Author : Shruti Jain

Published on Jul 04, 2022 Updated 0 Hours ago

हाल के समय में वैश्विक कर्ज़ों के स्तरों में उछाल के चलते ऋण की पुनर्संरचना से जुड़े मौजूदा कार्यक्रमों में ऋण से जुड़ी पारदर्शिता को बढ़ावा दिए जाने की दरकार है.

G20 का ऋण अदायगी स्थगन कार्यक्रम: ऐतिहासिक पड़ताल!

कोविड-19 ने वैश्विक ऋण के स्तर को नई ऊंचाइयों तक पहुंचा दिया है. हालांकि महामारी से पहले भी दुनिया के देश इस मोर्चे पर दुश्वारियां झेल रहे थे. दुनिया में निम्न आय वाले तक़रीबन 60 प्रतिशत मुल्क बेहद जोख़िम भरे हालात में हैं. इनमें से कई देश तो पहले से ही ऋण की तकलीफ़ें झेल रहे हैं. साल 2020 में वैश्विक अर्थव्यवस्था में एक साल के दौरान द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के कालखंड में ऋण में सबसे ज़्यादा उछाल देखने को मिला है. इस साल वैश्विक ऋण 226 खरब अमेरिकी डॉलर के स्तर तक पहुंच गया. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) के ग्लोबल डेट डेटाबेस के मुताबिक 2020 में वैश्विक ऋण में 28 प्रतिशत अंक की बढ़ोतरी हुई और ये जीडीपी के 256 प्रतिशत तक पहुंच गया. महामारी के चलते दुनिया में निम्न आय वाले कई देशों को झटकों का सामना करना पड़ा. उन्हें वित्तीय मोर्चे पर कई तरह की रुकावटों से भी दो-चार होना पड़ा है. 2020 में इन देशों ने G20 से ऋण सेवा स्थगन कार्यक्रम की स्थापना करने और आगे चलकर साझा रूपरेखा तैयार करने का अनुरोध किया. अतीत में ऋण में कटौती को लेकर कई बड़े कार्यक्रम चलाए गए हैं. इनमें बहुपक्षीय ऋण राहत पहल, पेरिस क्लब, लंदन क्लब, बार्डी प्लान और कर्ज़ के भारी बोझ तले दबे निर्धन देशों से जुड़ा पहल (HIPC) शामिल हैं.

महामारी के चलते दुनिया में निम्न आय वाले कई देशों को झटकों का सामना करना पड़ा. उन्हें वित्तीय मोर्चे पर कई तरह की रुकावटों से भी दो-चार होना पड़ा है. 2020 में इन देशों ने G20 से ऋण सेवा स्थगन कार्यक्रम की स्थापना करने और आगे चलकर साझा रूपरेखा तैयार करने का अनुरोध किया.

अलग-अलग कार्यक्रमों में लेनदारों की हिस्सेदारी और शर्तों से जुड़े अलग-अलग रुख़ अपनाए गए थे. बहरहाल हालिया कार्यक्रमों के सामने अलग तरह की चुनौतियां पेश आ रही हैं. ऋण की बढ़ती तक़लीफ़ों से जुड़ी ज़रूरतों को पूरा करने में नाकाफ़ी होने के लिए इनकी घोर आलोचना होती रही है. लिहाज़ा बड़े स्तर वाले ऋण पुनर्संरचना कार्यक्रमों के उभार की पड़ताल ज़रूरी हो जाती है. साथ ही उस पृष्ठभूमि का आकलन भी आवश्यक है जिनके तहत इन पहलों को सामने रखा गया है.

ऋण से जुड़े बर्तावों का उभार

1980 के दशक के ऋण संकट के बाद कर्ज़ को लेकर पैदा हुई परेशानियों के निपटारे में पेरिस क्लब एक अहम वाहक बन गया था. इस संकट के दौरान सालाना समझौतों में भारी बढ़ोतरी हुई थी. 1980 के दशक के संकट के बाद पेरिस क्लब में ढांचागत बदलाव देखने को मिला. ग़ौरतलब है कि उस समय तक अल्पकालिक राहत के लिए सभी देनदार देशों पर समान नियम लागू किए जाते थे. 1980 के दशक के आख़िर में उन्होंने वेनिस शर्तें और टोरंटो शर्तों पर अमल करना चालू कर दिया. इसके तहत कर्ज़ के भारी बोझ से दबे देशों के लिए ऋण के भार को मुल्तवी करना और उसकी अदायगी के लिए लंबी मियाद हासिल करना आसान हो गया. “बर्ताव की तुलनात्मकता” पेरिस क्लब का एक अहम हिस्सा है. इसके तहत लेनदारों के समूहों (निजी ऋणदाताओं और ग़ैर-पेरिस द्विपक्षीय देशों समेत) को समान रूप से भार सहन करना पड़ता है. दूसरी ओर लंदन क्लब में प्रतिनिधि बैंकों के एक समूह (जिन्हें बैंक सलाहकार समिति के नाम से जाना जाता है) को सभी व्यक्तिगत बैंकों की ओर से विकासशील देशों के साथ पुनर्संरचना की शर्तों से जुड़ी वार्ताओं के संचालन का अधिकार दिया गया. लंदन क्लब की प्रक्रिया में “सैद्धांतिक रूप से समझौते” को सामने लाया गया. इस प्रक्रिया में शामिल तमाम बैंकों द्वारा पुनर्संरचना से जुड़ी शर्तों पर आम सहमति से दस्तख़त किए गए. इससे व्यक्तिगत रूप से सैकड़ों बैंकों के साथ तालमेल की ज़रूरत समाप्त हो गई.

आगे चलकर 1989 में अमेरिका के वित्त मंत्री निकोलस ब्रैडी की ओर से पहली बार ब्रैडी प्लान की घोषणा की गई. बाद में IMF और विश्व बैंक ने भी इसका समर्थन किया. ब्रैडी प्लान अपने सूचीबद्ध रुख़ के चलते बाकी योजनाओं से अलग था. इसके तहत लेनदारों को डिस्काउंट बॉन्ड्स और बाज़ार से नीचे के ब्याज़ दरों जैसे अलग-अलग उपकरणों के लिए सूचीबद्ध किए गए तमाम विकल्प पेश किए जाते थे. इस प्लान ने अल्पकालिक राहत को बढ़ावा दिया. साथ ही देनदारों की ऋण चुकाने की क्षमता को बहाल करने के लिए कर्ज़ में कमी की प्रक्रिया को भी आगे बढ़ाया. इस योजना को मामले-दर-मामले के हिसाब से अमल में लाया गया. इससे कर्ज़ राहत के क्षेत्र में एक बड़ा नीतिगत उलटफ़ेर देखने को मिला. 1996 में HIPC (कर्ज़ के भारी बोझ तले दबे निर्धन देश) कार्यक्रम के आग़ाज़ के साथ कर्ज़ को रद्द किए जाने की प्रक्रिया बढ़कर तक़रीबन 90 प्रतिशत के पास पहुंच गई. 2005 में HIPC कार्यक्रम के पूरक के तौर पर MDRI (बहुपक्षीय ऋण राहत कार्यक्रम) की शुरुआत हुई. इसके तहत कर्ज़ राहत को संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) से जुड़े ढांचागत सुधारों से जोड़ दिया गया.

73 योग्य देशों में से तक़रीबन 48 देशों ने DSSI राहत की अपील की थी. इसके ज़रिए उनके 12.9 अरब अमेरिकी डॉलर के बराबर ऋण की अदायगी को मुल्तवी कर दिया गया. ये कर्ज़ मुख्य रूप से द्विपक्षीय आधिकारिक कर्ज़दाताओं द्वारा दिए गए थे. DSSI के ज़रिए अनुरोध करने वाले सभी देशों के कर्ज़ों के साथ एक जैसा बर्ताव किया गया.

कोविड-19 महामारी के चलते एक बार फिर से एक व्यापक कर्ज़ राहत कार्यक्रम की ज़रूरत महसूस की गई. DSSI के तहत सबसे ग़रीब देशों की ओर से कर्ज़ की अदायगी को मुल्तवी किए जाने के अनुरोध के बाद ऐसी क़वायदों को स्थगित कर दिया गया. 73 योग्य देशों में से तक़रीबन 48 देशों ने DSSI राहत की अपील की थी. इसके ज़रिए उनके 12.9 अरब अमेरिकी डॉलर के बराबर ऋण की अदायगी को मुल्तवी कर दिया गया. ये कर्ज़ मुख्य रूप से द्विपक्षीय आधिकारिक कर्ज़दाताओं द्वारा दिए गए थे. DSSI के ज़रिए अनुरोध करने वाले सभी देशों के कर्ज़ों के साथ एक जैसा बर्ताव किया गया. इन तमाम देशों की ऋण अदायगी को मुल्तवी करके तरलता में तात्कालिक राहत मुहैया कराई गई. 2020 में G20 वित्त मंत्रियों और केंद्रीय बैंकों के गवर्नरों की असाधारण बैठक में कर्ज़ राहत के लिए मदद की ज़रूरत को स्वीकार किया गया. ये माना गया कि दुनिया के देशों को संकट से उबारने के लिए डेट सर्विस सस्पेंसन इनिशिएटिव (DSSI) से इतर कर्ज़ राहत की दरकार हो सकती है. नतीजतन तरलता और दिवालिएपन की बढ़ती समस्या के निपटारे के लिए कर्ज से जुड़े बर्तावों की साझा रूपरेखा का प्रस्ताव किया गया. पूर्ववर्ती DSSI की तुलना में इस साझा रूपरेखा से गुहार लगाने वाले देशों की विशिष्ट ज़रूरतों के हिसाब से कर्ज़ की रीशेड्यूलिंग करने में मदद मिली. DSSI में दूसरे ऋणदाताओं से तुलनात्मक कर्ज़ राहत को प्रोत्साहित किया जाता था. हालांकि ये क़वायद अनिवार्य नहीं थी. दूसरी ओर साझा रूपरेखा में कर्ज़दारों को पेरिस क्लब, ग़ैर-पेरिस क्लब और दूसरे निजी ऋणदाताओं समेत तमाम किरदारों से तुलनात्मक राहत की क़वायद अनिवार्य थी.

कार्यक्रम के प्रकार  शर्तें लेनदारों की भागीदारी  निजी क्षेत्र की भागीदारी
पेरिस क्लब (1980 का दशक) देनदार देशों द्वारा आर्थिक नीतियों के एक दमदार पैकेज पर अमल, जिसके नतीजे के तौर पर ऋण से जुड़ी योग्यता बहाल हो सके. बर्ताव की तुलनात्मकता’ से जुड़े खंड को शामिल किया गया. इसमें सभी लेनदारों से राहत मुहैया कराने की उम्मीद की जाती थी. ये राहत देनदार देश में उनके द्वारा मुहैया कराए गए ऋण के हिसाब से हों.  निजी लेनदारों में बैंक, बॉन्डहोल्डर्स और आपूर्तिकर्ता शामिल 
लंदन क्लब (1980 का दशक) बड़े पश्चिमी बैंकों और विकासशील देशों की सरकारों के बीच मामला-दर-मामला पुनर्संरचना का विकास. पश्चिमी बैंकों की नुमाइंदगी के लिए बैंक सलाहकारी समिति (BAC) को शामिल करना. लेनदारों में बड़े पश्चिमी बैंक शामिल. 
ब्रैडी प्लान (1989-90 के दशक में) ऋण के बदले देनदार देशों में बाज़ार उदारीकरण के क़दम उठाना अनुदान ऋण राहत का प्रस्ताव करने के लिए विकल्पों की सूची में लेनदारों के लिए ऋण से जुड़े विभिन्न उपकरणों को शामिल करना. इसे मुल्क-दर-मुल्क के हिसाब से अमल में लाया गया. वाणिज्यिक बैंकों जैसे निजी क्षेत्र के लेनदारों को प्रोत्साहित किया गया. 
HIPC (1990 के दशक के मध्य में) IMF और विश्व बैंक द्वारा दिए गए ऋणों से समर्थित कार्यक्रमों में अच्छे प्रदर्शन का सिलसिला क़ायम करना. साथ ही सतत विकास से जुड़े लक्ष्यों को हासिल करने की प्रक्रिया में तेज़ी लाने के लिए ढांचागत सुधारों पर अमल करना. पेरिस क्लब और बहुपक्षीय संस्थानों के द्वारा दिए जाने वाले ऋणों की पात्रता थी. इसमें द्विपक्षीय और वाणिज्यिक लेनदारों को शामिल किया गया. निजी क्षेत्र की भागीदारी स्वैच्छिक आधार पर थी.
DSSI (2020) अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों द्वारा निगरानी के तहत सामाजिक, स्वास्थ्य और आर्थिक मदद के लिए राजकोषीय दायरे का इस्तेमाल. अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों द्वारा तकनीकी सहायता के साथ सार्वजनिक क्षेत्र की सभी वित्तीय प्रतिबद्धताओं का ख़ुलासा.  DSSI की पात्रता वाले सभी देशों को समान आधार पर सिर्फ़ परिपक्वता का विस्तार मुहैया कराना. निजी क्षेत्र की स्वैच्छिक भागीदारी.
साझा रूपरेखा (2021) IMF-WBG डेट सस्टेनेबिलिटी एनालिसिस (DSA) और आधिकारिक  भागीदारी पर लेनदारों के सामूहिक आकलन पर आधारित ऋण व्यवस्थापन की ज़रूरत. देनदार देशों को सार्वजनिक क्षेत्र की सारी प्रतिबद्धताएं उपलब्ध करानी होती हैं.  परिपक्वता के विस्तार और ब्याज़ दरों में कमी के ज़रिए कर्ज़ राहत मुहैया कराता है. मामले-दर-मामले की बुनियाद पर कर्ज़ के व्यवस्थापन पर दिशानिर्देशक समझौते का प्रस्ताव. इसमें दूसरे लेनदारों के साथ तुलनात्मक बर्ताव को शामिल किया जाता है.  इसमें ग़ैर-पेरिस क्लब के सदस्य शामिल होते हैं. दूसरे लेनदारों के साथ बर्तावों की तुलनात्मक क़वायद भी इसके दायरे में आती है. 

DSSI और साझा रूपरेखा के लिए चुनौतियां

महामारी के प्रकोप से दुनिया के कई देशों पर कर्ज़ का बोझ हद से पार चला गया. इसी बोझ के निपटारे के लिए DSSI और साझा रूपरेखा की शुरुआत की गई थी. हालांकि देनदार देशों की सीमित हिस्सेदारी के चलते DSSI को आलोचनाओं का सामना करना पड़ा. इसके अलावा क्रेडिट रेटिंग घट जाने के डर के चलते निजी-ऋणदाता हिस्सेदारी की जानकारी देने के लिए भी इस योजना की आलोचना हुई थी. इस कार्यक्रम में समान शर्तों पर ऋण की अदायगी को मुल्तवी करने की क़वायद में निजी लेनदारों की हिस्सेदारी का अभाव था. इसी तरह साझा रूपरेखा की मांग दुनिया में महज़ तीन देशों द्वारा ही की गई. ये देश हैं चाड, इथियोपिया और ज़ाम्बिया. हालांकि इनमें से हरेक में देरी कर दी गई. ग़ौरतलब है कि साझा रूपरेखा में सभी लेनदारों से तुलनात्मक ऋण राहत की उम्मीद की जाती है. बहरहाल उभरती अर्थव्यवस्थाओं और कम विकसित देशों में लेनदारों के आधार में बढ़ती विविधता के चलते ये काम ख़ासतौर से चुनौतीपूर्ण हो जाता है.

पूर्ववर्ती व्यापक कार्यक्रमों में लेनदारों का आधार मुख्य रूप से पेरिस क्लब के द्विपक्षीय ऋणदाताओं और वाणिज्यिक और बहुपक्षीय बैंकों से तैयार होता था. हालांकि आज लेनदारों का आधार विस्तृत हो चुका है. इसमें ग़ैर-पेरिस क्लब लेनदार और बॉन्डहोल्डर्स शामिल हैं. 2020 में DSSI के योग्य देशों के लिए पेरिस क्लब के लेनदारों पर बाहरी कर्ज़ 28 प्रतिशत से गिरकर 11 प्रतिशत हो गया. दूसरी ओर चीन जैसे ग़ैर-पेरिस क्लब ऋणदाताओं के बाहरी कर्ज़ 2 प्रतिशत से बढ़कर 18 प्रतिशत हो गए. दरअसल सरकार के मालिक़ाना हक़ वाले उद्यमों के ‘छिपे कर्ज़ों’ और ग़ैर-ख़ुलासा समझौतों के चलते कर्ज़ की पारदर्शिता कमज़ोर होती है. लेनदारों की बनावट में बढ़ती विविधता और ऋण उपकरणों की पेचीदगी से कर्ज़ की पारदर्शिता का अभाव पैदा होता है. साथ ही लेनदारों के बीच तालमेल क़ायम करने की क़वायद भी मुश्किलों भरी हो जाती है. निजी लेनदारों के तुलनात्मक बर्ताव के आकलन के लिए स्पष्ट तौर-तरीक़ों के अभाव के चलते भी इस रूपरेखा की आलोचना हुई है. इसके अलावा इनकी हिस्सेदारी के लिए किसी तरह का प्रोत्साहन मुहैया कराने में भी ये नाकाम रही हैं. इतना ही नहीं उभरती अर्थव्यवस्थाओं और कम विकसित देशों द्वारा ऋण की बनावट में पारदर्शिता के अभाव ने कर्ज़ के भार के निजी क्षेत्र से आधिकारिक लेनदारों पर आयद हो जाने की चिंताओं को बढ़ावा दिया है.

2020 में DSSI के योग्य देशों के लिए पेरिस क्लब के लेनदारों पर बाहरी कर्ज़ 28 प्रतिशत से गिरकर 11 प्रतिशत हो गया. दूसरी ओर चीन जैसे ग़ैर-पेरिस क्लब ऋणदाताओं के बाहरी कर्ज़ 2 प्रतिशत से बढ़कर 18 प्रतिशत हो गए. दरअसल सरकार के मालिक़ाना हक़ वाले उद्यमों के ‘छिपे कर्ज़ों’ और ग़ैर-ख़ुलासा समझौतों के चलते कर्ज़ की पारदर्शिता कमज़ोर होती है.

DSSI और साझा रूपरेखा- दोनों ही कर्ज़ राहत के लिए अहम उपकरण हैं. लेनदारों की बुनियाद से जुड़ा परिदृश्य तेज़ी से बदल रहा है. साथ ही वित्तीय उपकरणों की जटिलताएं भी बढ़ती जा रही हैं. नए कार्यक्रमों को इनके हिसाब से ढलना होगा. निजी और सार्वजनिक लेनदारों के बीच की धुंधली रेखाओं ने मौजूदा ऋण पुनर्संरचना कार्यक्रमों की पेचीदगियां और बढ़ा दी हैं. लिहाज़ा कर्ज़ की पारदर्शिता में सुधार लाना निहायत ज़रूरी है. इसके लिए ये स्पष्ट रूप से बताना होगा कि निजी लेनदारों (सरकारी उद्यमों समेत) के बढ़ते आधार के साथ भविष्य में कैसे व्यवहार किया जाएगा. निश्चित रूप से G20 को इस समस्या के समाधान की दिशा में काम करना चाहिए. इससे निजी और आधिकारिक लेनदारों के बीच निष्पक्ष रूप से बोझ साझा करने की क़वायद सुनिश्चित होती है. साथ ही राहत की आस लगाए देशों को ऋण से जुड़े समाधान भी तेज़ी के साथ मुहैया कराए जा सकते हैं. 

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