Author : Davis Makori

Published on Jul 24, 2020 Updated 0 Hours ago

महामारी से जो सबसे बड़ा सबक़ मिला है, वो ये है कि मानवाधिकारों का सम्मान करना, किसी भी देश की सेहत दुरुस्त करने की सबसे अच्छी रणनीति है. और इसी से ये तय होता है कि हम एक स्वस्थ समाज में रहते हैं या फिर बीमार समाज में.

कोविड-19 के बाद कैसे कर सकते हैं हम बेहतर विश्व का निर्माण

कोविड-19 की महामारी ने पूरी दुनिया पर क़हर बरपाया है. लेकिन, जिस तरह से अलग-अलग देशों ने इससे निपटने का काम किया है, उससे तमाम देशों की सामाजिक व्यवस्था और सरकार व नागरिक के बीच संबंध की कई ख़ामियां सामने आ गई हैं.

जब नए कोरोना वायरस ने वुहान से लेकर वॉशिंगटन पर कहर बरपाना शुरू किया, तो क्या लोकतांत्रिक और क्या तानाशाही देश, इस महामारी ने किसी भी देश को नहीं बख़्शा. जैसा कि संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव ने कहा था कि ये महामारी बिना पासपोर्ट वाली ऐसी समस्या बन गई, जो सीमाओं की बंदिशों से परे थी. ये ऐसी चुनौती थी जो किसी एक देश की सरहदों तक सीमित नहीं रही. कोई भी देश इससे बच नहीं सका. आज दुनिया का कोई भी देश इस चुनौती से अकेले नहीं निपट सकता. न ही वो इसके जोखिमों से ख़ुद को बचाकर रख सकता है. ये चुनौती ऐसी है, जिसमें अंतरराष्ट्रीय सहयोग ही सबसे फ़ायदेमंद है. हालांकि, अलग-अलग देशों ने जिस तरह से इस महामारी से निपटने की कोशिश की है, उससे ये साफ हो गया है कि भले ही समस्याएं किसी सरहद की पाबंद न हों. लेकिन, हम आज भी ऐसी दुनिया में रहते हैं, जहां कुछ ख़ास देशों का होना, अपने आप समाधान पाने की राह आसान कर देता है.

कोविड-19 महामारी, भू-मंडलीकरण की दुधारी तलवार की नोक से पूरी दुनिया में तेज़ी से फैल गई. क्योंकि भू-मंडलीकरण ने दुनिया के तमाम कोनों को एक साथ जोड़ा है. तमाम आबादियां एक दूसरे के क़रीब आई हैं. और आज वो एक दूसरे से इस तरह जुड़ गई हैं कि उन्हें अलग करना असंभव सा हो गया है. इसी वजह से ये महामारी भी दूर दूर तक बड़ी तेज़ी से फैल गई. और इसे लेकर घबराहट ने भी तमाम सीमाएं बड़ी आसानी से लांघ लीं. बहुत से देशों की सरकारों ने बड़ी तेज़ी से ऐसे क़दम उठाए, ताकि वो इस महामारी को मात दे सकें. चीन, इटली, अमेरिका, और फ्रांस ने कोविड-19 को क़ाबू करने के लिए अलग-अलग तरीक़े अपनाए. हाथ धोने जैसे उपायों के साथ साथ निजी सुरक्षा उपकरण (PPE ) का बेहतर इस्तेमाल करने, क्वारंटीन, लॉकडाउन और सोशल डिस्टेंसिंग के तमाम उपाय लागू करने के अभियान को बड़ी तेज़ी से आगे बढ़ाया गया. सरकारों ने ये उपाय इसलिए लागू किए ताकि महामारी से तय मौत और तबाही को रोका जा सके. इसके लिए आपातकालीन कर्फ्यू जैसे बेहद सख़्त उपाय भी किए गए.

हालांकि, इस महामारी से अर्थव्यवस्था के तबाह हो जाने की भविष्यवाणियां भी की गईं. लेकिन, इस महामारी के विश्व अर्थव्यवस्था पर असर और उसमें सुधार के बीच फ़र्क़ साफ़ दिखता है. इस महामारी ने बहुत से देशों के लिए भयंकर संकट पैदा किए हैं, तो साथ ही साथ उन्हें नए अवसर भी प्राप्त हुए हैं. इनका लाभ उठाकर वो ख़ुद को बंदिशों से आज़ाद कर सकते हैं और अपने-अपने देशों के संसाधनों का बेहतर पुनर्निर्माण कर सकते हैं. आज तमाम देशों में इस बात की काफ़ी चर्चा है कि महामारी ने हमें एक बेहतर भविष्य के निर्माण के अवसर भी प्रदान किए हैं.

अब जबकि दुनियाभर में लॉकडाउन से रियायत दी जा रही है. विश्व की सबसे बड़ी महामारी की रफ़्तार धीरे-धीरे थमती दिख रही है. लेकिन, इसके दुष्प्रभाव इस साल के आख़िर या फिर उससे भी आगे जारी रहने की आशंका है. इस राहत से तमाम देशों को अलग-अलग और मिलकर भी, दूसरी तिमाही में अर्थव्यवस्था में कुछ सुधार कर पाने का मौक़ा मिलेगा

कोविड-19 की महामारी ने विश्व में तीन तरह के संकटों को जन्म दिया है. हर देश में जनता की सेहत को ख़तरा है. इसके अलावा इस महामारी के कारण, सामाजिक आर्थिक और मानवाधिकार के संकट भी पैदा हो गए हैं. कोविड-19 के कारण दुनिया में मानवाधिकार के माहौल के सामने कई चुनौतियां खड़ी हो गई हैं. विश्व में बढ़ती लोक-लुभावन राजनीति और मानवाधिकारों से मुंह फेर लेने के कारण पहले से ही मानवाधिकारों की स्थिति अच्छी नहीं थी. इसका नतीजा ये हुआ है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसी संस्था, दुनिया में प्रभुत्व के संघर्ष का अखाड़ा बन गई है. अमेरिका और चीन ने वहां शक्ति संतुलन बदलने का खेल खेला. दुनियाभर में लोग अब इस बात को लेकर भी फ़िक्रमंद हैं कि कोविड-19 के बाद की दुनिया कैसी होगी? न्यू नॉर्मल क्या होगा? आज वैसी ही आशंका के बादल मंडरा रहे हैं, जब अमेरिका पर 9/11 के हमले के बाद अचानक रातों रात सब कुछ बदल गया था. और इस महामारी के बीच जब सब लोग ये सोच रहे थे कि उठा-पटक का माहौल कम होगा, तो अमेरिका के मिनियापोलिस में जॉर्ज फ्लॉयड की पुलिस कर्मियों के हाथों हत्या के बाद पूरे विश्व में विरोध प्रदर्शन भड़क उठे थे. और अंत में ये लड़ाई दुनिया के सबसे ताक़तवर व्यक्ति की चौखट तक पहुंच गई थी. इस महामारी के चलते, दुनिया के कई देशों में सामाजिक आंदोलनों की रफ़्तार मंद हो गई है. लेकिन, किसी को ये उम्मीद नहीं थी कि कोविड-19 के संकट के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति आवास व्हाइट हाउस के बाहर पुलिस और जनता के बीच भीषण संघर्ष होना, दुनियाभर में सुर्ख़ियां बटोरेगा.

अब जबकि दुनियाभर में लॉकडाउन से रियायत दी जा रही है. विश्व की सबसे बड़ी महामारी की रफ़्तार धीरे-धीरे थमती दिख रही है. लेकिन, इसके दुष्प्रभाव इस साल के आख़िर या फिर उससे भी आगे जारी रहने की आशंका है. इस राहत से तमाम देशों को अलग-अलग और मिलकर भी, दूसरी तिमाही में अर्थव्यवस्था में कुछ सुधार कर पाने का मौक़ा मिलेगा. और साथ साथ इससे ये मौक़ा भी इन देशों को मिलेगा कि वो जनवरी से अब तक के अनुभवों का हिसाब किताब लगाएं और आगे के लिए सबक़ सीख लें.

जैसा कि मशहूर रूसी साहित्यकार लेव टॉल्सटॉय ने अपने उपन्यास अन्ना कैरेनिना की शुरुआत में लिखा है, ‘सुखी परिवार एक जैसे होते हैं. लेकिन हर नाख़ुश परिवार की नाख़ुशी का अलग-अलग कारण होता है.’ इसी तरह, कोविड-19 महामारी ने हर देश की सरकार को अलग तरह का तनाव दिया है. इसके कारण समाज के अलग-अलग तबक़ों के बीच का फ़र्क़ खुलकर सामने आ गया है. अब इसकी नए सिरे से समीक्षा किए जाने की ज़रूरत है. महामारी से जो सबसे बड़ा सबक़ मिला है, वो ये है कि मानवाधिकारों का सम्मान करना, किसी भी देश की सेहत दुरुस्त करने की सबसे अच्छी रणनीति है. और इसी से ये तय होता है कि हम एक स्वस्थ समाज में रहते हैं या फिर बीमार समाज में. तमाम देश, अलग-अलग मिसालों से और अलग-अलग पैमानों से ये बताते हैं कि प्रेस की स्वतंत्रता, सूचना के अधिकार और भ्रष्टाचार को लेकर सोच के मामले में कोई देश कहां ठहरता है. जिन देशों की सरकारें इन पैमानों पर अच्छे नंबर लाती रही हैं, वो आम तौर पर इस संकट से निपटने में अधिक सक्षम साबित हुई हैं. यहां तक कि यूरोप के OECD देशों के बेटर लाइफ इंडेक्स में अच्छी पायदान पर रहने वाले देश, इस संकट से अन्य देशों के मुक़ाबले बेहतर ढंग से निपटते दिखे हैं. मिसाल के तौर पर, जहां अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देश, अपनी अर्थव्यवस्था को फिर से खोलने के सुरक्षित उपायों को बेसब्री से तलाशते दिख रहे हैं. वहीं, बेटर लाइफ इंडेक्स में ऊंची पायदान पर रहने वाले देशों ने इस मामले में भी अच्छा काम किया है. जैसे कि डेनमार्क,  नॉर्वे, फिनलैंड या न्यूज़ीलैंड. इन देशों ने सबसे पहले लॉकडाउन में रियायतें देनी शुरू की थीं. हां, इस मामले में स्वीडन एक अपवाद साबित हुआ है. जर्मनी जैसे कई देशों में तो खेल के आयोजन भी शुरू हो चुके हैं. जबकि, न्यूज़ीलैंड ने हाल ही में एलान किया कि आने वाले समय में लोगों को रग्बी के मुक़ाबले देखने के लिए स्टेडियम जाने की इजाज़त मिलेगी. भले ही इन तुलनाओं से किसी ठोस निष्कर्ष पर न पहुंचा जा सके. लेकिन, इनसे कुछ सबक़ तो सीखे ही जा सकते हैं.

महामारी से जो सबसे बड़ा सबक़ मिला है, वो ये है कि मानवाधिकारों का सम्मान करना, किसी भी देश की सेहत दुरुस्त करने की सबसे अच्छी रणनीति है. और इसी से ये तय होता है कि हम एक स्वस्थ समाज में रहते हैं या फिर बीमार समाज में

जहां तक वैश्विक प्रशासन की बात है, तो इस महामारी ने बहुपक्षीयवाद को मज़बूत बनाने का भी अवसर दिया है. क्योंकि कोविड-19 के कारण बड़ी ताक़तों के ज़रिए शक्ति संतुलन बनाने की खामियों को उजागर कर दिया है. जैसे कि, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद इस चुनौती से निपटने में नाकाम साबित हुई है. इस बार के वैश्विक संकट के दौरान एक तो अमेरिका अपनी चुनौतियों में ही उलझा रहा. दूसरी तरफ़ वो चीन के साथ भी संघर्षरत रहा. इसके अलावा राष्ट्रपति ट्रंप ने विश्व स्वास्थ्य संगठन से भी हिकारत से पेश आने का काम किया. इसी कारण अमेरिका ने दुनियाभर में युद्ध विराम के संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरस के प्रस्ताव को रोक दिया. जबक इससे युद्धरत देशों में रह रहे आम लोगों को काफ़ी राहत मिल जाती. इससे संयुक्त राष्ट्र में सुधार की ज़रूरत बताने वाली फ़ेहरिस्त और लंबी हो गई है. इसके अलावा, ऐसी बहुपक्षीय संस्थाओं को भी बढ़ावा देने की ज़रूरत है, जो वैश्विक संकट के दौरान, बड़ी ताक़तों के झगड़े में पड़ने के बजाय, दुनिया को संकट के समय नेतृत्व प्रदान करने की इच्छुक हैं.

इस महामारी ने कई देशों में राष्ट्रीय एकता के परिदृश्य को भी पूरी तरह बदल दिया है. साथ ही साथ, कोविड-19 ने हमें ये सबक़ भी दिया है कि समाज के कमज़ोर तबक़े के सामने जो जोखिम हैं, उनकी अनदेखी नहीं की जा सकती. स्वास्थ्य सेवा किसी एक के लिए नहीं, बल्कि सबके लिए है. महामारी का प्रकोप फैलने के बाद कोविड-19 से निपटने के लिए जो भी रणनीतियां बनाई गई हैं, निवेश किए गए हैं, उन्हें हैजा जैसी संक्रामक बीमारियों से निपटने में इस्तेमाल किया जा सकता है. क्योंकि इन संक्रामक बीमारियों का प्रकोप विकासशील देशों में ठीक वैसे ही फैलता है, जैसे जंगल की आग. समाज के कमज़ोर तबक़े के लोगों को ऐसी आपदाओं से बचाने के लिए सामाजिक सुरक्षा व्यवस्थाओं की अहमियत अब बिल्कुल स्पष्ट हो चुकी है. क्योंकि नए कोरोना वायरस के प्रकोप के साथ साथ बेरोज़गारी का प्रकोप भी बढ़ रहा है. इस महामारी के ख़िलाफ़ सबसे असरदार क़दम स्थानीय स्तर पर उठाए जा रहे हैं. स्वास्थ्य कार्यकर्ता, स्वयंसेवक, धार्मिक संगठन, युवा संगठन और संघर्ष के दौरान शांति व्यवस्था क़ायम करने वाले लोगों ने दक्षिणी सूडान और यमन में बहुत अच्छा काम किया है.

इस महामारी ने कई देशों में राष्ट्रीय एकता के परिदृश्य को भी पूरी तरह बदल दिया है. साथ ही साथ, कोविड-19 ने हमें ये सबक़ भी दिया है कि समाज के कमज़ोर तबक़े के सामने जो जोखिम हैं, उनकी अनदेखी नहीं की जा सकती. स्वास्थ्य सेवा किसी एक के लिए नहीं, बल्कि सबके लिए है

कोविड-19 के बाद की दुनिया में सबसे अधिक ज़रूरत इस बात की होगी कि हम कैसे समाज में सकारात्मक सोच को बढ़ावा दें. लोगों के जज़्बातों के साथ जुड़ें. और घरेलू स्तर पर संवाद को मज़बूत बनाकर ऐसे बहु-पक्षीय प्रयासों को आगे बढ़ाएं. महामारी से लड़ने और वायरस का प्रकोप थामने के पहले मोर्चे पर काम कर रहे स्वास्थ्य कर्मचारियों की हौसला अफ़ज़ाई ने बहुत से देशों के घरेलू और राजनीतिक मतभेदों को दूर करने का काम किया. इसी तरह घनी आबादी वाली झुग्गी झोपड़ियों वाली बस्तियों, शरणार्थी शिविरों और बेघर लोगों के इलाक़ों में वायरस का संक्रमण फैलने से रोकने के लिए भारी निवेश की ज़रूरत होगी. इसके अलावा इन इलाक़ों में काम करने वालों की क्षमता विकसित करने के लिए भी पुरज़ोर कोशिश करनी होगी. इस काम के लिए अनुभवी लोगों को लगाना होगा.  क्योंकि घनी बस्तियों में सोशल डिस्टेंसिंग का पालन कर पाना बेहद मुश्किल ही नहीं असंभव होता है. ऐसे में स्थानीय स्तर पर किसी महामारी से निपटने की क्षमताएं विकसित करने में निवेश करना होगा. ऐसे लोगों और संसाधनों को विश्वसनीय बनाना होगा. इसके लिए अनुभवी लोगों को कमज़ोर समुदायों के साथ संवाद के काम में लगाना होगा. हम अचानक से किसी बस्ती में जाकर कल्याणकारी योजनाएं चलाकर उनका भला नहीं कर सकते.

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