्री मोदी के आत्मनिर्भरता के संदेश का संभवत: ये संदेश था कि एक देश के तौर पर भारत को पूरी तरह से अंतरराष्ट्रीय मदद और सहयोग पर ही निर्भर नहीं रहना चाहिए. कम से कम जहां तक बात सार्वजनिक स्वास्थ्य और अन्य महत्वपूर्ण बुनियादी ज़रूरतों की बात है. एक आत्मनिर्भर भारत असल में अपनी अंतरराष्ट्रीय भूमिकाओं और उत्तरदायित्वों को निभाने में अधिक सक्षम होगा. अफ्रीकी देशों के संदर्भ में भी, हम इस भावना का इज़हार एजेंडा 2063 के रूप में परिलक्षित होते देख सकते हैं. जहां पर ये कहा गया था कि, ‘अफ्रीकी एकता का मक़सद पूरे अफ्रीकी महाद्वीप की एकजुटता से प्रेरित है. और इसका मूल लक्ष्य, स्वयं पर आधारित और स्वयं द्वारा निर्धारित अफ्रीकी जनता विकास है. जिसे लोकतांत्रिक और जन आधारित प्रशासनिक व्यवस्था के माध्यम से प्राप्त किया जाना चाहिए.’

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