Published on Oct 31, 2022 Updated 0 Hours ago

डिजिटल इनोवेशन की गति रेग्युलेटर ओवरसाइट पर हावी है; नियामक विचारों में भारी बदलाव समय की मांग है.

मौज़ूदा फाइनेंसर बनाम फिनटेक: भारतीय फाइनेंशियल रेग्युलेटर्स में बदलाव समय की मांग

फाइनेंशियल रेग्युलेशन्स मौज़ूदा वक़्त में विघटनकारी तत्वों (और कुछ ऐसे जो रेग्युलेटर लाइन्स को नज़रअंदाज़ करते हैं) और मौज़ूदा वैसे वित्तीय संस्थानों, जो ख़ुद की ब्रांड के विरासत का इस्तेमाल किसी विजिटिंग कार्ड की तरह करते हैं, उनके बीच मध्यस्थता का रास्ता खोलते हैं. हालांकि यह एक चुनौती है जो संभावित रूप से झटका दे सकती है जब जनसांख्यिकीय बदलाव का मतलब, युवा उपभोक्ता विरासत को अपने लिए उपयोगी नहीं मानते हैं. पारंपरिक वित्तीय फर्मों को यह स्वीकार करना होगा कि ग्राहकों की अपेक्षाएं डिजिटल इको सिस्टम से प्रभावित होती हैं, और इनोवेशन के चलते वित्तीय सेवा क्षेत्र में भारी बदलाव हो रहा है. लाइसेंस धारक के लिए फायदा यह है कि रेग्युलेटर वित्तीय इकाई के प्रमोटर के बारे में सकारात्मक दृष्टिकोण रखते हैं – ख़ास तौर पर बैंक, म्यूचुअल फंड या बीमा फर्म जैसी संस्थाएं –  कम से कम अब अपने संचालन की निगरानी करते हैं.

उच्च पदों  पर बैठे लोगों की भूमिकाओं में मात्र बढ़ोतरी होने से कुछ भी नहीं बदलेगा क्योंकि इन रेग्युलेटरी संगठनों की संस्कृति रातोंरात नहीं बदली जा सकती है. यही कारण है कि इस बात का डर बना रहता है कि नए लाइसेंस-आवेदकों के साथ रेग्युलेटर्स का रवैया अनुचित हो सकता है, क्योंकि वे उन्हें ज़्यादा तवज्जो दे सकते हैं जो उनसे पहले से परिचित होते हैं.

यह वह स्थान है जहां रेग्युलेटर को टैलेंट पूल बनाने की ज़रूरत है, जो नई तकनीक़ के आने से पहले तेजी से नई क्षमताएं विकसित कर सके. यह एक महत्वपूर्ण चुनौती है, क्योंकि इनोवेशन, बाज़ार और उद्योगों को ज़रूरी नौकरशाही प्रक्रियाओं का सामना नहीं करना पड़ता है जैसा कि रेग्युलेटरों को करना पड़ता है. उच्च पदों  पर बैठे लोगों की भूमिकाओं में मात्र बढ़ोतरी होने से कुछ भी नहीं बदलेगा क्योंकि इन रेग्युलेटरी संगठनों की संस्कृति रातोंरात नहीं बदली जा सकती है. यही कारण है कि इस बात का डर बना रहता है कि नए लाइसेंस-आवेदकों के साथ रेग्युलेटर्स का रवैया अनुचित हो सकता है, क्योंकि वे उन्हें ज़्यादा तवज्जो दे सकते हैं जो उनसे पहले से परिचित होते हैं. इसके अलावा, उपभोक्ताओं की सेवा के लिए तकनीक़ को अपनाने के मक़सद से, पारंपरिक लाइसेंसधारक गैर-पारंपरिक नई प्रतिस्पर्धा को ख़त्म करने या उसकी रफ़्तार  को कम करने के लिए अपने सभी नेटवर्क, गुडविल और लॉबी की ताक़त का इस्तेमाल कर सकते हैं.

भारतीय अरबपति निवेशक, राकेश झुनझुनवाला ने कहा था कि, “जब तक सरकारों और बैंकिंग संस्थानों और वित्तीय प्रणाली में भरोसा है, तब तक दुनिया ख़त्म होने वाली नहीं है.” इसीलिए यह साबित करता है कि रेग्युलेटर्स को पक्षपातपूर्ण रवैया नहीं अपनाना चाहिए. भरोसा एक ऐसा पहलू है जो सभी हितधारकों को एक दूसरे में होना चाहिए. निष्पक्षता और पारदर्शिता ऐसे मूल्य हैं जिनकी ना केवल उद्योग से, बल्कि रेग्युलेटरों से भी अपेक्षा की जाती है. अधिक अनिवार्य रूप से, रेग्युलेटरों को अपने स्वयं के लाइसेंसिंग मानदंडों, प्रोसेसिंग एप्लीकेशन में तेजी लाने और अपने निर्णयों में पारदर्शिता लाने पर फिर से विचार करना चाहिए. इसका नतीजा यह होता है कि उपभोक्ता हितों और वित्तीय ज़रूरतों को कैसे आकार दिया जा रहा है, इसकी गहरी समझ विकसित हो सकती है.

रेग्युलेटरी क्षमताओं को विकसित करने के लिए ज़रूरी है कि #जेएमजेड की समझ और सामाजिक ताने-बाने, खपत पैटर्न और बिजनेस मॉडल व्यवधानों पर उनके प्रभाव से सबक ली जाए.

तकनीक़ एक प्रवर्तक और विघटनकारी शक्ति दोनों है. उदाहरण के लिए, सिर्फ इसलिए कि कोई यह नहीं समझ पाता है कि पावरपॉइंट प्रजेंटेशन कैसे बनाया जाता है तो कोई यह दावा नहीं कर सकता कि इसका इस्तेमाल करना बुरा है या अपने टीम के सदस्यों के लिए इसे प्रतिबंधित कर देना चाहिए. अगर आरबीआई जैसे रेग्युलेटरों में टैलेंट पूल और क़ाबिलियत को आकर्षित करने की कमी है, तो यह एक दिक्क़त हो सकती है ख़ास कर तब जबकि रेग्युलेटरों को तीसरे पक्ष की सलाह के लिए तकनीक़ी प्रयासों और डिजिटल विशेषज्ञता को आउटसोर्स करने के लिए मज़बूर होना पड़ता है, जो आख़िर में उद्योग प्रतिभागियों को भी सलाह मुहैया कराते हैं.

जेमजेड और वित्त

बेबी बुमर से लेकर जेन-एक्स पीढ़ी तक देखा गया है कि वो अपने वित्तीय-सेवा प्रदाताओं को बदलने में या तो अनिच्छुक रहे हैं या इसकी रफ्तार बेहद धीमी है. उन्होंने इसे स्थापित वित्तीय ब्रांडों के साथ सुरक्षित रूप से आगे बढ़ाया है क्योंकि तब इसका मतलब उनके निवेश की सुरक्षा होती है. लेकिन भारत की युवा आबादी – जहां 65 प्रतिशत आबादी 35 वर्ष से कम उम्र की है – किसी एक की विरासत या ऑरिजिन से नहीं जुड़ी है.

रेग्युलेटरी क्षमताओं को विकसित करने के लिए ज़रूरी है कि #जेएमजेड (गिग इकॉनमी, मिलेनियल्स, जेन जेड) की समझ और सामाजिक ताने-बाने, खपत पैटर्न और बिजनेस मॉडल व्यवधानों पर उनके प्रभाव से सबक ली जाए. इस घटना को, जब विघटनकारी और साथ ही तकनीक़ी क्षमताओं के साथ इसे जोड़ा जाता है, तो वित्तीय प्रक्रियाओं और गतिविधियों की गहरी समझ की ज़रूरत  होगी जिसे आख़िरकार जेमजेड बाधित करेगा. यह वास्तव में वो गतिविधियां हैं जिन्हें फाइनेंशियल रेग्युलेटरों को रेग्युलेट और सुपरवाइज़ करने की ज़रूरत है. चौथी औद्योगिक क्रांति का प्रभाव इसे इकाई-आधारित पुराने तरीक़े के बजाय गतिविधि-आधारित सुपरविज़न की ओर ले जाता है. इसका मतलब यह होगा कि रेग्युलेटरों को सतर्क, सक्रिय और फुर्तीला होना होगा. उन्हें स्वयं अपने क्षेत्रों की रियल-टाइम ट्रैकिंग के लिए तकनीक़ी सुपरविज़न का इस्तेमाल करना चाहिए.

रेग्युलेटरी कार्य और भी जटिल हो जाते हैं क्योंकि वर्तमान वित्तीय व्यवधान भी उद्योग की सीमाओं से परे हैं और अक्सर कई नियामकों तक फैल जाते हैं. इसलिए, वित्तीय नियामकों को इनोवेशन और इससे संबंधित गतिविधियों को नुकसान पहुंचाए बगैर, चुस्त वर्किंग मेकेनिज्म (कार्य तंत्र) को तैयार करना होगा. अन्यथा ऐसे मामलों में, किसी भी उपभोक्ता शिकायत के लिए दायित्व और अधिकार क्षेत्र की  पहचान करना बेहद मुश्किल हो जाता है.

उभरती तकनीक़ के व्यवसायीकरण में तेजी से प्रगति रेग्युलेटरों और नीति निर्माताओं को सिर्फ अस्तित्व में बने रहने के लिए उन्हें ऐसे थैंकलेस और बोझिल कार्य का सामना करने के लिए मज़बूर कर रही है. पुरानी ‘अस वर्सेज देम (हम बनाम वे’) हाइरारकी वाली मानसिकता के बदले, इसमें भारी बदलाव की ज़रूरत है.  रेग्युलेटरी और तकनीक़ के “साथ प्रतिभा, वित्तीय रेग्युलेशन को एक साथ देखना” उपभोक्ता प्रभाव और उपभोक्ता संरक्षण के लिए बेहतर तकनीक़ प्राप्त करने में अधिक उपयोगी हो सकता है लेकिन इसका परिणाम यह है कि रेग्युलेटरों को यह सुनिश्चित करके हितों के टकराव के परिदृश्य से भी बचना होगा कि जिन तकनीक़ी विशेषज्ञ सलाहकारों से वे इनपुट चाहते हैं, वे भी उन तकनीक़ों में निवेश नहीं कर रहे हों, जिन्हें अपनाने के लिए वे किसी एक उद्योग की पैरवी कर रहे हों.

रेग्युलेटरों को रेग्युलेटरी डेवलपमेंट जैसे ऐप बनाने पर विचार करना चाहिए, जो नियमित तौर पर ऐप के अपग्रेड की पेशकश करते हैं. तकनीक़ और वित्त के कनर्वजेंस के साथ तालमेल रखने के लिए रेग्युलेटरों को अपने नियमों, दिशानिर्देशों और सरकुलर्स को अपडेट करते रहना होगा; क्योंकि डिजिटल युग में कभी भी सही और अंतिम अपडेट की जगह नहीं हो सकती है.

अपने क्षेत्र में फाइनेंशियल इनोवेशन को संभालने के साथ-साथ अपने ख़ुद के पर्यवेक्षी पहल के लिए तकनीक़ को चलाने के लिए रेग्युलेटरों और रेग्युलेटरी सुपरवाइज़र्स को निश्चित रूप से अधिक तकनीक़ और डेटा साइंस टैलेंट को नियुक्त करने की ज़रूरत है, क्योंकि यह वह जगह है जहां हाइरारकी में उम्र की सोच से दूर जाने की ज़रूरत है क्योंकि तकनीक़ी प्रतिभा दिन ब दिन युवा होती जा रही है.

नई वित्तीय वस्तु के तौर पर डेटा

टेक दिग्गज़ भी “टेकफिन्स” के रूप में उभर रहे हैं, जिस तरह से वे सामग्री, उपभोक्तावाद और वाणिज्य को एक साथ जोड़ते हैं. टेक फिन्स तकनीक़ से जुड़ी कंपनियां हैं, जो अपने स्वयं के मूल उत्पाद (उत्पादों) को अधिक आकर्षक बनाने के लिए वित्तीय सेवाओं की पेशकश करती है लेकिन उनका बिजनेस मॉडल उन वित्तीय सेवाओं में बिजनेस मार्ज़िन पर निर्भर नहीं करता है. और यहीं से वित्तीय रेग्युलेटरों द्वारा उन्हें रेग्युलेट करने की चुनौती शुरू होती है. ये तकनीक़ से जुड़े प्लेटफॉर्म डिजिटल फाइनेंस स्पेस में उपभोक्ता डेटा का उपयोग कमोडिटी के रूप में करते हैं. यहीं पर यह सवाल उठता है कि आख़िर कौन डेटा गर्वनेंस (और कैसे), डेटा यूसेज नॉर्म्स, डेटा सिक्योरिटी और कंज्यूमर प्राइवेसी (उपभोक्ता गोपनीयता) को नियंत्रित करता है. किसी भी विंटेज या साइज की टेक कंपनियों की संख्या, जो उपभोक्ताओं को वित्तीय पेशकश देने के लिए डेटा साइंस का उपयोग करेगी, समय के साथ बढ़ती ही जाएगी. यह रेग्युलेटरी सीमा को अस्पष्ट करेगा कि कौन विशुद्ध रूप से फाइनेंसियर है या कौन वित्त की पेशकश करने वाला कनज्यूमर टेक प्लेटफॉर्म है. और इस तरह वित्तीय सेवाएं एफएमसीजी उत्पाद जैसा बन जाएंगी.

नीति निर्माता आमतौर पर पॉलिसी अपग्रेड की ज़रूरत पर बहुत धीमी गति से प्रतिक्रिया देते हैं. यह चिंता का कारण है, क्योंकि यथास्थितिवाद या धीमी रेग्युलेटरी  मूवमेंट इनोवेशन या डिसरप्टिव विचारों के व्यवसायीकरण को प्रभावित कर सकती है, ख़ासकर यदि रेग्युलेटरी सिस्टम पूरी तरह से तैयार नहीं है, ऐसे में इसका नतीजा संभावित सकारात्मक उपभोक्ता प्रभाव में देरी के रूप में सामने आ सकता है. सवाल उठता है कि क्या हमें रेग्युलेटरी अपडेट के लिए वित्तीय क्षेत्र में बार-बार संकटों की ज़रूरत है? ऐसा होना ज़रूरी नहीं.  रेग्युलेटरों को रेग्युलेटरी डेवलपमेंट जैसे ऐप बनाने पर विचार करना चाहिए, जो नियमित तौर पर ऐप के अपग्रेड की पेशकश करते हैं. तकनीक़ और वित्त के कनर्वजेंस के साथ तालमेल रखने के लिए रेग्युलेटरों को अपने नियमों, दिशानिर्देशों और सरकुलर्स को अपडेट करते रहना होगा; क्योंकि डिजिटल युग में कभी भी सही और अंतिम अपडेट की जगह नहीं हो सकती है.

बेशक, फाइनेंशियल रेग्युलेटरों को डिजिटल क्षेत्र और उनके क्षेत्र पर इसके प्रभाव को समझने की ईमानदार इच्छा होनी चाहिए. कुछ भारतीय फाइनेंशियल रेग्युलेटर (वित्तीय नियामक) देश के अंदर अपने साथी वित्तीय नियामकों से काफी आगे हैं. ऐसे में उनके बीच सामंजस्य एक आवश्यकता बन जाती है जिससे क्रॉस-रेगुलेटरी-आर्बिट्रेज की स्थिति से बचा जा सके.

रेग्युलेटर्स उपभोक्ताओं की सुरक्षा करते हुए इनोवेशन को प्रोत्साहित करना चाहते हैं और यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि तकनीक़ के नेतृत्व वाले व्यवधानों के कारण कोई नकारात्मक परिणाम पैदा ना हो सके. इसमें से बहुत कुछ हमारे बाज़ार की सामाजिक प्रकृति के साथ-साथ विभिन्न उपभोक्ता समूहों की आर्थिक स्थितियों में असमानताओं के कारण भी है. जब कोई निगेटिव कंज्यूमर इवेंट घटित होती है तो यह और बढ़ जाता है; यह ज़रूरी नहीं है कि इसमें शामिल वित्त की मात्रा ही यह निर्धारित करती है कि कोई कार्रवाई कितनी विस्तृत हो सकती है. यह वह जगह है जहां फिनटेक को बैंकों, निवेश फर्मों और बीमा फर्मों के समान रेग्युलेटरी  नियामक निगरानी के तहत लाना उपयोगी साबित होगा. नियामक मध्यस्थता का उपयोग करने के लिए क्षेत्रीय प्रतिभागियों को दोष देने से कुछ भी हल नहीं होगा. लेकिन, वहां फिर से रेग्युलेटर सुपरवाइजर्स को ऐसा करने के लिए रियल टाइम डिजिटल सुपरविज़न क्षमताओं को बढ़ाने की ज़रूरत होगी.

अगर रेग्युलेटर अपने अस्तित्व को लेकर इन आधारों के प्रति सच्चे हैं, तो उन्हें रेग्युलेटर आर्बिट्रेज को रोकना चाहिए – भले ही यह ज़्यादातर अनजाने में ही क्यों ना हो – जो मौज़ूदा लाइसेंस जमाकर्ताओं/धारकों को चुनौती देने वालों को नुक़सान पहुंचाएगा. रेग्युलेटरों को पद पर बैठे लोगों द्वारा बिज़नेस मोट के तौर पर इस्तेमाल नहीं होना चाहिए. विशुद्ध तौर पर डिजिटल फाइनेंसरों के विस्तार को देखते हुए, ज़ल्द ही डिजिटल-युग ख़ुद से बाहर हो जाएगा लेकिन सवाल यह है कि भारत तो अपने डिजिटल स्टैक के साथ इसके लिए तैयार है लेकिन क्या हमारे रेग्युलेटर इसके लिए तैयार हैं?

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