Author : Swati Prabhu

Expert Speak Raisina Debates
Published on Sep 10, 2024 Updated 0 Hours ago

वस्तुओं और सेवाओं के व्यापार के मामले में साफ तौर पर निर्भरता के साथ EU, भारत और चीन एक-दूसरे पर निर्भर हैं, भले ही EU चीन के साथ अपने रिश्तों को नया रूप देने की कोशिश कर रहा है.  

EU-चीन-भारत: तीनों का साथ होना ज़रूरी?

बाधित वैश्विक संदर्भ

विश्व के स्तर पर व्यापार अवरोधों, रोक और प्रतिबंधों के रूप में बढ़ता आर्थिक बंटवारा न केवल सतत विकास के लिए वित्त की कमी को बढ़ाता है बल्कि विकासशील देशों को अधिक नाज़ुक, असुरक्षित और बार-बार अलग-थलग भी बनाता है. मौजूदा अलग-अलग तरह के संकटों का नतीजा व्यापार संरक्षणवाद में बढ़ोतरी के रूप में निकला है. विभिन्न देशों की तरफ से अधिक सहयोग और मज़बूत साझेदारी तैयार करने की ज़रूरत पर बार-बार ज़ोर दिए जाने के बावजूद आर्थिक विभाजन बढ़ रहा है. अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) के अनुसार नई व्यापार बाधाएं, जिन्हें सालाना आधार पर लागू किया गया, 2019 से लगभग तीन गुना बढ़कर 2023 में करीब 3,000 हो गई हैं.  

रेखाचित्र 1: दुनिया भर में लागू सालाना व्यापार प्रतिबंधों की संख्या 

स्रोत: ग्लोबल ट्रेड अलर्ट और IMF 

इसके साथ-साथ एक-दूसरे से दूर होने की बातें, बाधित पूंजी प्रवाह, डिजिटल क्षेत्र के सामने बढ़ता ख़तरा और आय का असमान वितरण वैश्विक आर्थिक एकीकरण की बढ़ती चुनौती में और वृद्धि कर रहा है. जैसे-जैसे हमारा समाज डिजिटल रूप से अधिक सक्षम और तकनीक से प्रेरित बनता जा रहा है, वैसे-वैसे साइबर सुरक्षा, व्यापार युद्ध, निगरानी और बुनियादी ढांचे की क्षमता की तोड़-फोड़ को लेकर चिंताएं भी बढ़ती जा रही हैं. आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI), महत्वपूर्ण कच्चे खनिजों की ख़रीद, ऊर्जा स्रोतों को सुरक्षित करने, दक्षिण चीन सागर में समुद्री मौजूदगी में मज़बूती बढ़ाने और इसके बाद विश्व में वर्चस्व हासिल करने के लक्ष्य को लेकर चीन के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए चिंता में और बढ़ोतरी होती है. इसके अलावा दुनिया भर में शुरू हुए संघर्षों, चाहे वो यूक्रेन में हो या गज़ा पट्टी में, का नतीजा रूस के साथ-साथ चीन पर भी अमेरिका और यूरोपियन यूनियन (EU) समेत कई शक्तियों के द्वारा सख्त आर्थिक पाबंदियों के रूप में निकला है. 

आधिकारिक विकास सहायता (ODA) समान रूप से कई कम आमदनी वाले और दूसरी विकासशील अर्थव्यवस्थाओं की विकास यात्रा का समर्थन करने में एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. फिर भी विकास सहयोग का वास्तविक ज़मीनी परिणाम अभी भी स्पष्ट नहीं है.

इसके अलावा, आधिकारिक विकास सहायता (ODA) समान रूप से कई कम आमदनी वाले और दूसरी विकासशील अर्थव्यवस्थाओं की विकास यात्रा का समर्थन करने में एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. फिर भी विकास सहयोग का वास्तविक ज़मीनी परिणाम अभी भी स्पष्ट नहीं है. इस पृष्ठभूमि में चीन-अमेरिका के बीच तेज़ होती प्रतिस्पर्धा जैसी भू-राजनीतिक होड़ अब अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में चरम ध्रुवीकरण के कगार पर पहुंच रही है. स्वाभाविक रूप से EU घबराया हुआ है और ख़ुद को एक मुश्किल हालात में पा रहा है. दुनिया में विकास के मामले में सबसे ज़्यादा योगदान देने वाला EU अपने सर्वोच्च मानकों, अच्छे रेगुलेटरी तौर-तरीकों और प्रशासनिक पद्धतियों के लिए जाना जाता है. लेकिन भारत के साथ अपनी रणनीतिक साझेदारी का समझौता करने के दो दशकों के बावजूद इस साझेदारी की वास्तविक संभावना का इस्तेमाल नहीं किया गया है. दूसरी तरफ चीन के साथ EU के संबंधों के दौरान कई चरण आए हैं. इनमें ‘प्रतिस्पर्धी’ और ‘प्रणालीगत विरोधी’ होने से लेकर ‘अलग होने’ और अंत में ‘ख़तरा ख़त्म करने’ तक है. ये अस्पष्ट तो प्रतीत होता ही है लेकिन इसके साथ-साथ इसमें अलग-अलग क्षेत्रों में चीन की बढ़ती ताकत से निपटने की व्यापक और दीर्घकालिक रणनीति की कमी है. 

भारत और चीन: विकास की दो अलग-अलग कहानियां 

चूंकि अंतर्राष्ट्रीय विकास संरचना एक प्रकार की तरक्की का गवाह बन रही है, ऐसे में भारत और चीन जैसे विकासशील देशों का उदय उचित है. अपने विकास का नैरेटिव बनाने का उनका तरीका है सहकारी रूप-रेखा स्थापित करने की दिशा में तकनीकी और मानवीय समर्थन प्रदान करने की ज़िम्मेदारी को कुशलतापूर्वक उठाने की कोशिश करना. हालांकि विकासशील देशों के बीच सहयोग को बढ़ाने में भारत और चीन को समान विचार वाले देशों के रूप में एक साथ रखना शायद सही नहीं होगा. अलग-अलग सोच और व्यवहारों के साथ चीन के विकास सहयोग का मॉडल बाज़ार की साम्राज्यवादी रणनीति पर आधारित है जिसका लक्ष्य अपनी भौगोलिक पहुंच का विस्तार करना और कर्ज़ एवं निर्भरता पैदा करके अपना आर्थिक संबंध स्थापित करना है. वैसे तो कोविड-19 महामारी के बाद चीन मानवीय विकास सहयोग, सतत विकास, जलवायु परिवर्तन, ग़रीबी में कमी और मज़बूत फूड सप्लाई चेन तैयार करने जैसे सॉफ्ट सेक्टर में कदम रखकर दुनिया में अपनी छवि को चमकाने की कोशिश कर रहा है. लेकिन उसके बुनियादी विकास का तौर-तरीका पहले की तरह बना हुआ है. इस अर्थ में दिसंबर 2023 में ख़त्म 24वां EU-चीन शिखर सम्मेलन एक बार फिर से दोनों के बीच किसी प्रकार का रचनात्मक परिणाम देने में नाकाम साबित हुआ. 

दूसरी तरफ विकासशील देशों की चिंताओं और मुद्दों को सामने रखने के भारत के रवैये को EU समेत विकसित अर्थव्यवस्थाओं के द्वारा एक स्वागत योग्य कदम के रूप में स्वीकार किया गया है. खाद्य, ईंधन और उर्वरक जैसे मुद्दों को उठाकर भारत ने न केवल अपनी बल्कि विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के विभिन्न समूहों की बात भी दुनिया के सामने रखी है. इन विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को अपनी बात रखने के लिए मंच या जगह नहीं मिलती है. साथ ही, पिछले दिनों संपन्न विकासशील देशों के तीसरे शिखर सम्मेलन (थर्ड वॉयस ऑफ द ग्लोबल साउथ समिट) के दौरान भारत की तरफ से सतत विकास लक्ष्य (SDG) को हासिल करने के लिए चार गुना ‘वैश्विक विकास समझौता’ स्थापित करने का साझा किया गया दृष्टिकोण एक महत्वपूर्ण कदम है.  

विकासशील देशों की चिंताओं और मुद्दों को सामने रखने के भारत के रवैये को EU समेत विकसित अर्थव्यवस्थाओं के द्वारा एक स्वागत योग्य कदम के रूप में स्वीकार किया गया है.

इसके अलावा, हाल के वर्षों में भारत की विकास साझेदारी उसकी विकास कूटनीति का एक महत्वपूर्ण  हिस्सा बन गई है. विकास के अलग-अलग स्रोतों, रास्तों और वैकल्पिक मॉडल के लिए स्पष्ट मान्यता के साथ भारत स्थिरता से जुड़े नैरेटिव को आगे बढ़ाने की दिशा में पूरी कोशिश कर रहा है. लेकिन पिछले कुछ वर्षों के दौरान भारत और चीन के बीच संबंध अस्थिर और उतार-चढ़ाव से भरे बने हुए हैं. इसके अलावा, चीन और EU- दोनों पर भारत की व्यापार निर्भरता में महत्वपूर्ण बढ़ोतरी हुई है. अंकटाड के अनुसार, 2023 में चीन और EU पर भारत की व्यापार निर्भरता में 1.2 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई और 2024 की पहली तिमाही में ये बढ़कर 2 प्रतिशत होने की संभावना है. 

हैरान EU 

सामानों और सेवाओं के मामले में इस तरह की स्पष्ट निर्भरता के साथ EU, भारत और चीन साफ तौर पर एक-दूसरे पर बहुत ज़्यादा निर्भर हैं. हालांकि EU के लिए इनमें से किसी एक को भी नज़रअंदाज़ करना मुश्किल है और इसकी सिफारिश नहीं की जा सकती है. विकासशील अर्थव्यवस्था के दो प्रमुख इंजन का प्रतिनिधित्व करने वाले और उच्च स्तर की जनसांख्यिकी (डेमोग्राफी) का लाभ उठाने वाले भारत और चीन वास्तव में विकास के पहिए में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं. अगर वर्तमान भू-सामरिक और भू-अर्थशास्त्र की दुनिया में EU को अपनी मौजूदगी और महत्व बनाए रखना है तो वो निश्चित रूप से न तो भारत, न ही चीन को नज़रअंदाज़ करने का ख़तरा उठा सकता है. लेकिन इसके साथ-साथ उसे अपना साझेदार सोच-समझकर चुनने की ज़रूरत है. भारत के “वसुधैव कुटुम्बकम” या एक धरती, एक परिवार, एक भविष्य के दर्शन और विकासशील देशों की विकास यात्रा को आगे बढ़ाने के लिए एक साझा दृष्टिकोण बनाने के उसके प्रयासों को देखते हुए EU को इस तरह के सकारात्मक जुड़ाव को लेकर दिलचस्पी रखनी चाहिए. इसके साथ ही EU को चीन के बारे में अपनी स्थिति का फिर से आकलन और उसमें सुधार लाने की सख्त ज़रूरत है. ऐसा करने से EU की सुरक्षा महत्वाकांक्षाओं और उसकी आर्थिक आकांक्षाओं के बीच संतुलन स्थापित हो सकता है. मौजूदा समय में छोटी सी बात पर तनाव की स्थिति बनने को देखते हुए एक मज़बूत, व्यापक, स्पष्ट और दीर्घकालीन चीन से जुड़ी रणनीति तैयार करना EU के संभावित एजेंडे में सबसे ऊपर होना चाहिए. हालांकि इसका ये मतलब नहीं है कि एक रणनीति EU को भविष्य में किसी भी अविश्वास या दुश्मनी से हमेशा सुरक्षित रखेगी लेकिन ये निश्चित रूप से उसके वैश्विक नेतृत्व को एक दिशा प्रदान करेगी. 


स्वाति प्रभु ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में एसोसिएट फेलो हैं. 

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