Published on Feb 24, 2023 Updated 0 Hours ago
भारत-अमेरिका iCET समझौता: वादे, संभावनाएं और चुनौतियां

नाज़ुक उभरती प्रौद्योगिकियों (iCET) पर हाल ही में अमेरिका और भारत के बीच पूरी हुई पहल एक ख़ास वजह से संभावनाओं भरी नज़र आती है. वो कारण है चीन. अगर अमेरिकी पक्ष चीन के ख़िलाफ़ प्रभावी संतुलन क़ायम करना चाहता है तो उसे विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित (STEM) में भारत की ताक़त के इस्तेमाल की दरकार होगी. अमेरिका इस शक्ति के बूते ही चीन का सामना कर पाएगा. बहरहाल, भारत को भी प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अमेरिकी विशेषज्ञता की ज़रूरत होगी. iCET समझौते से उन क्षेत्रों में सहयोग की संभावनाएं पैदा हो रही हैं जो अब तक भारत और अमेरिका के बीच किसी विशिष्ट प्रौद्योगिकी समझौते का हिस्सा नहीं रही हैं. iCET के तहत अनेक क्षेत्रों में सहयोग का संकल्प किया गया है. इनमें आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (AI), हाई-परफॉर्मेंस कम्प्यूटिंग (HPC), क्वॉन्टम प्रौद्योगिकियां और सेमीकंडक्टर सहयोग के क्षेत्र में आपूर्ति श्रृंखला में लचीलापन लाना शामिल हैं. इन कार्यक्रमों को पूरक के तौर पर आगे बढ़ाना ही द्विपक्षीय दायरे में तालमेल के बढ़े स्तर को दर्शाता है. द्विपक्षीय सहयोग को अलग करके देखें तो बाक़ी की पहल तालमेल की दिशा में नए क्षेत्र हैं. इनमें भरपूर संभावनाएं छिपी हुई है. खासतौर से AI और क्वांटम प्रौद्योगिकी जैसी अग्रणी तकनीक भारत के लिए असल फ़ायदों का सबब बन सकती हैं. इस समझौते में प्रतिरक्षा और वैज्ञानिक इकोसिस्टम में मज़बूती लाकर पहले से ज़्यादा सहयोग का लक्ष्य रखा गया है. अगर ये पहल ठोस धरातल पर उतरकर असलियत में तब्दील हो जाते हैं तो ख़ासतौर से भारत को काफ़ी मुनाफ़े हासिल हो सकते हैं. 

AI और क्वांटम प्रौद्योगिकी जैसी अग्रणी तकनीक भारत के लिए असल फ़ायदों का सबब बन सकती हैं. इस समझौते में प्रतिरक्षा और वैज्ञानिक इकोसिस्टम में मज़बूती लाकर पहले से ज़्यादा सहयोग का लक्ष्य रखा गया है.

बहरहाल, iCET की ताज़ा पहल में 2012 में ओबामा प्रशासन के मातहत शुरू की गई प्रतिरक्षा प्रौद्योगिकी और व्यापार पहल (DTTI) की तरह ठहराव नहीं आना चाहिए. DTTE के तहत कुछ अहम पारंपरिक क्षमताओं में सहयोग स्थापित करने की वचनबद्धता जताई गई थी. इनमें ज़मीनी प्रणालियां (LS), नौसैनिक प्रणालियां (NS), हवाई प्रणालियां (AS) और विमान वाहक प्रौद्योगिकी सहयोग (ACTC) शामिल थीं. इन तमाम क़वायदों की प्राथमिक रूप से दोनों पक्षों की सैन्य सेवाओं द्वारा अगुवाई की जाती है. इस दिशा में एक और समूह की अध्यक्षता अमेरिका और भारत, संयुक्त रूप से कर रहे हैं. अमेरिकी रक्षा विभाग (DoD) के मातहत संग्रहण और टिकाऊ तौर-तरीक़ों के अंडर सेक्रेटरी और भारत की ओर से रक्षा मंत्रालय में रक्षा उत्पाद के सचिव इसकी अध्यक्षता संभाल रहे हैं. इन प्रयासों के साथ-साथ निचले स्तरों पर भी दोनों देशों में जु़ड़ाव अच्छे स्तर पर है. बहरहाल, एक अहम सहकारी क़वायद के तौर पर DTII में अपार संभावनाओं की बात कही गई थी लेकिन इस सिलसिले में अब तक कुछ ख़ास हासिल नहीं हो सका है. DTTI के तहत शुरू किए गए अनेक कार्यक्रमों को उनकी प्रारंभिक अवस्था में आम तौर पर “निम्न-प्रौद्योगिकी” वाला समझा गया था. दरअसल इनके तहत अमेरिका की ओर से वैसी प्रौद्योगिकी मुहैया कराई जा रही थी जिसकी भारतीय सशस्त्र बलों को ज़रूरत ही नहीं थी. इनमें अगली पीढ़ी के रेवेन छोटे मानवरहित हवाई यान (UAVs) शामिल थे, जिन्हें भारतीय सेना ने पूरी तरह से ठुकरा दिया था. प्रौद्योगिकी के एक अन्य समूह में भारतीय वायु सेना की C-130 हरक्यूलिस परिवहन बेड़े के लिए रोल-ऑन, रोल-ऑफ़ (Ro-Ro) किट्स और नाभिकीय, जैविक और रासायनिक (NBC) हथियारों से बचाव प्रदान करने वाले उपकरण शामिल हैं. इन तमाम उपकरणों को प्रौद्योगिकीय संदर्भों में आवश्यकता से कम उन्नत माना गया था. प्रौद्योगिकी के मोर्चे पर इस तरह की सीमित संभावनाओं को नौकरशाही की सुस्ती ने और गंभीर बना दिया. इसके अलावा शीर्ष नीति-निर्माताओं और नीतियों की वक़ालत करने वालों के बीच उच्च-स्तरीय जुड़ावों के अभाव ने भी बुरा प्रभाव डाला. ख़ासतौर से अमेरिका में भारत के साथ पहले से ज़्यादा ठोस और समग्र रक्षा प्रौद्योगिकी साझा करने के मामले में गर्मजोशी की कमी नज़र आई. बहरहाल भारत में स्वदेशी लड़ाकू विमान के विकास कार्यक्रम के लिए अमेरिका जेट इंजन प्रौद्योगिकी का हस्तांतरण कर एक अच्छी पहल कर सकता था, लेकिन अमेरिका ने इससे भी इनकार कर दिया. हालांकि iCET के तहत अमेरिका ज़्यादा से ज़्यादा “इस प्रयोग [जेट इंजन प्रौद्योगिकी] की तेज़ रफ़्तार समीक्षा” करने की “प्रतिबद्धता” जताता है. नतीजतन इस अहम प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में DTII के तहत किसी भी क़िस्म का सहयोग मुहैया नहीं कराई जाने से भारत को भारी हताशा हाथ लगी. यही वजह है कि विश्लेषकों के एक समूह के आकलन के मुताबिक, “भले ही DTII ने अमेरिका और भारत के बीच बेहतर रक्षा सहयोग को आगे बढ़ाने में “विशेष उत्प्रेरक” के तौर पर काम किया है, लेकिन इसकी वजह से कुंठा भी पैदा हुई है. जिसे अक्सर बड़े रक्षा सौदों में एक-स्रोत वाले ठेकों में तेज़ी लाने वाले कारक के तौर पर देखा गया है, जो उचित नहीं है. सह-विकास और उत्पादन के लिए पहचानी गई प्रौद्योगिकियां अव्यावहारिक थी. साथ ही उनकी वाणिज्यिक संभावनाएं और क्रियात्मक आवश्यकताएं भी सवालों के घेरे में थीं.” 

सितंबर 2021 में ऑस्ट्रेलिया, यूनाइटेड किंगडम और अमेरिका ने त्रिपक्षीय प्रतिरक्षा सहयोग के क्षेत्र में उभरती प्रौद्योगिकियों का प्रयोग सुनिश्चित करने के बेहद विशिष्ट मक़सद से साथ ऑकस समझौता किया.

अब एक अन्य समझौते के साथ इसकी तुलना कीजिए. सितंबर 2021 में ऑस्ट्रेलिया, यूनाइटेड किंगडम और अमेरिका ने त्रिपक्षीय प्रतिरक्षा सहयोग के क्षेत्र में उभरती प्रौद्योगिकियों का प्रयोग सुनिश्चित करने के बेहद विशिष्ट मक़सद से साथ ऑकस समझौता किया. ऑकस कार्यक्रम के तहत समुद्र के भीतर रोबोटिक्स स्वायत्त प्रणालियां (AURAS) आती हैं. इस साल इस प्रणाली की क्षमताएं परखने के लिए शुरुआती परीक्षण और प्रयोग का कार्यक्रम तय किया गया है. दूसरा, “पोजीशन, नेविगेशन और टाइमिंग (PNT) पर ख़ास तवज्जो” के साथ ऑकस क्वॉन्टम अरेंजमेंट (AQua) भी इसी कार्यक्रम का हिस्सा है. 2025 तक परीक्षणों और प्रयोगों के ज़रिए क्वांटम प्रौद्योगिकियों के एकीकरण की क़वायद को अमल में लाए जाने की उम्मीद है. तीसरा, AI और ऑटोनॉमी के क्षेत्र में ऑकस के कार्यक्रम के तहत निर्णय-प्रक्रिया में सुधार लाने की कोशिश की गई है. आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस से लैस क्षमताओं के निर्माण के ज़रिए इस क़वायद को पहले से ज़्यादा बारीक़ और तेज़ रफ़्तार वाली प्रक्रिया बनाने का प्रयास किया जाएगा. इसके अलावा, इस समझौते में संचार और ऑपरेशन के दौरान प्रयोग में लाई गई प्रणालियों की हिफ़ाज़त के लिए साइबर प्रौद्योगिकी के प्रयोग की बात भी जोड़ी गई है. तीनों ही देशों द्वारा हाइपरसोनिक और हाइपरसोनिक-प्रतिरोधी क्षमताओं में साझा तौर पर काम करने की प्रतिबद्धता जताई गई है. साथ ही लगातार टकरावों की ज़द में रहने वाले इलेक्ट्रोमैग्नेटिक स्पेक्ट्रम (EMS) को संचालित करने वाली प्रौद्योगिकियों के विकास के क्षेत्र में बेहतर सहयोग का इरादा भी जताया गया है. आख़िर में नवाचार और यांत्रिकी के क्षेत्र में तीनों देशों के अनुभवों से साझा तौर पर सबक़ लेने की बात भी कही गई है, ताकि जंग की नौबत आने पर नई वाणिज्यिक प्रौद्योगिकियों के एकीकरण की क़वायद को अंजाम दिया जा सके.

ऊपर दिए गए ब्यौरे से साफ़ है कि ऑकस देशों के बीच प्रौद्योगिकी सहयोग की गहराई, भारत द्वारा iCET से लगाई जा सकने वाली उम्मीदों से कहीं ज़्यादा होगी. ये कोई ग़ैर-तार्किक निष्कर्ष नहीं है. दरअसल ऑकस का निर्माण करने वाली तीनों राज्यसत्ताएं पहले से ही फ़ाइव आइज़ के सदस्य हैं, जो शीत युद्ध के ज़माने में स्थापित की गई ख़ुफ़िया सहयोग समझौते का नतीजा है. इन तीनों देशों के साथ-साथ 2 और अंग्रेज़ी भाषी देश- न्यूज़ीलैंड और कनाडा भी इसमें शामिल हैं. नतीजतन ऑकस के देशों के बीच रिश्तों को टिकाए रखने के लिए गहरा पारस्परिक विश्वास और सुस्थापित समझ मौजूद है. दशकों के सहयोग की बदौलत ये तमाम देश वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकीय संसाधनों को इकट्ठा करने और उनका ज़्यादा प्रभावी इस्तेमाल करने के लिए बेहतर तरीक़े से सक्षम हैं.

ऑकस के विपरीत iCET (अपार संभावनाओं के बावजूद) की कामयाबी के लिए आगे और जुड़ावों और ज़्यादा ठोस प्रौद्योगिकी फ़ायदों की दरकार होगा, जिससे भारत को लाभ पहुंच सके. ग़ौरतलब है कि ऑकस में प्रौद्योगिकीय सहयोग के प्रमुख क्षेत्रों में प्रगति की माप करने के लिए समय के हिसाब से परिभाषित मापदंड हैं. iCET के साथ इस तरह की कोई व्यवस्था मौजूद नहीं है, हालांकि हो सकता है कि आगे इस दिशा में कोई पहल देखने को मिल जाए. iCET के तहत भारत और अमेरिका के बीच प्रौद्योगिकीय नवाचार के संदर्भ में हिंदुस्तान के “प्रदाता” या “अंशदाता” बनकर उभरने की बजाए प्राप्तकर्ता बनने की अधिक संभावनाएं हैं. ये हालात ऑकस के 2 छोटे सदस्यों (ऑस्ट्रेलिया और यूनाइटेड किंगडम) के विपरीत हैं. ये दोनों पहले से ही प्रौद्योगिकीय मोर्चे पर काफ़ी उन्नत देश (भले ही अमेरिका के मुक़ाबले पीछे हों) हैं. ऑकस सहयोग के केंद्र में रहने वाली उभरती प्रौद्योगिकियों के प्रमुख समूहों में इनका प्रौद्योगिकी योगदान बेहद छोटा या बिल्कुल नाममात्र का रहने की कोई संभावना नहीं है. इसमें कोई शक़ नहीं है कि बारीक और अग्रणी प्रौद्योगिकियों में साझा और मिली-जुली मज़बूतियों का लाभ उठाना ऑकस समझौते का मक़सद है, ताकि ऑकस के तीनों सदस्य देशों को पारस्परिक लाभ हासिल हो सके.  

प्रतिरक्षा के क्षेत्र में iCET को आगे बढ़ाने में भारत के सामने चुनौतियां

आख़िरकार, भारत के नज़रिए से एक मुख्य समस्या भारतीय सशस्त्र बलों की ज़रूरतें पूरी करने के लिए ख़ुद के शोध और विकास (R&D) कार्यों पर किया गया निवेश है. इस कड़ी में हम ताज़ा बजट की मिसाल ले सकते हैं. पिछले साल के बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने निजी क्षेत्र के लिए कम से कम 25 प्रतिशत कोष का वादा किया था, इसके बावजूद हालिया बजट में निजी क्षेत्र के R&D के लिए कुछ ख़ास आवंटन नहीं किया गया है. वित्त मंत्री ने उद्योग जगत की परीक्षण और प्रमाणपत्र मुहैया कराने वाली ज़रूरतें पूरी करने के लिए एक “स्वतंत्र नोडल सार्वभौम निकाय” के गठन की प्रतिबद्धता जताई थी. साथ ही घरेलू उद्योग से ख़रीद के लिए पूंजी बजट में 68 प्रतिशत आवंटन (पूर्ववर्ती बजट से 10 फ़ीसदी ज़्यादा) करने का ऐलान किया था. बहरहाल, इस दिशा में अब तक कोई ठोस नतीजे हासिल नहीं हुए हैं. निजी उद्योग और रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (DRDO) के बीच बेहतर सहयोग सुनिश्चित करने और इन क़वायदों को बढ़ावा देने के लिए एक स्पेशल परपज व्हीकल (SPV) गठित करने का भी ऐलान किया गया था, लेकिन वित्त मंत्री इससे भी पल्ला झाड़ चुकी हैं. निश्चित रूप से ऐसी SPV आगे चलकर निजी क्षेत्र को रक्षा से जुड़े शोध और विकास कार्यों का भंडार बनाने का रास्ता साफ़ कर सकती थी. उधर, अमेरिका के लिए भारत का निजी क्षेत्र एक पसंदीदा भागीदार मालूम होता है. वायुसेना की कोर ऑफ़ सिग्नल्स (CoS) के एक पूर्व कमांडर का विचार है कि DRDO और उनकी सहायक प्रयोगशालाएं सेना के लिए उपयोगी अत्याधुनिक या उभरती प्रौद्योगिकियों (मसलन AI) के विकास के सिलसिले में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन नहीं कर पा रही हैं. AI, क्वॉन्टम और साइबर प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में R&D के लिए शिक्षा जगत के साथ-साथ निजी क्षेत्र को प्राथमिक भंडार की भूमिका निभानी होगी. आगे चलकर इन्हीं क़वायदों को सेना की विशेषताओं और ज़रूरतों के हिसाब से प्रयोग में लाया जा सकता है. सरल शब्दों में कहें तो सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के प्रतिशत के तौर पर शोध और विकास के क्षेत्र में भारत का कुल ख़र्च 0.7 प्रतिशत है, जो चीन या अमेरिका के मुक़ाबले कहीं नहीं ठहरता. नीति आयोग के मुताबिक R&D में ख़र्च के मामले में हम अपने समकक्ष देशों (जैसे मैक्सिको, ब्राज़ील और दक्षिण अफ़्रीका) से भी काफ़ी नीचे हैं. इस साल के बजट में प्रतिरक्षा के क्षेत्र में शोध और अनुसंधान के लिए निजी क्षेत्र के संदर्भ में वादे से कम संसाधन आवंटित किए गए हैं. ऐसे में भारत को घरेलू तौर पर अभी अनेक कठिन चुनौतियों से पार पाना होगा. इन्हीं क़वायदों से ये तय होगा कि वो iCET समझौते के तहत प्रस्तावित प्रौद्योगिकीय मुनाफ़ों को प्रभावी तौर पर ज़मीन पर उतार सकेगा या नहीं. 

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