भारत इस समय दो बड़े लेकिन अलग-अलग किस्म के प्रयासों के बीच है।
पहली कोशिश है पिछले दशक के अधूरे एजेंडा को पूरा करना और इसके लिए वह सब उपलब्ध करवाना जिसकी जरूरत किसी भी विकसित अर्थ व्यवस्था को होती है मसलन आधुनिक बुनियादी ढांचा, ग्रामीण क्षेत्रों में सुविधाएं, सामाजिक सेवाएं व कनेक्टिविटी । दूसरा प्रयास, जो पहले से ज्यादा महत्वाकांक्षी भी है, का लक्ष्य है नौकरियों का सृजन, धन-संपदा में वृद्धि और ऐसे मूल्यों का निर्माण जो एक युवा तथा महत्वाकांक्षी जनसंख्या को फलने फूलने का अवसर दें, गरीबी को जड़ से खत्म करें तथा जीडीपी में तेजी से वृद्धि हो पाए।
लेकिन ये दोनो प्रयास ऐसे समय किए जा जा रहे हैं जब वैश्विक स्तर पर हवाओं का रुख विपरीत दिशा में है और स्थितियां काफी प्रतिकूल हैं। मौजूदा हालात में पांच मुख्य बाधाएं हैं जो भारत को विकसित देशों के समूह में शामिल होने से रोक रही हैं।
पहली बाधा है एक ऐसे नए दौर की शुरूआत जहां उदार, स्वतंत्र और लोकतांत्रिक विश्व व्यापार व्यवस्था अपने पुराने स्वरूप की परछाई मात्र है। बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली को प्राथमिकता देने के दिन लद गए, अब उसका महत्व दिन प्रतिदिन कम होता जा रहा है। इसकी जगह अब मुक्त व्यापार समझौते ले रहे हैं। कई छोटे देश यां क्षेत्रीय समूह आपस में इस तरहं के समझौते कर रहे हैं। इस तरहं कुछ मुट्ठी भर देश यां क्षेत्रीय समूह जिनके हित इन समझौतो से जुड़े होते हैं, उन्हें व्यापार की शर्तें अपने हिसाब से तय करने के अवसर मिल जाता है।
इसके साथ ही कमजोर विकास दर के कारण दुनिया भर में हम वित्तीय प्रवाहों में ठहराव देख रहे हैं। दिलचस्प बात है कि विकसित देशों में भी अब भूमंडलीकरण को लेकर असंतोष के स्वर उठने लगे हैं। यूरोपीय संघ से लेकर यूके व यूएस तक राजनीतिज्ञों को भूमंडलीकरण के रूप में एक ऐसा बलि का बकरा मिल गया है जिस पर वे घरेलु अर्थव्यवस्था व समाज को प्रभावित करने वाली सारी समस्याओं को थोप रहे हैं।
इस पृष्ठभूमि में भारत को नए बाजारों, वित्तीय संसाधानों के नए स्त्रोतों व नए व्यापार समझौतों की तलाश करनी है।
दूसरा, तकनालाजी के विकास व बढ़ते रोबोटाइजेशन के साथ डिजिटल अर्थव्यवस्था के विस्तार के चलते निर्यात आधारित विनिर्माण विकास (मैनुफैक्चरिंग ग्रोथ) की संभावनाएं धूमिल होती जा रही हैं। इन कारणों के चलते विकासशील देशों को सस्ता श्रम होने की बदौलत जो लाभ था वह अब काफी हद तक समाप्त हो गया है। इसलिए मैनुफैक्चरिंग के माध्यम से औद्योगिकीकरण अगर असंभव नही तो कम से कम बहुत मुश्किल तो जरूर हो गया है।
उभरती अर्थव्यवस्थाओं की कई कमजोरियां उन्हें पीछे धकेलती हैं मसलन कमजोर प्रशासन, ढुलमुल अफसरशाही, गुणवत्ता और सक्षमता से जुड़े मुद्दे, कमजोर आपूर्ति श्रृंखलाएं-सप्लाई चेन- और दक्ष श्रम शक्ति की कमी जबकि उनके सामने मशीनों और मशीनों से मिलने वाले ज्ञान की चुनौती है। श्रमिकों की बड़ी तादाद का तब तक कोई फायदा नहीं मिलने वाला है जब तक कि इस श्रम शक्ति को पुनः प्रशिक्षित कर उसे उपयोगी नहीं बनाया जाएगा।
ये सब भारत के लिए मुश्किलें पैदा करने वाला है। हो सकता है कि अगले 10 सालों में भारत को उर्जा की गिरती कीमतों, चीन को छोड़कर बाहर आ रहे उद्योगों और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का लाभ मिले, पर विनिर्माण यानी मैनुफक्चरिंग के क्षेत्र में प्रतिद्वंद्विता करना भारत के लिए और मुश्किल होता जाएगा।
इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण उदाहरण है कपड़ों और गारमेंट का उत्पादन विकसित देशों में स्थानांतरित होना। इससे पहले यह सेक्टर सस्ते श्रम को लेकर बहुत ज्यादा संवेदनशील था इसीलिए सबसे पहले इसी उद्योग को विकासशील देशों में स्थानांतरित किया जाता था। लेकिन आज ये उत्पादन अमेरिका और यूरोपीय संघ में रोबोट चालित कारखानों की ओर वापिस लौट रही हैं।
वैसे तो यह तर्क भी दिया जा सकता है कि आर्टीफिशियल इंटेलिजेंस और 3 डी प्रिंटिंग के इस दौर में मैनुफैक्चरिंग अपने मौजूदा स्वरूप् में स्वयं ही समाप्त होने की ओर है। भविष्य में मैनुफैक्चरिंग को जो भी नया स्वरूप उभरता है इतना तो हम मान ही सकते हैं कि उसका आधार उच्च स्तरीय डिजाइन, पदार्थ विज्ञान,संसाधन प्रबंधन, सुपर कम्प्यूटिंग और सूक्ष्म इंजीनयरिंग होंगे; इन सभी को उपलब्ध करवाने के लिए मूलतः मशीनों का इस्तेमाल होगा, जबकि श्रम की आवश्यकता न्यूनतम होगी।
तीसरी बाधा यह है कि जीवाश्म ईंधनों से निकली ऊर्जा औद्योगिकीकरण के किसी नए प्रयास में इस्तेमाल नहीं की जा सकती है। पर्यावरण को लेकर जागरूक हो चुके इस विश्व में यह स्पष्ट है कि कम आय और गरीबी से समझौता करके रहने को लोग तैयार हैं पर इसे दूर करने की कीमत वे विकासशील देशों को और ज्यादा कार्बन उगलने की अनुमति दे कर नहीं चुकाना चाहेंगे ।
चौथी बाधा यह है कि परंपरागत औद्योगिक विकास के प्रति वैश्विक वित्तीय संसाधनों का रूख दोस्ताना नहीं है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष -आइएमएफ- के एक शोध के अनुसार, ‘‘पेंशन फंड, बीमा कंपनियां, म्युचुअल फंड, व स्वायत्त संपदा फंड जैसे निवेशकों के पास 100 खरब अमेरिकी डॉलर से ज्यादा मूल्य की संपत्तियों का प्रबंधन है।’’ इस अध्ययन के अनुसार बुनियादी ढांचे को दुरूस्त करने के लिए जरूरी और उपलब्ध संसाधनों में सालाना 1 से 1.5 खरब डॉलर का अंतर है। यह कमी विकासशील देशों में कहीं ज्यादा है। इस अध्ययन के अनुसार संसाधनों की मांग और उपलब्धता में ये अंतर इसलिए है क्योंकि निवेशकों के लिए न तो उपयुक्त वित्तीय उपकरण उपलब्ध हैं और वे परंपरागत औद्योगिक परियोजनाओं को लेकर भी अब बहुत ज्यादा उत्साहित नहीं है। विकासशील देशों में तो दुनिया भर से आने वाली पूंजी और स्थानीय व्यवसायिक पूंजी का निवेश भी अब बुनियादी ढांचे में ही हो रहा है।
पांचवी समस्या है नई खोजों और आविष्कारों यानी कि अन्वेषण का विस्तार अभी असंतुलित है। नई खोजें और आविष्कार अभी अटलांटिक प्रणाली में ही होते दिखते हैं जबकि एशियाई और अफ्रीकी अर्थव्यवस्थाओं का जोर उपभोग पर नजर आ रहा है। यह एक प्रकार नया अन्वेषण विभाजन यानी कि ‘इनोवेशन डिवाइड’ है। इसे अगर पश्चिमी कंपनियों के लिए बनाए गए बौद्धिक संपदा अधिकारों की व्यवस्था के साथ जोड़कर देखा जाए, जो कई तरहं के अंकुश लगाती हैं, तो विकासशील देशों के लिए बुरी खबर है। ऐसा लगता है कि विकासशील देशों में बस इतना परिवर्तन होगा कि सस्ते श्रम, कम क्रय क्षमता वाले उपभोक्ताओं और संसाधनों का स्त्रोत बने रहने के बजाए अब वे उन आंकड़ों का स्त्रोत बन जाएंगे जो पूरी प्रक्रिया को चलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे मूल्य श्रृंखला यानी कि ‘वैल्यू चेन’ का एक हिस्सा बन जाएंगे पर असली संपन्नता पहले से विकसित अर्थव्यवस्थाओं में ही पैदा होगी।
इस के चलते विकासशील देशों की क्रय क्षमता कम रह जाएगी। निर्यात आधारित मैनुफैक्चरिंग तथा तकनालाजी के स्वामित्व से आने वाली आय के अभाव में इस बात की पूरी संभावना है कि मध्यम दर्जे की आय तक भी नहीं पहुंचे विकासशील देश कम उत्पादकता और वेतन के दुष्चक्र में फंस कर रह जाएंगे।
बेहतर भविष्य की राह
वैश्विक आर्थिक विकास के इन पांच रूझानों के मद्देनजर सवाल ये है कि अब भारत को क्या करना चाहिए?
सबसे पहले तो भारत को अपना घर दुरूस्त करना चाहिए। मानव समाज का पांचव हिस्सा भारत में है और यह अपने आप में एक बड़ा बाजार भी है और उत्पादक आधार भी। लेकिन अपने विशाल आकार का लाभ उठाने के लिए भारत को सबसे पहले तो अपने साथ ही मुक्त व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर करने चाहिएं।
औपचारिक तौर पर भारतीय गणराज्य का हिस्सा माने जाने वाले लगभग 30 राज्य और केंद्र शासित प्रदेश एक ही अर्थव्यवस्था का हिस्सा हैं। पर हकीकत में उनका आपस में आर्थिक जुड़ाव यूरोपीय देशों के आर्थिक जुड़ाव से भी कम है। भारत के राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में अक्सर अलग प्रकार के नियम और विरोधाभासी कर प्रणालियां होती हैं। इसलिए राज्यों की सीमा पार कर एक दूसरे के यहां व्यापार करना बड़ा ही कड़वा अनुभव है। भारत को सभी राज्यों को व्यापार की दृष्टि से एक सूत्र में जोड़ने की जरूरत है।
इस संदर्भ में एकीकृत कर के तौर पर जीएसटी को लागू करना सही दिशा में पहला कदम है क्योंकि इससे ‘मेक इन इंडिया’ के अंतर्गत स्थापित की गई नई मैनुफैक्चरिंग इकाईयों को विविध बाजारों तक पहुंच बनाने में मदद मिलेगी।
इसके अलावा अन्य सरकारी नीतियां भी इन प्रयासों को और बल देंगीः ‘डिजिटल इंडिया’ बाजारों को बेहतर ढंग से एक साथ जोड़ रहा है। इससे ई-कामर्स और व्यापार-से -व्यापार यानी ‘बिजनेस- टू-बिजनेस’ अवसर ज्यादा प्रचुरता में उपलब्ध हो रहे हैं। ‘स्टार्ट-अप इंडिया’ से नए उद्यमियों को वित्त और अन्य शुरूआती मदद मिल रही है जो उन्हें इन संभावनाओं का लाभ उठाने के लिए आवश्यक अवसर उपलब्ध करवा रहा है।
दूसरा, असंगठित रोजगार के प्रति रूख बदलने की जरूरत है। समय आ गया है कि हम असंगठित अर्थव्यवस्था को अभिशाप न मानें, खासकर इस तथ्य के मद्देनजर कि बहुत बड़ी संख्या में भारतीय कर्मी (कुछ आकलनों के अनुसार 90 प्रतिशत से अधिक) इस सेक्टर में काम कर रहे हैं। जरूरत इस बात की है कि सरकार इस प्रकार का सहायतापूर्ण माहौल तैयार करने पर ध्यान दे जिससे काम करने वालों की इतनी बड़ी संख्या को ज्यादा सुरक्षा मिले, उनकी उत्पादकता में वृद्धि हो और जहां संभव हो सके उनमें उद्यमिता को बढ़ावा मिले।
अंत में यह कहना होगा कि भारत को अपनी सोच को बड़ा करना होगा। उसे इस संभावना पर गौर करना चाहिए कि किस प्रकार वह औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया को लांघ सकता है। भारत को खुद को रोबोटिक्स जैसी नई संभावनाओं के केंद्र के रूप में खुद को स्थापित करने की परिकल्पना करनी होगी, ठीक वैसे ही जैसे जापाना इलेक्ट्रानिक्स, जर्मनी आटोमोबाईल और चीन मैनुफैक्चरिंगे के केंद्र में है और वह भी लागत के दसवें हिस्से पर।
ऐसे समय में जब कि पूरी दुनिया विकास के अभाव से परेशान है और पुराने मॉडल टूट रहे हैं, भारत को डिजिटल क्रांति का प्रमुख हिस्सेदार बनना होगा और यह सुनिश्चित करना होगा कि उसकी विशाल जनसंख्या इसमें लाभकारी ढंग से शामिल हो सके फिर भले ही वह अनौपचारिक ढंग से हो।
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