Published on Jun 24, 2022 Updated 0 Hours ago

अलग अलग क्षेत्रों में महिलाओं और पुरुषों के बीच अंतर को पाटने के लिए ख़ास तौर से महिलाओं के लिए अवसर पैदा करने की कोशिशों ने युवा कोरियाई पुरुषों के मन में ये डर पैदा कर दिया है कि वो पहले से ही कड़े मुक़ाबले के शिकार समाज में अपने लिए और भी मौक़े गंवा देंगे.

#South Korea: लैंगिक असमानता, अधिकार और बेरोज़गारी के कारण दक्षिण कोरिया की राजनीति में बड़ा अलगाव

अस्सी के दशक का मशहूर गीत, ‘चीज़ें जितनी ही बदलती हैं, उतनी ही पहले जैसी रहती हैं’; अक्सर राजनीति पर लागू नहीं होता है. लेकिन, हो सकता है कि दक्षिण कोरिया के नागरिक अपने देश के राजनीतिक हालात को देखते हुए इस बात पर सहमत हो सकते हैं कि ये गीत उस पर लागू होता है.  एक तरफ़ तो कोरिया की राजनीति लगातार बदलाव से परिभाषित होती रही है. एक राष्ट्र के तौर पर कोरिया मोटे तौर पर दो बड़े विभाजनों का शिकार है, जो लैंगिक असमानता और उम्र पर आधारित हैं और इनका असर राष्ट्रीय राजनीति और देश के रहन-सहन पर भी पड़ता है.

लैंगिक असमानता से जूझता दक्षिण कोरिया

दक्षिण कोरिया, लैंगिक समानता को लेकर संघर्ष करता रहा है, जो पूरे पूर्वी एशियाई समाजों में एक बड़ी चिंता की बात है. आज ये लैंगिक असमानता, कोरिया की राजनीति में विभाजन की एक गहरी लक़ीर बनती जा रही है. कामकाजी तबक़े में महिलाओं की लगातार बढ़ती भागीदारी और पढ़ाई के क्षेत्र में उनकी प्रभावशाली मौजूदगी के बावजूद वहां, पुरुषों और महिलाओं के वेतन में क़रीब 31 प्रतिशत का अंतर है, जो आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (OECD) के सदस्य देशों में सबसे अधिक है. कोरिया के कारोबारी और सिविल सर्विस के आला तबक़े में बहुत कम महिलाएं दाख़िल हो पाती हैं. कोरिया में जब #MeToo आंदोलन चला, तो समाज में लैंगिक असमानता के ये मुद्दे भी ज़ोर-शोर से उठे. देश के बड़े राजनेता, जिनमें लंबे समय तक सियोल के मेयर और दूसरे सेलिब्रिटीज़ पर भी यौन शोषण और हिंसा वाले जुर्म करने के आरोप लगे. दक्षिण कोरिया के पूर्व राष्ट्रपति मून जाए-इन ने एक के बाद एक ऐसी कई सामाजिक नीतियां लागू कीं, जिससे देश में संस्थागत रूप से महिलाओं से हो रहे भेदभाव को ख़त्म किया जा सके. सरकार ने पिताओं को इस बात के लिए प्रोत्साहित किया कि वो बच्चे पैदा होने पर पैटरनिटी लीव (पितृत्व अवकाश) लें. इसके अलावा सरकार के ख़र्च पर चलने वाले बच्चों के रख-रखाव के केंद्रों की तादाद भी बढ़ाई गई और बच्चे पैदा करने के बाद महिलाओं को फिर से रोज़गार देने के केंद्रों में भी इज़ाफ़ा किया गया.

आज जब दक्षिण कोरिया में युवाओं के बीच बेरोज़गारी की दर नए मकाम पर पहुंच गई है, तो कोरियाई युवकों को ये लगता है कि महिलाओं की अगुवाई वाले मी टू जैसे आंदोलनों और कामगारों में महिलाओं की संख्या में इज़ाफ़े के चलते, समाज में उनका पारंपरिक दबदबा कम होता जा रहा है. 

हालांकि, इन उपायों का एक ख़ास तबक़े की ओर से कड़ा विरोध किया जा रहा है: ये कोरिया के युवा पुरुष हैं. उन्हें इन सरकारी उपायों को लेकर कई चिंताएं सता रही हैं और लग रहा है कि समाज में पहले से ही अवसरों के लिए भयंकर होड़ चल रही है और ऐसे उपायों से उनके हाथ से अवसर छिनने का डर बढ़ गया है. युवा छात्रों पर हाई स्कूल और यूनिवर्सिटी में ज़्यादा से ज़्यादा नंबर लाने का दबाव रहता है, ताकि वो अच्छी तनख़्वाह वाली सुरक्षित नौकरियां हासिल कर सकें, जो पहले से कहीं कम होती जा रही हैं. आज जब दक्षिण कोरिया में युवाओं के बीच बेरोज़गारी की दर नए मकाम पर पहुंच गई है, तो कोरियाई युवकों को ये लगता है कि महिलाओं की अगुवाई वाले मी टू जैसे आंदोलनों और कामगारों में महिलाओं की संख्या में इज़ाफ़े के चलते, समाज में उनका पारंपरिक दबदबा कम होता जा रहा है. इस वजह से कोरिया के समाज में ज़बरदस्त राजनीतिक पलटवार देखने को मिल रहा है क्योंकि कोरिया के नाराज़ युवकों ने अनिवार्य सैन्य सेवा से लेकर महिलाओं को कामकाजी तबक़े में शामिल करने के उपायों तक, सरकार की सभी नीतियों की खुलकर आलोचना शुरू कर दी है.

भेदभाव को लेकर सामाजिक नाराज़गी

राष्ट्रपति मून के प्रशासन ने पांच साल के लिए एक आर्थिक नीति की भी शुरुआत की थी, जिसका मक़सद लैंगिक रूप से समावेशी विकास को बढ़ावा देना था. हालांकि, भयंकर असमानता और आर्थिक असुरक्षा के इस दौर में पुरुषों को लगता है कि महिलाओं को कामकाजी तबक़े में शामिल करने की ये मुहिम, उनके साथ होने वाला ‘उल्टा भेदभाव’ है. असाधारण रूप से कोरिया के पुरुष और महिलाएं, दोनों ही ये सोचते हैं कि उनके साथ भेदभाव होता है. अपनी उम्र के तीसरे दशक वाले 84 प्रतिशत पुरुष और उम्र के चौथे दशक में चल रहे 83 फ़ीसद कोरियाई मर्द ये मानते हैं कि उनके साथ भेदभाव हो रहा है. वहीं 74 फ़ीसद कोरियाई स्त्रियां ये मानती हैं कि उन्हें भेदभाव का सामना करना पड़ता है. ये सामाजिक नाराज़गी अब सोशल मीडिया पर ज़ाहिर होने लगी है, जहां पर महिलावाद के ख़िलाफ़ खुलकर ज़हर उगलना अब आम बात मालूम देने लगी है.

कोरियाई कट्टरपंथी नेताओं के बीच 36 साल के युवा और जोशीले नेता ली जुन-सियोक के नेतृत्व के उभरने से महिलावाद के ख़िलाफ़ कोरियाई युवकों की ज़हरीली लामबंदी और भी तेज़ हो गई है.

नागरिकों के बीच ये असुरक्षा और नाख़ुशी का भाव, राजनीतिक लाभ उठाने के बड़े मौक़े के तौर पर सामने आया है. ये बात तब बिल्कुल साफ़ हो गई, जब आबादी के एक बड़े तबक़े के बीच राष्ट्रपति मून जाए-इन के उदारवादी प्रशासन की लोकप्रियता में भयंकर गिरावट देखी गई, जबकि पहले वो युवकों के बीच बहुत लोकप्रिय थे. राष्ट्रपति मून की लोकप्रियता घटने की एक बड़ी वजह उनके मकान और युवकों के लिए रोज़गार की कमी के संकट से निपटने में नाकामी रही है. लेकिन, महिलावाद के प्रति उनके लगाव ने भी उन्हें राजनीतिक रूप से बहुत नुक़सान पहुंचाया है. उनकी मुश्किल में अपने लिए मौक़ा देखते हुए कोरिया के रूढ़िवादी नेताओं ने अपने देश के निराश युवाओं के लिए आवाज़ बुलंद करनी शुरू कर दी है. कोरियाई कट्टरपंथी नेताओं के बीच 36 साल के युवा और जोशीले नेता ली जुन-सियोक के नेतृत्व के उभरने से महिलावाद के ख़िलाफ़ कोरियाई युवकों की ज़हरीली लामबंदी और भी तेज़ हो गई है. दक्षिण कोरिया के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति यून सियोक इयोल भी 30 साल से कम और 60 साल से अधिक उम्र के पुरुषों के समर्थन की लहर से चुनाव जीते और उन्होंने अपने प्रतिद्वंदी उदारवादी ली जाए-म्यूंग को शिकस्त दी, जो युवा महिलाओं को लुभाकर उनका वोट हासिल करने में सफल रहे थे. जैसे ही कोरिया में चुनाव के नतीजों का शोर थमा तो देश के उदारवादी नेताओं ने भी रूढ़िवादियों की नक़ल करते हुए 26 साल की महिला अधिकार कार्यकर्ता पार्क जी-ह्यून को अपनी पार्टी की स्टीयरिंग कमेटी का सह-अध्यक्ष नियुक्त कर दिया.

विभाजन की नुमाइंदगी करते राजनेता

ये दो राजनेता यानी ली जू-सियोक और पार्क जी-ह्यून, दक्षिण कोरिया के समाज के विभाजन की नुमाइंदगी करते हैं. पार्क को उस वक़्त शोहरत हासिल हुई थी जब उन्होंने पत्रकारिता की छात्रा और महिला अधिकार कार्यकर्ता के तौर पर ऑनलाइन सेक्स अपराध गिरोह का पर्दाफ़ाश किया था. वहीं ली जुन-सियोक ने पुरुषों के प्रति लैंगिक भेदभाव के विरोध में आंदोलन चलाकर नाम कमाया है. एक ऐसे देश में जहां किसी का सामाजिक ओहदा, संपर्क और पेशेवर कामयाबी उसके स्कूल और यूनिवर्सिटी के नाम से तय होती है, वहां पर पार्क ने एक मध्यम स्तर की कोरियाई यूनिवर्सिटी की छात्रा होने के बाद भी अपने लिए नाम कमाया है, तो ली ने हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से पढ़ाई की है.

दोनों के बीच के इस अंतर के बावजूद, इन दोनों नेताओं का उभार एक समान थीम पर आधारित है; कोरिया के युवाओं की अपनी पुरानी पीढ़ी के रहन सहन को लेकर नकारात्मक नज़रिया और उसे लेकर नाराज़गी. युवा कोरियाई नागरिकों की नाराज़गी के केंद्र में ‘586 की पीढ़ी’ रही है- ये वो लोग हैं, जो अपनी उम्र के छठे दशक में हैं, जो 1960 के दशक में पैदा हुए और 1980 के दशक में यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करने के लिए गए थे. 586 वाली पीढ़ी 1980 के दशक में हुए उस छात्र आंदोलन की अगुवा रही थी, जिसने दक्षिण कोरिया के लोकतंत्रीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी. उस आंदोलन के बाद, जब कोरिया की अर्थव्यवस्था में तेज़ी से विकास होने लगा, तो इस पीढ़ी के लोग उद्योग और राजनीति में अहम ओहदों पर क़ाबिज़ हो गए. हालांकि, 586 की पीढ़ी का सत्ता और समृद्धि पर शिकंजा तनाव का बायस बन गया. दक्षिण कोरिया के युवा जो अपने पूर्ववर्ती लोगों की तुलना में नौकरियां हासिल करने और अपनी निजता का दायरा बढ़ाने के लिए घर ख़रीदने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, उन्हें देश पर 586 पीढ़ी का शिकंजा अखरता है. पार्क जी ह्यून ने तो ख़ास तौर से कोरिया के उदारवादी बुज़ुर्ग राजनेताओं के रिटायर होने के हक़ में खुलकर आवा उठाई थी, ताकि वो युवा मतदाताओं को आकर्षित कर सकें. पार्क ने दावा किया था कि 586 पीढ़ी का मिशन- यानी कोरिया में लोकतंत्र की स्थापना का मक़सद- पूरा हो चुका है और ऐसा लगता है कि वो ये कह रही थीं कि अब समय आ गया है कि उन्हें सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया जाए.

दक्षिण कोरिया के युवा जो अपने पूर्ववर्ती लोगों की तुलना में नौकरियां हासिल करने और अपनी निजता का दायरा बढ़ाने के लिए घर ख़रीदने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, उन्हें देश पर 586 पीढ़ी का शिकंजा अखरता है. पार्क जी ह्यून ने तो ख़ास तौर से कोरिया के उदारवादी बुज़ुर्ग राजनेताओं के रिटायर होने के हक़ में खुलकर आवा उठाई थी, ताकि वो युवा मतदाताओं को आकर्षित कर सकें.

आज जब सुधार के लिए जंग बदस्तूर जारी है, तो ऐसा लगता है कि कोई ख़ास बदलाव हुआ नहीं है. दक्षिण कोरिया में पुरुषों और महिलाओं की तनख़्वाह का अंतर 2017 में 68.5 प्रतिशत से मामूली रूप से घटकर 2021 में 62 प्रतिशत रह गया था. राष्ट्रपति यून सियोक-इयोल ने इस मामले में वही रुख़ अपनाया है, जो उनके युवा पुरुष मतदाताओं को पसंद है. वो लैंगिक समानता और परिवार मंत्रालय को ख़त्म करने की वकालत इस आधार पर कर रहे हैं कि इस मंत्रालय ने पुरुषों को ‘संभावित यौन अपराधी’ जैसा बर्ताव किया है. इस मंत्रालय के साथ टकराव के बावजूद, यून ने ये भी कहा है कि वो यौन हमलों के झूठे मामलों से निपटने में और भी सख़्ती करेंगे. जबकि बहुत से लोगों ने ये चिंता जताई है कि इससे महिलाओं को सामने आकर यौन हिंसा की शिकायत करने में मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा. इसी तरह पार्क जी ह्यून की कोरिया की लिबरल पार्टी को युवा और अधिक से अधिक ज़मीन से जुड़ा बनाने की कोशिशें भी हक़ीक़त से टकरा रही हैं. पार्क की योजना का समर्थन करने के बावजूद उनकी पार्टी के पुराने सांसद अभी अपने पदों पर बने रहकर पार्टी के भीतर अपनी पकड़ मज़बूत बनाए हुए हैं. जब जून में उदारवादी नेताओं को एक के बाद एक कई स्थानीय चुनावों में हार का सामना करना पड़ा तो पार्क जी ह्यून ने अपने सियासी लक्ष्य अधूरे होने के बाद भी अपना पद छोड़ दिया था.

दक्षिण कोरिया की अपनी लैंगिक असमानता को कम करने और आबादी के बीच के इस विभाजन को पाटने की कोशिशें कम से कम अभी तो कोई रंग लाती नहीं दिख रही हैं. आज जब लैंगिक समानता का ये संघर्ष बदस्तूर जारी है, तो शायद इस पर बॉन जोवी की वो लाइनें बिल्कुल सटीक बैठती हैं कि, ‘चीज़ें जितनी ही बदलती हैं, उतनी ही पहले जैसी रहती हैं’.

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