लंबे समय से चीन अपनी बढ़ती ताकत की धौंस जिस तरह से जताता रहा है उससे पूरी दुनिया में चिंता की लहर फैल गई है। नौबत तो यहां तक आ गई है कि अब केवल एशिया में ही नहीं, बल्कि यहां से बहुत दूर यूरोप में भी यह बात मानी जाने लगी है कि चीन के इस तरह के बर्ताव का मुंहतोड़ जवाब देने की जरूरत है। हालांकि, चीन के बर्ताव पर आश्चर्य नहीं करना चाहिए क्योंकि चीन तो केवल वही कर रहा है जो इतनी अपार ताकत हासिल कर लेने वाला कोई भी अन्य देश करेगा। वैसे, यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि चीन इतनी जल्दी इतने सारे दुश्मन बनाकर संभवत: कुछ हद तक अपनी रणनीतिक मूर्खता का परिचय दे रहा है। हालांकि, जिस तरह से चीन के बर्ताव पर उसकी बढ़ती ताकत के बढ़ते प्रतिकूल असर को समझना मुश्किल नहीं है, ठीक उसी तरह से इस दिशा में पलटवार भी कुछ ऐसा होना चाहिए: चीन के बर्ताव से आहत देश या तो तटस्थ बन सकते हैं या चीन को संतुलित करने की कोशिश कर सकते हैं। निश्चित तौर पर इसके अलावा कोई और उपाय नहीं है। वहीं, दूसरी ओर जिस तरह से चीन से बढ़ते खतरे को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आम सहमति बन रही है, उसे देखते हुए यही प्रतीत होता है कि भारत कोई तीसरा या अन्य तरीका अपनाना चाहता है। हालांकि, इस मामले में हेजिंग रणनीति का विफल होना तय है।
चीन को संतुलित करने का मतलब यह नहीं है कि भारत को चीन के साथ असैन्य राजनयिक संबंध या व्यापार और अन्य बातचीत जारी नहीं रखनी चाहिए अथवा यहां तक कि व्यापार जैसे साझा हितों वाले मुद्दों पर उसे चीन के साथ सहयोग भी नहीं करना चाहिए। चीन को संतुलित करने का मतलब दरअसल यह है कि भारत के खिलाफ चीन के सियासी एवं सैन्य प्रयासों का मुकाबला करने के लिए आवश्यक क्षमता और संबंध विकसित किए जाएं। इसके लिए भारत की प्रतिरक्षा क्षमता को सुदृढ़ करने की आवश्यकता है। यही नहीं, इससे भी ज्यादा जरूरी यह है कि समान विचारधारा वाले देशों के एक ऐसे समूह को एकजुट किया जाए, जो चीन के कोपभाजन का शिकार होने पर अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में एक-दूसरे का समर्थन करने के उद्देश्य से एक साथ खड़े होने के लिए बिल्कुल तैयार रहें। चीन के वर्तमान बर्ताव से भले ही यह एकजुटता मुमकिन नजर आती हो, लेकिन इसके बावजूद यह कोई आसान काम नहीं है। सिंगापुर में हाल ही में आयोजित शांगरी-ला वार्ता (डायलॉग) में कुछ ऐसा ही देखने को मिला। दरअसल, इस दौरान इस क्षेत्र के देश चीन की खुलकर आलोचना करने से बाज नहीं आए, लेकिन इनमें से अधिकतर देशों ने वास्तव में चीन का नाम लिए बगैर ही उसकी आलोचना करना बेहतर समझा। इसी तरह पश्चिमी विद्वानों, विशेष रूप से अमेरिकी विद्वानों ने सहयोगी देशों पर ट्रम्प की अस्थिर विदेश नीति से पड़ रहे असर को लेकर चिंता तो जताई, लेकिन चीन से स्पष्ट तौर पर मिल रहे खतरे को ध्यान में रखते हुए सिंगापुर में दिए गए आधिकारिक भाषणों में शायद ही इसका कोई प्रतिबिंब नजर नहीं आया।
चीन को संतुलित करने का मतलब यह नहीं है कि भारत को चीन के साथ असैन्य राजनयिक संबंध या व्यापार और अन्य बातचीत जारी नहीं रखनी चाहिए अथवा यहां तक कि व्यापार जैसे साझा हितों वाले मुद्दों पर उसे चीन के साथ सहयोग भी नहीं करना चाहिए। चीन को संतुलित करने का मतलब दरअसल यह है कि भारत के खिलाफ चीन के सियासी एवं सैन्य प्रयासों का मुकाबला करने के लिए आवश्यक क्षमता और संबंध विकसित किए जाएं।
यही कारण है कि पिछले कुछ महीनों में भारतीय विदेश नीति में जो बदलाव देखा गया है वह बेहद निराशाजनक प्रतीत होता है। इस आशंका को भी अब बल मिलने लगा है कि आधे-अधूरे मन से दो वर्षों तक संतुलित रणनीति अपनाने की कोशिश करने के बाद भारत ने एक बार फिर तीसरे रास्ते की खोज शुरू कर दी है। भारतीय विदेश नीति से जुड़े अनेक हालिया कदमों ने इस चिंता को और भी ज्यादा बढ़ा दिया है। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन एवं रूस के शीर्ष राजनेताओं के बीच आयोजित ‘अनौपचारिक’ शिखर सम्मेलन (बारी-बारी से), सिंगापुर में शांगरी-ला डायलॉग में प्रधानमंत्री का भाषण, इंडोनेशिया की उनकी यात्रा और इसके साथ ही किंगदाओ में शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठक इन हालिया कदमों में शामिल हैं। इन सभी पर एक साथ गौर करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि भारत एक बार फिर इस ‘हेजिंग’ रणनीति पर अपना ध्यान केंद्रित कर रहा है: आपसी मतभेद दूर होने तक चीन के साथ किसी अस्थायी करार के लिए प्रयास करना और इसके साथ ही चीन की नुकसानदेह मुहिम से बचाव के लिए इस क्षेत्र एवं यहां से बाहर की कई अन्य ताकतों के साथ सुरक्षा और राजनीतिक संबंध बनाने की ओर धीरे-धीरे कदम आगे बढ़ाना।
वैसे, भारत ने चीन को संतुलित करने के प्रयासों को अभी तक पूरी तरह से छोड़ा नहीं है। ज्यादातर प्रमुख भाषणों एवं वक्तव्यों में नौवहन की आजादी बनाए रखने और विवादों के शांतिपूर्ण निपटारे की आवश्यकता को रेखांकित करते हुए चीन की परोक्ष आलोचना की गई है। प्रधानमंत्री द्वारा शांगरी-ला में दिए गए भाषण में भी इसकी झलक देखी गई जिसमें उन्होंने इन सभी पर विशेष जोर दिया था : “अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत समान पहुंच सुनिश्चित करना, समुद्र एवं हवा में आम जगहों का उपयोग, जिसके लिए नौवहन की आजादी की आवश्यकता होगी, निर्बाध वाणिज्य और अंतरराष्ट्रीय कानून के अनुसार ही विवादों का शांतिपूर्ण निपटारा करना।” अन्य देशों के साथ मिलकर इस मुद्दे पर मतैक्य बनाने के लिए अत्यंत प्रयोगात्मक प्रयास भी हो रहे हैं। इंडोनेशिया इस राह में नवीनतम देश है। ये निश्चित तौर पर आवश्यक कदम हैं, भले ही अत्यंत टाल-मटोल एवं धीमी गति के साथ इन कदमों को उठाए जाने के कारण इसकी आलोचना क्यों न की जा रही हो।
इस बात के भी कुछ-कुछ संकेत मिल रहे हैं कि भारत अब अमेरिका और उसके सहयोगी देशों के साथ हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अपने सुरक्षा संबंधों से पीछे हट रहा है। हालांकि, इस दिशा में कुछ भी तेज गति के साथ नहीं हो रहा है — ऑस्ट्रेलिया अब भी ‘मालाबार अभ्यास’ से बाहर है, भारत ने ‘क्वाड (चतुष्कोण सुरक्षा वार्ता)’ के पीछे के असली सुरक्षा उद्देश्य को स्वीकार करने से इनकार कर दिया है, और यहां तक कि नौकरशाही एवं निम्न स्तरीय सुविधा समझौतों जैसे कि कॉमकासा एवं बीईसीए पर सत्तर के दशक की तरह संशय जताए जाने के चलते अमेरिका-भारत रक्षा संबंध अब भी सीमित दायरे में ही हैं। इसके साथ ही यह बात भी उल्लेखनीय है कि भारत इनमें से किसी से भी पीछे नहीं हट रहा है। ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि यहां तक कि सुस्त गति अब भी भारतीय सामरिक नीति को प्रतिबिंबित करती है।
इसमें कुछ अलग हटकर बात यही है कि भारत इसके साथ ही चीन को फिर से आश्वस्त करने और साझा हित वाले क्षेत्रों को ढूंढ़ने की कोशिश कर रहा है। दरअसल, इसके जरिए भारत स्पष्ट रूप से चीन को यह दर्शाने का प्रयास कर रहा है कि चीन को संतुलित या नियंत्रित करने में उसकी कोई रुचि नहीं है। जैसा कि नरेंद्र मोदी ने सिंगापुर में दिए गए अपने भाषण में एक से अधिक बार विशेष जोर देते हुए कहा था, ‘‘भारत की दोस्ती ‘किसी को काबू में रखने वाला गठबंधन नहीं है” और वह ‘किसी भी विभाजन रेखा के एक तरफ या दूसरी तरफ नहीं है।’’ यही नहीं, मोदी और पुतिन के बीच आयोजित अनौपचारिक शिखर सम्मेलन के बाद भारत के विदेश मंत्रालय द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया था कि भारत एक ‘बहुध्रुवीय दुनिया’ चाहता है। दरअसल, भारत यह उम्मीद कर रहा है कि खासकर व्यापार से जुड़े साझा हित उनके बीच की किसी भी अन्य असहमति से कहीं अधिक महत्वपूर्ण साबित होंगे।
इसमें कुछ अलग हटकर बात यही है कि भारत इसके साथ ही चीन को फिर से आश्वस्त करने और साझा हित वाले क्षेत्रों को ढूंढ़ने की कोशिश कर रहा है। दरअसल, इसके जरिए भारत स्पष्ट रूप से चीन को यह दर्शाने का प्रयास कर रहा है कि चीन को संतुलित या नियंत्रित करने में उसकी कोई रुचि नहीं है।
हालांकि, इस रणनीति के कारगर साबित होने की संभावना नहीं है। इससे न तो चीन और न ही वे साझेदार आश्वस्त होंगे जिनके साथ मिलकर भारत चीन को संतुलित करने की आशा करता है। चीन संभवत: किसी भी सूरत में भारत पर भरोसा नहीं कर पाएगा जो चीन के पड़ोस में आर्थिक दृष्टि से सर्वाधिक संपन्न देश है। मोदी भले ही यह कह रहे हों कि भारत हिंद-प्रशांत क्षेत्र को एक ‘प्राकृतिक क्षेत्र के रूप में देखता है .. न कि एक सामरिक नीति के रूप में या किसी भी देश के खिलाफ लक्षित या निर्देशित सीमित सदस्यों के एक क्लब के रूप में’, लेकिन यह बात चीन के गले नहीं उतरेगी। चीन में इसे सम्मेलन हॉल में दिए गए कुतर्क के रूप में देखा जाएगा। दरअसल, भारत द्वारा संतुलन स्थापित करने के लिए निरंतर किए जा रहे प्रयासों को ध्यान में रखते हुए चीन इसे पूरी तरह नजरअंदाज कर देगा। दरअसल, इस बदलाव के कई महीनों के बाद भी इस तरह का कोई भी संकेत नहीं मिला है कि चीन ने भारत के खिलाफ अपने नियंत्रणकारी और संतुलनकारी प्रयासों में किसी भी तरह से कुछ भी कमी लाई है। उदाहरण के लिए, तिब्बत में अपनी सैन्य ताकत बढ़ाने या हिंद महासागर में विस्तार करने पर विराम लगाने, परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) जैसे बहुपक्षीय फोरम में नरम रुख अपनाने अथवा संयुक्त राष्ट्र में मसूद अजहर मुद्दे पर अपना अडि़यल रुख छोड़ने और पाकिस्तान को चीन की ओर से मिल रहे समर्थन में कोई कमी करने का कुछ भी संकेत नहीं मिला है। अत: ऐसे में यह पूरी तरह से लाजिमी ही है कि भारत चीन से अपने शब्दों पर भरोसा करने के लिए कह रहा है, न कि अपने कार्यकलापों पर। चीन इस बारे में बेहतर जानता है।
वहीं, दूसरी तरफ भारत द्वारा अपना रुख बदल कर ‘हेजिंग’ को अपनाने से विशेषकर हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत के संभावित साझेदारों का भरोसा घट जाएगा। भारत अपने साझेदारों के अडिग रुख को लेकर आश्वस्त नहीं है, लेकिन उसे यह समझना चाहिए कि यह तथ्य दूसरों के लिए भी ठीक उतना ही चिंता का विषय है। एक साझेदार के रूप में भारत के प्रति अविश्वसनीयता की कोई भी धारणा बनने से ‘एशियाई संतुलन’ सुनिश्चित करना मुश्किल हो जाएगा, जिसकी चाहत रखने का दावा भारत करता रहा है। भारत जिस तरह से चीन को बार-बार आश्वस्त करने की कोशिश कर रहा है उससे चीन के खिलाफ ‘समुचित संतुलन’ सुनिश्चित करने को लेकर भारत के भरोसे में भारी कमी होने का संकेत उसके संभावित साझेदारों के बीच जाएगा। यदि भारत, जो क्षेत्रीय स्तर पर ‘चीन को संतुलित करने’ में सबसे सक्षम है, ही इस मामले में अनिच्छुक नजर आएगा तो वैसी स्थिति में ‘एशियाई संतुलन’ सुनिश्चित करना और भी ज्यादा कठिन हो जाएगा।
इस हेजिंग रणनीति को अपनाने का नतीजा यह होगा कि भारत न तो चीन से महसूस हो रहे खतरे में कोई कमी कर पाएगा और न ही इस खतरे से निपटने के लिए उसके पास कोई साझेदार होगा। यह इसके सभी संभावित नतीजों में सर्वाधिक निराशाजनक है। वैसे तो हम यह आशा कर सकते हैं कि यह चुनावी मजबूरियों को ध्यान में रखते हुए विवश होकर अपनाई गई महज एक अल्पकालिक रणनीति है, लेकिन फिर भी इसके प्रभावों के वास्तविक साबित होने और लंबे समय तक तगड़े झटके देते रहने का अंदेशा है।
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