Published on Apr 16, 2019 Updated 0 Hours ago

चूंकि बंगाल की खाड़ी प्रमुख शक्ति प्रतिस्पर्धा की पृष्ठभूमि में उभर रही है, इसके लिए एक स्थायी सुरक्षा संरचना की आवश्यकता है।

बंगाल की खाड़ी का महत्व: भारत, जापान और दक्षिण पूर्व एशिया

जैसा कि पारंपरिक भूगोल नई शक्लें ले रहा है, हिन्द-प्रशांत के व्यापक क्षेत्र में बंगाल की खाड़ी फिर से केंद्रीय भूमिका में आने लगी है। इसके एक स्वाभाविक परिणाम के रूप में, भारत, जापान और दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के विचारों में अपेक्षाकृत अधिक निकटता दृष्टिगोचर हो रही है और इन देशों के बीच इसकी खासी जरुरत महसूस होने लगी है कि अब वे और ज्यादा प्रभावी तरीके से एक दूसरे के साथ तालमेल और संपर्क बढ़ाएं। ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन द्वारा कोलकाता में जापान के वाणिज्य दूतावास और कोलकाता विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर साउथ एवं साउथ ईस्ट एशियन स्टडीज के सहयोग से 25-26 मार्च, 2019 को ‘बंगाल की खाड़ी का सामरिक महत्व: भारत, जापान और दक्षिण पूर्व एशिया’ पर आयोजित अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के प्रमुख संबोधन के दौरान यह बात नोट की गई।

उद्घाटन सत्र में, क्षेत्र के प्रमुख हितधारकों का प्रतिनिधित्व कर रहे सुप्रसिद्ध वक्ताओं ने नोट किया कि बंगाल की खाड़ी अब चीन की ‘बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव,’ जापान की ‘फ्री एंड ओपेन इंडो पैसिफिक,’ भारत की ‘लुक ईस्‍ट और एक्‍ट ईस्‍ट नीति’ और इंडोनेशिया की ‘वैश्विक सामुद्रिक आलम्ब’ जैसी विविध नीतिगत पहलों का हिस्सा बन चुकी है। विशेष रूप से, जापान पूरी बंगाल की खाड़ी में अपनी आपूर्ति श्रृंखलाओ के साथ क्षेत्र के आर्थिक एकीकरण को सुदृढ़ बनाने के लिए दृढ़ संकल्प है। इसी के फलस्वरूप, बहु-क्षेत्रवार तकनीकी एवं आर्थिक सहयोग के लिए बंगाल की खाड़ी पहल (बिम्सटेक) क्षेत्रीय हितधारकों के बीच फिर से फोकस में आने लगी है। इस प्रकार, एक बार फिर से बंगाल की खाड़ी क्षेत्र में स्थिरता सुनिश्चित करने के उद्वेश्य से संवाद और नीति निर्माण के मंच के रूप में उभरने लगी है। सम्मेलन का उद्घाटन सत्र ओआरएफ एवं एशिया सेंटर, थाईलैंड के बीच एक समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए जाने के साथ संपन्न हुआ।

अगले दिन, सम्मेलन के तीन व्यवसाय सत्र इस क्षेत्र के भू-आर्थिक, भू-भौतिकीय एवं भू-रणनीतिक आयामों पर केंद्रित थे। इसी के अनुरूप, पहला व्यवसाय सत्र ‘मैरीटाइम कॉमर्स एंड लॉजिस्टिक्स’ पर केंद्रित रहा। इसमें गौर किया गया कि भारत की आर्थिक प्राथमिकताओं और संबंधों की बदलती रूपरेखा ने सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है और देश की ‘लुक ईस्‍ट और एक्‍ट ईस्‍ट नीति’ ने नई व्यवसायिक गतिविधियों के द्वार खोल दिए हैं। आसियान देशों के साथ आर्थिक सहयोग की संभावनाओं, क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी की प्रगति एवं जापान की ‘बे ऑफ बंगाल इंडस्ट्रियल ग्रोथ बेल्ट’ ने भारत को इस क्षेत्र के साथ अपने संबंधों को सुदृढ़ बनाने को प्ररित किया है। वर्तमान में, जहां भारत के सिंगापुर, मलेशिया और इंडोनेशिया के साथ मजबूत आर्थिक संबंध हैं, थाईलैंड के साथ इसके रिश्ते अधिक पुख्ता नहीं है। समुद्री अर्थव्यवस्था (ब्लू इकोनोमी) जैसे प्रचलनों के साथ व्यापार युद्ध की आशंका भी, परस्पर व्यापक विशिष्ट आर्थिक क्षेत्रों को साझा करने वाले तटीय देशों के बीच बलवती हो रही है।

दूसरे सत्र में बंगाल की खाड़ी में ‘मानवीय सहायता एवं आपदा प्रबंधन’ के महत्वपूर्ण मुद्दे पर ध्यान दिया गया। चूंकि आपदाएं प्राकृतिक एवं मानवीय दोनों ही वजहों से आती हैं, इनका खतरा सुनामी से लेकर समुद्र में तेल के फैलाव तक बना हुआ है। मानव निर्मित आपदाओं को तो संभवतः रोका जा सकता है, लेकिन इसके लिए बंगाल की खाड़ी से जुड़े सभी देशों द्वारा उपयुक्त रेगुलेशन एवं सख्त नियंत्रण की आवश्यकता है। दूसरी तरफ, प्राकृतिक आपदाओं को रोका नहीं जा सकता। इस प्रकार कुशल प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली विकसित करना और अग्रिम रूप से इसके असर को प्रभावी तरीके से कम करने के लिए कदम उठाया जाना जरुरी है। इस संबंबध में, भौगोलिक निकटता एवं सामूहिक संवेदनशीलता को देखते हुए, विशेष रूप से, इंडोनेशिया द्वीपसमूह के लिए अंडमान एवं निकोबार द्वीपसमूह को प्रतिक्रिया के प्रथम बिंदु के रूप में विकसित किया जा सकता है। चूंकि बंगाल की खाड़ी का वर्तमान विक्षोभ जलवायु परिवर्तन के साथ और भी बढ़ जाता है, क्षेत्र के अधिक प्रभावशाली देशों के सहयोग से बंगाल की खाड़ी के द्वीप समूहों ने पहले से ही द्विपक्षीय और बहुपक्षीय आपदा प्रबंधन अभ्यासों का संचालन आरंभ कर दिया है। यह वांछनीय है कि आसियान और बिम्सटेक जैसे क्षेत्रीय मंच आपदा प्रबंधन में सहयोग करें। लेकिन मानवीय सहायता एवं आपदा राहत अनिवार्य रूप से सभी अवसरों पर द्वीपसमूहों की संप्रभुता की संवेदनशीलता को देखते हुए प्रभावित देशों की सहमति से उपलब्ध कराया जाना चाहिए।

तीसरा सत्र, ‘रणनीतिक अभिसरण एवं अपसरण (स्ट्रैटेजिक कन्वर्जेंस एंड डाइवर्जेंस)’ से संबंधित था, जो संसाधन, चिंताओं एवं प्रभावशाली देशों की प्रतिस्पर्धी सामुद्रिक उपस्थिति तथा गैर पारंपरिक सुरक्षा खतरों की प्रचुरता से पूरे बंगाल की खाड़ी द्वीप समूह क्षेत्र में सघन हो गया है। अनुवर्ती चर्चाओं में, समुद्र में सुचारु व्यवस्था बहाल करने, भारत और आसियान देशों के लोगों के बीच परस्पर संबंध और क्षमता निर्माण सहायता का राजनीतिकरण-जैसी दक्षिण एवं दक्षिणपूर्व एशियाई देशों में संरचनागत चुनौतियाँ — जो अक्सर बहुपक्षीय सहयोग को बाधित करती हैं — को रेखांकित किया गया। रोहिंग्या संकट के मामले का विश्लेषण करते हुए, यह तर्क दिया गया कि रोहिंग्याओं पर राष्ट्रियहीनता थोपने से रोकने के लिए म्यांमार को नियंत्रित करने के मसले पर भारत, चीन और आसियान की उदासीनता को अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में प्रधानता की ग्रामसियन अवधारणा के संदर्भ में देखा जा सकता है क्योंकि कोई भी देश अन्य देशों के आंतरिक मामलों में फंसने से बचने के लिए मानवाधिकार उल्लंघन पर रिपोर्ट करने के प्रति अमूमन अनिच्छुक होता है। इसलिए जरुरत है कि देशों के भीतर स्थित नागरिक समाज के बीच परस्पर संपर्क स्थापित किया जाए जिससे कि क्षेत्रीय सुरक्षा चिंताओं पर ध्यान देने के लिए सभी हितधारकों की सहयोगात्मक प्रतिबद्धता को बढ़ाया जा सके।

सम्मेलन के आखिर में, समापन भाषण में श्रोताओं को याद दिलाया गया कि बंगाल की खाड़ी में वर्तमान में जारी घटनाक्रम का भारत-प्रशांत के परिदृश्य पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ेगा। इसलिए अनिवार्य रूप से संपर्क (कनेक्टिविटी) बढ़ाने से संबंधित पहलों को इस विभाजित सामुद्रिक स्थान को एक अधिक समेकित और आर्थिक दृष्टि से गतिशील क्षेत्र के रूप में तब्दील करने के एक महत्वपूर्ण माध्यम के रूप में देखा जाना चाहिए। कमजोर घरेलू संस्थानों एवं बुनियादी ढांचे की कमी जैसी क्षेत्र की मौजूदा दुर्बलताओं पर ध्यान देना होगा। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि बंगाल की खाड़ी में क्षेत्रीय सहयोग की संस्कृति विकसित करनी होगी। बहरहाल, ऐसा करने में दो महत्वपूर्ण बातों को ध्यान में रखना होगा। पहली बात यह कि चूंकि बंगाल की खाड़ी प्रमुख शक्ति प्रतिस्पर्धा की पृष्ठभूमि में उभर रही है, इसके लिए एक स्थिर सुरक्षा संरचना की आवश्यकता है। इसलिए, नई द्विपक्षीय और बहुपक्षीय सुरक्षा साझेदारियां, जो बदलते सुरक्षा परिदृश्य का प्रत्युत्तर देने के लिए विकसित की जा रही हैं, इसलिए महत्वपूर्ण हैं। दूसरी और पारंपरिक विचार से विपरीत बात यह कि क्षेत्र के भविष्य के लिए हमें अमेरिका-चीन संबंधों से परे देखना होगा क्योंकि क्षेत्र का भविष्य अमेरिका-चीन संबंध निर्धारित नहीं करेंगे बल्कि क्षेत्र के देश जिस प्रकार आंतरिक और बाहरी रूप से गतिशील बन रहे हैं, इसका भविष्य उससे तय होगा। इसलिए, संपर्क (कनेक्टिविटी) बढ़ाने से संबंधित पहलों को विस्तारित कर उनमें अनिवार्य रूप से मानव संसाधन विकास और संस्थागत सुधार के पहलुओं को शामिल किया जाना चाहिए।


कार्यक्रम की रिपोर्ट ORF कोलकाता की रिसर्च असिसटेंट सोहिनी बोस, जूनियर फेलो जया ठाकुर मिहिर भोंसले, रिसर्च असिसटेंट श्रीपर्णा बनर्जी, साहिनी नायक एवं रोशन साहा के सहयोग से संकलित किया गया है।

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.