खाड़ी का सबसे ग़रीब देश यमन 2015 में टकराव का केंद्र बिंदु बन गया. एक ओर सऊदी अरब और दूसरी तरफ़ ईरान समर्थित प्रतिस्पर्धी गुट एक दूसरे को निशाना बना रहे थे. इस अवधि के दौरान भारत ने यमन में फंसे अपने नागरिकों को निकालने के लिए ऑपरेशन राहत चलाया था. राजधानी सना के युद्धग्रस्त हवाई अड्डे तक पहुंच हासिल करने और भारतीय विमानों के सुरक्षित रूप से उतरने और वहां से निकलने के लिए भारतीय कूटनीति ने सऊदी अरब और ईरान दोनों के साथ काम किया. तथ्य ये है कि सऊदी हवाई मुहिम और यमन के हूती लड़ाकों, दोनों ने इस निकासी की इजाज़त दी और भारतीय विमानों के ख़िलाफ़ आक्रामकता दिखाने से परहेज़ किया. ये दर्शाता है कि मध्य पूर्व (पश्चिम एशिया) में विभिन्न पक्षों के साथ भारत की कूटनीति कितनी गहरी है.
7 अक्टूबर को हमास द्वारा इज़रायल के ख़िलाफ़ आतंकी हमले से इस क्षेत्र में शुरू हुआ वर्तमान संकट और इसके नतीजतन लेबनान, सीरिया और अब विशेष रूप से लाल सागर जैसे अन्य इलाक़ों में इसके प्रसार (अब भी नियंत्रित) ने अपेक्षित रूप से दुनिया भर में ख़तरे की घंटी बजा दी है.
तब से काफ़ी कुछ बदल गया है. 7 अक्टूबर को हमास द्वारा इज़रायल के ख़िलाफ़ आतंकी हमले से इस क्षेत्र में शुरू हुआ वर्तमान संकट और इसके नतीजतन लेबनान, सीरिया और अब विशेष रूप से लाल सागर जैसे अन्य इलाक़ों में इसके प्रसार (अब भी नियंत्रित) ने अपेक्षित रूप से दुनिया भर में ख़तरे की घंटी बजा दी है. 7 अक्टूबर के कुछ ही अर्से बाद, यमन से संचालित ईरान से जुड़े प्रचलित शिया-ज़ायदी लड़ाका समूह हूती (जिसे आधिकारिक तौर पर अंसार अल्लाह के नाम से जाना जाता है) ने मुख्य रूप से सुन्नी-इस्लाम जनसंख्या वाले फिलिस्तीनियों की मदद के लिए गाज़ा संघर्ष में कूदने का एलान कर दिया. तब से, इस गुट ने लाल सागर से स्वेज़ नहर की ओर जाने वाले व्यावसायिक जहाज़ों पर नियमित रूप से हमले किए हैं, साथ ही पश्चिमी सैन्य परिसंपत्तियों, ख़ासतौर से इराक़ में अमेरिकी सैनिकों को भी सीधे तौर पर निशाना बनाया है. सौ बात की एक बात ये है कि ये उग्रवादी समूह एक ऐसे युद्ध में शामिल हुआ है जो भौगोलिक रूप से उससे 2,200 किमी से भी ज़्यादा दूर है. फिलिस्तीन में जारी जंग आख़िरकार उनके अपने रणनीतिक और वैचारिक लक्ष्यों के लिए सामने आया एक सुनहरा मौक़ा है. ग़ौरतलब है कि 2021 में ही अमेरिका ने इसे आतंकवादी समूह की सूची से बाहर (डी-लिस्ट) किया था.
इज़रायल और हमास के बीच युद्ध में पिछले तीन महीनों में भारी तबाही और मौत का तांडव देखने को मिला है. इस जंग की मुख्य चिंताओं में से एक उस क्षेत्र पर पड़ने वाला बेहिसाब असर था, जहां आज अरब के कई देश ऐतिहासिक दरारों से घिरे रहने की बजाए आर्थिक विकास पर ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं. हालांकि, इन दरारों को नज़रअंदाज़ करते हुए आर्थिक बदलावों पर ध्यान टिकाना हमेशा ही रिसते घाव पर मरहम लगाने जैसा था, जैसा कि अक्टूबर के बाद हुई ज़्यादातर घटनाओं ने दर्शाया है. वैसे तो सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात (UAE) जैसी क्षेत्रीय ताक़तें भी मन ही मन चाहेंगी कि हमास को उखाड़ फेंका जाए, लेकिन किसी वैकल्पिक सियासी रास्ते के अभाव की वजह से संभावित रूप से हमास के स्थान पर किसी मिलते-जुलते या उससे भी बदतर इकाई के स्थापित हो जाने की आशंका है.
फ़िलहाल, मध्य पूर्व के हालात में आगे की राह के बारे में स्पष्टता का अभाव है. ब्लूप्रिंट की ये कमी न सिर्फ़ अमेरिका की उम्मीद है बल्कि अरब दुनिया की भी अपेक्षा है, जो हमेशा से क्षेत्र की भू-राजनीतिक वास्तविकताओं पर गहरे अधिकार और अब रणनीतिक स्वायत्तता चाहता है.
फ़िलहाल, मध्य पूर्व के हालात में आगे की राह के बारे में स्पष्टता का अभाव है. ब्लूप्रिंट की ये कमी न सिर्फ़ अमेरिका की उम्मीद है बल्कि अरब दुनिया की भी अपेक्षा है, जो हमेशा से क्षेत्र की भू-राजनीतिक वास्तविकताओं पर गहरे अधिकार और अब रणनीतिक स्वायत्तता चाहता है. इज़रायल की ओर से किए जाने वाले हमलों की संख्या अब कम होती दिख रही है, लेकिन गाज़ा में हमास के ख़िलाफ़ युद्ध अब भी जारी है. हालांकि, चाहे इज़रायल से हो या यमन में हूतियों से, लेबनान में हिज़्बुल्लाह से हो या इराक़ में कताइब हिज़्बुल्लाह से या फिर गाज़ा में हमास से, दीर्घकालिक लक्ष्यों को लेकर बहुत कम स्पष्टता है. साथ ही क्षेत्र-व्यापी संघर्ष से बचाव सुनिश्चित करने के लिए निकास रणनीति के रूप में शांतिपूर्ण समाधान से जुड़े कूटनीतिक विकल्पों के बारे में भी जानकारी स्पष्ट नहीं है.
इस प्रभाव में, क्षेत्र में तनाव बढ़ाने की क़वायद पर ईरान और उसके पिट्ठुओं का मज़बूत नियंत्रण हो गया है. चाहे कुछ भी कहें, पिछले एक दशक में ईरान अपने रणनीतिक उद्देश्यों में कामयाब रहा है. ईरानी हुकूमत, ख़ासतौर से इस्लामिक रिपब्लिक गार्ड कोर (IRGC) बिना किसी ख़ास अड़चन के अपने प्रॉक्सी नेटवर्क का विस्तार करने में सफल रहा है. थके-मांदे अमेरिका के इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान, दोनों से बाहर निकलने के साथ, आगे विदेशी दख़लंदाज़ी के लिए कम दिलचस्पी, और घरेलू स्तर पर हरेक राजनीतिक विभाजन के बीच इस मसले के समाधान की बजाए इसका प्रबंधन मुमकिन तौर पर आगे कार्रवाई का रास्ता हो सकता है.
अमेरिकी अभियान
हालांकि, अमेरिका के लिए दिक़्क़त ये है कि जब क्षेत्र-व्यापी संघर्ष की बात आती है तो उसके पास तनाव बढ़ाने वाली ऐसी सीढ़ी पर नियंत्रण का अभाव है. इज़रायल के सैन्य अभियान के पीछे उनके पूर्ण समर्थन को लेकर आज राष्ट्रपति बाइडेन की स्वाभाविक तौर पर आलोचना हो रही है, जिसमें कुछ हद तक दम भी है. ऐसे में अमेरिका के लिए उसकी सुरक्षा साझेदारी की सत्यता पर अंतरराष्ट्रीय जगत में और अधिक नुक़सान ना केवल मध्य पूर्व बल्कि अमेरिका-चीन के व्यापक विवाद (जो एशिया और उसके बाहर तेज़ी से बढ़ रहा है) में भी विनाशकारी साबित हो सकता है. ये चिंताएं अहम चुनावी वर्ष में बाइडेन के नेतृत्व को चुनौती देती हैं, जहां उनकी स्थिति पहले से ही फिसलती जा रही है और डोनाल्ड ट्रंप वापसी करने के प्रयास कर रहे हैं.
यमन में हूतियों के ख़िलाफ़ हालिया हवाई हमलों ने ऐसे अनुमानों की झड़ी सी लगा दी है कि क्या इनमें से कोई भी सूक्ष्म युद्ध व्यापक इज़रायल-हमास संघर्ष के भीतर किसी ओर जा रहा है. अमेरिका और यूनाइटेड किंगडम (UK) की अगुवाई में ये अभियान अमेरिका द्वारा ऑपरेशन प्रॉस्पेरिटी गार्जियन आयोजित किए जाने के कुछ ही दिनों बाद आया.
यमन में हूतियों के ख़िलाफ़ हालिया हवाई हमलों ने ऐसे अनुमानों की झड़ी सी लगा दी है कि क्या इनमें से कोई भी सूक्ष्म युद्ध व्यापक इज़रायल-हमास संघर्ष के भीतर किसी ओर जा रहा है. अमेरिका और यूनाइटेड किंगडम (UK) की अगुवाई में ये अभियान अमेरिका द्वारा ऑपरेशन प्रॉस्पेरिटी गार्जियन (इलाक़े में परिचालन करने वाले व्यावसायिक जहाज़ों को सुरक्षा घेरा प्रदान करने के लिए राष्ट्रों का संघ) आयोजित किए जाने के कुछ ही दिनों बाद आया. हवाई हमलों को ब्रिटिश विदेश मंत्री डेविड कैमरून ने हूतियों को “स्पष्ट और बिना लाग-लपेट वाला संदेश” क़रार दिया. ये उग्रवादी समूह को बुनियादी और रणनीतिक झटके की बजाए ख़तरे को रोकने के पर्याप्त प्रयास नहीं करने की आलोचना के प्रति इरादा दिखाने की क़वायद ज़्यादा लग रही थी. ये बात जगज़ाहिर है कि हूती लड़ाके यमन की जनता के बीच अलोकप्रिय हैं. हालांकि, वो फिलिस्तीनियों के समर्थन में ना सिर्फ़ राजनीतिक लामबंदी बल्कि अपनी सामरिक क्षमताओं का भी उपयोग कर रहे हैं. इस क़वायद के पीछे उनका मक़सद घरेलू स्तर पर समर्थन जुटाना है क्योंकि गाज़ा में इज़रायली मुहिम ने यमन में अमेरिका और इज़रायल के ख़िलाफ़ जनमत को गोलबंद कर दिया है.
आख़िरकार, गाज़ा में जंग पर एक व्यापक, एकजुट और संयुक्त रणनीति का अभाव ईरानी रणनीति की एक और बुनियादी जीत है. ईरान प्रत्यक्ष जुड़ाव के बिना वित्त और हथियारों के रास्ते में ‘तनाव बढ़ाने की सीढ़ी’ में पिट्ठुओं के जाल की चाबी हाथ में लेकर ‘रणनीतिक गहराई’ वाले मास्टर प्लान को कामयाबी से डिज़ाइन और क्रियान्वित करने वाला शायद पहला देश बन गया है. बड़े झटकों के बावजूद ईरानी योजनाएं कामयाब रही हैं. पश्चिम में, ख़ासतौर से अमेरिका में मध्य पूर्व नीति की ओर ताज़ा रुख़ की दिशा में पहला क़दम इस वास्तविकता को स्वीकार करना होना चाहिए.
कबीर तनेजा ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटेजिक स्टडीज़ प्रोग्राम में फेलो हैं.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.