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आज हम जहां हैं वहां ऐसा भी हो सकता है कि ख़ुद महाशक्तियां नहीं बल्कि उनके साथी देश अंतरिक्ष के क्षेत्र में सुरक्षित और भरोसेमंद तौर-तरीक़ों को खड़ा करने और फैलाने में कामयाब हो जाएं.
अंतरिक्ष के क्षेत्र में आज नई पीढ़ी के किरदारों और तकनीकों का प्रवेश हो गया है. लिहाज़ा इस क्षेत्र में आज प्रमुख रूप से प्रशासकीय चुनौती सामने आ खड़ी हुई है. ये चुनौती है कि हम अंतरिक्ष और उसके आर-पार दुनिया भर के सार्वजनिक और निजी, सभी तरह के किरदारों के लिए कैसे संरक्षित, सुरक्षित और भरोसेमंद कार्यप्रणाली तैयार कर सकते हैं? आज की दुनिया में एक बार फिर महाशक्तियों के बीच की प्रतिस्पर्धा शुरू हो चुकी है. ऐसे में इस क़वायद के सामने तीन मुख्य चुनौतियां हैं- प्रोत्साहन, प्रतिद्वंदिता और गठजोड़.
चुनौतियों का एक समूह अंतरिक्ष तकनीकी के दोहरे-इस्तेमाल वाले स्वभाव की वजह से सामने आता है. इसी के साथ ऐसी तकनीक के निर्माताओं के सामने अनिश्चित बाज़ारों की वजह से ढांचागत प्रोत्साहनों को लेकर समस्याएं रहती हैं.
चुनौतियों का एक समूह अंतरिक्ष तकनीकी के दोहरे-इस्तेमाल वाले स्वभाव की वजह से सामने आता है. इसी के साथ ऐसी तकनीक के निर्माताओं के सामने अनिश्चित बाज़ारों की वजह से ढांचागत प्रोत्साहनों को लेकर समस्याएं रहती हैं. हालांकि हमेशा ये बातें उभरकर सामने नहीं आती हैं. अक्सर हम अपने सामने हैरान करने वाले नवाचार और नई-नई मशीनों का आविष्कार होते देखते हैं. इनमें अंतरिक्ष की ओर जाते और वहां से वापस लौटते रॉकेट शामिल हैं. अंतरिक्ष की ओर निश्चित उद्देश्यों को पूरा करने वाले साझा उड़ानों (rideshare) से जुड़े मिशन भी इसी कड़ी का हिस्सा हैं. इनमें अलग-अलग अंतरिक्ष उपकरणों या भार (payloads) को ले जाया जाता है. इसके अलावा सैटेलाइट्स भी इनमें शामिल हैं- जो पृथ्वी पर लगभग हर जगह मानवीय गतिविधियों पर नज़र रख सकते हैं और उनकी पड़ताल कर सकते हैं. इसके साथ ही ग़रीबों और अमीरों के बीच डिजिटल डिवाइड को पाटने वाले बड़े-बड़े यांत्रिक गुच्छे भी इसी का हिस्सा हैं. ये पृथ्वी पर इंटरनेट की सुविधा मुहैया कराते हैं. इतना ही नहीं परमाणु संचालक शक्ति भी इसी कड़ी का हिस्सा हैं. ये पहले इंसान को मंगल या उसके पार ले जाने की क्षमता रखते हैं, और शायद पहले इंसान को मंगल पर ले भी जा सकते हैं.
अंतरिक्ष से जुड़ी अर्थव्यवस्था को लेकर काफ़ी लुभावने अनुमान लगाए जा रहे हैं. बताया जा रहा है कि निकट भविष्य में ये अर्थव्यवस्था मौजूदा 400 अरब अमेरिकी डॉलर से बढ़कर 3-4 खरब अमेरिकी डॉलर तक पहुंच जाएगी. हालांकि ये बात किसी को पता नहीं है कि इस क्षेत्र में क़दम रखने वाली नई कंपनियों, नवाचारों या सहायक इकाइयों में से कितने कारोबारी तौर पर मुनाफ़ा कमाने वाले साबित हो सकेंगे. वैसे इस बात का आसानी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इन किरदारों और उनकी तकनीकों को राष्ट्रीय अंतरिक्ष सुरक्षा ढांचों की सेवा में आसानी से इस्तेमाल किया जा सकता है. बहरहाल ये प्रक्रिया पहले ही शुरू हो चुकी है. इसके तहत अंतरिक्ष के दायरे के इस्तेमाल की दिशा को फ़ौजी उपयोगों की ओर मोड़ना शामिल है. कंपनियों के पास रक्षा और असैनिक ठेकों के पीछे जाने के लिए ठोस प्रोत्साहन मौजूद हैं. अपने उतार-चढ़ावों के बावजूद ये अंतरिक्ष क्षेत्र के तमाम किरदारों के लिए एक बड़े बाज़ार का प्रतिनिधित्व करते हैं. इनमें नए खिलाड़ी (जैसे SpaceX) और पुराने किरदार (जैसे बोइंग, लॉकहीड मार्टिन) शामिल हैं.
अंतरिक्ष से जुड़ी अर्थव्यवस्था को लेकर काफ़ी लुभावने अनुमान लगाए जा रहे हैं. बताया जा रहा है कि निकट भविष्य में ये अर्थव्यवस्था मौजूदा 400 अरब अमेरिकी डॉलर से बढ़कर 3-4 खरब अमेरिकी डॉलर तक पहुंच जाएगी.
दुनिया में जारी महाशक्तियों के बीच की प्रतिस्पर्धा में उत्पादों और सेवाओं को फ़ौजी स्वरूप देने और यहां तक कि खुलेआम हथियारों के तौर पर इस्तेमाल करने को लेकर कॉरपोरेट जगत के लिए प्रोत्साहन काफ़ी बढ़ गए हैं. इसके अलावा सहयोगपूर्ण ढांचे पर विचार करने, परिभाषित करने और उसे खड़ा करने को लेकर चुनौतियों का दूसरा ठोस समूह अमेरिका और चीन के बीच की सामरिक प्रतिस्पर्धा से निकलकर सामने आता है. ऐतिहासिक अनुभव इसी दायरे की ओर इशारा करते हैं. इतना ही नहीं दोनों ताक़तों द्वारा दिखाए जा रहे पैतरों और सख़्त तेवरों से इस बात की तस्दीक हो जाती है कि वो अंतरिक्ष को अपने जंगी इलाक़े की तरह देख रहे हैं.
मिसाल के तौर पर छोटे सैटेलाइटों को आज अंतरिक्ष सुरक्षा ढांचे में मज़बूती पाने के लिए बेहद अहम माना जा रहा है. इसका मतलब ये है कि मिलिट्री इंटेलिजेंस, राष्ट्रीय इंटेलिजेंस और रक्षा बजट इसी दिशा की ओर आगे बढ़ रहे हैं.
इनके बीच अपने वर्चस्व को लेकर जारी रस्साकशी अंतरिक्ष और उसके आर-पार निकल रही है. दरअसल इनसे जुड़ी सभी प्रमुख तकनीकी और अंतरिक्ष के मसलों पर तमाम क़वायदों का लक्ष्य प्रतिद्वंदी से ज़्यादा काबिलियत हासिल करना और उसपर अपनी ताक़त का धाक जमाना है. ऐसे माहौल में कोई और बात सोचना अनाड़ीपन है. दुनिया के देश असैनिक और कारोबारी लक्ष्यों का ढिंढोरा पीटते हैं. इनमें सैटेलाइट की सर्विसिंग, ऑर्बिटल मलबों को कक्षा से बाहर रखना, ठोस ईंधन वाले रॉकेट उड़ाना या चांद के दूरदराज़ वाले इलाक़े में लैंडिंग करना शामिल है. मिसाल के तौर पर छोटे सैटेलाइटों को आज अंतरिक्ष सुरक्षा ढांचे में मज़बूती पाने के लिए बेहद अहम माना जा रहा है. इसका मतलब ये है कि मिलिट्री इंटेलिजेंस, राष्ट्रीय इंटेलिजेंस और रक्षा बजट इसी दिशा की ओर आगे बढ़ रहे हैं.
निश्चित तौर पर ऐसी टेक्नोलॉजी के साथ वैज्ञानिक और कारोबारी मूल्य भी जुड़े हो सकते हैं, लेकिन फ़िलहाल उनके सैनिक इस्तेमाल और प्रभाव स्पष्ट और सामने मौजूद हैं. इन तमाम पहलुओं का परमाणु, साइबर, इलेक्ट्रोमैग्नेटिक, आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (AI) और क्वॉन्टम फ़्रंटियर्स से कैसा घालमेल होता है, यही महाशक्ति के तौर पर उनके दर्जे का आधार तय करता है. इसी के साथ विभिन्न क्षेत्रों में उनकी गतिविधियां तय होती हैं. रक्षात्मक और आक्रामक रणनीतियों में संतुलन बिठाने के मकसद से इनकी बुनियादी अहमियत होती है. ख़ासतौर से अमेरिका और चीन में बैठे फ़ौजी जनरल भविष्य में अंतरिक्ष में जंग छिड़ने को तय मान रहे हैं.
निश्चित तौर पर इनसे शक्ति का संतुलन प्रभावित होता है. इसके मायने ये भी हैं कि टेक्नोलॉजी पर निगरानी रखना मुश्किल है. आपसी प्रतिस्पर्धा में उलझे देशों के बीच इनका नियमन करना तो और भी कठिन है. इसकी एक मिसाल तो यही है कि काइनेटिक और नॉन-काइनेटिक दोनों तरह के एंटी-सैटेलाइट (ASAT) टेस्टिंग पर संयम का माहौल अभी से ही ढीला पड़ने लगा है. ऐसी काइनेटिक संपत्तियां सबसे ज़्यादा दिखाई देने वाली संपत्तियों में से एक हैं. 2007 में चीन, 2008 में अमेरिका और सबसे हाल में 2019 में भारत द्वारा किए गए एंटी-सैटेलाइट परीक्षणों के ज़रिए ये बात उभरकर सामने आई है. बहरहाल नॉन-काइनेटिक तौर पर सेंसर्स को निशाना बनाए जाने और अंतरिक्ष की संपत्तियों से ताल्लुक़ रखने वाले डेटा जैसे लेज़र्स, साइबर हमलों को जाम करने वाली प्रणाली समेत तमाम दूसरी गतिविधियों पर अपेक्षाकृत काफ़ी कम ध्यान दिया जाता है.
अंतरिक्ष में हथियार को परिभाषित करना कठिन होता है. इतना ही नहीं सैनिक-असैनिक घालमेल में साफ़-साफ़ पहचान करना भी मुश्किल होता है. लिहाज़ा ज़्यादातर अत्याधुनिक अंतरिक्ष-रोधी क्षमताओं पर अक्सर किसी तरह की टीका-टिप्पणी नहीं हो पाती. एक उल्कापिंड की ओर निर्देशित जापान के दूसरे हायाबुसा मिशन ने वो कर दिखाया जो इसके पहले वाले मिशन नहीं कर पाए थे. इसने एक उल्कापिंड की सतह पर 300 मीटर प्रति सेकेंड की रफ़्तार से तांबे की बनी “गोलियां” दागी थीं. ये अंतरिक्ष-रोधी क्षमताओं का एक भरोसेमंद संकेत है. इनसे ये पता चलता है कि कोई देश इतनी लंबी दूरी से क्या देख, कर और सहन कर सकता है. लेकिन ये किसको समझाने की क़वायद है और किस बात के लिए?
इसके बाद चुनौतियों का तीसरा समूह आता है. ये स्थायी क्रियाकलाप तैयार करने की संभावनाओं पर असर डालते हैं. इनमें अंतरिक्ष में द्विध्रुवीय गठजोड़ का मसला आता है. इसके एक ओर अमेरिका की अगुवाई वाली अंतरिक्ष व्यवस्था है, जिसमें जापान जैसे साथियों के साथ औपचारिक और अनौपचारिक दोनों तरह की गतिविधियां शामिल हैं. इसके अलावा यूनाइटेड किंगडम (यूके) के साथ विशेष संबंध, लंबे समय से चला आ रहे नेटो गठजोड़ और नए नवेले क्वॉड के भागीदार शामिल हैं. इस द्विध्रुवीय गठजोड़ के दूसरी ओर है चीन. हाल ही में चीन ने रूस के साथ चांद से जुड़ा समझौता किया है. इसके साथ ही चीन के पास हर मौसम का साथी पाकिस्तान भी है. चीन अपने अंतरिक्ष सूचना गलियारे को अपने बेल्ट-एंड-रोड इनिशिएटिव के उपभोक्ता आधार तक विस्तार दे रहा है. हालांकि इन गठजोड़ों का स्वरूप साफ़ नहीं है और न ही वो अनिवार्य रूप से स्थिर है. इनके भीतर के मत हमेशा उम्मीदों की दिशा के मुताबिक नहीं होते. इनमें से किसी एक गुट का साथी देश कभी भी दोनों ही पक्षों की परियोजनाओं से जुड़ सकता है. इन गठजोड़ों में शामिल देशों के लिए अपने आर्थिक और कारोबारी रिश्तों की सुरक्षा करना हमेशा प्राथमिकताओं में रह सकता है.
फ़िलहाल यूनाइटेड किंगडम (यूके) अंतरिक्ष कूटनीति में अगुवाई वाली महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है. इस अहम क्षेत्र पर भविष्य में भी नज़र रखना अहम साबित होगा
हालांकि इसके बावजूद गहरी होती ये द्विध्रुवीय व्यवस्था तब उभर कर सामने आ जाती है जब एक या दूसरा पक्ष वैश्विक स्तर पर अंतरिक्ष से जुड़े क्रियाकलापों के सैद्धांतिक आधारों को प्रभावित करने की कोशिश करता है. तब इस बात की अहमियत हो जाती है कि कौन-कौन और कितने लोग इसके साथ जुड़ते हैं. इसके साथ ही ये प्रश्न भी उठता है कि क्या वो कुछ प्रचलित मान्यताओं, मापदंडों और सोच-विचार की दिशा के समर्थक हैं या नहीं. घटक देशों और सहयोगियों को साथ लाने की प्रक्रिया मान्यताओं और सिद्धांतों को संस्थागत आकार देने की संभावनाओं को प्रभावित करते हैं. दीर्घकाल में ताक़त दिखाने के नज़रिए से इनकी अहमियत रहेगी.
2008 से ही रूस और चीन संयुक्त राष्ट्र के निशस्त्रीकरण सम्मेलन के तहत बाहरी अंतरिक्ष में हथियारों की तैनाती और रोकथाम पर समझौते की वक़ालत करते आ रहे हैं. बहरहाल कई मुद्दों को अनसुलझा छोड़ देने की वजह से इस संधि के मसौदे की आलोचना होती रही है. ख़ासतौर से अमेरिका के पक्ष से इस तरह के समझौते को लेकर कोई गर्मजोशी नहीं दिखाई गई है. लिहाज़ा इस पर बात सिरे नहीं चढ़ पाई है. हालांकि इस बीच अमेरिका ने कुछ प्रमुख देशों के समूहों (इस सूची का लगातार विस्तार हो रहा है) के साथ आर्टेमिस अकॉर्ड्स को आगे बढ़ाया है. इसके पीछे अंतरिक्ष की असैनिक पड़ताल से जुड़ी संभावनाओं को कूटनीतिक तौर पर प्रयोग में लाना और “सुरक्षा क्षेत्रों” में हानिकारक दखलंदाज़ी और मुनासिब तवज्जो से जुड़े सिद्धांत शामिल हैं. आगे बढ़ें तो अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष क़ानूनों पर अमेरिकी दलीलों और हितों को तवज्जो दिए जाने के चलते कुछ हलकों से इस प्रक्रिया को लेकर विवाद सामने आ रहे हैं. अमेरिकी सेना ने भी दूसरों के प्रति सम्मान के साथ आगे बढ़ने के सिद्धांतों और हानिकारक दखलंदाज़ी से बचने से जुड़े तौर-तरीक़ों पर दांव खेला है. ये अंतरिक्ष में ज़िम्मेदार बर्तावों को लेकर अमेरिकी फ़ौज के उसूलों का हिस्सा हैं.
आज हम जहां हैं वहां ऐसा भी हो सकता है कि ख़ुद महाशक्तियां नहीं बल्कि उनके साथी देश अंतरिक्ष के क्षेत्र में सुरक्षित और भरोसेमंद तौर-तरीक़ों को खड़ा करने और फैलाने में कामयाब हो जाएं. हालांकि उन हालातों में भी महाशक्तियों के समर्थन का महत्व बरकरार रहेगा.
फ़िलहाल यूनाइटेड किंगडम (यूके) अंतरिक्ष कूटनीति में अगुवाई वाली महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है. इस अहम क्षेत्र पर भविष्य में भी नज़र रखना अहम साबित होगा. अमेरिका और उसके साथी देश लंबे समय से यूके की अगुवाई में चले आ रहे पहल का समर्थन कर रहे हैं. इसमें मान्यताओं, नियमों और सिद्धांतों के ज़रिए अंतरिक्ष से जुड़े ख़तरों को कम करने को लेकर प्रस्ताव पर ज़ोर दिया गया है. ग़ौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र महासभा ने ज़िम्मेदारी भरे बर्तावों से जुड़े इन सिद्धांतों को स्वीकार किया है. यूके ने संयुक्त राष्ट्र में एक और मसौदा प्रस्ताव पेश किया है. इसके तहत अंतरिक्ष में ख़तरनाक क्रियाओं की रोकथाम और संयम बरतने के लिए ओपन एंडेड वर्किंग ग्रुप स्थापित करने का सुझाव दिया गया है. इसके लिए स्वैच्छिक माध्यमों का इस्तेमाल किए जाने की बात कही गई है. बताया जाता है कि ये एक ऐसी प्रक्रिया और लक्ष्य है जिसका अमेरिका समर्थन करने का इरादा रखता है. बहरहाल यूके अपनी तमाम दूसरी पहलों के ज़रिए अमेरिका और चीन के बीच कुछ बुनियादी सहमति बनाने की दिशा में काम कर सकता है या नहीं, ये देखा जाना अभी बाक़ी है. वैसे यूके लगातार इस दिशा में प्रयास करता आ रहा है.
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Saadia M. Pekkanen is the Job and Gertrud Tamaki Endowed Professor at the University of Washington in Seattle. She earned Masters degrees from Columbia University ...
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