Author : Kabir Taneja

Published on Oct 11, 2021 Updated 0 Hours ago

तालिबान की कहानी अभी शुरू हुई है और हो सकता है कि इस रंगमंच पर एक बार फिर से अमेरिका समेत दूसरी शक्तियों की वापसी हो क्योंकि दुनिया भर में ज़िहादी ताकतें अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की जीत को एक और महाशक्ति के ख़िलाफ़ अपनी जीत बता रहे हैं.

पश्चिम एशिया में इस्लामिक ताकतों के आपसी अंदरूनी दरार का फ़ायदा किस तरह से तालिबान को मिल रहा है?
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 सऊदी अरब के विदेश मंत्री प्रिंस फैशल बिन फ़रहान अल सौद की तीन दिवसीय लंबी भारत यात्रा ऐसे समय में हुई है जब अफ़ग़ानिस्तान से 20 साल लंबे युद्ध को ख़त्म कर अमेरिका ने अचानक से अपनी फौज की वापसी कर ली और तालिबान का काबुल पर कब्ज़ा और मज़बूत हो गया. सऊदी अरब उन तीन देशों ( यूएई और पाकिस्तान के साथ) में शामिल है जिन्होंने तालिबान शासन को 1996 में मान्यता दी थी. हालांकि मौजूदा वक़्त में खाड़ी की भू-राजनीतिक स्थिति अलग है,  और तो और एकजुट खाड़ी की जगह गैर-खाड़ी प्रतिनिधि यहां की क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का प्रतिनिधित्व करते हैं.

प्रिंस फ़ैसल ने कहा कि “उनलोगों ने (तालिबान) अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से सुरक्षा और अपनी जमीन पर किसी भी आतंकी संगठन को पैर नहीं पसारने देने का वादा किया है. और हां, हमें यह देखना होगा कि हम कैसे तालिबान को इन प्रतिबद्धताओं के लिए ज़िम्मेदार बना सकते हैं. और इसके लिए अंतर्राष्ट्रीय समुदायों को एक समन्वित दृष्टिकोण के साथ आगे बढ़ना होगा.”

अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान का आसानी से कब्ज़ा कर लेना तालिबान के नेतृत्व को भी हैरान करता है. जबकि अमेरिकी ख़ुफिया विभाग की रिपोर्ट के मुताबिक अफ़ग़ानिस्तान की सेना कम से कम अफ़ग़ानिस्तान की सुरक्षा एक साल तक कर सकती थी, लेकिन तालिबान ने महज 120 घंटे में अफ़ग़ानिस्तान पर कब्ज़ा कर लिया. 

अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान का आसानी से कब्ज़ा कर लेना तालिबान के नेतृत्व को भी हैरान करता है. जबकि अमेरिकी ख़ुफिया विभाग की रिपोर्ट के मुताबिक अफ़ग़ानिस्तान की सेना कम से कम अफ़ग़ानिस्तान की सुरक्षा एक साल तक कर सकती थी, लेकिन तालिबान ने महज 120 घंटे में अफ़ग़ानिस्तान पर कब्ज़ा कर लिया. 2021 के मध्य अगस्त में तालिबान अफ़ग़ानिस्तान की राजधानी में दाखिल हुआ और 7 सितंबर को इस आतंकी संगठन ने देश पर शासन करने के लिए एक अंतरिम कैबिनेट का गठन कर इस्लामिक अमीरात की पुनर्स्थापना की घोषणा की.

अफ़ग़ानिस्तान में आने वाली परिस्थितियों को लेकर अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की प्रतिक्रिया पूरी तरह दर्ज़ है लेकिन इस संकट को लेकर इस्लामिक देशों के मंसूबे जो दिखते हैं उनका गहरा अवलोकन करना ज़रूरी है. ख़ास कर मध्य एशिया (पश्चिम एशिया), खाड़ी देश जो कि तालिबान के ऐतिहासिक संरक्षकों में से एक हैं, और ये सभी देश अफ़ग़ानिस्तान संकट को लेकर आंतरिक तौर पर बंटे हुए हैं. मध्य एशिया के दृष्टिकोण से विवाद की जड़ ट्यूनिशिया में 2010 में शुरू हुए अरब स्प्रिंग आंदोलन है जो बाद में धीरे-धीरे पूरे क्षेत्र में फैल गया और कई तानाशाहों की सत्ता को उखाड़ फेंका. साथ ही इस्लाम और राज्य की वैचारिक धारणा को चुनौती देने का काम किया. इसने मुस्लिम ब्रदरहुड और सबसे बर्बर इस्लामिक समूह इस्लामिक स्टेट ( जिसे आईएसआईएस या अरबी भाषा में दाएस कहा जाता है) को इराक और सीरिया में आगे बढ़ाया.

बदलाव की हवा

अरब स्प्रिंग एक महत्वपूर्ण राजनीतिक हलचल थी, जिसने सत्ता में बदलाव और कई देशों में गृहयुद्ध की स्थिति पैदा कर दी. ट्यूनीशिया के तानाशाह जाइन बेन अबीदिन बेन अली, लीबिया के तानाशाह मुआम्मार गद्दाफ़ी, मिस्र के होस्नी मुबारक़ और यमन के अली अब्दुल्ला सालेह  के ख़िलाफ़ जनता ने विद्रोह का बिगुल फूंक दिया और उनकी सत्ता को बदल दिया. इन क्रांति को कई बार सीधे तौर पर और कई बार अपरोक्ष रूप से पश्चिमी ताकतों द्वारा पैसा मुहैया कराया गया. जैसा कि अरब क्रांति ने कई तानाशाहों की सत्ता को उखाड़ कर फेंक दिया लेकिन इसके चलते कई मुल्कों में जो राजनीतिक और सामाजिक हलचल पैदा हुई वो सीरिया जैसे देश में अब तक सुलझ नहीं पाई है. हालांकि अरब क्रांति ने एक दूसरा काम जो किया वह यह था कि इस्लाम के आधार पर जो देश रणनीतिक लिहाज से जुड़े थे और जो वैचारिक रूप से संबंधित थे उनके बीच संबंधों को हिला कर रख दिया. लंबे समय तक जहां राजशाही रही उनमें स्व-सुरक्षा का भाव ख़त्म होने लगा क्योंकि जैसा कि मिस्र के शासक होस्नी मुबारक़ को अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने किसी भी तरह से मदद नहीं की, इससे घरेलू और क्षेत्रीय शक्तियां अपनी ताकत मज़बूत करने में जुट गईं. इस तरह के घटनाक्रम ने पश्चिम देशों द्वारा मध्य पूर्व एशियाई नेताओं को लेकर उनके रवैए में एक नया बदलाव भी ला दिया जो पश्चिमी ताकतों पर पूरी तरह भरोसा जताने को लेकर भी था.

लंबे समय तक जहां राजशाही रही उनमें स्व-सुरक्षा का भाव ख़त्म होने लगा क्योंकि जैसा कि मिस्र के शासक होस्नी मुबारक़ को अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने किसी भी तरह से मदद नहीं की, इससे घरेलू और क्षेत्रीय शक्तियां अपनी ताकत मज़बूत करने में जुट गईं. 

अरब क्रांति के तीन साल बाद 2013 में तालिबान ने दोहा, खाड़ी क्षेत्र के छोटे देश कतर की राजधानी में, अपना पहला राजनीतिक दफ्तर शुरू किया. अरब क्रांति की आड़ में यह साल इस्लामिक राजनीति में एक महत्वपूर्ण पड़ाव भी था, जबकि मिस्र में सैन्य तख़्तापलट ने मुस्लिम ब्रदरहुड समर्थित मोहम्मद मोरसी की सरकार को स्थापित कर दिया,  जो सत्ता में तब आई जबकि कायरो में  लोगों की क्रांति ने मुबारक़ शासन को अपदस्थ कर दिया था. हालांकि मिस्र में मुस्लिम ब्रदरहुड समर्थित नेतृत्व परिवर्तन होगा यह बात ना तो मिस्र के शक्तिशाली पड़ोसियों को पता थी और ना ही अमेरिका को इसे लेकर कोई भनक मिली थी. इस घटना के साथ-साथ 2014 में आईएसआईएस का उत्थान दो ऐसी वैचारिक और राजनैतिक घटनाएं थीं, जिसने इस क्षेत्र में अरब क्रांति के बाद व्यवस्थाओं को फिर से स्थापित करने में अपनी भूमिका निभाई.

तालिबान के दफ़्तर की शुरुआत दरअसल अमेरिका और तालिबान के बीच बैठकों और लगातार संवाद का नतीजा था जिसे कतर के नेतृत्व ने पिछले दरवाजे से मुमकिन बनाया और जिसका दूसरे खाड़ी देश की ताकतों ने समर्थन किया. दिलचस्प बात तो यह है कि खाड़ी में तालिबान के पास अपने दफ़्तर की शुरुआत करने के लिए दूसरे विकल्प भी मौजूद थे लेकिन तालिबान ने दोहा की व्यवस्था को ही तटस्थ माना. बाद में दोहा संवाद के जरिए तालिबान की कूटनीति सार्वजनिक मंच पर सामने आ सकी  ख़ास कर तब जबकि यह कहा गया कि जमीन पर सैन्य फायदों के साथ ही कूटनीतिक प्रयास भी काम करने लगे हैं. वास्तव में तो जब 2013 में तालिबान ने दोहा में अपना दफ़्तर शुरू किया तभी से उसने भारत के साथ संवाद कायम करने की प्रक्रिया भी शुरू कर दी थी.

तालिबान की ओर से जिन लोगों ने इस संवाद में हिस्सा लिया उसमें ज़्यादातर लोग वही थे जिन्होंने इंडियन एयरलाइंस के IC-814 विमान को हाइजैक कर लिया था जब यह विमान नेपाल के काठमांडू से दिल्ली जा रहा था. तब अपहरणकर्ताओं द्वारा इस विमान को अफ़ग़ानिस्तान के कंधार ले जाया गया था. दोहा में जनवरी 2013 में तालिबान के दफ़्तर की पूरी तरह शुरुआत होने से पहले ही भारत के साथ बातचीत शुरू करने के प्रस्ताव आने लगे थे. तब  मुल्ला उमर के राज में वकील अहमद मुत्तवकील उस वक़्त तत्कालीन विदेश मंत्री थे.  आज जिस तरह का तर्क तालिबान नई दिल्ली को दे रहा है कुछ इसी प्रकार का तर्क एक इंटरव्यू के दौरान तब भी वकील अहमद मुत्तवकील ने दिया था  “मैं कहना चाहता हूं कि भारत अपने नज़रिए से ना कि पाकिस्तान के नज़रिए से अफ़ग़ानिस्तान की ओर देखे, भारत की सबसे बड़ी भूल काबुल में सोवियत साम्राज्य के इशारों पर चलने वाली सरकार को समर्थन देना था क्योंकि मुज़ाहिदीन पाकिस्तान में मौजूद थे. दूसरी सबसे बड़ी भूल यह थी कि भारत ने तालिबान को मान्यता नहीं दी थी. आज भी भारत सरकार को अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की मौजूदगी को स्वीकार करना चाहिए और शांति प्रक्रिया का समर्थन करना चाहिए. आख़िरकार तालिबान अफ़ग़ानिस्तान समाज का अटूट हिस्सा है”

 दूसरी सबसे बड़ी भूल यह थी कि भारत ने तालिबान को मान्यता नहीं दी थी. आज भी भारत सरकार को अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की मौजूदगी को स्वीकार करना चाहिए और शांति प्रक्रिया का समर्थन करना चाहिए. आख़िरकार तालिबान अफ़ग़ानिस्तान समाज का अटूट हिस्सा है”

लेकिन जैसे ही खाड़ी देशों में मनमुटाव बढ़ता गया, इसमें भी तेजी से बदलाव आने लगे. यूएई और सउदी अरब जैसे देशों को यह लगने लगा कि कतर उनके क्षेत्रीय और विदेश नीति के मुताबिक चीजों को आगे नहीं बढ़ा रहा है और दोहा द्वारा सीरियाई गृह युद्ध में कुछ गैर-सीरियाई समूहों को पैसों से मदद देना, अबू धाबी और रियाद की छवि को गलत तरीके से पेश कर रहा है. लेकिन मध्य एशिया को लेकर वाशिंगटन के नज़रिए में कतर की सामरिक प्रासंगिकता हमेशा ज़्यादा रही जिसकी वजह से अमेरिका के क्षेत्रीय नेतृत्व को यह कम प्रभावी भी बना सकता था, जिसका परंपरागत तौर पर नेतृत्व हाउस ऑफ सौद कर रहे थे और हाल में इसका नेतृत्व यूएई के प्रिंस मोहम्मद बिन जायेद कर रहे हैं, जिन्होंने ना सिर्फ एक आक्रामक क्षेत्रीय और विदेश नीति की शुरुआत की है बल्कि सऊदी अरब के युवा और विरासत के दावेदार क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान (एमबीएस) का परिचय दुनिया से कराया है.

एमबीएस सउदी अरब के सत्ता व्यवस्था के केंद्र में साल 2017 में आए. इसके बाद दोहा की क्षेत्रीय नीति- जिसे तुरंत ही “अपने सामर्थ्य से ज़्यादा” करार दिया गया  और गल्फ़ कोऑपरेशन काउंसिल (जीसीसी) की आंतरिक लड़ाई जल्द ही सामने आ गई जब यूएई और सउदी अरब के नेतृत्व वाले अरब समूह जिसमें बहरीन और मिस्र भी शामिल थे, कतर से अपने संबंधों को ख़त्म कर उसपर आर्थिक प्रतिबंध लगाने का ऐलान कर दिया. तब दोहा पर आतंकवाद को समर्थन देने का आरोप (इस आरोप का अफ़ग़ानिस्तान से कोई लेना-देना नहीं था) लगाया गया, कतर ने अपने ऊपर लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों को आक्रामकता के तौर पर लिया और ईरान और तुर्की जैसे देशों के समूह की तरफ अपना झुकाव बढ़ाया, जो यूएई और सऊदी समूहों के प्रतियोगी थे, ख़ास कर ईरान जो यमन में सऊदी अरब के साथ छद्म युद्ध में शामिल है और वैचारिक रूप से सऊदी अरब के इतर है क्योंकि दुनिया भर में ईरान शिया मुस्लिमों की नुमाइंदगी करता है.

समूहों का जमावड़ा

खाड़ी देशों की उपरोक्त प्रतियोगिता का खुलासा तब और हुआ जब दिसबंर 2019 में मलेशिया, कतर, तुर्की, ईरान और पाकिस्तान ने एक नए मुस्लिम शक्ति समूह के तौर पर इस्लाम पर सम्मेलन करने की योजना बनाई जो पूरी तरह से ऑर्गेनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन (ओआईसी) को चुनौती देने के लिए था. क्योंकि ओआईसी साल 1969 के अपने शुरुआती दिनों से ज़ेद्दाह से बाहर सबसे प्रमुख बहुआयामी इस्लामिक संस्था के तौर पर कार्यरत रहा है.  जब कतर पर आर्थिक प्रतिबंध थोपे गए थे तब ईरान ने दोहा की मदद के साथ कई विमान वहां भेजे जबकि तुर्की ने अपनी सेना को वहां भेजा जिससे कतर के राजतंत्र की राजनीतिक सत्ता पर कब्ज़ा जमाने जैसे किसी भी कदम का सामना किया जा सके और कतर के राजशाही को सुरक्षित रखा जा सके. इसके अलावा जॉर्डन ने जून 2021 में इसी तरह की झलक पाई थी जब प्रिंस हमजा ने रियाद से किंग अब्दुल्लाह II के शासन को अपदस्थ करने के लिए मदद मांगी थी.\

तालिबान के लिए ट्रंप ने अफ़ग़ानिस्तान को लेकर अपनी नीतियों में साफगोई लाई जिसकी ज़रूरत लंबे समय से थी, जो कि अफ़ग़ानिस्तान में जारी लंबे समय से जंग के बीच से किसी भी कीमत पर अमेरिकी सैनिकों की वापसी की प्रक्रिया में तेजी लाने से जुड़ी हुई थी. 

2017 की शुरुआत में लेबनान को भी इसी प्रकार का अनुभव सउदी अरब से हुआ था. यह सभी घटनाक्रम तब हुए जबकि कतर से तालिबान अपने दफ़्तर को संचालित कर रहा था और अंतर्राष्ट्रीय समर्थन जुटाने की कोशिश में था जिससे वह अफ़ग़ानिस्तान युद्ध में अपने कब्ज़े को सही साबित कर सके. ऐसे समय में जबकि ज़्यादातर इस्लामिक देश इस्लाम की अधिक शुद्धतावादी व्याख्या, इज़रायल से किसी तरह की स्वीकार्यता को हासिल नहीं करने और फिलिस्तीनियों के संघर्ष का समर्थन करने में हिचकिचा रहे थे तब क़तर को तालिबान ने अपनी कूटनीति को पूरी दुनिया में आगे बढ़ाने के लिए इस्तेमाल करना शुरू किया. इस दौरान दोहा ने भी अपनी संप्रभु निर्णय लेने की क्षमता की रक्षा के लिए अपनी भू-राजनीति को पीछे नहीं छोड़ा. कतर के नेतृत्व ने फिलिस्तीन को मदद बढ़ा दी. जहां यूएई और सऊदी अरब ने अपनी नीतियों में थोड़ा बदलाव किया था. क्योंकि यूएई, बहरीन और दूसरे मुस्लिम मुल्कों ने इज़रायल से अपने संबंधों को सामान्य करने की दिशा में कदम बढ़ाए जो अब्राहम संधि से साफ था. वास्तव में फिलिस्तीन समर्थक उग्रवादी समूह हमास पहला ऐसा संगठन था जिसने तालिबान को अमेरिका के ख़िलाफ़ युद्ध जीतने और उसके कब्ज़े को ख़त्म करने पर बधाई दी . मई 2021 में कतर के नेताओं ने हमास के वरिष्ठ अधिकारी इस्माइल हानिया से दोहा में मुलाकात की, वैचारिक दृष्टिकोण से देखने पर इस्लामिक जमीन से पहले सोवियत रूस और फिर अमेरिका के ख़िलाफ़ सैन्य कार्रवाई में जीत हासिल करना एक तरह से पश्चिमी देशों की ‘सांस्कृतिक आक्रामकता’ और ‘नवउपनिवेशवाद’ के ख़िलाफ़ राजनीतिक और सामरिक जीत की झलक भी है.

जैसे ही जनवरी 2017 में अमेरिका की सत्ता पर डोनाल्ड ट्रंप बैठे जितने भी मनमुटाव की बातें ऊपर बताई गई हैं उन सभी का सीधा असर मध्य एशिया की नीतियों पर हुआ. तालिबान के लिए ट्रंप ने अफ़ग़ानिस्तान को लेकर अपनी नीतियों में साफगोई लाई जिसकी ज़रूरत लंबे समय से थी, जो कि अफ़ग़ानिस्तान में जारी लंबे समय से जंग के बीच से किसी भी कीमत पर अमेरिकी सैनिकों की वापसी की प्रक्रिया में तेजी लाने से जुड़ी हुई थी. दोहा में फरवरी 2020 में अमेरिका और तालिबान के बीच जो समझौता हुआ उससे कतर और तालिबान के एजेंसी एक दूसरे के करीब आ गए. पहली एजेंसी को अफ़ग़ानिस्तान में पूरी तरह स्वतंत्रता हासिल हुई जबकि दूसरे को वाशिंगटन में जगह मिली जो पहले यूएई और सऊदी अरब जैसे देशों को ही मिला करती थी. हालांकि, यह तब था जबकि क़तर ने अपने अल उदैद एयर बेस को लंबे समय से अमेरिकी फौज को दे रखा था. यह एयरबेस इस बात का प्रमाण है कि साल 2001 से अफ़ग़ानिस्तान युद्ध में कतर की भूमिका रही है, हालांकि अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी मौजूदगी अपरोक्ष रही है, वैसे साल 2001 में इस एयरबेस ने अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी ऑपरेशन की शुरूआत करने में अहम योगदान दिया था. तत्कालीन उप-राष्ट्रपति डिक चेनी का साल 2002 में अल उदैद का दौरा आतंक के ख़िलाफ़ जंग में अमेरिका और कतर के करीबी सहयोग का प्रमाण रहा है. यह कदम 2003 में इराक युद्ध की शुरुआत के नज़रिए से काफी अहम माना जा सकता है और इसके साथ ही सऊदी अरब पर दबाव बनाने के पीछे भी इसका योगदान रहा क्योंकि 9/11आतंकी घटना में शामिल 19 में से 15 आतंकी सऊदी मूल के थे. कतर ने इन सभी बातों को अपने आर्थिक और राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल किया.

 हालांकि तालिबान की कहानी अभी शुरू हुई है और हो सकता है कि इस रंगमंच पर एक बार फिर से अमेरिका समेत दूसरी शक्तियों की वापसी हो क्योंकि दुनिया भर में ज़िहादी ताकतें अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की जीत को एक और महाशक्ति के ख़िलाफ़ अपनी जीत बता रहे हैं. 

ईरान के ख़िलाफ़ ट्रंप की आक्रामक नीतियां और अब्राहम संधि ने अमीरात और सऊदी को तत्कालीन अमेरिकी प्रशासन परस्त भू-राजनीतिक व्यवस्था को मानने के लिए मज़बूर किया था. अफ़ग़ान संकट एक सीमा के बाद दोहा और इस्लामाबाद के साथ ही अमेरिका पर सुलझाने की ज़िम्मेदारी आन पड़ी थी. यह एक तरह से अमेरिका की राजनीतिक नीतियों में उस थकान की ओर इशारा करता था जो उसके लिए अंतहीन युद्ध का एक तरह से सबसे बड़ा मामला बन गया था.  इसके साथ ही तुर्की का पूरे घटनाक्रम में सामने आना, जो नाटो के संघर्ष में सक्रिय रहा था, उसने भी खाड़ी देशों में बदलते समीकरण के प्रति आगाह नहीं किया. ईरान के साथ लंबे समय में अच्छे माहौल में संबंध बनाना अबू धाबी और रियाद के लिए प्राथमिकता थी, जिनके लिए अपने घरेलू आर्थिक और सामाजिक स्थितियों को फिर से दुरुस्त करने के लिए बड़े प्रोजेक्ट को शुरू करना ज़रूरी था. इसका मतलब यह भी था कि एक सीमा के बाद ये मुल्क किसी दूसरे के साथ सैन्य संघर्ष के लिए तैयार नहीं थे. मध्य पूर्व एशिया क्षेत्र में भूराजनीतिक स्थितियों का फिर से आकलन की एक वजह थी कि अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान से अपने सैनिकों की वापसी को अंजाम दिया. यह वास्तविकता बगदाद में ईरान और सऊदी अरब जैसे दो दुश्मन मुल्कों के बीच बातचीत के लिए ज़मीन तैयार करने जैसी गतिविधियों से स्पष्ट होती है.

निष्कर्ष

तालिबान के लिए, जो कतर से अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के बीच अपनी पहुंच बनाने में जुटा था, सालों में हुए उपरोक्त बदलाव ने कई राजनीतिक मोर्चों पर उग्रवाद को बढ़ावा देने वाला साबित हुआ. अफ़ग़ानिस्तान में हस्तक्षेप करने के बजाए यूएई और सऊदी अरब ने क्षेत्रीय समीकरणों को साधना बेहतर समझा, जिससे कतर और अमेरिका को इस क्षेत्र में नेतृत्व करने का मौका मिला. अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका के विशेष  प्रतिनिधि जालमे ख़लीलज़ाद ने ट्रंप के निर्देशों को काफी प्रेरक माना और तालिबान के साथ बिना अफ़ग़ानिस्तान सरकार को हिस्सा बनाए वार्ता करने में जुट गए. तालिबान ने ख़लीलज़ाद की जल्दबाजी का फायदा डील हासिल करने में उठाया जो खुले तौर पर आतंक का समर्थन करता था ना कि अफ़ग़ानिस्तान के लोगों का. बाद में राष्ट्रपति जो बाइडेन ने ट्रंप की जगह ली और उनसे भी ज़्यादा जोर-शोर से अमेरिकी सैनिकों की वापसी की योजना पर काम शुरू किया.

समझौते को अमल में लाने की प्रक्रिया तुरंत हो गई और अमेरिका ने रातों रात अपनी फौज को वापस बुला लिया. अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी अपने देश और आवाम को उनकी हालत पर छोड़कर यूएई भाग गए और 20 साल बाद तालिबान  फिर से सत्ता पर क़ाबिज़ हो गया जिस सत्ता उसे हटा दिया गया था.  हालांकि तालिबान की कहानी अभी शुरू हुई है और हो सकता है कि इस रंगमंच पर एक बार फिर से अमेरिका समेत दूसरी शक्तियों की वापसी हो क्योंकि दुनिया भर में ज़िहादी ताकतें अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की जीत को एक और महाशक्ति के ख़िलाफ़ अपनी जीत बता रहे हैं. मध्य पूर्व एशिया के लिए, पश्चिम द्वारा अफ़ग़ानिस्तान को लेकर किसी भी तरह के सैन्य आधारित  कार्रवाई अब यूएई और कतर में पश्चिमी देशों के बेस से मुमकिन हो पाएगा लेकिन इससे वहां की भू-राजनीतिक स्थिति को लेकर हमेशा आशंका का माहौल बना रहेगा.

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