Author : John H. Matthews

Published on Feb 20, 2021 Updated 0 Hours ago

कोरोना महामारी हालांकि जलवायु परिवर्तन का नतीज़ा नहीं है लेकिन यह एक गंभीर गैर स्थिर घटना का शानदार और डरावना उदाहरण है.

पानी की निरंतरता सुनिश्चित करने के लिए अप्रत्याशित जलवायु घटनाओं को लेकर कैसे तैयार रहा जाए

लगभग 10 साल पहले, मैं पूर्वी नेपाल में कोशी नदी के बेसिन पर था. कुछ सहयोगियों के साथ हमने स्थानीय जलवायु प्रभावों को देखने के लिए एक संकीर्ण घाटी के काफी दूर तक चले गए थे. बर्फ की चादर से ढ़ंके सफ़ेद पहाड़ पास में ही जंगलों और निचली ढ़लानों पर मौज़ूद गांवों के पीछे आसमान का सीना चीर कर जैसे खड़े थे.

ज़ल्द ही हमने एक सूखी नदी का किनारा देखा जो चाक की तरह सफ़ेद था. हम कुछ किलोमीटर आगे बढ़ चले थे जब हमें अनाज की चक्की जैसी तेज़ आवाज़ सुनाई दी. ज़ल्द ही हमें पता चला कि हम एक कम उत्पादन वाले पनबिजली बांध के पास आ चुके हैं जो काफी नया था. वहां बांध का संचालक मिल को संचालित करने के लिए बांध से बिजली का इस्तेमाल करते हुए देखा जा सकता था जबकि कम से कम चार किलोमीटर नीचे तक वहां सूख चुकी नदी कभी बहा करती थी. ऑपरेटर ने हमें बताया कि अंतर्राष्ट्रीय इंजीनियरों की कोशिशों और हाल के दशकों में नदी के प्रवाह के आकलन के बावज़ूद यह बांध कभी भी अपनी पूरी क्षमता के मुताबिक संचालित नहीं हो सका है. यहां मानसून और हिमपात का पैटर्न तेजी से बदल रहा था और बांध को जिस वातावरण की स्थिति के लिए डिज़ाइन किया गया था वैसा पर्यावरण  अब वज़ूद में ही नहीं है. काठमांडू में 18 घंटे तक बिजली का नहीं रहना और शुष्क मौसम इस ओर इशारा कर रहे थे कि आख़िर नेपाल ने ख़ुद को किस पर्यावरण की मुश्किलों में फंसा लिया है. आख़िर आधुनिक डिज़ाइन और निवेश के बावज़ूद भी नेपाल की ऐसी स्थिति कैसे हो गई?

पर्यावरण बदलाव मानवीय सभ्यता के स्तर का ख़तरा है

कुछ ही रात पहले, मैं एक विज्ञान सम्मेलन में पैनल में था और बोल रहा था. इस सम्मेलन में शिरकत करने वाले ज़्यादातर लोग उत्तरी अमेरिका और यूरोप के युवा पर्यावरण वैज्ञानिक थे. मैं जब बोला तो कुछ ही मिनटों पहले अमेरिका के मशहूर पर्यावरण वैज्ञानिक – कैथरीन हेयहोए – ने वहां मौज़ूद दर्शकों के बीच अपना संबोधन खत्म किया था. उन्होंने बेहद स्पष्ट शब्दों में कहा कि “पर्यावरण बदलाव मानवीय सभ्यता के स्तर का ख़तरा है”. उनकी बातों को सुनकर मैं मंद-मंद मुस्कुराया और यह सोच कर ख़ुश हुआ कि पैनल में कोई तो मेरे पक्ष में है.

कैथरीन ने बाढ़, सूखा या फिर ट्रॉपिकल तूफान के बारे में बात नहीं की. दरअसल वह इस तरह की गहरी धारणा के बारे में बातें कर रही थीं कि, कैसे हम अपने समाज, प्राकृतिक संसाधनों, और अर्थव्यवस्था का प्रबंधन करते हैं कि हम में से बहुत कम लोग ही जानते हैं कि हम यह धारणा असल में गढ़ते हैं. कैथरीन  उन गैर-अपरिवर्तनशील चीजों के बारे में बात कर रही थीं.

अपरिवर्तनशील एक ऐसी धारणा है जो सांख्यिकी से उधार ली गई है. इसके एक गैर तक़नीकी और आसान भाषा में समझ आने वाली व्याख्या ये हो सकती है कि भविष्य की ओर इशारा करने में अतीत बेहद कमज़ोर है. वैश्विक स्तर पर, सदियों से हम सभी शायद सहस्राब्दियों तक इसे मान चुके हैं कि भविष्य के लिए तैयार रहने में अतीत हमारा सुरक्षित  मार्गदर्शन कर सकता है. दुनिया के सबसे बेहतरीन इंजीनियर और अर्थशास्त्री स्टेशनरिटी की धारणा को मानते हैं. किसान, बिल्डर और यहां तक कि वन रक्षक भी स्टेशनरिटी में भरोसा जताते हैं. दरअसल हम में से अधिकांश लोग अपने दैनिक जीवन में यह भी मानते हैं कि आने वाला कल, आज से अलग नहीं होगा. जलवायु परिवर्तन एक उपहासपूर्ण स्टेशनरिटी है.

मॉनसून के पैटर्न, तूफान की तीव्रता और सूखे की बारंबारता के बारे में अब कुछ भी कह पाना आसान नहीं रह गया. डेनमार्क के कोपेनहेगेन शहर में भारी बरसात के चलते कई बिलियन यूरो मिनटों में स्वाहा हो गए. और इसके एक साल बाद फिर से वहां ज़बरदस्त बारिश हुई. उत्तरी अमेरिका के पैसिफ़िक कोस्ट के जिस घाटी में मैं रहा करता था वहां जंगल नहीं थे. लेकिन बीते सितंबर में वहां सागर के ऊपर जेट स्ट्रीम में अचानक हुए बदलाव की वजह से सूखा पड़ गया और घंटे भर में ज़बर्दस्त आग और तेज़ हवाएं जंगल की तरफ से बहने लगी. आनन-फानन में लाखों लोगों को इलाक़े को खाली करने के आदेश दे दिए गए, हज़ारों लोग शरणार्थी शिविरों में हवा के साथ मिले धुएं से बचने के लिए इधर उधर भागने लगे.

एक साल पहले ही ऑस्ट्रेलिया में लोगों ने इससे भी ज़बर्दस्त जंगल की आग को महसूस किया था – यह आग इतनी ज़बरदस्त थी कि मिट्टी तक इससे ख़राब हो गई और घंटों में पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को इसने बदल कर रख दिया. ऐसी घटनाओं की भविष्यवाणी की जा सकती है लेकिन अतीत में क्या हुआ था इस आधार पर इनकी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है. ये सारी घटनाएं गैर अपरिवर्तनशील हैं. कोरोना महामारी हालांकि जलवायु परिवर्तन का नतीज़ा नहीं है लेकिन यह एक गंभीर गैर स्थिर घटना का शानदार और डरावना उदाहरण है.

भारत नए शहरी और ग्रामीण सुविधाओं के विस्तार में ज़बर्दस्त निवेश भी कर रहा है जिसमें पर्यावरण से संबंधित ज़ोख़िम नहीं है जबकि ऐसे निवेश दशकों या फिर कुछ मामलों में शताब्दी तक रहने वाले हैं. चाहे ट्रांसपोर्ट हो, कम्युनिकेशन हो, ऊर्जा के क्षेत्र हों, शहर, कृषि हों पानी सभी के वज़ूद के लिए ज़रूरी है.

इन घटनाओं को जो एक और बात जोड़ती है, वो वाटर साइकल पर पर्यावरण के होने वाले प्रभाव की ओर भी इशारा करती है, जो हिंद महासागर में वाष्पीकरण से लेकर हिमालय के बर्फ और जून में मानसून और सितंबर में तूफान से संबंधित है. एक फ्रांसीसी मॉडल बनाने वाले शख्स ने मुझसे कहा कि “क्लाइमेट मॉडल को लेकर हमें कभी भी बेहतर प्रोजेक्शन नहीं मिल सकता”. असल में ये वो मॉडल हैं जिनका इस्तेमाल हम योजना, डिज़ाइन और विश्लेषण में करते हैं. सच में वाटर साइकल के साथ क्या होगा यह जानने का भरोसा ही असल में इसके केंद्र में होता है कि हम इंसान ख़ुद को कैसे व्यवस्थित करते हैं.

भारत के प्रयास

भारत दुनिया में अकेला ऐसा देश है जहां आक्रामक तरीके से स्वच्छ पानी और साफ सफाई की ज़रूरतों में एसडीजी तक पहुंचने की कोशिश की जा रही है. इतना ही नहीं भारत नए शहरी और ग्रामीण सुविधाओं के विस्तार में ज़बर्दस्त निवेश भी कर रहा है जिसमें पर्यावरण से संबंधित ज़ोख़िम नहीं है जबकि ऐसे निवेश दशकों या फिर कुछ मामलों में शताब्दी तक रहने वाले हैं. चाहे ट्रांसपोर्ट हो, कम्युनिकेशन हो, ऊर्जा के क्षेत्र हों, शहर, कृषि हों पानी सभी के वज़ूद के लिए ज़रूरी है. पानी इन सारी व्यवस्थाओं में रचा बसा हुआ है. यहां तक कि डाटा सेंटर से लेकर फ्यूल उत्पादन और सिंचाई तक में पानी का महत्व है.

अर्थशास्त्री, इंजीनियर और कई नीति निर्धारकों के विचार में स्टेशनरिटी का मतलब हम अपने फ़ैसलों को कैसे उच्चतम बना सकते हैं, उससे जुड़ा होता है. हम यह मान लेते हैं कि हम एक संतुलन बिंदू या फिर मांग और पूर्ति के बीच गठजोड़ को प्राप्त कर लेंगे, वैसे ही जैसे की सुई की नोंक पर एक एंजल नाचती हो फिर भी वो गिरती नहीं है. स्थायी, दृढ़ और ग़ैर लचीला लक्ष्य बेहद नुक़सानदायी होता है. हैरानी होती है कि हम ऐसे संतुलन को निरंतरता कहते हैं .

लेकिन क्या होता है जब ऐसे स्टेशनरिटी को नहीं माना जाता है? जब निरंतरता लगातार चलने वाली प्रक्रिया नहीं रह जाती? क्या होगा जब हम सूई की नोंक पर नाचने वाली एंजेंल ना होकर लुईस कैरोल के उपन्यास के चरित्र रेड क्वीन हों जो एक ही जगह पर तब तक भाग रही हो जब तक वो थक कर गिर ना जाए.

आज से 4000 साल पहले सिंधु नदी के किनारे अस्तित्व में आने वाली हड़प्पा सभ्यता पर्यावरण आधारित दबावों के कारण तहस-नहस हो गया. शायद यह पहली बार था जबकि इंसानी इतिहास में क्लाइमेट चेंज के चलते तबाही आई थी.

साल 2012 में भारत में ऐतिहासिक ऊर्जा संकट कुछ हद तक सूखे के दौरान पानी की बढ़ी ज़रूरतों (सिंचाई, पीने का पानी) से प्रभावित थी जिस वक़्त पानी की उपलब्धता ( ऊर्जा उत्पादन और ट्रांसमिशन के लिए ) कम होती चली गई. और नतीज़तन स्वास्थ्य, शिक्षा और संचार की व्यवस्था ठप पड़ गई. असल में बिजली की व्यवस्था तैयार करने में गैर अपरिवर्तनशील दबावों पर ध्यान नहीं दिया गया था. ऐसे ही आज से 4000 साल पहले सिंधु नदी के किनारे अस्तित्व में आने वाली हड़प्पा सभ्यता पर्यावरण आधारित दबावों के कारण तहस-नहस हो गया. शायद यह पहली बार था जबकि इंसानी इतिहास में क्लाइमेट चेंज के चलते तबाही आई थी.

राहत की बात है कि गैर अपरिवर्तनशील पैटर्न में व्यावहारिक समाधान शामिल रहता है. हम लोग योजना बना सकते हैं, उन्हें विकसित कर सकते हैं और क्लाइमेट वाटर प्रभावों को लेकर अपनी व्यवस्था का इस तरह प्रबंधन कर सकते हैं कि हम (बाढ़, सूखा, समुद्र के जलस्तर में बढ़ोतरी और हवा में तापमान) इन कुदरती आपदाओं को देख सकें. पानी से जुड़ी नीति के लिए लचीलापन और मज़बूती से तैयारी करनी होती है. इस तरह के नए तरीक़े सिनर्जी और कमियों के बीच  अलग अलग कुदरती संसाधन और इंसानी व्यवस्था के बीच पुल का काम कर सकते हैं.

पानी की अनिश्चितता को केंद्रित करने के लिए पिछले दशक में कई नए जेनरेशन वाले टूल्स और तरीकों को इज़ाद किया गया है. इन नए तरीक़ों को इज़ाद करने में वर्ल्ड बैंक, डेलटेरस, मैसेट्यूट्स यूनिवर्सिटी के विशेषज्ञ, एमहर्स्ट, यूएस आर्मी कॉर्प्स ऑफ इंजीनियर्स, द डच रिजवाटरस्टाट, यूनेस्को और एजीडबल्यूए जैसे संस्थाओं की भूमिका रही है. एशियन और इंटर अमेरिकन डेवलपमेंट बैंक और जर्मनी की जीआईजेड जैसे समूह ऐसी तक़नीकों को गले लगा रहे हैं. तो इसमें ग्लोबल कमिशन ऑन एडॉप्टेशन और श्रीलंका की आईडब्ल्यूएमआई भी शामिल है. हमलोग अब यह देख रहे हैं कि ये तक़नीक निजी क्षेत्र में भी विस्तार ले रहे हैं. सबसे अहम तो यह है कि ऐसे तरीक़े अब मध्यम और कम आय वाले देशों में भी विस्तार ले रहे हैं. जहां अंधाधुंध विकास, जनसंख्या बदलाव, और मौज़ूदा क्लाइमेट प्रभावों के नाम पर गंभीर और प्राथमिक सेवाओं की ज़रूरतें लगातार बढ़ रही हैं.

महामारी और क्लाइमेट चेंज

और कोरोना महामारीइस महामारी ने हमें उस व्यवस्था के बारे में जागरूक किया है जो हमारे साथ जुड़े हैं. इस लचीले व्यवस्था की चेन जिस पर कोरोना महामारी का दबाव रहा उसके चलते हमने अपनी व्यवस्था और कनेक्शन में उन चीजों को महसूस किया जो पहले कभी सोची तक नहीं गई थी. यहां तक कि हममें से कई लोगों ने इन ख़तरों को लेकर अपनी रणनीति बनाने के बारे में सोचना भी शुरू कर दिया. महामारी और क्लाइमेट चेंज के इस समन्वय को हम डीप रेजिलियेंस कहते हैं.

इस महामारी ने हमें उस व्यवस्था के बारे में जागरूक किया है जो हमारे साथ जुड़े हैं. इस लचीले व्यवस्था की चेन जिस पर कोरोना महामारी का दबाव रहा उसके चलते हमने अपनी व्यवस्था और कनेक्शन में उन चीजों को महसूस किया जो पहले कभी सोची तक नहीं गई थी. 

पिछले दशक में हमलोगों ने यह सीखा कि क्लामेट चेंज की भाषा दरअसल पानी की भाषा है. जबकि बदलावों को अंगीकार करने का मतलब पानी के प्रति तैयारियों को सुदृढ़ करना है. मैं आशा करता हूं कि इस नई भाषा को सीखने के लिए आप सभी एक साथ आगे आएंगे.

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