Author : Harsh V. Pant

Published on Jul 10, 2021 Updated 0 Hours ago

यह पहली बार था, जब प्रधानमंत्री सार्वजनिक रूप से दलाई लामा को उनके जन्मदिन पर बधाई दे रहे थे, इस क़दम ने भारत की चीन नीति के बारे में बड़े पैमाने पर सवाल खड़े कर दिए हैं.

गलवान संघर्ष: भारत को अपनी तिब्बत नीति को ठीक करना है ज़रूरी

इस सप्ताह की शुरुआत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कबूतरों के बीच बिल्ली को बिठाया, जब उन्होंने कुछ ऐसा किया, जिसे सामान्य हालात में सामान्य माना जा सकता है, उन्होंने तिब्बती आध्यात्मिक नेता दलाई लामा को उनके 86वें जन्मदिन पर सार्वजनिक रूप से बधाई दी है. अपने ट्विटर संदेश में मोदी ने लिखा, ‘परम पावन दलाई लामा को 86वें जन्मदिन पर बधाई देने के लिए फ़ोन पर बात की. हम उनके लंबे और स्वस्थ जीवन की कामना करते हैं.’ यह पहली बार था, जब प्रधानमंत्री सार्वजनिक रूप से दलाई लामा को उनके जन्मदिन पर बधाई दे रहे थे, इस क़दम ने भारत की चीन नीति के बारे में बड़े पैमाने पर सवाल खड़े कर दिए हैं.

पीएम मोदी का दलाई लामा से जल्द मिलने की उम्मीद

नरेंद्र मोदी ने तिब्बत के पूर्व निर्वासित प्रधानमंत्री लोबसंग सांगे को 2014 में अपने शपथ ग्रहण समारोह में आमंत्रित करके शुरुआत की थी और 2017 में दलाई लामा को राष्ट्रपति भवन आमंत्रित किया था, पर डोकलाम संकट के बाद नई दिल्ली ने क़दम वापस खींचने में ही समझदारी समझी थी. 2018 में भारतीय प्रधानमंत्री और चीनी राष्ट्रपति के बीच वुहान शिखर सम्मेलन की पूर्व संध्या पर भारत ने स्पष्ट रूप से वर्गीकृत सलाह जारी की थी. भारत सरकार के सभी मंत्रालयों/ विभागों के साथसाथ राज्य सरकारों को दलाई लामा के भारत आगमन की 60वीं वर्षगांठ के किसी कार्यक्रम के निमंत्रण को स्वीकार  करने की सलाह दी गई थी. लेकिन तब से गंगा में बहुत पानी बह चुका है. ख़बरें  रही हैं कि दलाई लामा के कोविड-19 की स्थिति संभलने के बाद प्रधानमंत्री मोदी से मिलने की उम्मीद है. प्रधानमंत्री की इन इच्छाओं को भारत द्वारा चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के शताब्दी समारोह पर औपचारिक शुभकामनाएं  देने के निर्णय के साथ जोड़ा जाना चाहिए.

चीन में एक ऐसा शासन है, जो सतह पर भले मज़बूत दिखे, पर बहुत कम सुरक्षित है और इसलिए खुलेआम आक्रामकता इसका पसंदीदा तरीका है. यह जैसे-जैसे झिंजियांग और हांगकांग में अपने आचरण के लिए वैश्विक जांच के दायरे में आएगा, वैसे-वैसे तिब्बत और ताइवान पर और रक्षात्मक होता जाएगा. 

चीन में एक ऐसा शासन है, जो सतह पर भले मज़बूत दिखे, पर बहुत कम सुरक्षित है और इसलिए खुलेआम आक्रामकता इसका पसंदीदा तरीका है. यह जैसेजैसे झिंजियांग और हांगकांग में अपने आचरण के लिए वैश्विक जांच के दायरे में आएगा, वैसेवैसे तिब्बत और ताइवान पर और रक्षात्मक होता जाएगा. दुनिया वर्तमान दलाई लामा को तिब्बतियों की स्वतंत्रता के संघर्ष के प्रतीक के रूप में देखती है, जबकि चीन के लिए वह भेड़ के कपड़ों में भेड़िया हैं. भारत के विशेष फ्रंटियर फोर्स (एसएफएफ) की दक्षता से परेशान पीएलए भी अधिक से अधिक तिब्बतियों की भर्ती की कोशिश कर रहा है.

भारत के लिए अपनी तिब्बत नीति को ठीक करना ज़रूरी 

इसलिए भारत के लिए अपनी तिब्बत नीति को ठीक करना अनिवार्य है. भारत में अपनी वन चाइना नीति पर फिर से विचार करने की मांग बढ़ रही है. वैसे 2010 से ही भारत अपने आधिकारिक बयानों और दस्तावेजों में वन चाइना नीति का उपयोग नहीं कर रहा है. जैसा कि चीन अतीत के समझौतों का पालन करने से इनकार कर रहा है, नई दिल्ली को भी तिब्बत को एक स्वायत्त क्षेत्र के रूप में मान्यता देने के लिए अपनी प्रतिबद्धता के बारे में नए सिरे से सोचना शुरू करना चाहिए. किसी भी स्तर पर तिब्बत पर चीनी संप्रभुता की भारत की ओर से मान्यता चीन की तिब्बती स्वायत्तता की स्वीकृति पर निर्भर थी, जिस पर बीजिंग पूरी तरह से पलट गया है

जैसा कि चीन अतीत के समझौतों का पालन करने से इनकार कर रहा है, नई दिल्ली को भी तिब्बत को एक स्वायत्त क्षेत्र के रूप में मान्यता देने के लिए अपनी प्रतिबद्धता के बारे में नए सिरे से सोचना शुरू करना चाहिए.

वास्तव में, भारत की तिब्बत नीति ने नई दिल्ली को अजीब स्थिति में डाल दिया है, जहां केवल चीन इससे संतुष्ट लगता है. तिब्बतियों की नई पीढ़ी भारत के असंगत दृष्टिकोण से असंतुष्ट है, जबकि कई भारतीय भी ऐसी नीति की उपयोगिता पर सवाल उठाते हैं, जो परस्पर समान भाव वाली नहीं लगती. यदि अतीत में भारत की स्थिति इस उम्मीद से बंधी थी कि इस तरह की नीति के परिणामस्वरूप चीनभारत संबंधों का सामान्यीकरण होगा और सीमा विवाद का अंतिम समाधान निकलेगा, तो इस उम्मीद को द्वेषपूर्ण चीनी व्यवहार द्वारा बारबार गलत ठहराया गया है

यदि अतीत में भारत की स्थिति इस उम्मीद से बंधी थी कि इस तरह की नीति के परिणामस्वरूप चीन-भारत संबंधों का सामान्यीकरण होगा और सीमा विवाद का अंतिम समाधान निकलेगा, तो इस उम्मीद को द्वेषपूर्ण चीनी व्यवहार द्वारा बार-बार गलत ठहराया गया है. 

समय  गया है कि नई दिल्ली मोदी द्वारा की गई पहल का अनुसरण नीतिगत प्रतिक्रिया के साथ करे. चीन को अपनी ही ज़मीन पर चुनौती दे, उत्तराधिकार के प्रश्न पर तिब्बती आध्यात्मिक नेतृत्व को प्रेरित करे और इस मुद्दे पर वैश्विक राय जुटाए. गलवान झड़प के बाद तिब्बत और ताइवान दो ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है. मान जानिए, सीमा पर झड़प के साथ ही पुराना ढांचा ढह गया है.

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