Published on May 28, 2019 Updated 0 Hours ago

2019 का सबक़: मोदी पीढ़ी भारत की सबसे प्रभावशाली पीढ़ी है और हमेशा रहेगी और यह पीढ़ी देश को नया आकार देगी.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संरक्षण में भारत का राजनीतिक रूपांतरण

एक देश के तौर पर भारत, एक ऐसा राष्ट्र है जिसकी आबादी का एक बड़ा हिस्सा युवा और काम करने वाले लोगों का है और इन कामकाजी लोगों की संख्य़ा लगातार बढ़ती ही जा रही है. इसे देखते हुए ये माना जा रहा था कि — अपनी जनसंख्या से जुड़ी इन विशेषताओं के कारण भारत को आर्थिक दृष्टि से न सिर्फ़ फायदा होने वाला है, बल्कि इसके बदौलत देश में बड़े आर्थिक बदलाव की भी उम्मीद की जा रही थी. लेकिन, इसके उलट हुआ ये कि आबादी के स्तर पर हुए इस बड़े बदलाव का असर, देश की राष्ट्रीय राजनीति पर पड़ी न कि आर्थिक मोर्चे पर. ये बदलाव हमने लगातार देश में हुए पिछले दो लोकसभा चुनावों में देखा है. सच ये है कि, ये न सिर्फ़ कायापलट करने वाला बल्कि परिवर्तनकारी रहा है.

2014 का पिछला आम चुनाव पीढ़ियों का चुनाव था. जो 30 साल से ऊपर के लोग थे, उनके लिए यह सामान्य नियमों वाला चुनाव था — कुछ सत्ता विरोधी लहर, कुछ जातिगत राजनीति और इसी तरह की दूसरी चीज़ें. लेकिन जो लोग 30 साल से नीचे की उम्र के थे, उनके लिए यह चुनाव नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व और उनके द्वारा किये गए वादों के आस-पास बुना हुआ चुनाव था. और यही वजह रही जिस कारण साल 2014 में नरेंद्र मोदी या बीजेपी को मिली ऐतिहासिक भारी बहुमत वाली जीत ने कई लोगों को हैरत में डाल दिया था: ऐसा इसलिए नहीं था कि आम लोगों ने उस दौरान क्या महसूस किया उन बुनियादी तथ्यों को जानकार या विशेषज्ञ समझ नहीं पाये, बल्कि इसलिए कि जो “मोदी जेनरेशन या मोदी पीढ़ी” हमारे सामने आकर खड़ा हुआ था, उसकी विशालता देखकर लोग हैरान थे. इतना ज़्यादा कि उनके लिए उसे ग्रहण कर पानामुश्किल था. ये सब मैंने 16 मई 2014 को ज़िक़्र किया था. 2019 का सबसे अहम सबकक यह है कि 2014 की कामयाबी अनायास मिली कामयाबी नहीं थी, यह अस्थायी नहीं था: यह इस पीढ़ी की स्थायी राजनीतिक ताक़त का प्रतिनिधित्व करता है.

मोदी पीढ़ी भारत की सबसे प्रभावशाली पीढ़ी है और हमेशा रहेगी और यह पीढ़ी देश को नया आकार देगी, जिस तरह से कुछ दूसरे जनसंख्य़ा से जुड़े विस्तार ने किए हैं — जैसे, अमेरिका के बेबी बूमर्स जिन्होंने ऐसा कई और जगहों पर किया है. इस नई पीढ़ी का भारत, पहले के भारत से काफ़ी हद तक अलग होगा, घरेलू राजनीतिक स्तर पर भी और वैश्विक राजनीति के मामले में भी, उनका भारत पहले की भारत की तुलना मेंबिल्कुल अलग होगा.

आख़िरकार ये नया भारत कैसा होगा? क्या ये पहले के भारत की तुलना में, अधीर/उतावला होगा. नौजवान पीढ़ी अक्सर राष्ट्रीय गौरव के लिए इंतज़ार करने को तैयार नहीं होती हैं. पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चीन में तब के बड़े नेता डेंग शियाओ पिंग ने देश के लिए जो नियम तय किये थे उसके मुतबिक “अपनी बारी का इंतज़ार करो और अपनी ताक़त छिपाओ.” शी जिनपिंग का चीन, जहां युवा एकल पुरुषों की एक पीढ़ी को ख़ुश करने के लिए एजेंडा निर्धारित किया जा रहा हैवहां डेंग शियाओ पिंग के सिद्धांत का त्याग कर दिया गया है. यह भारत के लिए और भी ज़्यादा वड़ा सच साबित होगा, जो कि आख़िरकार एक लोकतंत्र है, और जिसे अपने राजनीतिक इतिहास के सबसे ताक़तवर मतदाता के समूह को जवाब देना ही पड़ेगा जिनके प्रति इनकी जवाबदेही बनती है. इसी तरह यह अर्थनीति या देश की अर्थव्यवस्था के बारे में भी अधीर होगा. एक औसत भारतीय युवा चाहता है कि उसे जल्द से जल्द एक बेहतर ज़िंदगी मिल जाए. आज वो इस बेहतर ज़िंदगी जैसी चीज़ को हासिल करने के लिए नरेंद्र मोदी को कुछ और समय देने को तैयार हैं. लेकिन, आने वाले सालों में यह संयम टूट जाएगा.

दूसरा, आने वाले दिनों का भारत आक्रामक और उग्र भारत होगा. एक ऐसा भारत जो अब और “अपनी ताक़त छिपाने में यक़ीन नहीं रखता. बालाकोट घटना के बाद, लोकसभा चुनावों के दौरान जिस तरह से सत्तारूढ़ पार्टी और उसके नेताओं ने बार-बार द दुश्मनों के घर में घुस कर दुश्मनों को मारने का जो ऐलान किया वो इस चुनाव का सबसे प्रमुख़ बिंदु था. ये इस चुनाव से हमें मिला सबसे महत्वपूर्ण सबक़ है. युवा, बेरोज़गार और रोज़गार के अयोग्य पुरुषों के विस्तार का स्वाभाविक परिणाम है एक राष्ट्रीय पौरुष की भावना का जन्म लेना. हम ये कह सकते हैं कि चीन की तुलना में भारत इस आक्रामकता को बनाए रखने में कम सक्षम है. लेकिन, अब वो समय भी ख़त्म हो चुका है जब भारत किसी बड़ी आतंकी हमलों को बिना किसी बड़ी कार्रवाई के सहता रहे.

तीसरा, यह जोख़िम भरा क़दम होगा. युवाओं को आम तौर पर अपनी पराजेयता पर काफी विश्वास होता है, और आगे जो नीतियां बनेंगी या बनायी जाएंगी, उनमें देश के युवाओं की इन भावनाओं को दर्शाना सरकार की मजबूरी होगी. कुछ लोग भले ही यह तर्क दे सकते हैं कि नोटबंदी एक मुर्ख़तापूर्ण ग़लती थी; लेकिन कई मतदाताओं के लिए इसका मतलब था कि मोदी ने एक किस्म से जोख़िम लिया था और एक अच्छे उद्देश्य के लिए लिया था. हो सकता है कि पाकिस्तान के बालाकोट में भारत द्वारा किए गए एयर स्ट्राइक से भारत-पाकिस्तान के रिश्ते में कुछ बुनियादी कूटनीतिक बदलाव नहीं हुआ हो (हालांकि, कुछ विशेषज्ञ इससे सहमत नहीं हैं) लेकिन इसका राजनीतिक तौर पर इसका इस्तेमाल बख़ूबी किया गया, क्योंकि यह एक राष्ट्र के रूप में सिर्फ़ ताक़त का प्रदर्शन ही नहीं, बल्कि ये इस बात का भी उदाहरण था कि एक राष्ट्र के तौर पर हम किसी ख़तरे को लेकर कितने सहनशील हो सकते हैं और कितने नहीं. इस मायने में, भारतीय नेतृत्व की गिनती उन देशों में हो रही है जो जोख़िम उठाने का साहस रखते हैं; पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की पहचान एक ऐसे नेता के तौरपर की जाती रही थी जो सतर्कता बरतने और “चुप्पी/मौन” साधने के लिए जाने जाते थे.जबकि मोदी उनके उलट जोख़िम लेने के कारण एक युगांतकारी नेता माने जा रहे हैं.

चौथी वजह, बहुसंख्यकवादिता है. मेरे कहने का यह मतलब बिल्कुल नहीं है कि आज की बीजेपी, पुरानी बीजेपी या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सरल, वनिला हिंदुत्व 1.0 यानि सॉफ़्ट या नरम हिंदुत्व जैसी होगी. मुझे ऐसा लगता है कि कि — मोदी जेनरेशन या पीढ़ी के एक बड़े वर्ग में एक ख़ास किस्म की ज़्यादा संगठित पहचान का पोषण किया जा रहा है — इसमें सोशल मीडिया का बहुत बड़ा योगदान है. मीम वार जो कि आज दुनिया भर में कई लोकतांत्रिक चुनावों को निर्धारित करता है, उसमें एक तथ्य भुला दिया जाता है कि — इस मीम वॉर से प्रभावित होने वाले लोगों में ज़्यादातर भारतीय युवा हैं. उन्हें ये मीम्स प्रभावित कर रहें हैं. फिर चाहे वो युवा दलित हो, ऊंची जाति का युवा हो, हिमाचल का युवा हो या फिर महाराष्ट्र काये सभी एक विशेष ताक़त से प्रभावित हो, एक साथ आते जा रहें हैं — जिसे एक दशक पहले इंटरनेट हिंदुत्व कहा जाता था. अगर, तमिलनाडु असाधारण रूप से इस आकर्षण से अछूता है तो ऐसा इस वजह से हो सकता है कि कम से कम अभी इस राज्य में मीम इकॉनमी देश के बाक़ी हिस्सों से स्वतंत्र है — और उल्लेख़नीय रूप से मज़बूत भी.

पांचवां, जो है उसे बड़ी आसानी से भुलाया जाने वाला है. युवाओं के पास अक्सर अतीत की बहुत कम यादें होती हैं. वो 1991 के पहले के भारत को याद नहीं करेंगे, जब भारत एक नीरस और असफल समाजवाद का देश था और जहां लगभग एक-दलीय शासन था. इसलिए, न तो उनमें अपने से पहले वाली पीढ़ी जितना डर होता है और न ही वो सूझ-बूझ. युवा और नौजवान होने के कारण ऐसा मुमकिन है कि वो वो राजनीति, अर्थशास्त्र और निजी जीवन पर ज़्यादा नियंत्रण देखने की इच्छा रखते हों. सिर्फ़ इसलिए कि वो नौजवान हैं इसका मतलब यह नहीं हो जाता है कि वो ज़्यादा उदार होंगे. जब मोदी उदार भारत की संस्थाओं को नुक़सान पहुंचाते हैं, तो यह कोई संयोग नहीं है. यह सिर्फ़ सत्ता की ताक़त का घमंड नहीं है. यह उनके कोर युवा वोटरों की प्रवृति की झलक है: जो किसी भी तरह का फ़ैसला लेने, केंद्रीकृत ताक़तों और प्रधानमंत्री द्वारा व्यक्त उनकी इच्छा की राह में बाधा पहुंचाने चाहे जो कुछ भी आए उसके लिए नफ़रत और तिरस्कार की भावना का झलक है. अटल बिहारी वाजपेयी की बीजेपी जो कि अपने अस्तित्व के अधिकांश समय विपक्ष में रही, वो एक-दलीय शासन के ख़तरे को जानती थी. इसलिए, वाजपेयी की बीजेपी ने उन संस्थाओं को संरक्षण दिया जिन्होंने राजनीतिक अल्पसंख्यकों की रक्षा की. मोदी और उनके युवा मतदाताओं की बीजेपी ऐसा नहीं करेगी.

मोदी जेनरेशन द्वारा इस समय में किया गया यह राजनीतिक रूपांतरण भारत और दुनिया को काफ़ी हद तक प्रभावित करेगा. जब तक यह जेनरेशन या इस पीढ़ी का अंत होगा तब तक हमारा ये गणतंत्र (रिपब्लिक) पहचाने जाने योग्य नहीं रह पाएगा.

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