प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यूरोप के तीन देशों का दौरा करके वापस आ चुके हैं, लेकिन भारत की अधिकतर पश्चिमी देशों के साथ कूटनीतिक वार्ता पहले ही शुरू हो गई थी. पिछले महीने अमेरिका के साथ 2 प्लस 2 डायलॉग हुआ. फिर ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन भारत आए. ये अप्रत्याशित कूटनीतिक गतिविधियां बड़ी दिलचस्प हैं क्योंकि यूक्रेन क्राइसिस पर भारत और पश्चिमी देश अलग-अलग दिशाओं में चल रहे हैं. यूक्रेन क्राइसिस पर भारत अपनी बात से पीछे नहीं हटा है, बल्कि वह लगातार इस पर जोर दे रहा है. रायसीना डायलॉग में भी इसे रेखांकित किया गया. पिछले कुछ समय में विदेश मंत्री डॉ. एस जयशंकर ने जो बयान दिए हैं, उनमें भी यही बात दिखी. ख़ुद प्रधानमंत्री जहां भी जा रहे हैं, यही बात कह रहे हैं.
ये अप्रत्याशित कूटनीतिक गतिविधियां बड़ी दिलचस्प हैं क्योंकि यूक्रेन क्राइसिस पर भारत और पश्चिमी देश अलग-अलग दिशाओं में चल रहे हैं. यूक्रेन क्राइसिस पर भारत अपनी बात से पीछे नहीं हटा है, बल्कि वह लगातार इस पर जोर दे रहा है.
चरित्र और चिंतन
जो डिप्लोमैसी चल रही है, इसके मूल सिद्धांतों या ज़रुरी वजहों को समझने की ज़रुरत है. आज दुनिया में भारत एक तरह से अंतरराष्ट्रीय राजनीति के सेंट्रल प्लेयर के रूप में उभर रहा है. अगर आप दुनिया में हो रहे ध्रुवीकरण को देखें तो भारत ही एक ऐसा देश है, जो ध्रुवीकरण को थोड़ा सा मॉडरेट करने का काम कर सकता है. भारत ही ऐसा देश है, जहां आज भी पश्चिमी देश और रूस दोनों के ही प्रतिनिधि एक साथ हो सकते हैं. कुछ हफ्ते पहले रूसी विदेश मंत्री भारत में थे और उसी दिन अमेरिकन डेप्युटी नेशनल सिक्योरिटी एडवाइजर भी यहीं थे.
ये यूरोपीय देश भारत को लोकतंत्र होने के बावजूद अनदेखा करते थे. यह बदल रहा है क्योंकि यूरोपीय देश अब भारत को एक ज़रुरी और लाइक माइंडेड कंट्री के तौर पर देख रहे हैं.
यूक्रेन क्राइसिस के बाद या उसके कुछ पहले की कूटनीति देखें तो भारत ने इसे चैलेज़ की बजाय मौके के तौर पर ही इस्तेमाल किया है. मुझे लगता है कि इसकी तीन वजहें हैं. एक वैश्विक पटल पर आने वाला बदलाव. पश्चिमी देशों ने काफी समय तक चीन को बढ़ावा दिया. फिर चीन के प्रति उनका रुख बदला और अब वह नाराज़गी में बदल गया है. यह नाराजगी कोविड के टाइम में मजबूत हुई. अभी यह चरम सीमा पर है. इसी तरह से यूरोपीय देश भारत को लोकतंत्र होने के बावजूद अनदेखा करते थे. यह बदल रहा है क्योंकि यूरोपीय देश अब भारत को एक ज़रुरी और लाइक माइंडेड कंट्री के तौर पर देख रहे हैं. वे देख रहे हैं कि दुनिया में रूस को लेकर जो परेशानी और तनातनी है और उसमें भारत की क्या भूमिका हो सकती है. चाहे वह एक जिम्मेदार स्टेक होल्डर के रूप में हो, कोविड के दौरान हो, या सप्लाई चेन रीस्ट्रक्चरिंग में हो.
दुनिया का केंद्र बनता हिंद-प्रशांत
दूसरी वजह यह है कि हिंद-प्रशांत दुनिया का केंद्र बनता जा रहा है. चाहे आर्थिक हो, राजनीतिक हो या रणनीतिक, यूरोपीय देश अब धीरे-धीरे हिंद-प्रशांत की ओर बढ़ रहे हैं. इसकी अहमियत समझ रहे हैं. कई देशों ने तो अपनी हिंद-प्रशांत पॉलिसी भी बना ली है. यूरोपियन यूनियन ने भी अपनी हिंद-प्रशांत पॉलिसी जारी की है. यूरोपीय संघ एक समय कहता था कि हम जियो-पॉलिटिक्स नहीं करते. बैलेंस ऑफ पावर में विश्वास नहीं करते. आज उसे हिंद-प्रशांत के लिए रणनीति बनानी पड़ रही है. इसमें भारत का जो रोल है, वह बहुत महत्वपूर्ण है. हिंद-प्रशांत में रणनीतिक रूप से कुछ नहीं हो सकता, अगर भारत को लेकर आप आगे नहीं बढ़ेंगे.
यूरोपियन यूनियन ने भी अपनी हिंद-प्रशांत पॉलिसी जारी की है. यूरोपीय संघ एक समय कहता था कि हम जियो-पॉलिटिक्स नहीं करते. बैलेंस ऑफ पावर में विश्वास नहीं करते. आज उसे हिंद-प्रशांत के लिए रणनीति बनानी पड़ रही है. इसमें भारत का जो रोल है, वह बहुत महत्वपूर्ण है. हिंद-प्रशांत में रणनीतिक रूप से कुछ नहीं हो सकता, अगर भारत को लेकर आप आगे नहीं बढ़ेंगे.
तीसरी वजह यह है कि भारत ने विदेश नीति को लेकर अपना जो चरित्र और चिंतन है, वह बदला है. यूक्रेन क्राइसिस में भारत किसी बात को लेकर डिफेंसिव नहीं है. भारत की नीतिगत प्रतिक्रिया देखें तो वह कुछ आधारभूत सिद्धांतों के इर्द-गिर्द घूम रही है. उसमें यूएन चार्टर, इंटरनेशनल लॉ, क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता का सम्मान है. इसको लेकर भारत ने हमेशा से अपना मत सामने रखा और यह भी कहा कि कूटनीतिक बातचीत के अलावा इस समस्या के समाधान का कोई और दूसरा रास्ता नहीं है. भारत ने यह बात भी साफ कर दी है कि रूस के साथ उसका जो रिश्ता है, उसमें वह कमी नहीं ला सकता. रूस से भारत के सामरिक हित जुड़े हुए हैं- चाहे रक्षा नीति हो या एनर्जी सिक्योरिटी. जिस प्रकार यूरोपीय देश आज भी रूस से ऑयल और गैस खरीद रहे हैं, उसी तरह भारत भी अपने हितों की रक्षा के लिए सारे कदम उठा रहा है, उठाता रहेगा.
भारत ने यह बात भी साफ कर दी है कि रूस के साथ उसका जो रिश्ता है, उसमें वह कमी नहीं ला सकता. रूस से भारत के सामरिक हित जुड़े हुए हैं- चाहे रक्षा नीति हो या एनर्जी सिक्योरिटी. जिस प्रकार यूरोपीय देश आज भी रूस से ऑयल और गैस खरीद रहे हैं, उसी तरह भारत भी अपने हितों की रक्षा के लिए सारे कदम उठा रहा है, उठाता रहेगा.
आज अगर आप देखें, चाहे ब्रिटेन हो, अमेरिका या यूरोपियन यूनियन, यह जानते हुए कि यूक्रेन को लेकर भारत के विचार अलग हैं, सभी भारत के साथ संबंध मजबूत करना चाहते हैं. दूसरे देशों को लग रहा है कि भारत एक क्रेडिबल इंटरनेशनल प्लेयर के रूप में उभर रहा है. इसमें भारत को जो इज्जत मिल रही है, उसका कारण भारत की अपनी रणनीति भी है. पहले भारत हाशिए पर होता था. वह किसी अंतरराष्ट्रीय संकट के केंद्र में नहीं होता था. आज यूक्रेन क्राइसिस में भारत स्पष्ट कर रहा है कि उसे अपने हितों की रक्षा के लिए किसी के साथ भी बात करनी होगी, संबंध बनाने होंगे तो वह बनाएगा. सिद्धांत अपनी जगह रहेंगे, लेकिन उन्हें बनाए रखने के लिए भारत इंगेजमेंट नहीं छोड़ेगा.
बदलता नज़रिया
भारत की विदेश नीति इस अप्रोच को सार्थक बना रही है. दूसरे देशों का भारत को देखने का नज़रिया बदलता नजर आ रहा है. इसलिए मतभेदों के बावजूद दुनिया के देश भारत के साथ संबंधों को स्वीकार कर रहे हैं. यह भारत की विदेश नीति के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण तत्व है, एक बहुत महत्वपूर्ण पहलू बनता नज़र आ रहा है. ऐसे समय में जबकि यूक्रेन को लेकर मतभेद बने हुए हैं, प्रधानमंत्री का यूरोप दौरा अपने आप में संकेत है कि भारत अपनी यूक्रेन की नीति को लेकर पूरी तरह से सशक्त है, कहीं पर डिफेंसिव नहीं है और वैश्विक मंच पर अपनी बात स्पष्टता के साथ रखने में सक्षम है.
यह लेख मूल रूप से हिंदुस्तान में प्रकाशित हो चुका है.
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