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अमेरिका के पतन को लेकर छिड़ी चर्चा और विमर्श के बीच, जिस तरह से दुनिया के अधिकांश देशों ने ट्रंप बनाम बाइडेन की चुनावी संघर्ष को देखा है, वह उस अमेरिकी प्रभाव को रेखांकित करता है जो आज भी दुनिया पर हावी है
विपक्षी दलों के कड़े रवैये और बिना किसी रियायत व सहयोग के, अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति के रूप में जो बाइडेन, व्हाइट हाउस की ओर अपना पहला कदम बढ़ा रहे हैं. ऐसे में यह सही समय है इस बात को परखने की, कि अमेरिकी मतदाताओं ने इस चुनाव में अपनी जो राय और पसंद ज़ाहिर की है, उसका क्या अर्थ है और उसके क्या प्रभाव व परिणाम सामने आएंगे? अमेरिकी नागरिकों का यह चुनाव, उनके द्वारा पैदा किए गए राजनीतिक विकल्प और इनकी प्रकृति यह तय करेगी कि आने वाले सालों में वैश्विक व्यवस्था क्या आकार लेती है. अमेरिका के पतन को लेकर छिड़ी चर्चा और विमर्श के बीच, जिस तरह से दुनिया के अधिकांश देशों ने ट्रंप बनाम बाइडेन की चुनावी संघर्ष को देखा है, वह उस अमेरिकी प्रभाव को रेखांकित करता है जो आज भी दुनिया पर हावी है. वास्तव में, चीन और रूस, ऐसे दो राष्ट्र हैं जो दुनिया को यह बताते हुए कभी नहीं थकते कि अमेरिका अब दुनिया की महाशक्ति नहीं रहा है. लेकिन फिर भी अमेरीकी चुनावों के मद्देनज़र, यह दोनों देश यानी चीन और अमेरिका लंबे समय तक हर आख़िरी वोट के आधिकारिक तौर पर गिने जाने और विजेता घोषित किए जाने का इंतज़ार करते रहे ताकि वह आधिकारिक रूप से जीतने वाले पक्ष को बधाई दे सकें.
अमेरीकी चुनावों के मद्देनज़र, यह दोनों देश यानी चीन और अमेरिका लंबे समय तक हर आख़िरी वोट के आधिकारिक तौर पर गिने जाने और विजेता घोषित किए जाने का इंतज़ार करते रहे
पिछले कुछ सालों में वैश्विक आर्थिक व्यवस्था में महत्वपूर्ण बदलाव आया है. ट्रंप के शासनकाल में और कोविड-19 की महामारी ने दुनिया भर में उन रुझानों को बढ़ावा दिया है जिसके तहत कई देश अब वैश्विकरण, संरक्षणवाद और आर्थिक रूप से चीन पर निर्भरता को ख़त्म करने की बढ़ रहे हैं. ट्रंप ने विशेष रूप से उदारतापूर्वक तरीके से सीमा शुल्क (टैरिफ) का उपयोग किया, उन तौर तरीकों को चुनौती देने के लिए जो उनके अनुसार अनुचित व्यापार लाभ रखते थे. ट्रंप एक ऐसे राष्ट्र के नेता के रूप में जिसने आधुनिक समय में आर्थिक वैश्वीकरण की नींव रखी, वह ‘अमेरिकन फर्स्ट’ यानी अमेरिकी नागरिकों के हित को सबसे ऊपर रखने को लेकर पूरी तरह पश्चात्तापहीन थे. वह विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) जैसे बहुपक्षीय निकायों में रुचि नहीं रखते थे, और उन्होंने साल 2017 में उस ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप (Trans-Pacific Partnership-TPP) से अमेरिका को बाहर कर लिया, जिसमें वैश्विक अर्थव्यवस्था का 40 फीसदा हिस्सा शामिल है.
सहज रूप से बाइडेन एक अंतरराष्ट्रीयवादी हैं, जो मुक्त व्यापार और बहुपक्षवाद में विश्वास रखते हैं. लेकिन आज का अमेरिका 1990 के दशक का अमेरिका नहीं है, जब उदारवादी अंतरराष्ट्रीयता अपने चरम पर थी. ट्रंप भले ही हार गए हों, लेकिन ट्रंप की विचारधारा जीवित है, और आधे से अधिक अमेरिकी नागरिक आज भी ट्रंप की नीतियों का समर्थन करते हैं. इन रुझान व संकेतों का राजनीतिक संदेश, जो बाइडेन के चुने जाने पर भी बदलेगा नहीं, ख़ासकर तब जब अमेरिकी सीनेट के रिपब्लिकन पार्टी के हाथों में रहने की संभावना है. बाइडेन ने चुनावी अभियान के दौरान भी यह संकेत दिया था कि वह अमेरिकी मतदाताओं द्वारा दिए गए संकेतों को लगातार देख रहे थे और जब उन्होंने हिलेरी क्लिंटन की राष्ट्रपति पद के लिए दावेदारी को धराशायी कर दिया था. यह वजह है कि वह, “अमेरिकी उत्पाद खरीदें” की बात करते रहे हैं, और उन कंपनियों को दंडित करने की भी जो अमेरिकी नागरिकों के लिए नौकरियों के अवसर कम कर अपने काम को बाहर स्थानांतरित करती हैं. इसके साथ ही उन्होंने चीन के ख़िलाफ़ कड़ा रुख अपनाने की बात भी कही है.
जो बाइडेन के शासलकाल में निश्चित रूप से अमेरिकी विदेश नीति का बहुपक्षीय ढांचा दिखेगा. इसमें अमेरिकी सहयोगियों तक पहुंचने और उनके साथ मिलकर काम करने की मंशा रहेगी और यह भी सुनिश्चित किया जाएगा कि चीन को जहां भी संभव हो चुनौती दी जाए.
जो बाइडेन के शासलकाल में निश्चित रूप से अमेरिकी विदेश नीति का बहुपक्षीय ढांचा दिखेगा. इसमें अमेरिकी सहयोगियों तक पहुंचने और उनके साथ मिलकर काम करने की मंशा रहेगी और यह भी सुनिश्चित किया जाएगा कि चीन को जहां भी संभव हो चुनौती दी जाए. लेकिन, यह भी बहुत हद तक संभव है कि अंत में यह सब सिर्फ़ कामकाज के तौर तरीके बदलने तक ही सीमित हो, जबकि चुनौतियां कमोबेश समान ही रहें.
यह भारत जैसे देश के लिए विशेष रूप से सच है, जो ट्रंप के आने से बहुत पहले से ही अमेरिका के मुकाबले व्यापार चुनौतियों का सामना कर रहा था. ट्रंप इसे लेकर बेहद मुख़र थे और उन्होंने सार्वजनिक रूप से भारत को चुनौती देते हुए, सामान्यीकरण प्रणाली यानी जीएसपी (Generalised System of Preferences-GSP) व्यापार कार्यक्रम के तहत एक लाभकारी विकासशील राष्ट्र के रूप में भारत को मिली प्राथमिकताओं को समाप्त कर दिया. ट्रंप का तर्क यह था कि नई दिल्ली ने अमेरिका को इस बात का आश्वासन नहीं दिया है कि वह अमेरिका को भारतीय बाज़ारों में “न्यायसंगत और उचित पहुंच प्रदान करेगा”. ट्रंप प्रशासन ने भारतीय स्टील और एल्यूमीनियम पर भी सीमा शुल्क लगाया, जिनका विरोध करते हुए भारत ने भी अपनी ओर से कई तरह के सीमा शुल्क लगाते हुए जवाबी कार्रवाई की.
भारत और अमेरिका, दुनिया के दो प्रमुख लोकतंत्र एक मज़बूत आर्थिक संबंध साझा करते हैं, जिसमें अमेरिका भारतीय माल और सेवाओं का सबसे बड़ा उपभोक्ता है और एफडीआई के क्षेत्र में पांचवां सबसे बड़ा स्रोत है.
बाइडेन के लिए, इन बदलावों को पलटना और वापस यथास्थिति में लाना आसान होगा, लेकिन अब उस लघु व्यापार समझौते को निष्कर्ष तक पहुंचाना भी लगभग असंभव हो गया है, जिस पर दोनों देश महीनों से बातचीत कर रहे थे और कथित तौर पर इसके अंतिम रूप के करीब थे. बाइडेन का प्रशासन तंत्र बातचीत व वार्ता के दौर की फिर से शुरुआत करेगा और इस कोशिश में रहेगा कि उन्हें और अधिक व्यापक बनाया जाए, जो निश्चित रूप से उन्हें आगे भविष्य में कहीं नहीं ले जाएगा.
जहां भारत को निश्चित रूप से लाभ होगा वह है कि बाइडेन के नेतृत्व में अमेरिका एक बार फिर आर्थिक वैश्वीकरण का चैंपियन बन जाएगा. भारत वैश्विक आर्थिक व्यवस्था का एक प्रमुख लाभार्थी रहा है, और यदि यह लक्ष्य बदलता है, तो एक उभरती हुई आर्थिक शक्ति के रूप में यह भारत के लिए चुनौतियां केवल बढेंगी. अगर बाइडेन अमेरिकी अर्थव्यवस्था को पटरी पर ला सकते हैं, तो भारत के लिए यह निश्चित रूप से अच्छी खबर है. भारत और अमेरिका, दुनिया के दो प्रमुख लोकतंत्र एक मज़बूत आर्थिक संबंध साझा करते हैं, जिसमें अमेरिका भारतीय माल और सेवाओं का सबसे बड़ा उपभोक्ता है और एफडीआई के क्षेत्र में पांचवां सबसे बड़ा स्रोत है. अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत को अमेरिका के साथ व्यापार अधिशेष (trade surplus) प्राप्त है जो हाल के वर्षों में घट रहा है. भारत अमेरिका से तेल और गैस के आयात को बढ़ाकर इस दिशा में काम कर रहा है, जिससे वाशिंगटन में यह चिंता व्यक्त की जा रही है कि नई दिल्ली भी संतुलित ‘व्यापार संबंधों’ में ही मूल्य देखता है. लेकिन जब बाइडेन अन्य शक्तियों के साथ मिलकर चीन को व्यापार पर चुनौती देंगे, तो भारत को उस चुनौती का सामना करना पड़ेगा, जो अमेरिका के ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप में फिर से शामिल होने के फैसले के चलते पैदा हो सकती हैं.
जो बाइडन का शासन, अमेरिका की आर्थिक नीति में दीर्घकालिक बदलाव की शुरुआत करेगा या नहीं यह एक ऐसा मुद्दा है, जहां सावधानी शायद इसी में हैं कि समय के अनुसार इसका विश्लेषण किया जाए.
बाइडेन का प्रशासनिक तंत्र जो अधिक पूर्वानुमेय (predictable) है, व्यापार और आर्थिक मोर्चे पर अमेरिका द्वारा पेश की गई चुनौतियों के लिए रणनीतिक प्रतिक्रियाएं तैयार करने की दृष्टि से भारत के लिए बेहतर साबित हो सकता है. आर्थिक रूप से दोनों देशों की परस्पर प्रकृति को देखते हुए, अमेरिकी जो अपने आर्थिक ढांचे को व्यवस्थित करने की क्षमता रखता है, भारत के लिए सहायक साबित हो सकता है क्योंकि वह भारत के लिए वैश्विक मांग को उत्प्रेरित करने का काम कर सकता है. लेकिन जो बाइडन का शासन, अमेरिका की आर्थिक नीति में दीर्घकालिक बदलाव की शुरुआत करेगा या नहीं यह एक ऐसा मुद्दा है, जहां सावधानी शायद इसी में हैं कि समय के अनुसार इसका विश्लेषण किया जाए.
इस बात की अधिक संभावना है कि व्यापार और अप्रवासन के मुद्दे पर, जो बाइडेन का कार्यकाल कामकाज के तरीकों में ट्रंप से बहुत अलग हो, लेकिन अमेरिकी राजनीतिक परिदृश्य में अंतर्निहित बदलावों को देखते हुए कई मामलों में बदलाव की तुलना में निरंतरता होने की संभावना है. अमेरिकी मतदाता का अपने राजनीतिक वर्ग के लिए संदेश बिल्कुल स्पष्ट है: अमेरिकी नीति निर्माताओं को सबसे पहले अपनी घरेलू चुनौतियों को देखना चाहिए और इन समस्याओं से निपटने के लिए पर्याप्त रूप से नीतियों को अपनाना चाहिए, इससे पहले कि वो दुनिया में अपनी छवि को बेहतर बनाने में ध्यान लगाएं. राजनीतिक और वैचारिक रुप से अमेरिका विभाजित है, और डेमोक्रेटिक पार्टी जिसकी अगुवाई जो बाइडेन करते हैं, भी अब खंडित हो रही है. जो बाइडेन को अपने कार्यकाल में सबसे पहले अमेरिका में पैदा हुए इस विभाजन से निपटना होगा और इस अंतर को पाटना होगा, बजाय इसके कि वो अमेरिका के व्यापक वैश्विक एजेंडा को पूरा करने के लिए कोई क़दम उठाएं.
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Professor Harsh V. Pant is Vice President – Studies and Foreign Policy at Observer Research Foundation, New Delhi. He is a Professor of International Relations ...
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