जुलाई 2017 में जब केंद्र सरकार ने वस्तु और सेवाएं कर (GST) लागू किया था, तो इसे भारत में टैक्स प्रणाली को एकीकृत करने के लिए इंक़बाली क़दम बताया गया था. केंद्र और राज्यों के बीच सहयोग के दुर्लभ पल के तहत, भारत के सभी राज्यों ने दलगत राजनीति से ऊपर उठते हुए, केंद्र सरकार के GST लागू करने के क़दम में अपना सहयोग दिया था. इसी वजह से ये बड़ा टैक्स सुधार मुमकिन हो सका था. उसके बाद से पांच वर्ष बीत चुके हैं, और इस दौरान GST व्यवस्था की अच्छाइयां भी सामने आई हैं और इसकी कमज़ोरियां भी उजागर हुई हैं. भारत के वित्तीय संघवाद पर इन बातों का गहरा असर पड़ा है.
पांच वर्ष बीत चुके हैं, और इस दौरान GST व्यवस्था की अच्छाइयां भी सामने आई हैं और इसकी कमज़ोरियां भी उजागर हुई हैं. भारत के वित्तीय संघवाद पर इन बातों का गहरा असर पड़ा है.
केंद्र और राज्यों के बीच सहयोग
GST का लागू होना, भारत में केंद्र और राज्यों के बीच सहयोग की बड़ी मिसाल था. क्योंकि अलग अलग राज्यों में अलग अलग दलों की सरकार थी और केंद्र और राज्यों के बीच ज़बरदस्त राजनीतिक अविश्वास और मतभेद था. लेकिन, देश के सभी राज्यों ने अपनी मर्ज़ी से कर लगाने के अपने अधिकार को छोड़ा और उस वक़्त लगने वाले तमाम तरह के टैक्स को GST के दायरे में एकजुट करने पर सहमति जताई थी. इसका नतीजा ये हुआ कि भारत के संविधान की सातवीं अनुसूची के तहत राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आने वाले बहुत से विषय बेअसर हो गए और राज्यों की विधानसभाएं अब सामानों की ख़रीद फ़रोख़्त पर कोई टैक्स लगाने की अधिकारी नहीं रहीं. इससे पेट्रोलियम जैसे गिने-चुने उत्पादों को ही छूट दी गई थी. जैसा कि GST एक्ट 2017 में प्रावधान है कि नई व्यवस्था के तहत राज्यों को स्टेट GST (SGST) और एकीकृत GST (IGST) का एक हिस्सा, वसूले गए टैक्स के रूप में मिलना था. इसके अलावा ये भी माना गया था कि पुरानी व्यवस्था से अप्रत्यक्ष करों की नई टैक्स प्रणाली अपनाने के दौरान राज्यों की आमदनी में कमी आएगी, तो आम सहमति से ये बात तय हुई थी कि अगले पांच वर्षों तक, राज्यों को होने वाले टैक्स के इस नुक़सान की भरपाई एक साझा GST मुआवज़ा फंड के ज़रिए दी जाएगी. ये समय सीमा इस साल जून में ख़त्म हो गई.
देश के सभी राज्यों ने अपनी मर्ज़ी से कर लगाने के अपने अधिकार को छोड़ा और उस वक़्त लगने वाले तमाम तरह के टैक्स को GST के दायरे में एकजुट करने पर सहमति जताई थी. इसका नतीजा ये हुआ कि भारत के संविधान की सातवीं अनुसूची के तहत राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आने वाले बहुत से विषय बेअसर हो गए
इसके अलावा GST एक्टव की धारा 297A के तहत एक GST परिषद के गठन का प्रावधान किया गया था. इसमें केंद्रीय वित्त मंत्री, केंद्रीय वित्त राज्यमंत्री और सभी राज्यों के वित्त मंत्री शामिल होंगे. इस GST परिषद की ये ज़िम्मेदारी थीथई कि वो केंद्र और राज्यों को लगाए जाने वाले टैक्स की दरों के बारे में मिलकर सुझाव दे, जिसके आधार पर एक मॉडल GST क़ानून बने. GST परिषद की ये ज़िम्मेदारी भी तय की गई थी कि वो उन वस्तुओं और सेवाओं के नाम सुझाए जिन्हें इस मॉडल GST क़ानून के दायरे में लाया जाना चाहिए. इसीलिए, GST सुधारों का फल, केंद्र और राज्यों के बीच सहयोग और संवाद पर निर्भर था, जो संसाधनों के वितरण और फ़ैसले लेने की शर्तों के लिहाज़ से बेहद ज़रूरी था.
केंद्र और राज्यों के बीच बढ़ती दरारें
GST के ज़रिए बड़ा बदलाव लाने की तमाम संभावनाओं को लेकर केंद्र और राज्यों के बीच एकजुटता और उम्मीदों के बावजूद, GST के मुआवज़े और GST परिषद के फ़ैसले लेने के ढांचे को लेकर राज्यों और केंद्र के बीच अविश्वास की दरारें लगातार बढ़ती जा रही हैं. राज्यों को GST लागू करने के बदले में मिलने वाले मुआवज़े का मुद्दा, 2019 में आर्थिक सुस्ती आने के बाद से बार बार उठ रहा है क्योंकि कोविड-19 महामारी के चलते राज्यों का ये संकट गहराता ही गया है. जब महामारी अपने शीर्ष पर थी, तो एक तरफ़ स्वास्थ्य के इस संकट के चलते आर्थिक सुस्ती ने राज्यों की आमदनी पर गहरा असर डाला. वहीं दूसरी तरफ़, कोविड-19 के कहर से निपटने की ज़िम्मेदारी भी राज्य सरकारों के ही कंधे पर आ पड़ी थी. इस भयंकर आपात स्थिति के दौरान केंद्र द्वारा राज्यों को उनके हिस्से की रक़म देने में देरी का विवाद खुलकर सामने आ गया. विपक्ष के शासन वाले कई राज्यों ने केंद्र सरकार पर आरोप लगाया कि वो उनके हिस्से का पैसा नहीं दे रही है और इस वजह से महामारी की चुनौती से निपटने और उससे उबरने की योजना पर काम करने की उनकी क्षमता पर बहुत बुरा असर पड़ा है. महामारी के दौरान केंद्र ने राज्यों को उनके हिस्से का पैसा देने के बजाय दो तरह से क़र्ज़ लेने का सुझाव दिया जिससे कि GST के ज़रिए होने वाली आमदनी की भरपाई हो सके. केंद्र के इस प्रस्ताव का राज्यों ने और पुरज़ोर तरीक़े से विरोध किया, क्योंकि उनका कहना था कि केंद्र सरकार उन्हें वादे के मुताबिक़ राजस्व देने के बजाय, क़र्ज़ लेने के लिए मजबूर कर रही है.
विपक्ष के शासन वाले कई राज्यों ने केंद्र सरकार पर आरोप लगाया कि वो उनके हिस्से का पैसा नहीं दे रही है और इस वजह से महामारी की चुनौती से निपटने और उससे उबरने की योजना पर काम करने की उनकी क्षमता पर बहुत बुरा असर पड़ा है.
हालांकि अब जबकि महामारी का असर काफ़ी कम हो गया है और आर्थिक रिकवरी के संकेत दिखने लगे हैं, तो इस साल मई महीने में केंद्र सरकार ने बताया कि उसने राज्यों को उनके हिस्से का सारा GST राजस्व दे दिया है. वैसे तो GST लागू होने से हुए नुक़सान की भरपाई के लिए तय मुआवज़े की पांच साल की मियाद इस साल जून में पूरी हो गई. लेकिन, अभी भी बहुत से राज्य केद्र से ये अपील कर रहे हैं कि वो मुआवज़े के भुगतान की समय सीमा पांच साल के लिए और बढ़ा दे ताकि महामारी के दौरान आर्थिक सुस्ती से उबरने की राज्यों की कोशिश बदस्तूर जारी रह सके. हालांकि केंद्र सरकार ने कहा कि अब GST लागू होने के एवज़ में राज्यों को मुआवज़े की दरकार नहीं रही. क्योंकि, राज्यों द्वारा GST वसूली की दर बहुत अच्छी है. इसीलिए, GST के भुगतान का मुद्दा एक बार फिर केंद्र और राज्यों के बीच विवाद की जड़ बन सकता है.
केंद्र सरकार ने कहा कि अब GST लागू होने के एवज़ में राज्यों को मुआवज़े की दरकार नहीं रही. क्योंकि, राज्यों द्वारा GST वसूली की दर बहुत अच्छी है. इसीलिए, GST के भुगतान का मुद्दा एक बार फिर केंद्र और राज्यों के बीच विवाद की जड़ बन सकता है.
इसके अलावा, विपक्ष के शासन वाले राज्यों को लगता है कि GST परिषद की फ़ैसले लेने की प्रक्रिया में केंद्र सरकार का दबदबा है. चूंकि इस परिषद के पास 33 में से वोटिंग के एक तिहाई अधिकार हैं. जबकि बाक़ी के 22 वोट 31 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के बीच बंटे हुए हैं और हर राज्य या संघ शासित प्रदेश के पास महज़ 0.709 वोट ही हैं. GST परिषद के किसी भी फ़ैसले पर मुहर के लिए तीन चौथाई बहुमत या कम से कम 25 वोट की दरकार होती है. इसके अलावा, चूंकि केंद्र के पास एक तिहाई वोट हैं, तो एक तरह से उसके पास वीटो का भी अधिकार है. इसके साथ साथ, चूंकि देश के ज़्यादातर राज्यों में बीजेपी या उसकी अगुवाई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) की सरकारें हैं, तो विपक्ष के शासन वाले राज्यों को इस बात का भय है कि GST परिषद की फ़ैसले लेने की प्रक्रिया में केंद्र का दबदबा बना ही रहेगा. हाल ही में केंद्र सरकार बनाम मोहित मिनरल्स केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि GST परिषद के फ़ैसले मानने के लिए राज्यों की सरकारें बाध्य नहीं हैं और वो 101वें संविधान संशोधन की धारा 246A के तहत GST पर स्वतंत्र रूप से क़ानून बनाने का हक़ रखती हैं.
निष्कर्ष
संघवाद यानी केंद्र और राज्यों के बीच सहयोग का अस्तित्व और विकास, ख़ास तौर से भारत जैसे बेहद विविधता भरे देश में, इस बात पर टिका है कि दोनों के बीच वार्ता और वाद विवाद का एक स्वस्थ माहौल बना रहे. गहरे राजनीतिक विवादों की मौजूदगी और दलगत अविश्वास के बावजूद, इन मतभेदों को कम से कम करने के लिए ज़रूरी क़दम उठाए जाने चाहिए. प्रशासन के अहम मसलों पर मतभेदों को कम करने के लिए पुरज़ोर कोशिशें की जानी चाहिए. GST का सुधार इसीलिए मुमकिन हो सका था क्योंकि केंद्र और राज्यों की सरकारों ने अपनी अपनी तरफ़ से बहुत सी रियायतें दीं, अधिकार छोड़े. ऐसे में बातचीत का रास्ता एक ऐसा ज़रिया है, जिसमें और आपसी सलाह मशविरा करने और आम सहमति बनाने वाले ढांचे को मज़बूत बनाने की ज़रूरत है, ताकि वित्तीय संघवाद को और ताक़त दी जा सके. आज जब भारत, GST सुधारों के पांच वर्ष पूरे होने के अहम पड़ाव पर पहुंच चुका है तो केंद्र और राज्यों के बीच सलाह मशविरे के एक खुले और मज़बूत ढांचे को अपनाने की ज़रूरत है. ख़ास तौर से संसाधनों के वितरण और फ़ैसले लेने की प्रक्रिया में. इससे GST सुधार को आगे बढ़ाया जा सकता है. और आख़िर में, चूंकि केंद्र सरकार के पास वीटो का अधिकार है, तो केंद्र और राज्यों के बीच सहयोग की गति बनाए रखने की ज़िम्मेदारी भी उसी की ज़्यादा बनती है.
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