Author : Avni Arora

Published on Jun 07, 2022 Updated 0 Hours ago

महामारी की शुरुआत के साथ भारत में शहरी अनौपचारिक श्रम बल, ख़ास तौर पर महिलाएं, मौजूदा आजीविका के संकट से परेशान हैं. इस तरह की स्थिति से निपटने के लिए सुनिश्चित बुनियादी आय योजना बनाने की ज़रूरत है जो कि लैंगिक समावेशी हो.

जेंडर के स्तर पर शहरी समावेशी रोज़गार गारंटी योजना, मौजूदा वक्त़ की सबसे अहम् ज़रूरत है!

भूमिका

प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के द्वारा पिछले दिनों जारी असमानता की स्थिति की रिपोर्ट ने ‘शहरी रोज़गार गारंटी योजना’ को शुरू करने और यूनिवर्सल बेसिक इनकम स्कीम का भरोसा देने के बारे में पुरानी बहस को फिर से छेड़ दिया है. इस बात को देखते हुए ये संवाद महत्वपूर्ण है कि महामारी ने कई विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में शहरी श्रम बाज़ार को उजाड़ कर रख दिया हैभारत के शहरी केंद्र महामारी के मोर्चे पर रहे हैं, 2020 से जारी आजीविका के संकट से जूझ रहे हैं जब पहली बार लॉकडाउन और देशव्यापी बंद की घोषणा की गई थी. महामारी की शुरुआत के समय से शहर अनौपचारिक कामगारों के लिए एक समावेशी और लचीला इकोसिस्टम बरकरार रखने में नाकाम रहे हैं. शहरों में काम करने वाले ये कामगार शहरी बुनियादी ढांचे की रीढ़ की हड्डी हैं. 2020 में शहरी क्षेत्रों में काम करने वाले 10 में से 8 लोगों की नौकरी छूट गई. ये बहस उपयुक्त है क्योंकि ‘सम्माननीय काम का अधिकार’ 2030 के लिए एक महत्वपूर्ण सतत विकास का लक्ष्य (एसडीजी) है और समान मज़दूरी एवं काम के समान अवसर के साथ इसके जुड़ाव की वजह से ये एसडीजी 5 के ‘लैंगिक समानता’ के केंद्र में है. 

भारत के शहरी केंद्र महामारी के मोर्चे पर रहे हैं, 2020 से जारी आजीविका के संकट से जूझ रहे हैं जब पहली बार लॉकडाउन और देशव्यापी बंद की घोषणा की गई थी. महामारी की शुरुआत के समय से शहर अनौपचारिक कामगारों के लिए एक समावेशी और लचीला इकोसिस्टम बरकरार रखने में नाकाम रहे हैं.

महामारी के बाद गिरावट और भारतीय अर्थव्यवस्था की धीमी बहाली में असंगठित क्षेत्र में महिलाओं के ज़्यादा प्रतिनिधित्व की एक महत्वपूर्ण भूमिका थी. 90 प्रतिशत से ज़्यादा महिला कामगार संपर्क पर आधारित अनौपचारिक कामों जैसे कि घरेलू कामकाज, पर्यटन और मेहमाननवाज़ी, गिग वर्क, सेक्स का धंधा, निर्माण का काम, और सौंदर्य एवं वेलनेस उद्योग से जुड़ी हुई हैं. ये सभी काम-धंधे लॉकडाउन के दौरान और बाद में बुरी तरह प्रभावित हुए और अभी भी पूरी तरह से रफ़्तार नहीं पकड़ पाए हैं. कोविड-19 महामारी ने अनौपचारिक श्रम बल में पहले से मौजूद असमानता को और बढ़ा दिया है. हम एक ऐसे मोड़ पर खड़े हैं जहां अगर स्थिति की गंभीरता का समाधान नहीं किया गया तो महिलाएं सबसे पहले गरीबी के स्थायी जाल में फंस जाएंगी और वर्षों की मेहनत के बाद जो लैंगिक बढ़त दर्ज हुई है वो पीछे की ओर चली जाएगी. ये बात भारत की तेज़ी से गिरती महिला श्रम बल की हिस्सेदारी की दर (एफएलएफपीआर) के संदर्भ में विशेष तौर पर लागू होती है. 

महामारी के बाद निराशाजनक परिदृश्य और बेकाबू बेरोज़गारी को देखते हुए केंद्र और राज्य- दोनों ही सरकारों ने सिस्टम में कठिनाई को पहचाना है. लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के साथ मिलकर सेंटर फॉर इकोनॉमिक फरफॉर्मेंस के द्वारा किए गए एक सर्वे से पता चलता है कि शहरी क्षेत्रों में रहने वाले सिर्फ़ 31 प्रतिशत लोगों के पास सुनिश्चित काम-काज के दिन हैं और 70 प्रतिशत लोगों की भारी-भरकम संख्या बिना नौकरी की गारंटी के है जबकि जीवन-यापन के लिए कम-से-कम 100 दिन के काम की गारंटी होनी चाहिए. महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) की तर्ज पर एक शहरी रोज़गार गारंटी योजना शुरू करने को लेकर चर्चा चल रही है. मनरेगा की अक्सर इस बात के लिए तारीफ़ की जाती है कि इसने ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के लिए समान मज़दूरी और काम के ज़्यादा अवसर जैसे समानता के कई लाभ पहुंचाए हैं और इसकी वजह से महिलाओं के सामाजिक-आर्थिक हालात पर कुल मिलाकर सकारात्मक प्रभाव पड़ा है. मनरेगा सामाजिक समानता की चिंताओं पर ध्यान देता है और इसमें ऐसे तत्व हैं जो महिलाओं समेत सामाजिक रूप से कमज़ोर समूहों की तरफ़ नुक़सानदेह रवैये को बढ़ावा देने वाले मौजूदा सत्ता की संरचना को ख़त्म करते हैं. मनरेगा काम के अधिकार और पुरुषों एवं महिलाओं के बीच मज़दूरी की बराबरी को एक क़ानूनी रूप-रेखा देता है. इस अधिनियम के तहत कुल काम-काजी दिनों में से कम-से-कम एक-तिहाई महिलाओं के लिए आरक्षित है, सुनिश्चित न्यूनतम मज़दूरी की नीति है, काज-काज की जगह पर बच्चों के लालन-पालन की सुविधा का प्रावधान है (अगर छह से ज़्यादा बच्चे मौजूद हैं तो), और महिलाओं के लिए स्थानीय निकट की जगह पर काम देने की शर्त है. केरल, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, ओडिशा और पिछले दिनों राजस्थान की सरकारों ने शहरी बेरोज़गारों के लिए राज्य केंद्रित योजनाओं को शुरू करने की गतिविधि का नेतृत्व किया है ताकि उन्हें अचानक के किसी आर्थिक झटके से बचाया जा सके. 

मनरेगा काम के अधिकार और पुरुषों एवं महिलाओं के बीच मज़दूरी की बराबरी को एक क़ानूनी रूप-रेखा देता है. इस अधिनियम के तहत कुल काम-काजी दिनों में से कम-से-कम एक-तिहाई महिलाओं के लिए आरक्षित है, सुनिश्चित न्यूनतम मज़दूरी की नीति है, काज-काज की जगह पर बच्चों के लालन-पालन की सुविधा का प्रावधान है

अब जब महामारी का असर कम हो रहा है और आर्थिक बहाली का रास्ता तैयार हो रहा है तो लैंगिक तौर पर न्यायसंगत नीतियों या राहत के उपायों की अनुपस्थिति में एक बार फिर महिलाओं के ख़िलाफ़ स्थिति बन सकती है. भले ही योजनाओं का इरादा अच्छा हो लेकिन उनमें अनौपचारिक श्रम बल के लैंगिक आधारित व्यावसायिक बंटवारे का ध्यान रखना होगा. लक्ष्य आधारित एक शहरी रोज़गार गारंटी योजना, जो अपने परिवार के साथ अक्सर शहरों का रुख़ करने वाली बेरोज़गार अकुशल महिलाओं के सामने की कमज़ोरियों का समाधान करे, ही आगे बढ़ने का रास्ता है. 

वर्तमान परिप्रेक्ष्य और समीक्षा 

शहरी रोज़गार गारंटी योजना का निर्माण और नेतृत्व ज्यां द्रेज़ जैसे विशेषज्ञों ने किया है जिन्होंने सितंबर 2020 में एक विकेंद्रित शहरी रोज़गार और प्रशिक्षण (डीयूईटी) योजना की सलाह दी थी जिसमें मांग आधारित रोज़गार को सुनिश्चित किया गया है. प्रस्ताव में उन्होंने ‘जॉब स्टैंप’ की शुरुआत की है जिसे स्वीकृत संस्थानों को दिया जा सकता है और जिसे एक व्यक्ति-दिन के काम में परिवर्तित किया जा सकता है. ये काम कॉलेज, स्वास्थ्य केंद्रों, और शहरी स्थानीय निकायों के दायरे में शुरू किया जा सकता है, और इसमें लाभार्थियों को पर्याप्त प्रशिक्षण के लिए प्रशिक्षण केंद्र से जोड़ने का प्रस्ताव है. अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के द्वारा प्रस्तावित एक और योजना में 100 दिन के काम की गारंटी दी गई है और इसमें प्रारंभिक तौर पर 10 लाख से कम आबादी वाले छोटे शहरों के भीतर शुरू करने की बात है. जिन क्षेत्रों में काम के अवसर पैदा हो सकते हैं उनमें शहरी क्षेत्रों की सामान्य सुविधाओं का निर्माण, कायाकल्प एवं निगरानी और सार्वजनिक काम जैसे कि इमारतों का निर्माण, सड़कों, फुटपाथ, और पुलों की देखरेख शामिल हैं. 

इन दोनों प्रस्तावों में अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी के इर्द-गिर्द देखभाल आधारित बहाली की संरचना पर ज़ोर दिया गया है. शहरी स्थानीय निकायों के बुनियादी ढांचे पर ज़रूरत से ज़्यादा निर्भरता के आधार पर उनकी आलोचना की जाने लगी क्योंकि ये बुनियादी ढांचा एक अलग योजना के प्रबंधन के हिसाब से अपर्याप्त होगा. बजट का भी ध्यान रखने की ज़रूरत है. दूसरी तरफ़ नगर निगमों के पास शहरी सुविधाओं की देखरेख के लिए एक निश्चित बजट ही है जो इस योजना के साथ मिलता दिखाई देता है. साथ ही शहरी क्षेत्रों में न्यूनतम मज़दूरी का ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों की तरफ़ जाने पर भी प्रतिकूल असर होगा. 

संकट के समय में शहरों से लौटने वाले प्रवासियों के लिए आजीविका का इंतज़ाम करने वाली योजनाओं के मामले में राज्य सरकारों की प्रमुख भूमिका होती है. जिन राज्यों में मज़दूर ज़्यादा संख्या में लौटे हैं, उनमें झारखंड या हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों ने महामारी की वजह से काफ़ी ज़्यादा बेरोज़गारी की दरों को लेकर जवाबी इंतज़ाम किए हैं. लेकिन ऐसे राज्य कम है और इनसे सीखा जा सकता है. 

वर्तमान की योजनाओं और राज्यों की सफलताओं पर एक नज़र 

आजीविका की सुरक्षा को बढ़ाने के दृष्टिकोण से मई 2020 में हिमाचल प्रदेश की सरकार ने ‘मुख्यमंत्री शहरी आजीविका गारंटी योजना’ की घोषणा की. इस योजना के तहत शहरी क्षेत्रों में रहने वाले हर घर को साल में 120 दिन की अकुशल मज़दूरी की गारंटी दी गई. ये योजना मज़दूरी के काम में लगे लोगों के लिए कौशल बढ़ाने की सुविधा और आजीविका के बेहतर अवसर को बढ़ावा देने पर भी ध्यान देती है. ये योजना शहरी घरों को क्रेडिट लिंकेज पर सब्सिडी प्रदान करके शहरी घरों को सशक्त बनाने और अपना कारोबार स्थापित करने के लिए कारोबारी प्रशिक्षण का दावा भी करती है. इस योजना के उद्देश्यों में शहरी बुनियादी ढांचे को मज़बूत करने और नगर निकायों के लिए अच्छी नागरिक सुविधाओं के प्रावधान शामिल हैं. राज्य सरकार ने इस योजना के लिए 25.2 करोड़ के बजट का प्रावधान किया है. 

इसी तरह ओडिशा ने अप्रैल 2020 में ‘मुख्यमंत्री कर्म तत्परा कार्यक्रम’ की शुरुआत की. इस योजना के लिए 100 करोड़ के बजट का आवंटन किया गया है और इसमें शहरी स्थानीय निकायों के तहत सार्वजनिक संपत्ति, मॉनसून के लिए तैयारी, और शहरी केंद्रों के रखरखाव के क्षेत्र में श्रम की अधिकता वाले अस्थायी काम-काज का सृजन किया जाता है. ओडिशा हर साल भारी बारिश और चक्रवात का सामना करता है जिसकी वजह से अक्सर संपत्तियों को नुक़सान होता है. ये एक अनूठा दृष्टिकोण है कि एक ऐसी योजना बनाई जाए जिसके ज़रिए रेनवॉटर हार्वेस्टिंग/वर्षा जल संग्रहण के ढांचे के ज़रिए जल संरक्षण के क्षेत्र में संभावित काम-काज का सृजन करके अंधाधुंध शहरीकरण और विकास से जुड़ी चुनौतियों का समाधान किया जाए. साथ ही बाढ़ को भी रोका जाए और शहरी क्षेत्रों का फिर से निर्माण हो. ओडिशा इस कोशिश में अधिकारहीन महिलाओं के ग्रामीण और शहरी स्वयं सहायता समूहों को शामिल करके हाल के समय में शहरी रोज़गार गारंटी योजना के क्षेत्र में पथ प्रदर्शक रहा है. 

केरल का अनुभव इस मायने में थोड़ा अलग है कि इसकी ‘अय्यंकाली शहरी रोज़गार गारंटी योजना’ (एयूईजीएस) 2011 से ही काम कर रही है और सफल है. इस योजना के तहत हर घर को साल में 100 दिन अकुशल काम प्रदान करने की गारंटी है.

झारखंड ने इसी तरह की एक योजना ‘झारखंड मुख्यमंत्री श्रमिक योजना’ को शुरू किया है. इस योजना का निर्माण इस दृष्टिकोण के साथ किया गया है कि शहरों में रहने वाले 5 लाख अकुशल लोगों को साल में 100 दिन काम-काज प्रदान किया जाए. ये योजना लॉकडाउन के ऐलान  के बाद अपने राज्य की और लौट रहे लोगों (सितंबर 2020 तक 5.3 लाख लोग) को रोज़गार प्रदान करने के सीधे उपाय के रूप में शुरू की गई थी. केरल का अनुभव इस मायने में थोड़ा अलग है कि इसकी ‘अय्यंकाली शहरी रोज़गार गारंटी योजना’ (एयूईजीएस) 2011 से ही काम कर रही है और सफल है. इस योजना के तहत हर घर को साल में 100 दिन अकुशल काम प्रदान करने की गारंटी है. एयूईजीएस कोविड-19 संकट के दौरान दूसरे राज्यों के लिए अनुसरण करने वाला एक व्यापक दिशा-निर्देश का निर्माण करने में आदर्श रहा है. इस योजना के तहत लोक सेवा और शहरी बुनियादी ढांचे एवं इकोसिस्टम का सुधार करने के लिए काम प्रदान किया जाता है. एयूईजीएस के तहत सिर्फ़ 2019-2020 में 94,783 महिलाओं को लाभ मिला है. एयूईजीएस शहरी क्षेत्रों में महिला श्रम बल की हिस्सेदारी की दर (एफएलएफपीआर) को बढ़ाने के लिए अवसर प्रदान करने में सफल रहा है. 

एक लैंगिक अनुकूल नीति का रास्ता 

असमानता की स्थिति की रिपोर्ट ने एक बार फिर शहरों में रहने वाले बेरोज़गारों को ग़रीबी के जाल से बाहर निकालने के लिए आजीविका की योजना मुहैया कराने पर चर्चा को तेज़ किया है. नीचे कुछ सिफ़ारिशें हैं जो भारत के लिए देख-रेख वाली बहाली की राह का निर्माण करने में मदद करेगी. 

  1. सुरक्षा से जुड़े मुद्दों को श्रम बल में महिलाओं के प्रवेश के लिए सबसे बड़ी बाधाओं में से एक माना जाता है. असुरक्षित काम-काज का माहौल काम की गुणवत्ता को प्रभावित करता है और इसके साथ-साथ महिलाओं के जीवन स्तर और मानसिक स्वास्थ्य पर भी असर डालता है. शहरी रोज़गार योजनाओं को सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर ध्यान देने की ज़रूरत है. इस काम में सीसीटीवी कैमरा, और आपात हेल्पलाइन के लिए बजट का प्रावधान होना चाहिए और नियमित पुलिस गश्त पर ज़ोर देना चाहिए. 
  1. मनरेगा की तरह महिलाओं के लिए काम-काज में आरक्षण होने से ज़्यादा महिलाओं को हिस्सेदारी का मौक़ा मिलेगा और वो शहरी रोज़गार गारंटी योजना के तहत काम कर सकेंगी. सकारात्मक नीतियां  परंपरागत तौर पर अधिकारहीन समुदायों का प्रतिनिधित्व बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभाएंगी और इस तरह आख़िरी पंक्ति तक खड़े लोगों को फ़ायदा पहुंचाएंगी. 
  1. पुरुषों और महिलाओं के लिए एक समान मज़दूरी का मनरेगा के तहत ग्रामीण क्षेत्रों में काम करने वाली महिलाओं पर सकारात्मक असर पड़ा है. महिलाओं को आम तौर पर पुरुषों के मुक़ाबले कम पैसा दिया जाता रहा है. 
  2. लैंगिक डिजिटल विभाजन का समाधान करने से भी महिलाओं के लिए काम-काज के डिजिटल अवसर खुलेंगे जिन्हें आम तौर पर नज़रअंदाज़ किया जाता है. डिजिटल रूप से सशक्त करने के लिए कौशल मुहैया कराने का समाज के दूसरे अधिकारहीन वर्गों पर भी दूरगामी प्रभाव पड़ेगा. 
  3. समय के मामले में लचीला रवैया महिलाओं के लिए आवश्यक है ताकि वो अपनी घरेलू देखभाल की ज़िम्मेदारियों को निभाने में सक्षम हो सकें. इस अड़चन पर सोच-विचार करने से ज़्यादा महिलाएं काम-काज करने की ओर आकर्षित होंगी और कमाई करने में सक्षम होंगी. 

महिलाओं और लड़कियों पर महामारी का सामाजिक-आर्थिक बोझ उन्हें दीर्घकालीन ग़रीबी के जाल में फंसा सकता है. लक्ष्य बना कर और लैंगिक रूप से संवेदनशील नीतियों के द्वारा जवाब देने से लैंगिक समानता और जीडीपी के मामले में वर्षों की उन्नति को पीछे की ओर जाने से रोका जा सकता है

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