Published on Sep 24, 2021 Updated 0 Hours ago

अब जबकि सरकार स्कूल खोलने और बंद करने के बीच में झूल रही है, तो नीतिगत आदेश में गफ़लत का नतीजा बच्चे भुगत रहे हैं.

महामारी के दौरान कैसे बन गए स्लोवेनियाई बच्चे राजनीतिक मोहरे

भले ही ये साफ़ तौर से न दिखे, लेकिन स्लोवेनिया में कोविड-19 महामारी की कड़वी हक़ीक़त यही है कि जिस तरह महामारी का प्रबंधन किया गया (और अब भी हो रहा है) उसकी भारी क़ीमत नागरिकों के दो सबसे कमज़ोर तबक़ों: बुज़ुर्गों और बच्चों को उठानी पड़ रही है.

कोरोना वायरस के चलते मौत की बढ़ी दर का खामियाज़ा जहां सबसे ज़्यादा बुज़ुर्गों ने झेला, वहीं आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक़ बच्चों को स्कूलों और नर्सरी से 24 हफ़्ते से भी ज़्यादा वक़्त तक दूर रखा गया है. इससे बच्चों पर दोहरी मार पड़ी है. वो सामाजिक और आर्थिक दोनों तरह के अंतर में इज़ाफ़े के शिकार हुए हैं.

इसमें कोई दो राय नहीं कि इस बारे में और रिसर्च किए जाने की ज़रूरत है. लेकिन कम से कम एक स्टडी में ये पाया गया है कि स्कूल जाने की उम्र वाले बच्चों वाले स्लोवेनिया के कम से कम 25 प्रतिशत परिवारों के पास इतनी जगह नहीं थी, कि उनके बच्चे शांत माहौल में ऑनलाइन कक्षा में पढ़ाई कर सकें. वहीं, कम से कम पचास प्रतिशत छात्र ऐसे थे, जिन्हें पढ़ाई के लिए अपना कंप्यूटर अपने भाई-बहनों से साझा करना पड़ता था.

निश्चित रूप से ये माहौल वैसा नहीं है, जिसमें पढ़ाई लिखाई के अच्छे नतीजे क़ायम रखे जा सकें. स्लोवेनिया में सेहत की सबसे बड़ी संस्था नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ पब्लिक हेल्थ (NIJZ) ने हाल ही में स्कूल का नया सत्र शुरू होने से पहले कुछ दिशा निर्देश प्रकाशित किए थे. इसमें साफ़ तौर पर ये कहा गया था कि लंबे समय तक स्कूल बंद रहने से बच्चों की पढ़ाई लिखाई की उपलब्धियों पर नकारात्मक असर पड़ा है.

अध्ययन क्या बताते है 

लंबे वक़्त तक स्कूल बंद होने से न केवल बच्चों के अकादेमिक नतीजों पर बुरा असर पड़ा है, बल्कि उनकी सेहत से जुड़ी गतिविधियां भी प्रभावित हुई हैं. एक अहम अध्ययन में पाया गया है कि जब से (यानी वर्ष 1982 से) आंकड़े इकट्ठा किए जा रहे हैं, तब से 2020 में बच्चों के बीच मोटापे की समस्या सबसे अधिक पायी गई है. ज़ाहिर है इस स्टडी के नतीजों ये विशेषज्ञ बेहद परेशान हो गए है और उन्होंने इस बारे में चेतावनी जारी की. फिटनेस पर हुए इस अध्ययन के तमाम नतीजों में से एक ये भी था कि महामारी के दौरान, बच्चों में स्क्रीन देखते रहने की भयंकर लत पायी गई थी.

लेकिन, ये सभी तो स्लोवेनिया के बच्चों पर महामारी के फौरी (या साफ़ दिखने वाले) मानसिक दुष्प्रभाव थे. NIJZ के दस्तावेज़ में ये भी कहा गया था कि स्कूल बंद होने से बच्चों की मानसिक सेहत आम तौर पर ख़राब हुई है. सच तो ये है कि ये समस्या इतनी गंभीर हो गई है, कि जब अप्रैल 2021 में कोविड-19 महामारी की तीसरी लहर के संक्रमण शुरू हुए, और स्कूलों को दोबारा बंद करना पड़ा (जो छह हफ़्ते पहले ही खुले थे) तो, कम उम्र लोगों की मानसिक सेहत बुरी तरह तबाह हो गई थी.

एक अहम अध्ययन में पाया गया है कि जब से (यानी वर्ष 1982 से) आंकड़े इकट्ठा किए जा रहे हैं, तब से 2020 में बच्चों के बीच मोटापे की समस्या सबसे अधिक पायी गई है. ज़ाहिर है इस स्टडी के नतीजों ये विशेषज्ञ बेहद परेशान हो गए है और उन्होंने इस बारे में चेतावनी जारी की. 

स्लोवेनिया लगभग हर पैमाने के लिहाज़ से एक विकसित देश है और समानता के सूचकांक पर भी उसकी स्थिति काफ़ी अच्छी है. सवाल ये है कि वो फिर भी इन हालात में कैसे पहुंच गया और क्या स्कूल का नया सत्र शुरू होने पर इस स्थिति से बचा जा सकता है? इस सवाल के पहले हिस्से का जवाब है नाकारापन और राजनीतिक खेल. सवाल के दूसरे हिस्से का अच्छा से अच्छा जवाब यही हो सकता है कि हम कोई ठोस जवाब नहीं दे सकते. क्योंकि, पहले सवाल के जवाब में जिन समस्याओं का ज़िक्र है, उनका समाधान गर्मियों की छुट्टियों के दौरान शायद ही खोजा गया हो, और अब ये समस्याएं टीकाकरण अभियान में आलस और ऑनलाइन दुनिया में ग़लत जानकारी के असर से और भी बढ़ गई हैं.

लेकिन, सबसे बड़ी समस्या विशेषज्ञों द्वारा हालात का विश्लेषण और उससे निपटने का तरीक़ा नहीं था. समस्या ये थी कि राजनीतिक फ़ायदे के लिए विशेषज्ञों के विश्लेषण और ज़रूरी क़दम की अनदेखी की गई. लॉकडाउन के दौरान बच्चों से जुड़े आंकड़े बेहद डरावने हैं. लेकिन, जब हम इन आंकड़ों को इस हक़ीक़त के साथ खड़ा करके देखते हैं कि लॉकडाउन के दौरान कई कारोबारों को कुछ शर्तों के साथ जारी रखने की इजाज़त दी गई थी (जो अक्सर सरकार से लॉबीइंग के ज़रिए लॉकडाउन से रियायतों की शक्ल में हासिल की गई सुविधाएं थीं) और घर से काम करने संबंधी नीतियों को कभी तवज्जो नहीं दी गई. ऐसे में स्कूल बंद रखने का फ़ैसला एक ज़रूरत नहीं, बल्कि चुना गया विकल्प था.

अभिभावक, अध्यापक और सरकार के सामने चुनौतियां 

इसी बात को बेलाग तरीक़े से कहें, तो अधिकारियों ने ज़्यादातर कारोबार तो चलाने की इजाज़त दे दी, लेकिन स्कूल बंद रखे. उन्होंने ऐसा इसलिए किया क्योंकि स्कूल बंद करने के फ़ैसले का सबसे कम विरोध हुआ और इसलिए भी क्योंकि छात्र वोट बैंक नहीं हैं. मास्क और टेस्ट का विरोध करने वाले अभिभावक, अध्यापकों और सरकार पर दबाव बना रहे हैं कि वो बच्चों से दूर रहें. वहीं कुछ अन्य अभिभावक इस बात पर अड़े हुए हैं कि वो तभी अपने बच्चों को स्कूल भेजेंगे, जब वहां सब लोगों के लिए मास्क लगाना अनिवार्य हो. कुछ मुखर अध्यापक खुलकर मास्क पहनने, टेस्ट करने और टीकाकरण से जुड़े वैज्ञानिक तर्कों का विरोध कर रहे हैं. वहीं, उन्हीं के कुछ साथी अध्यापक इस विरोध को देखकर हैरान हैं. अध्यापकों का श्रमिक संघ इन दोनों पक्षों के बीच संतुलन बनाने के बेहद नाज़ुक दौर से गुज़र रहा है और वो सरकार से केवल श्रमिक अधिकारों के मुद्दे पर संवाद करता है. और आख़िर में ख़ुद सरकार, इस महामारी के डेढ़ साल बाद अब तक ये तय नहीं कर पाई है कि ऐसे फ़ैसले किस तरह लिए जाएं जिससे उन्हें हड़बड़ी में और अधकचरे तरीक़े से लागू न किया जाए. सरकार अपने ऐसे फ़ैसलों को लेकर अक्सर आलोचना की शिकार हुई है, और फिर विरोध के बाद उसे अपने निर्णय वापस लेने पड़े हैं. सबसे बुरी बात ये है कि ऐसा तरीक़ा अब इस क़दर हावी हो गया है कि जब कभी-कभा सरकार अच्छे फ़ैसले (जैसे कि स्कूलों में सबके लिए मास्क पहनना अनिवार्य करना) लेती है, तो उनका भी विरोध होने लगता है; ये सबसे बड़ा मसला है. वर्ष 2020 के आख़िर तक प्रधानमंत्री जानेज़ जांसा की सरकार ने इतनी सारी ग़लतियां और ग़लत क़दम उठा लिए थे कि सबसे तार्किक और नरमी भरे फ़ैसलों को भी शक की निगाह से देखा जा रहा था. इसलिए, जब दिसंबर 2020 में संवैधानिक अदालत ने फ़ैसला सुनाया कि स्कूल बंद करने के निर्णय का कोई क़ानूनी आधार नहीं है, तो किसी को हैरानी नहीं हुई. उसशके बाद सरकार ने ज़रूरी क़ानूनी आधार बनाने की दिशा में क़दम बढ़ाए, लेकिन ये क़दम भी उसने ऐसी हड़बड़ी और नासमझी में उठाया कि छह महीने बाद ही देश की सबसे बड़ी अदालत ने संक्रामक बीमारी क़ानून के सबसे अहम हिस्से को ही ख़ारिज कर दिया. इससे सरकार, इस महामारी की चौथी लहर के संक्रमण से निपटने के लिए बेहद ज़रूरी क़ानूनी ढांचे से ही वंचित हो गई.

मास्क और टेस्ट का विरोध करने वाले अभिभावक, अध्यापकों और सरकार पर दबाव बना रहे हैं कि वो बच्चों से दूर रहें. वहीं कुछ अन्य अभिभावक इस बात पर अड़े हुए हैं कि वो तभी अपने बच्चों को स्कूल भेजेंगे, जब वहां सब लोगों के लिए मास्क लगाना अनिवार्य हो. 

इसके बावजूद, स्लोवेनिया की सरकार महामारी से निपटने के ऐसे उपाय कर रही है, जो या तो इससे जुड़े लोगों के साथ बिना संवाद के हो रहे हैं या फिर बहुत सीमित सलाह मशविरे के बाद लागू किए जा रहे हैं. अक्सर सरकार ऐसा करने के लिए आख़िरी वक़्त का इंतज़ार करती है, और फिर विरोध होने पर वो क़दम वापस खींच लेती है. लोकतंत्र में विरोध के सामान्य तरीक़ों के साथ मिलकर, स्लोवेनिया में जानेज़ जांसा की सरकार को लेकर जनता, मीडिया और राजनीतिक वर्ग के बीच भयंकर अविश्वास का माहौल है. स्कूल के नए सत्र (जो स्लोवेनिया में अभी 1 सितंबर से शुरू हुआ है) के लिहाज़ से ये क़तई अच्छी बात नहीं है.

कैसे बन गए बच्चे मोहरे 

पूरी महामारी के दौरान, ऐसा लगता है कि सरकार का पूरा ध्यान अर्थव्यवस्था को खुला रखने पर लगा रहा है. कुछ हद तक ये बात ठीक भी लगती है. महामारी की रोकथाम के उपायों से सरकार पर जो क़र्ज़ का बोझ बढ़ा है उसे कम किया जाना ज़रूरी है, और ये तभी हो सकता है जब उत्पादकता बढ़ाई जाए. इसके अलावा, चूंकि टीकाकरण की दर बढ़ रही है (हालांकि यूरोपीय संघ के औसत के लिहाज़ से ये कम ही है), और जनता अब रोकथाम के लिए लगी पाबंदियों और लॉकडाउन से भी आज़िज़ आ गई है, तो अब लॉकडाउन लगाने की ओर झुकाव लगातार कम होता जा रहा है. इसे अगर हम जानकारी बढ़ाने के अभियान में कुप्रबंधन से जोड़कर देखें, तो 31 अगस्त तक केवल 43 प्रतिशत आबादी को ही कोरोना का टीका लग सका है. ये यूरोपीय संघ/ यूरोपीय आर्थिक क्षेत्र के 56 प्रतिशत संपूर्ण टीकाकरण की दर से काफ़ी कम है.

इसके बावजूद, महामारी की रोकथाम से जुड़े दिशा-निर्देश लागू करने ज़रूरी हैं. मगर, इन्हें लागू करने की ज़िम्मेदारी ज़्यादातर स्कूलों पर ही डाल दी गई है. अक्सर, कुछ ख़ास उपायों को लागू करने की समय सीमा सितंबर तक है, जब स्कूल खुलने लगे हैं. वहीं इन दिशा-निर्देशों की ख़ास बातों को लागू करने का ज़िम्मा स्कूलों के प्रबंधन के भरोसे छोड़ दिया गया है.

अब जबकि कोरोना के रोज़ के केस की तादाद बड़ी तेज़ी से बढ़ रही है, तो ये सोचना अतार्किक नहीं होगा कि स्लोवेनिया पिछले पतझड़ के मौसम जैसे दौर से ही फिर गुज़रने वाला है.

देश के स्वास्थ्य और शिक्षा अधिकारियों ने पूरा अगस्त महीना अभिभावकों को ये भरोसा दिलाने में लगा दिया कि वो डेल्टा वैरिएंट के चलते आई चौथी लहर (स्लोवेनिया में इस समय संक्रमण की जो दर है वो अक्टूबर 2020 के दौर की साप्ताहिक दर के बराबर ही है, जब सरकार ने स्कूल बंद करा दिए थे) से बचते हुए स्कूलों को जहां तक संभव होगा खोले रखने की कोशिश करेंगे.

स्कूलों का नया सत्र शुरू होने की पूर्वसंध्या पर शिक्षा मंत्री सिमोना कुस्टेक ने तो ये तक कहा था कि स्कूल के निरीक्षकों को इस बात का अधिकार होगा कि अगर वो साफ़-सफ़ाई के नियमों का पालन होते नहीं देखते हैं, तो स्कूल बंद करा सकते हैं. हालांकि, अभी ये साफ़ नहीं है कि स्कूल के निरीक्षकों के पास इसका क़ानूनी आधार कैसे और क्या होगा. सरकार के इस क़दम से भी उसके क़ानून की परवाह न करते हुए अधकचरे तरीक़े से कोविड-19 के प्रबंधन से जुड़े आदेश जारी करने की आदत का पता चलता है.

सबसे अहम बात ये है कि ये पहली बार नहीं है कि इस मंत्री ने स्कूल खुले रखने का वादा किया है. वो पहले भी ऐसा कर चुकी हैं और फिर कुछ ही हफ़्तों में स्कूल बंद करने पड़े थे. अब जबकि कोरोना के रोज़ के केस की तादाद बड़ी तेज़ी से बढ़ रही है, तो ये सोचना अतार्किक नहीं होगा कि स्लोवेनिया पिछले पतझड़ के मौसम जैसे दौर से ही फिर गुज़रने वाला है.

अब अगर बच्चों के माता-पिता इस बात पर खीझते हैं कि उन्हें अपने बच्चों को लगातार स्कूल भेजना चाहिए या नहीं, तो हैरानी नहीं होनी चाहिए, क्योंकि इस महामारी से जुड़ी राजनीति के खेल में बच्चे तो मोहरे बन गए हैं. 

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