Author : Javin Aryan

Published on Jul 12, 2021 Updated 0 Hours ago

रक्षा ख़रीदारी को अंजाम देने में वक़्त से ज़्यादा समय लगने के भारतीय इतिहास के बीच भारत और रूस के बीच AK-203 समझौता एक अहम पड़ाव है.

रूस से AK-203 असॉल्ट राइफ़ल मिलने के साथ ही ख़त्म होगी भारत की तलाश

दशकों तक अर्जेंट ऑपरेशन को अंजाम देने के लिए असॉल्ट राइफल की ज़रूरत पर लगातार ज़ोर दिए जाने के बाद भारतीय सेना को बहुत जल्द इनसास राइफल ( इंडियन स्मॉल आर्म्स सिस्टम ) के बदले नई और आधुनिक राइफल मिलने जा रही है. इसके लिए जिस राइफल का चुनाव किया गया है वह AK-203 है जिसे साल 2018 में रूस की कंपनी कलाश्निकोव ने बनाया था. अब जबकि यह समझौता अपने आख़िरी पड़ाव पर है और इस पर हस्ताक्षर जल्द ही होने वाला है तो यह जानना बेहद ज़रूरी है कि आख़िर दो साल लंबी यह प्रक्रिया शुरू कैसे हुई. और हाल में भारतीय सेना को आधुनिक बनाने के मक़सद से की गई इस डील से क्या सबक लिया जा सकता है.

नए स्टैंर्डड की तलाश


साल 1998 में डिफेंस रिसर्च एंड डेवलपमेंट ऑर्गेनाइजेशन (डीआरडीओ)  आर्मामेंट रिसर्च डेवलपमेंट इस्टेबलिशमेंट (एआरडीई) और ऑर्डिनेंस फैक्ट्री बोर्ड (ओएफबी) के द्वारा इनसास राइफल तैयार किया गया और इसे भारतीय सेना में शामिल किया गया. लेकिन शुरुआत से ही इसकी अविश्वनीयता, अक्षमता और इसके पार्ट्स घटिया क्वालिटी, जैसे मैगजीन, के चलते सुरक्षा बलों की ऑपरेशन को अंजाम देने की क़ाबिलियत में बाधा पैदा होने लगी. इस राइफल को लेकर जवानों का भरोसा इतना कम हो गया था कि अक्सर जम्मू कश्मीर हो या फिर उत्तर पूर्वी सीमा से सटे इलाक़े में ऑपरेशन के दौरान सुरक्षा बल इस राइफल के बदले AK-47 और उसके दूसरे वेरिएंट का इस्तेमाल करने लगे थे. ऐसे में यह साफ हो चुका था कि इनसास राइफल का विकल्प जल्द ढूंढा जाना ज़रूरी है.

नई राइफल की क़ाबिलियत के ऊपर चर्चा की वजह से इसे हासिल करने में पहले ही काफी वक़्त लग गया. इनसास राइफल में 5.56×45 मिलिमीटर बुलेट का इस्तेमाल होता है जिसके उत्पादन में कम लागत लगती है और वजन में यह हल्का होता है.

लेकिन इनसास राइफल को बदलना भी इतना आसान नहीं था. मसलन, नई राइफल की क़ाबिलियत के ऊपर चर्चा की वजह से इसे हासिल करने में पहले ही काफी वक़्त लग गया. इनसास राइफल में 5.56×45 मिलिमीटर बुलेट का इस्तेमाल होता है जिसके उत्पादन में कम लागत लगती है और वजन में यह हल्का होता है. लेकिन यह कम घातक होता है और टारगेट को घायल कर देता है या उसे अक्षम बना देता है. दूसरी ओर AK-47 में इस्तेमाल होने वाले 7.62×39 मिलिमीटर बुलेट ज़्यादा ताक़तवर होते हैं और इस लिहाज़ से ये ज़्यादा घातक भी होते हैं और लंबे रेंज के लिए इस्तेमाल में लाए जा सकते हैं. दोनों का इस्तेमाल अलग अलग उद्देश्य के लिए होता है. पहले तरह की गोली अपने टारगेट को घायल कर दुश्मन को अपने संसाधनों का ज़्यादा इस्तेमाल करने पर मज़बूर करती है – मसलन घायल जवान को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाने के लिए दो तीन लोगों की ज़रूरत होती है – जबकि दूसरी तरह की गोली अपने टारगेट का सफाया कर देती है. और इसी अंतर के लिए भारतीय सेना साल 2010 में मल्टी कैलिबर असॉल्ट राइफल ख़रीदना चाहती थी, जिससे स्थिति के आधार पर हथियार के कैलिबर में बदलाव लाया जा सके. लेकिन चार सालों के मूल्यांकन और फील्ड ट्रायल के बाद इस डील को नाकाम कर दिया गया नतीजतन इससे जुड़े टेंडर को रद्द कर दिया गया.

इस समझौते की क़ामयाबी ने इस मिसाल को सामने रखा कि रणनीतिक सहयोगियों के साथ क़रीबी सहयोग के द्वारा भारत ना सिर्फ अपनी सेना को आधुनिक बना सकता है बल्कि मेक इन इंडिया और आत्मनिर्भर भारत अभियान को भी बढ़ावा दे सकता है.


इसके बाद जुलाई 2018 में आख़िरकार भारतीय सेना ने तीन दशक पुराने इनसास राइफल को सेवा से हटाने का फैसला कर लिया. इस दिशा में आगे बढ़ते हुए एक नए प्रस्ताव को आगे बढ़ाने का फैसला लिया गया. इसके तहत योजना यह थी कि नए हथियारों की खेप का पहले आयात किया जाए फिर इसकी तकनीक से रूबरू होने के बाद इसे देश के अंदर ही बनाना शुरू किया जाए. इस तरह सेना की तुरंत ज़रूरतों को भी संतुष्ट कर लिया जाए, और घरेलू रक्षा निर्माण से जुड़े सेक्टर को मेक इन इंडिया के तहत बढ़ावा दिया जाए. इससे भरोसेमंद और सक्षम असॉल्ट राइफल जैसी बुनियादी आवश्यकता के लिए विदेशी कंपनियों पर निर्भरता भी कम होती. अनुमान लगाया गया कि तीनों सेना के अंग नई राइफल और लाइट मशीन गन पर क़रीब 12 हज़ार करोड़ रु. ख़र्च करेगी. इसे लेकर यह भी फैसला लिया गया कि नई राइफल को 7.62 मिलिमीटर कैलिबर वाले चैंबर में फिट किया जाएगा.

रोसोबोरन एक्सपोर्ट जो कि रूसी सरकार नियंत्रित डिफेंस एक्सपोर्ट एजेंसी है, उसकी निगरानी में उत्तर प्रदेश के अमेठी जिले कोरवा ऑर्डिनेंश फैक्ट्री में इस राइफल के उत्पादन की योजना बनी.

इसके फौरन बाद रूस की कलाश्निकोव ने सबसे आधुनिक राइफल AK-203 का डिज़ाइन कर उसका उत्पादन शुरू कर दिया. इसके बाद जनवरी 2019 में इस राइफल का चुनाव किया गया फिर भारत और रूस के बीच अंतर सरकारी समझौते पर हस्ताक्षर किया गया. इसके बाद ज्वाइंट वेंचर के तौर पर इंडो-रसिया राइफल प्राइवेट लिमिटेड की स्थापना हुई जिसमें ओएफबी की 50.5 फ़ीसदी हिस्सेदारी थी और कालश्निकोव की 42 फ़ीसदी और रोसोबोरनएक्सपोर्ट की 7.5 फ़ीसदी हिस्सेदारी थी. रोसोबोरन एक्सपोर्ट जो कि रूसी सरकार नियंत्रित डिफेंस एक्सपोर्ट एजेंसी है, उसकी निगरानी में उत्तर प्रदेश के अमेठी जिले कोरवा ऑर्डिनेंश फैक्ट्री में इस राइफल के उत्पादन की योजना बनी. एक बेहद चौंकाने वाले फैसले के तहत एक सेवारत भारतीय सैन्य अधिकारी मेजर जनरल संजीव सेंगर को उत्पादन की गुणवत्ता और समय के मुताबिक उत्पादन को सुनिश्चित कराने के लिए जुलाई 2019 में इस फैक्ट्री का सीईओ चुना गया.

प्रोजेक्ट में बाधा

भारत सरकार की योजना के तहत 7 लाख 70 हजार AK-203 राइफल की ज़रूरतों को  पूरा करने के लिए पहले 1 लाख राइफल को रूस से आयात करना है जबकि बाकी राइफल का निर्माण कोरवा की फैक्ट्री में होना है. पहले प्रत्येक आयातित राइफल की कीमत करीब 1100 यूएस डॉलर आंकी गई जिसमें राइफल से संबंधित तकनीक के ट्रांसफर और मैन्युफैक्चरिंग फैक्ट्री के निर्माण की क़ीमत भी शामिल थी. लेकिन जैसे ही इस संबंध में बातचीत आगे बढ़ी, रूस द्वारा भारत में बनने वाली 6 लाख 50  हजार राइफल पर 200 या 130 अमेरिकी डॉलर की रॉयल्टी की मांग पर विरोध पैदा होने की ख़बरें आने लगी. यह ओएफबी द्वारा ज़मीन अधिग्रहण की लागत, कोरवा फैक्ट्री के निर्माण ख़र्च और कर्मचारियों की ट्रेनिंग की लागत के बाद की क़ीमत थी. इसके बाद ओएफबी ने जो उत्पादन लागत के बारे में बताया वह सभी राइफलों को आयात करने की क़ीमत से भी ज़्यादा था. बस इसी बात को लेकर भारतीय रक्षा संस्थान से जुड़े अधिकारी इस समझौते को लेकर और चौकन्ने हो गए. हालांकि इन विवादित मसलों का हल निकालने के लिए जून 2020 में रक्षा मंत्रालय ने एक कमेटी का गठन किया. हालांकि इस कमेटी की रिपोर्ट और प्रस्तावों के बारे में अभी तक कोई सार्वजनिक जानकारी हासिल नहीं है. इन सबके बीच कोरोना महामारी ने भी समझौते से जुड़ी बातचीत में अड़ंगा लगाने का काम किया.

बाधाओं के बीच कैसे बढ़ी बातचीत ?

क़रीब एक साल तक इस बातचीत को लेकर जारी ठहराव के बीच सितंबर 2020 में एक बार फिर इसे लेकर प्रगति के संकेत दिखे जब रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की रक्षा मंत्रियों की बैठक में शामिल होने मास्को पहुंचे. हाल ही में चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ (सीओएएस) जनरल एम एम नरवणे ने जनवरी 2021 में एक बयान दिया कि “बातचीत अपने आख़िरी पड़ाव पर है” और सभी मामलों और विवादों को हल कर लिया गया है. यह भी जानकारी सामने आई कि प्रति राइफल की कीमत 70,000 रु.(962 अमेरिकी डॉलर) तक कम हो गई और रूस को प्रति AK-203 राइफल की लाइसेंस के साथ उत्पादन के लिए 6000 रु. (82.5 अमेरिकी डॉलर) रॉयल्टी दी जाएगी. इसके साथ ही कोरवा ऑर्डिनेंश फैक्ट्री में 6 लाख 71 हजार 427 राइफलों के निर्माण में 4.03 करोड़ (55.39 मिलियन अमेरिकी डॉलर) की लागत आएगी जो सीओएएस के बयान के अनुरूप था. यहां तक कि रूस ने भी इस बात की पुष्टि कर दी कि “सभी तकनीकी और व्यापारिक मामलों पर सहमति बन गई” और यह समझौता अपने आख़िरी पड़ाव पर है. 

जैसे ही इस संबंध में बातचीत आगे बढ़ी, रूस द्वारा भारत में बनने वाली 6 लाख 50 हजार राइफल पर 200 या 130 अमेरिकी डॉलर की रॉयल्टी की मांग पर विरोध पैदा होने की ख़बरें आने लगी.

यही वजह है कि रक्षा ख़रीदारी को अंजाम देने में वक़्त से ज़्यादा समय लगने के भारतीय इतिहास के बीच भारत और रूस के बीच AK-203 समझौता एक अहम पड़ाव है. अवास्तविक ज़रूरतों और अनिर्णय को ख़त्म कर भारत के रक्षा संस्थान ने आख़िरकार कार्रवाई की और भारतीय सेना को आधुनिक बनाने की अपनी प्रतिबद्धता को जाहिर किया. इसके साथ ही इस समझौते की क़ामयाबी ने इस मिसाल को सामने रखा कि रणनीतिक सहयोगियों के साथ क़रीबी सहयोग के द्वारा भारत ना सिर्फ अपनी सेना को आधुनिक बना सकता है बल्कि मेक इन इंडिया और आत्मनिर्भर भारत अभियान को भी बढ़ावा दे सकता है. भारत को विदेशी सहयोग के प्रति अब चिंतित होने की ज़रूरत नहीं है और ना ही सुरक्षात्मक नीतियों को लागू करने की ज़रूरत है. अगर भारत ऐसा करता है तो यह आत्मनिर्भर अभियान के लिए बेहद घातक हो सकता है.

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