ये निबंध, हमारी सीरीज़, वर्ल्ड हेल्थ डे 2024: मेरी सेहत, मेरा अधिकार का एक भाग है
1.4 अरब से भी ज़्यादा आबादी वाला भारत स्वास्थ्य के कई मसलों से जूझ रहा है. इनमें संक्रामक रोगों से लेकर ग़ैर संक्रामक बीमारियां (NCDs) शामिल हैं. स्वास्थ्य की सेवा के सीमित मूलभूत ढांचे और सामाजिक आर्थिक विषमताओं की वजह से ये चुनौतियां और बढ़ जाती हैं. भारत की विविधता भरी आबादी सार्वजनिक स्वास्थ्य की नीतियों के लिए अवसर भी प्रदान करती हैं और चुनौतियां भी खड़ी करती है. शहरीकरण, औद्योगीकरण और बदलते रहन सहन जैसे कारणों से दोहरी बीमारियों का बोझ बढ़ता जा रहा है. टीबी और मलेरिया जैसी संक्रामक बीमारियां तो बनी ही हुई हैं. इनके साथ साथ जीवनशैली से जुड़े रोगों जैसे कि डायबिटीज़ और दिल की बीमारियों के मरीज़ों की तादाद भी बढ़ती जा रही है. इसके अलावा, मां और बच्चे की सेहत एक गंभीर चुनौती बनी हुई है. क्योंकि, कुपोषण और स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच का अभाव, ख़ास तौर से ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी बना हुआ है.
भारत ने बहुत शुरुआत में ही विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के ग्लोबल एक्शन प्लान फॉर प्रिवेंटिंग ऐंड कंट्रोलिंग नॉन कम्युनिकेबल डिज़ीज़ेस 2013-2020 को अपना लिया था. इसका लक्ष्य 2025 तक ग़ैर संक्रामक बीमारियों में 25 प्रतिशत की कमी लाना है.
वर्ल्ड हेल्थ स्टैटिस्टिक्स 2023 के मुताबिक़, भारत में प्रति व्यक्ति औसत आयु 70.8 वर्ष है. पांचवें राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5) के आंकड़े संकेत देते हैं कि 2019 से 2021 के दौरान नवजात बच्चों की मौत की दर प्रति एक हज़ार बच्चों में से 35 थी. 2015-16 के आंकड़ों की तुलना में इसमें केवल 5.5 प्रतिशत की कमी देखी गई है. नवजात बच्चों की मौत की लगातार बनी हुई ऊंची दर, कुपोषण जैसे सामाजिक कारकों को रेखांकित करते हैं. क्योंकि देश में पांच साल से कम उम्र के 35.5 प्रतिशत बच्चों का विकास रुक जाता है वहीं, 19 फ़ीसद का वज़न उनकी लंबाई की तुलना में कम रह जाता है. 2020 में भुखमरी के वैश्विक सूचकांक में 116 देशों में भारत 94वें स्थान पर था. लेकिन, 2023 में देश में भुखमरी के हालात और बिगड़ गए और 125 देशों वाले ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत गिरकर 111वीं पायदान पर पहुंच गया. नेशनल कैंसर रजिस्ट्री प्रोग्राम में अनुमान लगाया गया है कि 2022 में भारत में हर एक लाख लोगों में से 100.4 लोगों में कैंसर की बीमारी पायी जा रही थी और 2025 में इसमें 12.5 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी होने का अनुमान लगाया गया है.
वहीं दूसरी तरफ़, भारत में डायबिटीज़ की बीमारी भी तेज़ी से बढ़ रही है, और कुल आबादी में इसका औसत 16.1 प्रतिशत है. जहां महिलाओं में डायबिटीज़ की दर 15.4 फ़ीसद है, वहीं पुरुषों में 16.8 प्रतिशत के साथ इसका अधिक चलन है. भारत में हर चौथा वयस्क इंसान हाइरपटेंशन का शिकार है. वहीं, मोटापे की बीमारी पुरुषों में 44 तो महिलाओं में 41 प्रतिशत पायी जाती है. 2019 तक के दशक में भारत में मौत के दस सबसे बड़े कारणों में उल्लेखनीय बदलाव तो आया है. लेकिन, अभी भी इसमें ग़ैर संक्रामक बीमारियों का योगदान काफ़ी अधिक है. ग़ैर संक्रामक बीमारियों के प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिए परिवार और स्वास्थ्य कल्याण मंत्रालय ने नेशनल प्रोग्राम फॉर प्रिवेंशन ऐंड कंट्रोल ऑफ़ कैंसर, डायबिटीज़, कार्डियोवैस्कुलर डिज़ीज़ेस ऐंड स्ट्रोक की शुरुआत की है, और पूरे देश में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में कैंसर का पता लगाने वाली सुविधाएं स्थापित की हैं. इसके अतिरिक्त, भारत ने बहुत शुरुआत में ही विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के ग्लोबल एक्शन प्लान फॉर प्रिवेंटिंग ऐंड कंट्रोलिंग नॉन कम्युनिकेबल डिज़ीज़ेस 2013-2020 को अपना लिया था. इसका लक्ष्य 2025 तक ग़ैर संक्रामक बीमारियों में 25 प्रतिशत की कमी लाना है.
भारत की नीति
हाल के वर्षों में स्वास्थ्य के क्षेत्र में भारत का व्यय भी लगातार बढ़ रहा है. इससे स्वास्थ्य सेवा के मूलभूत ढांचे, सेवाओं और पहुंच पर बढ़ते ज़ोर का पता चलता है. नेशनल हेल्थ एकाउंट्स 2019-20 के आंकड़ों के मुताबिक़, देश की GDP में से स्वास्थ्य क्षेत्र में भारत का कुल व्यय 2014-15 में 1.13 प्रतिशत था, जो 2019-20 में बढ़कर 1.35 प्रतिशत पहुंच गया. इलाज के कुल ख़र्चे में से मरीज़ों को जो पैसे अपनी जेब से ख़र्च करने पड़ते हैं, वो 2014-15 के 62.6 प्रतिशत की तुलना में घटकर 2019-20 में 47.1 प्रतिशत ही रह गया है. स्वास्थ्य के मामले में सामाजिक सुरक्षा का व्यय 2014-15 के 5.7 प्रतिशत से बढ़कर 2019-20 में 9.4 फ़ीसद हो गया है.
भारत के लिए ये सुनिश्चित करना ज़रूरी है कि आम लोगों को उचित क़ीमत पर स्वास्थ्य की देख-रेख की अच्छी सुविधा मिल सके. 1946 में भोरे कमेटी की सिफ़ारिशों के बाद से भारत में स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में काफ़ी प्रगति हुई है. इस समिति के सुझावों के आधार पर ही स्वास्थ्य की योजना बनाने का बुनियादी ढांचा स्थापित किया गया था. बाद में इन सिफ़ारिशों ने भारत में तमाम कार्यक्रमों और नीतियों के निर्माण पर भी गहरा असर डाला था.
भारत सरकार ने 2013 में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन की शुरुआत की थी. इसकी रूप-रेखा में पहले यानी 2005 में स्थापित किए गए राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (NRHM) और 2013 में शुरू किए गए राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य मिशन (NUHM) को शामिल किया गया है.
भारत की छठी पंचवर्षीय योजना (1980-85) को साल ‘2000 तक सबके लिए स्वास्थ्य’ की वैश्विक पहल के आधार पर आकार दिया गया था. 1983 में भारत ने अपनी पहली राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति (NHP) की शुरुआत की थी. इसका मुख्य मक़सद सबको स्वास्थ्य की ऐसी सुविधा मुहैया कराना था, जो सस्ती होने के साथ साथ आबादी के तमाम तबक़ों की ज़रूरत के मुताबिक़ ढाली गई हो. 2002 में नई राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के अंतिम मसविदे को प्रकाशित किया गया था. इसका लक्ष्य भारत की जनता के लिए स्वास्थ्य के प्रशंसनीय मानक हासिल करना था. इस नीति में विकेंद्रीकरण, समता, स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच में सुधार और सस्ती निजी स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराने पर ज़ोर दिया गया था. 2017 की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में, अपने से पहले की NHP (2002) द्वारा तैयार की गई बुनियाद को ही आगे बढ़ाने का लक्ष्य रखा गया है. इसका मक़सद देश के सभी नागरिकों के लिए सेहत और बेहतरी के अधिकतम प्राप्य मक़सद को हासिल करने का टारगेट रखा गया है. इसमें स्वास्थ्य सेवा की गुणवत्ता और सेवाओं तक पहुंच बढ़ाने के साथ साथ स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने में होने वाले ख़र्च को कम करना है. यही नहीं, इस नीति में टिकाऊ विकास के लक्ष्यों (SDGs) की महत्वपूर्ण अहमियत को भी स्वीकार किया गया है.
भारत सरकार ने 2013 में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन की शुरुआत की थी. इसकी रूप-रेखा में पहले यानी 2005 में स्थापित किए गए राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (NRHM) और 2013 में शुरू किए गए राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य मिशन (NUHM) को शामिल किया गया है. ये दोनों ही मिशन, स्वास्थ्य सेवा के मूलभूत ढांचे को मज़बूत बनाकर, स्वास्थ्य कर्मचारियों को प्रशिक्षण और स्वास्थ्य के प्रशासन में समुदायों की भागीदारी को बढ़ाकर शहरी और ग्रामीण इलाक़ों में स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच बढ़ाने की अहम कोशिशें हैं. राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य मिशन तो विशेष रूप से शहरों में रहने वाले ग़रीबों और हाशिए पर पड़ी आबादी को लक्ष्य बनाते हैं, ताकि उनकी सेहत की अनूठी ज़रूरतों को पूरा किया जा सके. स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने 2013 में रिप्रोडक्टिव, मैटरनल, न्यूबॉर्न, चाइल्ड, एडॉलसेंट हेल्थ ऐंड न्यूट्रिशन (RMCAH+N) की शुरुआत की थी, ताकि मां और बच्चे की मौत और बीमार होने की दर कम करने के लिए ज़रूरी क़दम उठाए जा सकें.
साफ़-सफ़ाई और बेहतर स्वास्थ्य के सीधे संबंध को स्वीकार करते हुए 2014 में स्वच्छ भारत मिशन (SBM) की शुरुआत की गई थी. इसके तहत सबको स्वच्छता की सुविधा मुहैया कराना और खुले में शौच के चलन को ख़त्म करने की कोशिश की गई. साफ़ सफ़ाई की बेहतर सुविधाएं न केवल संक्रामक बीमारियों की रोकथाम में मददगार होती हैं, बल्कि ये लोगों और ख़ास तौर से महिलाओं और बच्चों की बेहतरी में भी योगदान देती हैं. स्वच्छ भारत मिशन, लोगों के व्यवहार में तब्दीली लाने के संवाद और साफ़ सफ़ाई की आदत को मज़बूती देने के लिए सामुदायिक स्तर पर एकजुटता लाने पर ज़ोर देता है. दिसंबर 2014 में बच्चों में टीकाकरण की कमी दूर करने के लिए मिशन इंद्रधनुष (MI) की शुरुआत की गई थी. इस मिशन के अंतर्गत उन बच्चों पर विशेष रूप से ज़ोर दिया गया, जिन्हें या तो टीका नहीं लगा था या कुछ टीके लग चुके थे. सबसे ज़्यादा ज़ोर दूर दराज के इलाक़ों में रहने वालों और सेवा की कम उपलब्धता वाले इलाक़ों पर दिया गया था. 2017 में इंटेंसिफाइड मिशन इंद्रधनुष की शुरुआत की गई थी और अब तक 5.46 करोड़ बच्चों और 1.32 करोड़ गर्भवती महिलाओं को ये टीके लगाए जा चुके हैं.
ये नीतियां और पहलें स्वास्थ्य की तमाम चुनौतियों जैसे कि कम फंड होने, संसाधनों के असमान आवंटन, स्वास्थ्य सेवाओं के कमज़ोर प्रशासन और आबादी के तमाम तबक़ों की स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच से निपटकर, जनता की सेहत को बेहतर बनाने का लक्ष्य लेकर शुरू की गई हैं.
आयुष्मान भारत योजना (राष्ट्रीय स्वास्थ्य संरक्षण मिशन) 2018, दुनिया में स्वास्थ्य की सबसे महत्वाकांक्षी योजनाओं में से एक है. इसके तहत दो मुख्य कार्यक्रमों: हेल्थ ऐंड वेलनेस केंद्रों (HWC) और प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (PMJAY) के ज़रिए देश के 50 करोड़ कमज़ोर लोगों को वित्तीय संरक्षण देना है. HWC में व्यापक प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं पर ज़ोर दिया गया है. वहीं, PMJAY हर परिवार को हर साल पांच लाख रुपए तक का स्वास्थ्य बीमा देता है, ताकि ग़रीब परिवारों को मदद मिल सके.
भारत में कुपोषण जनता की सेहत से जुड़ा एक अहम मसला बना हुआ है. ख़ास तौर से महिलाओं और बच्चों में. 2018 में शुरू किया गया पोषण अभियान, बच्चों के कम विकास, कम पोषण, ख़ून की कमी और जन्म के समय कम वज़न की समस्या से निपटने के लिए एक व्यापक तरीक़ा अपनाता है, जिसमें कई सेक्टरों के लोग शामिल होते हैं. ये कार्यक्रम भारत में नवजात और छोटे बच्चों को ज़्यादा से ज़्यादा मां का दूध पिलाने को बढ़ावा देने, पोषक खाने तक पहुंच में सुधार लाने और ज़मीनी स्तर पर स्वास्थ्य सेवा और पोषण की सेवाओं को मज़बूत करने पर ज़ोर देता है.
निष्कर्ष
ये नीतियां और पहलें स्वास्थ्य की तमाम चुनौतियों जैसे कि कम फंड होने, संसाधनों के असमान आवंटन, स्वास्थ्य सेवाओं के कमज़ोर प्रशासन और आबादी के तमाम तबक़ों की स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच से निपटकर, जनता की सेहत को बेहतर बनाने का लक्ष्य लेकर शुरू की गई हैं. सबक स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराने का लक्ष्य हासिल करने और सेहत के ख़राब नतीजे आने की वजहों को दूर करने के लिए वही राजनीतिक प्रतिबद्धता की ज़रूरत है, जो इस वक़्त देखने को मिल रही है. इसके अलावा, स्वास्थ्य सेवा के मूलभूत ढाचे में निवेश और कर्मचारियों की तादाद बढ़ाने और सरकारी संस्थाओं, नागरिक संगठनों और निजी भागीदारों के बीच सहयोग बढ़ाना भी ज़रूरी है.
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