Author : Abhishek Mishra

Published on Jul 30, 2023 Updated 0 Hours ago

क्या हाल ही में हुए शिखर सम्मेलन से यूरोपीय संघ और अफ्रीकी संघ अपने रिश्तों में नई जान डाल पाएंगे?

यूरोपीय संघ-अफ्रीकी संघ शिखर सम्मेलन: महत्वाकांक्षाओं को हक़ीक़त से मिलाने की कोशिश
यूरोपीय संघ-अफ्रीकी संघ शिखर सम्मेलन: महत्वाकांक्षाओं को हक़ीक़त से मिलाने की कोशिश

यूरोपीय संघ और अफ्रीकी संघ के शिखर सम्मेलन का छठा महाधिवेशन 18 फ़रवरी को ब्रसेल्स में संपन्न हुआ. इस महाधिवेशन के अंत में यूरोप और अफ्रीका के ‘नए सिरे से’ परवान चढ़ती साझेदारी को और मज़बूत बनाने के लिए ‘2030 के लिए साझा नज़रिया’ जारी किया गया. इस शिखर सम्मेलन के ज़रिए दोनों महाद्वीपों को अपने रिश्तों में नई जान डालने और साझा विचारों वाले मुद्दों पर बातचीत का मौक़ा मिला, जिससे कि व्यापार और विकास को बढ़ावा देने के साथ साथ बराबरी की साझेदारी का निर्माण किया जा सके.

इस शिखर सम्मेलन के ज़रिए दोनों महाद्वीपों को अपने रिश्तों में नई जान डालने और साझा विचारों वाले मुद्दों पर बातचीत का मौक़ा मिला, जिससे कि व्यापार और विकास को बढ़ावा देने के साथ साथ बराबरी की साझेदारी का निर्माण किया जा सके.

कई दशकों तक यूरोप को अफ्रीका का सबसे अहम बाहरी साझीदार होने का दर्ज़ा हासिल रहा है. हालांकि, इन बरसों के दौरान दोनों महाद्वीपों की साझेदारी दो बराबरी वालों के बीच नहीं, बल्कि असंतुलित रही है. यूरोप और अफ्रीका के रिश्ते मोटे तौर पर यूरोपीय विकास फंड (EDF) और आर्थिक साझेदारी के एक के बाद एक हुए समझौतों (EPA) पर केंद्रित रही है. ये समझौते उपनिवेशवाद के बाद के माहौल में बनाए गए थे और ऐसा हमेशा नहीं हुआ कि इनका अर्थपूर्ण असर देखने को मिले. मिस्र की राजधानी काहिरा में पहले अफ्रीकी संघ- यूरोपीय संघ शिखर सम्मेलन के बाद 22 साल बीत चुके हैं. हालांकि, अब तक दोनों महाद्वीपों के संबंधों में कोई ख़ास सुधार देखने को नहीं मिला है. बहुत सी कार्यकारी योजनाओं और सामरिक एलानों के बावजूद अफ्रीका और यूरोपीय संघ के व्यापार में भारी असंतुलन बना हुआ है. यूरोप और अफ्रीका के रिश्तों में ताक़त के इस असंतुलन के चलते अफ्रीका को अक्सर ही इस साझेदारी का एजेंडा और संबंधों की शर्तें तय करने में नुक़सान उठाना पड़ा है.

यूरोप और अफ्रीकी संघ का ये शिखर सम्मेलन उस वक़्त हुआ है, जब अफ्रीकी देश, उनके नेता और भागीदार अंतरराष्ट्रीय साझीदारों के साथ अपनी मांगों और हितों को लेकर अधिक ज़ोर-शोर से आवाज़ उठाने लगे हैं. पिछले एक दशक के दौरान, पहले ही चीन ने कूटनीति और मूलभूत ढांचे के विकास में बड़े निवेश करके अफ्रीकी महाद्वीप में अपना प्रभाव काफ़ी बढ़ा लिया है. भारत, जापान, रूस, संयुक्त अरब अमीरात और तुर्की जैसे देश भी अफ्रीका के साथ अपनी नज़दीकी बढ़ाने में जुटे हुए हैं. इसके बाद ही यूरोपीय संघ ने दिसंबर 2021 में 300 अरब यूरोप वाली ग्लोबल गेटवे पहल का एलान किया था, जो चीन के बढ़ने प्रभाव का मुक़ाबला करने की एक कोशिश है. यूरोपीय संघ का ये क़दम, अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन की बिल्ड बैक बेटर वर्ल्ड पहल जैसा ही है. ग्लोबल गेटवे के तहत यूरोपीय आगो की अध्यक्ष एंगेला वॉन डेर लिएन ने अफ्रीका के लिए 150 अरब यूरो का फंड रखा है, जिसे मूलभूत ढांचे के विकास और निवेश में ख़र्च किया जाएगा. इस पहल का मक़सद अफ्रीकी महाद्वीप में लोकतंत्र, पारदर्शिता, अच्छा प्रशासन और हरित निवेश जैसे मूल्य और नियमों को बढ़ावा देना भी है.

विवाद के मुद्दे बने हुए हैं

वैसे तो ऐसी पहल का स्वागत किया जाता है. लेकिन, कोरोना वायरस से पैदा हुई महामारी के दौरान, यूरोप और अफ्रीका के रिश्तों में काफ़ी कड़वाहट भी देखने को मिली है. यूरोपीय संघ के देशों द्वारा टीकों की जमाख़ोरी, दक्षिणी अफ्रीकी देशों से भेदभाव करने वाली उड़ानों पर पाबंदी, कोविड-19 से मुक़ाबले के संसाधनों के निर्यात पर प्रतिबंध और कोविड-19 के टीकों के बौद्धिक संपदा के अधिकारों को अस्थायी रूप से निलंबित करने के प्रस्ताव का यूरोपीय संघ द्वारा विरोध करने के चलते दोनों पक्षों के बीच अविश्वास का भाव पैदा हुआ है. इसके अलावा 2021 में हुए संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में 100 अरब अमेरिकी डॉलर की सालाना वित्तीय मदद के वादे को पूरा न करने का मुद्दा भी कड़वाहट का विषय बना. इसके साथ साथ, यूरोपीय नेताओं को अब ये एहसास हो रहा है कि जलवायु परिवर्तन और तकनीक के मोर्चे पर उनके महत्वाकांक्षी लक्ष्य हासिल करने के लिए अफ्रीकी भागीदारों के सहयोग की ज़रूरत पड़ेगी.

यूरोपीय नेताओं को अब ये एहसास हो रहा है कि जलवायु परिवर्तन और तकनीक के मोर्चे पर उनके महत्वाकांक्षी लक्ष्य हासिल करने के लिए अफ्रीकी भागीदारों के सहयोग की ज़रूरत पड़ेगी.

विवाद के अन्य मुद्दे जैसे कि अफ्रीका के साहेल क्षेत्र में अस्थिरता का भयंकर दुष्चक्र, अफ्रीका को मदद और क़र्ज़ में राहत देने के मामले में यूरोप की निराशाजनक प्रतिक्रिया और बड़े पैमाने पर अनियमित अप्रवास के डर ने अफ्रीका और यूरोप के रिश्तों के विकास को अटकाकर रखा है. पिछले कुछ वर्षों के दौरान अफ्रीका के बर्किना फ़ासो, माली, चाड और गिनी जैसे देशों में तख़्तापलट के अभियान कामयाब रहे हैं. इसमें सरकारी संस्थानों की नाकामी, भ्रष्टाचार और अफ्रीकी देशों की सेनाओं के पास पैसे और संसाधनों की भारी कमी जैसे कारणों का योगदान रहा है. अफ्रीकी महाद्वीप में ऐसी अस्थिरता ने अफ्रीका से भागकर यूरोप जाने वाले वैसे ही अप्रवासी संकट के ख़तरे का ख़ौफ़ बढ़ा दिया है, जैसा वर्ष 2015 में देखने को मिला था, जब 13 लाख लोगों ने पनाह लेने के लिए यूरोप का रुख़ किया था.

इसके अलावा, महामारी से निपटने के लिए आर्थिक मदद देने में भी दोहरा मापदंड उस वक़्त साफ़ दिखा था, जब यूरोपीय देशों ने अपनी अर्थव्यवस्थाओं को मज़बूत बनाने के लिए तो मोटी रक़म (GDP का 26.4 फ़ीसद) रखी थी. लेकिन, अफ्रीकी देश अपनी अर्थव्यवस्थाओं के लिए GDP का महज़ 3.7 फ़ीसद ही वित्तीय मदद के लिए जुटा सके थे. जैसा कि डेविड मैक्नेयर तर्क देते हैं कि वित्तीय मदद के पैकेज में इतना भारी अंतर इस बात की मिसाल है कि किस तरह वैश्विक अर्थव्यवस्था के उस ढांचे में अफ्रीकी देश महज़ नियमों का पालन करने वाले हैं, जिसके नियम तय करने में यूरोपीय संघ अहम भूमिका निभाता है.

दोनों पक्षों के बीच कोई भी वास्तविक साझेदारी तभी मुमकिन होगी, जब दोनों पक्ष बराबरी से आदान-प्रदान करें, क्योंकि अगर यूरोपीय संघ, अफ्रीका और अफ्रीकी लोगों से अर्थपूर्ण तरीक़े से संवाद करना चाहता है, तो उसे अफ्रीका को लेकर अपने मौजूदा रवैये को छोड़ना होगा.

इन मतभेदों के बाद भी, अगर दोनों पक्षों ने यूरोप और अफ्रीकी महाद्वीप में- महामारी से लेकर जलवायु परिवर्तन तक- हमारे दौर की सबसे बड़ी चुनौतियों से निपटने के लिए एक मज़बूत साझेदारी विकसित करने की अहमियत को समझा और स्वीकार किया है, तो ये एक स्वागतयोग्य क़दम है. ये इस बात का प्रतीक है कि यूरोप और अफ्रीका अपनी साझेदारी को नई ऊंचाई पर ले जाने और साझा चिंताओं व मतभेद वाले मुद्दों पर कठिन चर्चाओं के लिए राज़ी होने की समझदारी रखते हैं. हालांकि, दोनों पक्षों के बीच कोई भी वास्तविक साझेदारी तभी मुमकिन होगी, जब दोनों पक्ष बराबरी से आदान-प्रदान करें, क्योंकि अगर यूरोपीय संघ, अफ्रीका और अफ्रीकी लोगों से अर्थपूर्ण तरीक़े से संवाद करना चाहता है, तो उसे अफ्रीका को लेकर अपने मौजूदा रवैये को छोड़ना होगा. ये बात ख़ास तौर से तब और सही लगती है, जब हम ये देखते हैं कि अफ्रीका के पास ऐसे कई अंतरराष्ट्रीय साझीदार हैं, जो अफ्रीका की अपेक्षाएं पूरी करने के लिए, उसके साथ बराबरी और न्यायोचित शर्तों पर रिश्ते क़ायम करने को तैयार हैं.

शिखर सम्मेलन के निष्कर्ष

शिखर सम्मेलन के दौरान अफ्रीका के तमाम देशों को कोविड-19 की चुनौती से निपटने में मदद करने और भविष्य में स्वास्थ्य के ख़तरों से निपटने के लिए क्षमता का निर्माण करने में सहयोग के लिए कई वादों का एलान किया गया. इनमें यूरोपीय संघ द्वारा किया गया सबसे अहम वादा ये था कि वो अफ्रीका वैक्सीन एक्वेज़िशन टास्क टीम (AVATT) के साथ तालमेल करके 2022 के मध्य तक अफ्रीकी महाद्वीप को कोरोना के टीकों की कम से कम 45 करोड़ ख़ुराक मुहैया कराएगा.

इसके अलावा, यूरोपीय संघ ने अफ्रीकी देशों में टीकाकरण अभियान को बढ़ावा देने, ख़ुराक के कुशल वितरण में मदद करने और मेडिकल टीमों को ट्रेनिंग देने और वायरस के प्रतिरूपों का विश्लेषण और सीक्वेंसिंग में मदद के लिए 42.5 करोड़ यूरो की मदद के वादे को भी दोहराया. ये बात बहुत अहम है, क्योंकि फ़रवरी 2022 की शुरुआत के वक़्त अफ्रीका की कुल आबादी के महज़ 11 फ़ीसद हिस्से को ही टीकों की पूरी डोज़ दी जा सकी थी. इसके अलावा, विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी एलान किया है कि मिस्र, कीनिया, दक्षिण अफ्रीका, सेनेगल, नाइजीरिया और ट्यूनीशिया, अफ्रीका के वो पहले छह देश होंगे, जिन्हें अफ्रीकी महाद्वीप में mRNA वैक्सीन बनाने के लिए ज़रूरी तकनीक मुहैया कराई जाएगी.

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी एलान किया है कि मिस्र, कीनिया, दक्षिण अफ्रीका, सेनेगल, नाइजीरिया और ट्यूनीशिया, अफ्रीका के वो पहले छह देश होंगे, जिन्हें अफ्रीकी महाद्वीप में mRNA वैक्सीन बनाने के लिए ज़रूरी तकनीक मुहैया कराई जाएगी.

वैसे तो, वैक्सीन की उपलब्धता और उनके निर्माण के लिए किए गए ये वादे तारीफ़ के क़ाबिल हैं. लेकिन, अफ्रीका के (पश्चिम में सेनेगल से लेकर पूरब में सूडान तक फैले) साहेल क्षेत्र को स्थिर बनाने में यूरोप द्वारा कोई कारगर मदद करने में नाकाम रहना एक बड़ा मुद्दा बना हुआ है.

साहेल में यूरोप की अंतहीन जंग

साहेल क्षेत्र में बढ़ते जिहादी आतंकवाद और सैन्य तख़्तापलट के चलते वहां की सुरक्षा की स्थिति लगातार मुश्किल भरी और पेचीदा बनी हुई है. रूस के समर्थन वाले वैगनर भाड़े के लड़ाकों की माली में बढ़ती मौजूदग ने हालात को और भी जटिल बना दिया है. साहेल क्षेत्र में सक्रिय सैन्य मिशन की कोई कमी नहीं रही है- संयुक्त राष्ट्र का MINUSMA, फ्रांस के सर्वल अभियान (2013-2015) और बरख़ान मिशन (2014 से जारी), टाकुबा टास्क फ़ोर्स (2020 से सक्रिय) और यूरोपीय संघ के तीन साझा सुरक्षा और रक्षा नीति (CSDP) मिशन, जैसे कि EUCAP साहेल माली, EUCAP साहेल नाइजर और EUTM माली. इन सभी सैन्य अभियानों ने आतंकवाद से लड़ाई, सुरक्षा का माहौल बनाने और सीमा के प्रबंधन पर अपना ध्यान केंद्रित रखा है. इन अभियानों की शुरुआत फ्रांस ने साल 2013 में की थी, और ये मिशन इस ग़लत सोच पर आधारित थे कि कोई वास्तविक बदलाव लाने के लिए और अधिक सख़्त सुरक्षा की दरकार है.

मगर, बदक़िस्मती से कोई असली बदलाव अब तक तो नहीं आया है. जिस दिन अफ्रीका और यूरोपीय संघ का शिखर सम्मेलन शुरु हुआ, उसी दिन फ्रांस ने एलान किया कि साहेल क्षेत्र में क़रीब एक दशक तक अल क़ायदा और दाएश से जुड़े संगठनों से टक्कर लेने के बाद अब वो माली से अपने सैनिक वापस बुलाने जा रहा है. माली में सत्तानशीं सैन्य समूह का मानना है कि फ्रांस का ये सैन्य अभियान बेअसर रहा था और अब वो अपना ठिकाना पड़ोसी नाइजर में बनाने जा रहा है. दुर्भाग्य से यूरोपीय संघ द्वारा विकास और मानव सुरक्षा पर केंद्रित अभियान चलाने के बजाय सुरक्षा पर ज़ोर देने वाली बयानबाज़ी और क़दमों के चलते, साहेल क्षेत्र में सुरक्षा के हालात और भी बिगड़ गए हैं. जब तक यूरोपीय संघ बेहतर प्रशासन में योगदान देने में असफल रहेगा और अस्थिरता (विकास) के बुनियादी मसले से नहीं निपटेगा, तब तक वो ये समझने में सफल नहीं होगा कि साहेल क्षेत्र के साथ अपने सैन्य और रक्षा संबंधों में उसे किस तरह का बदलाव लाने की ज़रूरत है.

जब तक यूरोपीय संघ बेहतर प्रशासन में योगदान देने में असफल रहेगा और अस्थिरता (विकास) के बुनियादी मसले से नहीं निपटेगा, तब तक वो ये समझने में सफल नहीं होगा कि साहेल क्षेत्र के साथ अपने सैन्य और रक्षा संबंधों में उसे किस तरह का बदलाव लाने की ज़रूरत है.

ये कोई छुपी हुई बात नहीं है कि अफ्रीका के सामने सुरक्षा की कई चुनौतियां खड़ी हैं, जिनमें आतंकवाद का मुक़ाबला करना भी शामिल है. सेनेगल के राष्ट्रपति मैकी साल ने डॉएचे वेले को दिए एक इंटरव्यू में इशारा किया था कि, ‘अगर अफ्रीका में शांति और सुरक्षा कायम नहीं है, तो दुनिया को शांति और सुरक्षा हासिल नहीं हो सकेगी. इसमें अफ्रीका से नज़दीक होने के चलते यूरोप तो शामिल है ही. उसके साथ साथ अमेरिका और एशिया भी शामिल हैं.’ इसलिए, ये यूरोप के ही हित में होगा कि वो ये सुनिश्चित करने कि उसकी कोशिशों का अफ्रीकी संघ, यूरोपीय संघ और अमेरिका जैसी बड़ी ताक़तों के साथ मज़बूत तालमेल बना रहे.

यूरोप और अफ्रीका के बीच ‘नए सिरे से गहरी साझेदारी’ का कोई भी एलान दोनों ही पक्षों की प्रतिबद्धता और आपसी लेन-देन पर निर्भर करेगा- अफ्रीकी संघ को एक ऐसी व्यापक यूरोपीय रणनीति को अपनाना होगा, जिसमें यूरोपीय मामलों में अफ्रीकी साझीदारों को शामिल किया जा सके. तभी जाकर अफ्रीका में यूरोप के क़दमों से महत्वाकांक्षाओं का हक़ीक़त से मिलान हो सकेगा.

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Abhishek Mishra is an Associate Fellow with the Manohar Parrikar Institute for Defence Studies and Analysis (MP-IDSA). His research focuses on India and China’s engagement ...

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