चतुष्कोणीय सुरक्षा वार्ता – क्वॉड – दिन ब दिन निर्भीक होता जा रहा है. मार्च के महीने मे, ख़ुद को एक समान सोच से प्रेरित लचीला समूह के तौर पर वर्णन करने वाली, अब ताइवान जलडमरूमध्य में शांति और सुरक्षा विषय पर चर्चा कर रही है. अपने राष्ट्रपति के कार्यकाल के पहले कुछ महीनों के भीतर बुलाए गए दूसरे क्वॉड मीटिंग को संबोधित करते हुए, जिसमें पहला वर्चुअल और दूसरा प्रत्यक्ष था, राष्ट्रपति जो बाईडेन ये संबोधित करने की चेष्टा कर रहे है कि ‘अमेरिका वापस आ रहा है’ और वो आगे से नेतृत्व कर रहा है. हालांकि, अफ़ग़ानिस्तान की काली छाया अब भी इस शिखर सम्मेलन पर हावी हो रही है, जिसने बिल्कुल विपरीत इशारे दिए है.
नई दिल्ली किस तरह से इन विरोधाभाषी सिग्नल को सुदृढ़ कर रही है और फिर पीछे हट रही है? क्या नई दिल्ली अपने इस महत्वाकांक्षी ताइवानी अजेंडा के लिए तैयार है? एक तरफ जहां अफ़ग़ानिस्तान से पीछे हटने के अमेरिका निर्णय ने उनके पारंपरिक सहयोगियों को चिड़चिड़ा बना दिया है, और उनमें से चंद लोगों को अपने घर में अमेरिका आधिपत्य के मृत्यलेख लिखने को बाध्य किया है. नई दिल्ली ने, ना तो निराशा प्रकट की है ना ही इसकी निंदा की है. उनके विपरीत, भारतीय विदेश मंत्री, एस. जयशंकर, अमेरिका सामर्थ्य को लेकर बहुत आशान्वित है. नई दिल्ली के रणनीतिक गलियारे में एक अलग प्रकार की झिझक है. और वो चिंता पाकिस्तान को लेकर है.
भारत की चिंताओं को उचित ध्यान दिए बगैर अगर अपनी संकीर्ण जरूरतों की पूर्ति के मद्देनजर अमेरिका, पाकिस्तान के प्रति के अपने नीति में कोई बदलाव नहीं लाता है तो फिर, आखिर भारत को कहाँ तक ख़ुद को ताइवान के मामले तक फैलाना चाहिए?
अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी पराजय के पीछे पाकिस्तानी मिलिट्री की कथित भूमिका को लेकर वाशिंगटन में बनी आम सहमति के बावजूद, परमाणु प्रसार संबंधी व्याप्त भय और अमेरिकी साजो समान संबंधी ज़रूरतों को लेकर किसी भी प्रकार की नीति में बदलाव से इनकार किया है. अब भारत के लिए प्रश्न ये है की: भारत की चिंताओं को उचित ध्यान दिए बगैर अगर अपनी संकीर्ण जरूरतों की पूर्ति के मद्देनजर अमेरिका, पाकिस्तान के प्रति के अपने नीति में कोई बदलाव नहीं लाता है तो फिर, आखिर भारत को कहाँ तक ख़ुद को ताइवान के मामले तक फैलाना चाहिए? जैसा कि अमेरिका अब भी पाकिस्तान को भारत के लिए एक बाद ख़तरे के रूप में चिन्हित करता आ रहा है, ये कतई आश्चर्यजनक नहीं होगा अगर कल नई दिल्ली भी कहना शुरू कर दे कि ताइवान – जो की क्वॉड के अजेंडे में प्रमुख रूप से अंकित है – आज अमेरिका के लिए एक बड़ा ज्वलंत मुद्दा है.
पाकिस्तान – अमेरिका की एक अनबूझ पहेली
एक सवाल जो भारत में लोगों को हैरान करता है, लेकिन जांच से परे है कि आखिर क्यूँ अमेरिका के वरिष्ट सीनेटर लिंडसे ग्राहम, पाकिस्तान – वो देश जो अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी पराजय का रचनाकार है, के लिए बजाय की उसपर त्वरित और प्रभावी कदम उठाने के, एक सृजनात्मक भूमिका की परिकल्पना कर रहे है? वाशिंगटन में कई पुराने पाकिस्तानी प्रेक्षकों ने इस सवाल के जवाब देने की कोशिश की है. उनमें से प्रमुख है परमाणु भय – पाकिस्तान ‘विफल होने के लिए काफी परमाणु’ है थ्योरी – मतलब कोई भी बाहरी प्रतिबंध किसी देश को परमाणु शस्त्रागार के किसी गलत हाथ में जाकर, अस्थिर करने की किसी भी संभावना को वजनदार बनाता है. दूसरा, और अधिक दुर्भावनापूर्ण है, वाशिंगटन स्थित पाकिस्तानी वार्ताकार द्वारा प्रसारित बहस, जिनका ये कहना है कि संयुक्त राष्ट्र अमेरिका को दक्षिणी एशिया में एक सक्षम एवं प्रभावशाली संकट प्रबंधक बने रहने के लिए, भारत और पाकिस्तान के बीच तटस्थता बनाए रखनी चाहिए.
एक सवाल जो भारत में लोगों को हैरान करता है, लेकिन जांच से परे है कि आखिर क्यूँ अमेरिका के वरिष्ट सीनेटर लिंडसे ग्राहम, पाकिस्तान – वो देश जो अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी पराजय का रचनाकार है, के लिए बजाय की उसपर त्वरित और प्रभावी कदम उठाने के, एक सृजनात्मक भूमिका की परिकल्पना कर रहे है?
ऐसा प्रतीत होता है, कि, सेन ग्राहम अब अल्पमत में है, सेन ग्राहम के ख़ुद के राजनीतिक गलियारे से ही जॉन बोल्टन जैसे ज्यादातर नेता, पाकिस्तान के खिलाफ प्रतिबंध की मांग कर रहे है और उनके ऊपर लगे ‘प्रमुख गैर- नाटो सहयोगी’ के तमगे को छीनने के पक्ष में है. हालिया हुई काँग्रेस की सुनवाई के दौरान ये मुद्दा सुर्खियों में रहा, जहां सचिव ब्लिनकेन ने हाउस मेंम्बर को आश्वस्त किया कि बाईडेन प्रशासन शीघ्र ही पाकिस्तान के साथ के अपने संबंधों की विवेचना करेगी. यह काफी चीर परिचित पटकथा है. 9/11 की घटना और 2011 में कार्यान्वित किये गए अबोटाबाद छापे के पश्चात भी इसी तरह की पुनर्विवेचना की मांग उठी थी. अब सवाल यह है कि जब पाकिस्तान में ओसामा बिन लादेन की उपस्थिति भी कुछ बदल नहीं सकी, तो और कि अब क्या बदलाव लाएगा?
आतंकवाद विरोधी और निकासी की लड़ाई और अफ़ग़ानिस्तान के साथ पाकिस्तान की घनिष्ठता, इस विकसित स्थिति में काफी महत्वपूर्ण है. भौगोलिक स्थिति ने हमेंशा पाकिस्तान की मदद की है. पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान की अमेरिकी जत्थे की मेंजबानी को सख्त लहजे में ‘ कतई स्वीकार्य नहीं’ मोड में नकार दिए जाने के बावजूद, काबुल के हालिए धराशायी होने के उपरांत पाकिस्तान के प्रमुख शहरों के ऊपर चिनूक को मंडराते हुए पाया गया. जो अब तक ज्ञात है, उसे ये मात्र सत्यापित ही करता है – पाकिस्तान के नागरिक सरकार के लिए विदेश नीति बिल्कुल निष्प्राण है.
इस पहेली में – प्रतिबंधित करे अथवा ना करे –अतीत को भूलते हुए व्हाइट हाउस अनुमानित है कि अपने साजो समान की जरूरतों को ज्यादा तवज्जो दे. पाकिस्तान का चीन के साथ की सहभागिता को भी नजरअंदाज कर दिया जाएगा. ईमानदारी से कहा जाए तो, बाईडेन प्रशासन ने पाकिस्तान के राष्ट्रीय सलाहकार द्वारा दी गई आम धमकी कि ‘पाकिस्तान के पास और भी विकल्प है’, के बावजूद प्रधानमंत्री खान को औपचारिक कॉल न करके, इस्लामाबाद के प्रति अपनी अप्रसन्नता अप्रत्यक्ष तौर पर जाहिर कर दी है. इस अपमान का तात्पर्य हालांकि, नीति में बदलाव हरगिज नहीं है.
वाशिंगटन की तरफ से स्पष्टता की कमी चिंता का विषय है,भारत विरोधी जेहाद के समर्थन और चीन-पाकिस्तान गठबंधन की मदद से पाकिस्तान, भारत के लिए अब भी बहुत चिंताजनक है.
और नई दिल्ली भी पाकिस्तान से ख़ुद ही निपटना चाहता है. हालांकि, पश्चिमी मोर्चे पर भारत जितना व्यस्त रहेगा, उतनी ही परेशानी भारत को अपने पूर्वी और समुद्री मोर्चों,जहां उसे बेजिंग के तरफ से भी खतरा है, उन जगहों पर ध्यान केंद्रित करने में दिक्कतें हो रही है. आश्चर्यजनक रूप से, यूएस नीति के क्षेत्र में, भारतीय सक्षमता की ऐसी विवेचना पहले कभी नहीं हुई है, और इसपर भी गौर किया जाना चाहिए.
भारतीय प्रतिक्रिया
वाशिंगटन के लिए, क्वॉड सदस्यों से ताइवान के लिए अंतर्निहित और स्वचालित प्रतिबद्धता की अपेक्षा करना बेमानी है. भारत के संदर्भ में , यह मुद्दा क्षमता और प्रतिबद्धता का है. संसाधनों के मामले में, नई दिल्ली के लिए अपनी भू-राजनीतिक स्टॉक का किसी अन्य जगह निवेश करना आसान होगा अगर उन्हे अपनी पश्चिमी सीमा पर कम बाधाओं का सामना करना पड़े तो. जहां तक प्रतिबद्धता की बात है, फिर भी अगर भारतीय नेतृत्व का झुकाव संयुक्त राष्ट्र अमेरिका को अपना समर्थन देने का है, तो घरेलू स्तर पर उस संयुक्त राष्ट्र के साथ खड़े रहने का निर्णय, जो की पाकिस्तान को निरंतर माफ करते आ रहा है, बिल्कुल ही असंभव होगा. अंतिम बार, जो 9/11 हमले के बाद, के अमेरिका के नेतृत्व में लड़ी गई आतंक से आजादी की लड़ाई में भारतीय राजनीतिज्ञों ने अपना समर्थन देने की तत्परता दिखलायी थी, वो अब नहीं कर पा रहे है इस भय से कि उन्हे विपरीत जन आलोचना का शिकार ना होना पड़े. पाकिस्तान अब पहले से और भी ज्यादा ही ज्वलंत मुद्दा बन चुका है भारत के लिए.
एक अग्रणी शक्ति के रूप में ख्यात , अमेरिका को चाहिए कि वो अपने सहयोगी दलों और क्वॉड पार्टनर्स को ये इशारे दे कि वाशिंगटन ऐसी इच्छा रखा है की वो अपने मूल चिंताओं को ही संबोधित करे, उतना ही जितना वो उन्हे इस भार को आपस में वितरित करने की मंशा रखते है.
रूस के साथ के अपने हथियारों को सीमित करने से लेकर ईरान और वेनेजुएला से कच्चे तेल के आयात सौदों को रद्द करके, वो भी कई बार अपने राजकोष पर अतिरिक्त लागत की कीमत पर – भारत ने अब तक वाशिंगटन के मूल हितों को समाहित करना जारी रखा है वहीं संयुक्त राष्ट्र, अब भी पाकिस्तान के भारत विरोधी आतंकी गतिविधि को समर्थन देने और समय समय पर उन्हे राहत के नाम पर आर्थिक रूप से पुरस्कृत करने के उनके कृत्यों को पूरी तरह से नजरअंदाज करते आ रहा है. एक वक्त पर, हमें इसकी एक काफी बड़ी राजनैतिक कीमत चुकानी काफी महंगी पड़ सकती है.
एक अग्रणी शक्ति के रूप में ख्यात , अमेरिका को चाहिए कि वो अपने सहयोगी दलों और क्वॉड पार्टनर्स को ये इशारे दे कि वाशिंगटन ऐसी इच्छा रखा है की वो अपने मूल चिंताओं को ही संबोधित करे, उतना ही जितना वो उन्हे इस भार को आपस में वितरित करने की मंशा रखते है. किसी भी प्रकार के संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की नीति में अगर कोई बदलाव आती है तो, संभवतः ताइवान उनके लिए ख़ुद का काफी अहम मसला बन कर रह जाएगा.
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