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Published on Feb 26, 2024 Updated 0 Hours ago

ये साल अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव का है. ऐसे में यूरोप के साथ अपने संबंधों पर विचार करने से पहले चीन इस बात का इंतज़ार करेगा कि अमेरिका में नई सरकार किसकी बनती है और यूरोप के साथ उसके कैसे समीकरण होंगे. 

चीनी ड्रैगन से कैसे निपटे यूरोप?

ये लेख रायसीना एडिट 2024 का हिस्सा है.


यूरोप इस वक्त एक ऐसे चौराहे पर खड़ा है, जहां उसे ये फैसला करना है कि अपनी सुरक्षा व्यवस्था को मजबूत करने, अपने नागरिकों को बेहतर जीवन देने और डिजिटलाइजेशन को बढ़ाने के लिए वो कौन सा रास्ता चुने. ये एक मुश्किल घड़ी है. यूरोप इस वक्त खुद को एक साथ कई संकटों (Polycrisis) में घिरा हुआ पा रहा है. उसे समझ नहीं आ रहा कि कई टुकड़ों में बंट चुकी इस दुनिया में नई विश्व व्यवस्था (वर्ल्ड ऑर्डर) कैसी होगी? यूरोप के पड़ोस में ही एक युद्ध (रूस-यूक्रेन) भी हो रहा है. दूसरे विश्व युद्ध के बाद जिन चीजों ने यूरोप को फायदा पहुंचाया, अब वो भी खत्म हो रही हैं.

 इस वक्त दुनिया में जो परिवर्तन हो रहे हैं, अगर चीन उनकी अगुवाई करने की कोशिश करेगा तो विश्व व्यवस्था के जो मौजूदा नियम, कानून और सिद्धांत हैं उनमें भी बदलाव होगा.

पिछले कुछ दशकों में जिस तरह चीन की राजनीतिक और आर्थिक ताकत बढ़ी है उसने पुरानी व्यवस्था को बदल दिया है. दुनिया में नए समीकरण बन रहे हैं. चीन चाहता है कि अब दुनिया में जो भी बदलाव हों, उसके केंद्र में चीन हो. मार्च 2023 में जब शी जिनपिंग और व्लादिमीर पुतिन की क्रेमलिन में मुलाकात हुई थी तब उन्होंने कहा था कि दुनिया में इस वक्त कई बड़े बदलाव हो रहे हैं, ऐसा पिछले 100 साल में नहीं हुआ और हम ही इस बदलाव की अगुवाई करेंगे. ज़ाहिर है कि इस वक्त दुनिया में जो परिवर्तन हो रहे हैं, अगर चीन उनकी अगुवाई करने की कोशिश करेगा तो विश्व व्यवस्था के जो मौजूदा नियम, कानून और सिद्धांत हैं उनमें भी बदलाव होगा.

 

चीन के साथ यूरोप कैसा बर्ताव करता है, इसी पर उसका भविष्य टिका है. चीन के साथ निपटने की यूरोप की क्षमता ही ये तय करेगी कि नई विश्व व्यवस्था में उसकी क्या भूमिका होगी. क्या वैश्विक मामलों में वो पहले की तरह अहम खिलाड़ी बना रहेगा. यूरोप ये महसूस तो कर रहा है कि चीन की चुनौती से निपटने के लिए उसे जल्दी ही कुछ करना होगा क्योंकि ऐसा करना ना सिर्फ यूरोप की सुरक्षा और समृद्धि के लिए जरूरी है बल्कि दुनिया में यूरोप की अहमियत भी उसी से तय होगी.

 

चीन से रिश्तों को लेकर यूरोप की सधी हुई ज़ोखिम रहित पहल

 

चीन के साथ अपने रिश्तों को लेकर कई दौर से गुजरने के बाद आखिरकार यूरोप को ये समझ आ गया है कि चीन से संबंध रखने के लिए बहुत जटिल और बारीक प्रक्रिया से गुजरना होगा. 2016 में जब यूरोप ने चीन को 2001 के विश्व व्यापार संगठन (WTO) के प्रोटोकॉल के तहत कारोबार करने की मंजूरी दी तो उन्हीं दिनों चीन ने यूरोप की कई ऐसी कंपनियों को छल-कपट से अपने नियंत्रण (Hostile takeovers) में ले लिया, जो सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण मानी जाती हैं. इसी के बाद से यूरोप में इस बात पर चर्चा शुरू हुई कि चीन को अपने यहां व्यापार के मंजूरी देने के साथ-साथ अपने राष्ट्रीय हितों की सुरक्षा कैसे की जाए. चीन और अमेरिका के बीच जिस तरह व्यापार युद्ध हुआ, उसने इन चर्चाओं को और बल दिया. अपने हितों की रक्षा के लिए यूरोपीय कमीशन ने मार्च 2019 में अपने सदस्य देशों के लिए एक रणनीति बनाई. ये प्रस्ताव ही बाद में यूरोप और चीन के रिश्तों के लिए टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ. पहली बार यूरोप ने ये स्वीकार किया कि चीन से सौहार्दपूर्ण रिश्ते बनाए रखना एक जटिल काम है. ये फैसला किया गया कि यूरोप को अगर अपनी मौजूदा विशेषताओं को बरकरार रखते हुए चीन से रिश्ते रखने हैं तो चीन के साथ एक सहयोगी, प्रतियोगी और कूटनीतिक प्रतिद्वंदी के तौर पर पेश आना होगा. इस रणनीति में ये भी स्वीकार किया गया कि चीन की चुनौतियों और चीन के विशाल बाज़ार से मिलने वाले अवसरों के बीच संतुलन बनाने की यूरोप की क्षमता अब कमजोर हो गई है. इसलिए अब ये जरूरी है कि चीन जिस तरह बराबरी का मुकाबला करने का मौका नहीं दे रहा है उससे निपटने की रणनीति जल्द बनानी जाए.

 फैसला किया गया कि यूरोप को अगर अपनी मौजूदा विशेषताओं को बरकरार रखते हुए चीन से रिश्ते रखने हैं तो चीन के साथ एक सहयोगी, प्रतियोगी और कूटनीतिक प्रतिद्वंदी के तौर पर पेश आना होगा. 

रूस-यूक्रेन युद्ध को लेकर चीन का जो रुख है और रूस के साथ चीन की साझेदारी जिस तरह से मजबूत होती जा रही है उसने भी यूरोपीय देशों का सच से सामना करवाया. इस युद्ध ने यूरोप के इस भ्रम को भी खत्म कर दिया कि चीन अपनी तरफ से यूरोप को कुछ पेशकश करेगा. इतना ही नहीं इस युद्ध को लेकर चीन ने जिस तरह रूस का समर्थन किया है, उसने भी यूरोप के देशों में ये भावना पैदा की है कि उन्हें अपनी सप्लाई चेन की सुरक्षा को मजबूत करना होगा. दूसरे देशों पर निर्भरता कम करनी होगी जिससे कोई देश उनकी कमजोरियों का फायदा ना उठा सके.

 

रूस-यूक्रेन युद्ध और इसे लेकर चीन के रूख ने यूरोपीय देशों के इस विचार को और मजबूत किया कि चीन के साथ रिश्तों को लेकर बहुत संभलकर चलने की जरूरत है. चीन से बातचीत तो हो लेकिन उसे लेकर आशंकित रहना भी जरूरी है. चीन के साथ जिन मुद्दों पर यूरोप कमजोर स्थिति में है, उन्हें मजबूत किया जाए

 

चीन से निपटने की यूरोप की रणनीति

 

चीन के साथ रिश्तों को लेकर यूरोप अब बहुत संतुलन बनाकर चल रहा है. यूरोप और चीन के बीच रोज़ाना 2.3 अरब डॉलर का व्यापार होता है. इसलिए चीन से संबंध तोड़ना विकल्प नहीं है. यही वजह है कि मुश्किलों हालातों के बावजूद यूरोपीय कंपनियां चीन में बनी हुई हैं. चीन के विशाल बाज़ार से मिलने वाले व्यापारिक अवसरों को ये कंपनियां गंवाना नहीं चाहती. इसके अलावा चीन को साथ लिए बगैर जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करना और ऋण से राहत पाना संभव नहीं है. इसका मतलब ये हुआ कि यूरोप को चीन के साथ रिश्ते हर हाल में बनाए रखने होंगे. फिर भले ही दोनों के बीच कई अहम मुद्दों पर गंभीर मतभेद और असहमतियां ही क्यों ना हों या फिर व्यापार घाटा भी बढ़ रहा हो.

 

चीन के साथ निपटना मुश्किल काम है. इसके बावजूद आम सहमति वाले कई ऐसे मुद्दे हैं जिन पर अलग-अलग तरह से बात हो सकती है. हालांकि पिछले कुछ वक्त से यूरोप के सख्त रुख की वजह से दोनों पक्षों के बीच रिश्तों में कड़वाहट आई है. लिथुआनिया की अर्थव्यवस्था को लेकर चीन ने जिस तरह दादागिरी की, व्यापारिक अवरोधों को लेकर चीन ने जिस तरह का रवैया अपनाया, कोरोना महामारी के दौरान जिस तरह चीन को बंद किया गया. उसने चीन और यूरोप के रिश्तों में तनाव पैदा किया. इसके अलावा ताइवान का मुद्दा तो है ही. चीन ने हर मुद्दे पर दादागिरी की. रही-सही कसर यूक्रेन युद्ध को लेकर रूस का समर्थन करके पूरी कर दी. वैसे चीन भी हमेशा यूरोप को लेकर सशंकित रहता है क्योंकि यूरोप को लेकर चीन अपना रुख इस आधार पर तय करता है कि यूरोप के रिश्ते अमेरिका के साथ कैसे हैं. चीन ने अभी तक यूरोप को कोई ऐसा ऑफर नहीं दिया है जो यूरोपीय देशों के लिए फायदेमंद हो. इसकी वजह से भविष्य में चीन को नुकसान हो सकता है क्योंकि चीन के साथ यूरोप ऐसे संबंध चाहता है, जिससे दोनों पक्षों को फायदा हो. यूरोपीय देश जब चीन आए थे तो उनका मकसद संपर्क बढ़ाना, जलवायु परिवर्तन की समस्या का समाधान करना और व्यापारिक रिश्ते सुधारना था लेकिन चीन ने अभी तक ऐसा कुछ नहीं किया है जिससे यूरोप की ये इच्छाएं पूरी हों. इसके बावजूद चीन और यूरोप के बीच अभी बातचीत के रास्ते खुले हैं. इसकी तारीफ करना इसलिए भी जरूर है कि पिछले कुछ सालों में यूरोप और चीन के बीच कई मुद्दों पर गंभीर विवाद खड़े हो चुके हैं.

 लिथुआनिया की अर्थव्यवस्था को लेकर चीन ने जिस तरह दादागिरी की, व्यापारिक अवरोधों को लेकर चीन ने जिस तरह का रवैया अपनाया, कोरोना महामारी के दौरान जिस तरह चीन को बंद किया गया. 

चीन के साथ रिश्तों को लेकर यूरोपियन कमीशन की अध्यक्ष उर्सुला वॉन डेर लेयेन ने संबंधों को पूरी तरह तोड़ने की बजाए जोखिम कम करने (Derisking) का जो फार्मूला दिया था, उसे अब अमेरिका समेत यूरोप के कई साझेदार देश इस्तेमाल करने लगे हैं. डिरिस्किंग को अगर यूरोप के संदर्भ में समझे तो तो इसका मतलब ये हुआ कि चीन के साथ अपने रिश्तों को लेकर यूरोप बहुत सावधानी बरतेगा, खासकर कारोबार और व्यापार के क्षेत्र में. यूरोप अब चीन पर अपनी निर्भरता कम करेगा. लेकिन यहां इस बात को समझना भी जरूरी है कि अपने भविष्य को सुरक्षित और समृद्ध बनाने के लिए यूरोप जो सावधानियां बरत रहा है वो संरक्षणवाद से अलग है. यूरोप ऐसा इसलिए कर रहा है क्योंकि अगर चीन अपनी हर नीति में राष्ट्रीय सुरक्षा को सबसे ज्यादा अहमियत देता है तो फिर यूरोप को भी ऐसा करने का अधिकार है. चीन जिस तरह व्यापार का इस्तेमाल हथियार के रूप में करता है और यूरोप ने जिस तरह चीन पर निर्भरता से पैदा होने वाले खतरे महसूस किए हैं, उसके बाद यूरोप के लिए इस नीति को अपनाना जरूरी हो गया था. हालांकि इस सबके बावजूद यूरोप का मुक्त व्यापार और विश्व व्यापार संगठन पर भरोसा बरकरार है. चीन के साथ जोखिम रहित व्यापार की नीति उसने मौजूदा विश्व व्यवस्था को बनाए रखने के लिए अपनाई है.

 

जहां तक जोखिम रहित व्यापार (Derisking) का सवाल है, ये कई रूपों में हो सकता है. इसमें जागरूकता फैलाने से लेकर खतरे की पहचान करने के बाद उससे सुरक्षा करने के उपाय खोजने जैसे कदम शामिल हैं. यूरोप अब कोशिश कर रहा है कि वो अपनी सप्लाई चेन में विविधता लाए. अब उसके सामने ये चुनौती है कि वो किस तरह व्यापार के जोखिम में कमी लाए और आर्थिक सुरक्षा भी बनाए रखे. अपने सभी हिस्सेदार देशों के साथ मिलकर यूरोपीय कमीशन इसे लेकर रणनीति बना रहा है. यूरोप के सामने इस वक्त सबसे बड़ी चुनौती ये है कि वो एकजुट रहे. अपनी आर्थिक सुरक्षा बनाए रखे और जो भी जोखिम हैं, उनका बंटवारा किसी एक यूरोपीय देश पर होने की बजाए कई देशों के बीच किया जाए.

यूरोप-चीन रिश्तों का भविष्य

 

चीन से निपटने को लेकर यूरोप ने जो व्यवहारिक और सधी हुई नीतियां अपनाई हैं, वो अब तक सफल रही हैं. कुछ मापदंड ऐसे हैं, जिनसे हम यूरोप और चीन के रिश्तों के भविष्य का अंदाज़ लगा सकते हैं. जल्दी ही यूरोपियन कमीशन के लिए चुनाव होने वाला है. हालांकि चीन को लेकर यूरोप के रुख में एक निरंतरता देखी गई है, फिर भी ये कहा जा सकता है कि चुनाव से इस बात के संकेत मिलते हैं कि पुराने संगठन से जुड़े लोगों ने जो फैसले लिए, उसे कितना समर्थन मिला. रिश्तों को मापने का दूसरा पैमाना खुद चीन है. चीन इस वक्त घरेलू अनिश्चितताओं और आर्थिक परेशानियों से जूझ रहा है. इसलिए चीन की प्राथमिकता फिलहाल अपना घर दुरुस्त करने पर है. इसका मतलब ये हुआ कि यूरोप के साथ अपने रिश्तों पर विचार करने के लिए चीन के पास सीमित समय है. वैसे भी ये साल अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव का है. ऐसे में यूरोप के साथ अपने संबंधों पर विचार करने से पहले चीन इस बात का इंतज़ार करेगा कि अमेरिका में नई सरकार किसकी बनती है और यूरोप के साथ उसके कैसे समीकरण होंगे. ऐसे में कहा जा सकता है कि यूरोप के लिए ये बिल्कुल सही वक्त है जब वो चीन के साथ सामान्य रिश्ते रखते हुए अपने व्यापार का जोखिम कम करे और खुद को सुरक्षित बनाने के एजेंडे को पूरा करें.

 

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