चीन मिसाइलों के लिए साइलो का एक नया समूह तैयार कर रहा है. चीनी फ़ौज की इस नई तैयारी को लेकर अटकलों का बाज़ार गर्म है. क्या ये कवायद चीनी हथियारों के भंडारों की उम्र बढ़ाने के लिए की जा रही है या फिर किसी दुश्मन देश द्वारा किए गए परमाणु हमले का तत्परता से जवाब देने के लिए? इस सवाल का जवाब देना बेहद मुश्किल है. काफ़ी हद तक ऐसी संभावना हो सकती है कि चीन इन दोनों रणनीतियों को ध्यान में रखकर ये नई चाल चल रहा है. साइलो-आधारित मिसाइल क्षमता चीन में हथियारों के छोटे भंडारों को टिकाऊ बनाएगी. परमाणु क्षमता के आधुनिकीकरण की चीनी योजना के हिसाब से भी ये बेहद अहम हैं. अमेरिका ने भी अपनी परमाणु क्षमता के निर्माण को जायज़ ठहराने के लिए इसी तरह के तर्कों का सहारा लिया था. हालांकि, चीन के इस नए पैंतरे के पीछे कई और मकसद भी छिपे हुए हैं. परमाणु हथियारों के संदर्भ में चीन पहले इस्तेमाल न करने की नीति यानी नो फर्स्ट यूज़ (एनएफयू) पॉलिसी का पालन करता है. इस नीति के पालन के लिए एक ऊंचे दर्जे की टिकाऊ ताक़त तैयार करना ज़रूरी है. पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना को किसी परमाणु हमले का जवाब देने से पूर्व उसका पहला वार झेलने के लिए तैयार रहना होगा. हथियार–घरों के आकार और उनके टिके रहने की क्षमता के बीच परस्पर विपरीत संबंध होता है. हथियारों को छिपाने का स्थान जितना छोटा होगा उनके टिकाऊ होने की संभावना उतनी ज़्यादा होगी. माना जाता है कि चीन के पास परमाणु क्षमता से लैस 200 से ज़्यादा मिसाइल हैं. अगले दशक में इसके दोगुना हो जाने के आसार हैं.
साइलो-आधारित मिसाइल क्षमता चीन में हथियारों के छोटे भंडारों को टिकाऊ बनाएगी. परमाणु क्षमता के आधुनिकीकरण की चीनी योजना के हिसाब से भी ये बेहद अहम हैं. अमेरिका ने भी अपनी परमाणु क्षमता के निर्माण को जायज़ ठहराने के लिए इसी तरह के तर्कों का सहारा लिया था.
साइलो–आधारित मिसाइल से चीन को रणनीतिक बढ़त
ग़ौरतलब है कि ताइवान और दक्षिण चीन सागर (एससीएस) में अमेरिका के संभावित दख़ल को रोकने और उसकी धार कुंद करने के लिए चीन अपनी परमाणु ताक़त में इज़ाफ़ा कर रहा है. साइलो–आधारित मिसाइल क्षमता चीन को अपने मुख्य शत्रु अमेरिका के ख़िलाफ़ चौकन्ना रहने में मदद करेगी. हालांकि, ऐसे संकेत भी मिल रहे हैं कि अमेरिका के संभावित हमले की काट के लिए चीन लॉन्च अंडर अटैक (एलयूए) की दशा में भी ख़ुद को ढाल रहा है. इसके चलते चीनी परमाणु शक्तियों के ख़िलाफ़ परमाणु हथियारों का पहले इस्तेमाल करने की विरोधी पक्ष की रणनीति और जटिल हो जाती है.
मिसाइलों के ये नए साइलो कहां स्थित हैं? माना जाता है कि ये उत्तर-मध्य चीन के जिलंताई में स्थित हैं. ये इलाक़ा सीधे तौर पर पीपुल्स लिबरेशन आर्मी रॉकेट फ़ोर्स (पीएलएआरएफ़) के नियंत्रण और दायरे में आता है. यहीं पर पीएलएआरएफ़ का एक बड़ा मिसाइल ट्रेनिंग ठिकाना भी है.
माना जाता है कि ये उत्तर-मध्य चीन के जिलंताई में स्थित हैं. ये इलाक़ा सीधे तौर पर पीपुल्स लिबरेशन आर्मी रॉकेट फ़ोर्स (पीएलएआरएफ़) के नियंत्रण और दायरे में आता है. यहीं पर पीएलएआरएफ़ का एक बड़ा मिसाइल ट्रेनिंग ठिकाना भी है.
चीन द्वारा अपने अंतर-महाद्वीपीय बैलेस्टिक मिसाइलों (आईसीबीएम) को छिपाने के लिए मिसाइल साइलो का निर्माण अमेरिका और रूसी फ़ेडरेशन की नीतियों के ही अनुरूप है. मिसाइलों को रखने के लिए अमेरिका और रूस इसी तरह की रणनीति का इस्तेमाल करते रहे हैं. बहरहाल अमेरिका और रूस में जिस तादाद में साइलो आधारित मिसाइल सिस्टम तैनात हैं उनके मुक़ाबले चीन अब भी काफ़ी पीछे है. अमेरिकी वायु सेना (यूएसएएफ़) तमाम साइलो-आधारित मिसाइल क्षमता की निगरानी करती है. वो 450 साइलो का प्रंबधन करती है जिनमें से 400 में अंतर-महाद्वीपीय बैलेस्टिक मिसाइल रखे गए हैं. इसके मुक़ाबले रूस में केवल 130 ऐसे साइलो मौजूद हैं. चीन के पास तरल ईंधन से संचालित होने वाले पुराने डीएफ़-5 आईसीबीएम को छिपाने की क्षमता वाले क़रीब 18 साइलो हैं. इसके अलावा 16 साइलो उसके ताज़ा निर्माण का हिस्सा हैं. ये ठोस ईंधन से संचालित होने वाले आईसीबीएम के साइलो-आधारित डीएफ-41 वैरिएंट से लैस है. इन्हें बिल्कुल नए सिरे से तैयार किया गया है. संकट के समय तत्काल प्रतिक्रिया जताने की ज़रूरत होती है. पुराने मिसाइलों से लैस साइलो को आपात काल में लॉन्च करना बेहद कठिन होता है. इनके मुक़ाबले नए डीएफ़-41 की तैनाती बेहद तेज़ गति से हो सकती है. उन्हें हमले के लिए तीव्रता के साथ लॉन्च किया जा सकता है. इन मिसाइलों की क्षमता ऐसी है कि वो लॉन्च होने पर अमेरिका महादेश के ज़्यादातर हिस्सों और अलास्का तक पहुंच सकते हैं.
चीन के प्रतिस्पर्धियों के सामने बड़ी चुनौती
चीन का मौजूदा परमाणु आधुनिकीकरण कार्यक्रम उसके प्रतिस्पर्धियों के सामने बड़ी चुनौती पेश कर रहा है. डीएफ-41 चीन के लिए रक्षाकवच का काम करता है. इसकी मारक क्षमता विरोधियों को हतोत्साहित करने के लिए काफ़ी है. ये तमाम उपाय चीन की परमाणु शक्ति को टिकाऊ बनाए रखने के मकसद से किए गए हैं. बहरहाल कम दूरी तक मार करने वाली बैलेस्टिक मिसाइल (एसआरबीएम) और मध्यम दूरी तक मार करने वाली बैलेस्टिक मिसाइल (आईआरबीएम) के ही चीन की सामरिक क्षमताओं के मुख्य वाहक बने रहने की संभावना है. हालांकि, इनमें से ज़्यादातर (एसआरबीएम और आईआरबीएम) के परंपरागत हथियारों से ही लैस रहने के आसार हैं. हथियारों के भंडार के मामले में चीन अपने प्रतिस्पर्धी अमेरिका और रूस से पीछे है. ऐसे में चीन की परंपरागत बैलेस्टिक मिसाइल ताक़त इन महाशक्तियों के ख़िलाफ़ सैन्य क्षमता में बड़ी भूमिका अदा करती है. अपने बेड़े की ताक़त बढ़ाने के लिए चीन अपने परंपरागत बैलेस्टिक मिसाइल के साथ-साथ परमाणु-क्षमता से लैस मिसाइलों के समूह को भी शामिल कर रहे हैं. हालांकि, चीन की आधुनिकतम साइलो-आधारित आईसीबीएम डीएफ-41 के साथ इस तरह की रणनीति अपनाए जाने के फ़िलहाल कोई पक्के प्रमाण नहीं हैं. परमाणु शक्ति से संपन्न अपने किसी विरोधी के सामने कड़ी चुनौती पेश करने के लिए चीन परमाणु और ग़ैर-परमाणु ताक़तों का मिला-जुला स्वरूप पेश करता है. चीन के नज़रिए से देखें तो इस रणनीति से उसके विरोधियों के मन में अनिश्चितता भर जाती है. वो चीन की रणनीतियों को लेकर सोच में पड़ जाते हैं और चौकन्ने हो जाते हैं. लिहाज़ा उनके द्वारा परमाणु शक्ति के पहले इस्तेमाल की संभावनाएं कम हो जाती हैं. इतना ही नहीं इस रणनीति के इस्तेमाल से शत्रु द्वारा चीन की परंपरागत और परमाणु क्षमता से लैस मिसाइलों की पहचान करने की संभावनाएं या तो पूरी तरह से ख़त्म हो जाती हैं या फिर वो प्रक्रिया बेहद मुश्किल हो जाती है. चीन ने परंपरागत तौर पर अपने हथियार भंडार में हमेशा से ही परमाणु हथियारों की एक सीमित क्षमता रखने की नीति का पालन किया है. परमाणु शक्ति के मामले में अपने धुर विरोधियों के मुक़ाबले चीन की ताक़त सीमित है. लिहाज़ा चीन साइबर, इलेक्ट्रॉनिक और अंतरिक्ष में मार करने जैसी ग़ैर-परमाणु क्षमताओं पर समान रूप से ध्यान दे रहा है. चीन की इस जुगत के पीछे अपनी कमज़ोरियों से निपटते हुए दूसरे क्षेत्रों में कहीं अधिक ताक़त हासिल करने की रणनीति काम कर रही है. साइबर, अंतरिक्ष और इलेक्ट्रॉनिक क्षमताओं के ज़रिए चीन को इलेक्ट्रोमैग्नेटिक स्पेक्ट्रम (ईएमएस) में अपना दबदबा कायम करने का मौका मिलता है. अमेरिका, रूस और यहां तक कि भारत के परमाणु बल भी कमांड, कंट्रोल, संचार और कम्प्यूटर इंटेलिजेंस, निगरानी और टोह लगाने से जुड़े कार्यों (C4ISR) के लिए ईएमएस पर ही निर्भर हैं.
चीन का मौजूदा परमाणु आधुनिकीकरण कार्यक्रम उसके प्रतिस्पर्धियों के सामने बड़ी चुनौती पेश कर रहा है. डीएफ-41 चीन के लिए रक्षाकवच का काम करता है. इसकी मारक क्षमता विरोधियों को हतोत्साहित करने के लिए काफ़ी है. ये तमाम उपाय चीन की परमाणु शक्ति को टिकाऊ बनाए रखने के मकसद से किए गए हैं.
अब भारत को किस तरह की रणनीति अपनानी होगी?
परमाणु क्षमता के मामले में उत्तर-पूर्व में स्थित अपने पड़ोसी देश चीन के मुक़ाबले भारत पीछे है. बहरहाल परमाणु शक्ति से लैस भारत के लिए इन परिस्थितियों के मद्देनज़र कुछ संभावित चुनौती और अवसर- दोनों दिखाई देते हैं. पहला, परमाणु हथियारों का भारतीय भंडार चीन के मुक़ाबले काफ़ी छोटा है. चीन जिस रफ़्तार से अपनी ताक़त बढ़ा रहा है भारत उस गति से आगे नहीं बढ़ पा रहा. अल्पकाल में ये हालात भले ही चुनौतीपूर्ण न लगें पर अगले कुछ वर्षों में भारत को परमाणु सामग्री के अपने उत्पादन को बढ़ाने के बारे में सोचना पड़ेगा ताकि परमाणु हथियारों के मौजूदा भंडार के आकार को बड़ा बनाया जा सके. हो सकता है कि भारत के पास फ़िलहाल केवल कुछ सौ ही परमाणु हथियार मौजूद हों. निश्चित तौर पर अगले दशक में चीन की ताक़त के मुक़ाबले ये कहीं नहीं ठहरेंगे. परमाणु क्षमता के मामले में चीन के मुक़ाबले भारत थोड़े निचले पायदान पर रहना स्वीकार कर सकता है. अगर भारत अपने परमाणु हथियार भंडार को टिकाऊ बनाना चाहता है और अपने शत्रुओं के मुक़ाबले कुछ अधिक ताक़त रखना चाहता है तो उसे पाकिस्तान को भी मद्देनज़र रखना होगा. ग़ौरतलब है कि पाकिस्तान अपने परमाणु हथियार भंडार में लगातार इज़ाफ़ा करता जा रहा है.
चीन जिस रफ़्तार से अपनी ताक़त बढ़ा रहा है भारत उस गति से आगे नहीं बढ़ पा रहा. अल्पकाल में ये हालात भले ही चुनौतीपूर्ण न लगें पर अगले कुछ वर्षों में भारत को परमाणु सामग्री के अपने उत्पादन को बढ़ाने के बारे में सोचना पड़ेगा
पाकिस्तान की वजह से भारत की मौजूदा सामरिक क्षमताओं से जुड़े आंकड़े और उनका हिसाब-किताब जटिल हो जाता है. भारत के लिए दो मोर्चों पर परमाणु हथियारों की चुनौतियां खड़ी होती हैं. दूसरा, भारत की डिलिवरी क्षमताओं में भी सुधार लाना होगा. ख़ासतौर से भारतीय मिसाइलों के रेंज और उनकी तैनाती और लॉन्चिंग के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले प्लैटफ़ॉर्मों में सुधार लाना बेहद ज़रूरी है. समुद्र में तैनात भारतीय परमाणु हथियारों के संदर्भ में तो ये सुधार अत्यंत आवश्यक हैं. आख़िर में देखें तो इस पूरी कवायद में भारत के लिए कई अवसर भी छिपे हैं. इस संदर्भ में भारत को चीन जैसा रुख़ अपनाना चाहिए. भारत को चीन की ही तरह अपने परमाणु हथियारों की संख्या बढ़ाने पर अपेक्षाकृत कम निवेश करना चाहिए. भारत को भी परमाणु और गतिशील स्वभाव वाले परंपरागत बलों को आपस में मिला-जुलाकर आगे बढ़ने की रणनीति अपनानी चाहिए. चीन की ही तरह भारत को अपनी ग़ैर-परमाणु सामरिक क्षमताओं के विकास पर अपेक्षाकृत अधिक निवेश करना चाहिए. इनमें साइबर और इलेक्ट्रॉनिक लड़ाइयों और अंतरिक्ष से जुड़ी क्षमताओं के विकास पर होने वाला निवेश शामिल है.
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