Published on Apr 30, 2020 Updated 0 Hours ago

केवल सूचनाओं की सेंसरशिप के दायरे से आगे जाकर, मौजूदा संकट ये बताता है कि अधिक सक्रियता से नियामक क़दम उठाए जाने की ज़रूरत है. जिससे सही और विश्वसनीय जानकारी के स्रोतों को प्राथमिकता के आधार पर आगे बढ़ाया जा सके. साथ ही साथ आंकड़ों पर आधारित वास्तविक विश्लेषण को जनता तक पहुंचाया जा सके.

कोविड-19 का संक्रमण और क्राइसिस कम्यूनिकेशन की ज़रूरत!

दुनिया भर में जिस तेज़ी से कोविड-19 महामारी फैली है, और बड़ी संख्या में लोगों की मौत हुई है. उसके बाद बहुत से देशों की सरकारों ने अपने अपने यहां लोगों की आवाजाही में पाबंदियां लगाई हैं. सोशल डिस्टेसिंग के नियम सख़्त किए हैं. सामूहिक आयोजनों पर प्रतिबंध लगा दिए हैं. अन्य देशों के साथ लगी अपनी सीमाएं सील कर दी हैं. भारत, दुनिया का पहला उदारवादी लोकतांत्रिक देश है, जिसने अपने यहां राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन लगा कर लोगों और वस्तुओं के आवागमन को प्रतिबंधित कर दिया. इस दौरान केवल ज़रूरी सेवाओं और सरकारी सेवाओं को ही लॉकडाउन में भी आवागमन की छूट मिली.

विश्व स्वास्थ्य संगठन के कोविड-19 को वैश्विक महामारी घोषित करने से बहुत पहले से ही सोशल मीडिया पर इस महामारी से जुड़ी ग़लत जानकारियों की बाढ़ सी आ गई थी. इस महामारी के स्रोत, इसके तेज़ी से बढ़ते प्रकोप, इसके लक्षणों और इसके संभावित इलाज को लेकर तरह तरह की बातें तमाम सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर फैली हुई थीं. 31 दिसंबर 2019 को चीन ने अपने हूबे प्रांत के वुहान शहर में कुछ लोगों के बीच न्यूमोनिया जैसी संदिग्ध बीमारी फैलाने वाले विषाणु के बारे में दुनिया को बताया था. लेकिन, उससे काफ़ी पहले इससे जुड़ी फेक न्यूज़ दुनिया भर में वायरस से भी तेज़ी से फैल गई थी. इसे विश्व स्वास्थ्य संगठन के विशेषज्ञों ने ‘इन्फोडेमिक’ (infodemic) यानी ग़लत जानकारी की महामारी का नाम दिया था.

इस महामारी से जुड़ी कुछ ग़लत जानकारियों में से प्रमुख फ़ेक न्यूज़ कुछ इस तरह थीं

  1. इस महामारी के प्रकोप के स्रोत को लेकर ग़लत जानकारी
  2. चीन के लोगों के खान पान को लेकर नस्लवादी विचार
  3. कोविड-19 की बीमारी के ग़लत लक्षणों का प्रचार
  4. सरकार के इस मामले में द़ख़ल देने को लेकर ग़लत प्रचार
  5. अपुष्ट इलाज की ख़ूबियों का जम कर प्रचार.

सोशल मीडिया पर फैलने वाली अपुष्ट जानकारियां इंसान की सेहत के लिए नुक़सानदेह हैं. व्हाट्सऐप पर फॉरवर्ड किए जाने वाले मैसेज, जैसे कि मुर्गियों से कोरोना वायरस का संक्रमण होने जैसी ग़लत जानकारियों ने घरेलू पोल्ट्री उद्योग को अपूरणीय आर्थिक क्षति पहुंचाई है.

इसी तरह से जब-जब स्वास्थ्य अधिकारियों ने अति सक्रियता दिखाते हुए, आम लोगों तक इस महामारी से जुड़ी सही जानकारियां पहुंचाईं, तब-तब राजनेताओं के उल्टे पुल्टे बयानों और उनके द्वारा दी गई ग़लत जानकारियों ने सारे अभियान की मिट्टी पलीद कर दी. उदाहरण के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने कोरोना वायरस को बार बार चीनी वायरस का. राजनीति के पंडितों ने ट्रंप द्वारा इस वायरस को जान बूझकर दिए जा रहे नाम का अर्थ ये निकाला कि ट्रंप, ऐसे बयानों से अमेरिका में वायरस के कारण बढ़ते स्वास्थ्य संकट पर से लोगों का ध्यान हटाने का प्रयास कर रहे थे. क्योंकि उनकी सरकार ने इस महामारी की रोकथाम के लिए ज़रूरी क़दम उठाने में देर की. और इसके लिए वो चीन के लोगों को नस्लीय आधार पर निशाना बना रहे थे. भारत में असम के एक विधायक ने एक राष्ट्रीय चैनल पर दावा किया कि गाय के गोबर से न केवल कोरोना वायरस का नाश किया जा सकता है. बल्कि कई तरह के कैंसर का भी इलाज इससे हो सकता है. इसी तरह सरकार के एक मंत्रालय ने एक ऐसी स्वास्थ्य एडवाइज़री जारी की, जो वैज्ञानिक रूप से सही नहीं थी. जिसमें कहा गया था कि आर्सेनिकम-30 को कोविड-19 के ख़िलाफ़ रोग प्रतिरोधक के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है. जब राजनेता और साधु संन्यासी एक जैसी भाषा बोल रहे हों, तो अफ़वाहों के कारखाने तो तेज़ गति से चलेंगे ही. इसी कारण से सोशल मीडिया पर कोरोना वायरस से जुड़ी ग़लत जानकारियों की बाढ़ सी आ गई.

सात मार्च 2020 को भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सार्वजनिक रूप से जनता से अपील की थी कि वो अफ़वाहों पर यक़ीन न करे. और अपने अंदर कोई भी संदिग्ध लक्षण देखने पर लोग डॉक्टर से संपर्क करें. क्योंकि तब तक कोरोना वायरस भारत पहुंच चुका था. फ़ोन करने पर लोगों को सावधान करने वाले संदेश सरकार के निर्देश पर शुरू हो चुके थे. इसमें खांसी की आवाज़ के बाद जनता को कोरोना वायरस से जुड़ी जानकारियां दी जाती थीं. इसके अलावा, यू-ट्यूब और फ़ेसबुक पर पॉप के ज़रिए ये निर्देशित किया जाता था कि वो कोरोना वायरस से जुड़ी जानकारी के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन की वेबसाइट पर जाएं. भारत में इसकी शुरुआत मार्च महीने के आरंभ में ही हो चुकी थी. राज्यों की सरकारों ने भी फ़ेक न्यूज़ के ख़िलाफ़ आक्रामक रुख़ अपनाया था. महाराष्ट्र ने सोशल मीडिया पर ग़लत ख़बरों की रोकथाम के लिए साइबर क्राइम की एक टीम बनाई थी. इसी तरह, केरल, तेलंगाना और राजस्थान ने ग़लत जानकारियां फैलाने वालों को तुरंत गिरफ़्तार करने का अभियान शुरू कर दिया था. सरकार ने भी जल्द ही CoWin-20 के नाम से एक ऐप लॉन्च किया. जो एंड्रॉयड और एप्पल के आईओएस सॉफ्टवेयर पर चल सकता था. इससे उपभोक्ताओं को ये जानने में मदद दी जा रही थी कि कहीं वो कोरोना वायरस से संक्रमित किसी व्यक्ति के आस पास से तो नहीं गुज़रे. अफ़वाहें फैलने के बाद उठाए गए ये क़दम कुछ शैतानी तत्वों की रोकथाम में कारगर साबित हुए. लेकिन, बड़ी तादाद में उपलब्ध जानकारी ने सच और झूठ के बीच फ़र्क़ मिटा दिया था. इससे ये साबित होता है कि ग़लत जानकारियों की नियामक दृष्टि से निगरानी कर पाना कितना मुश्किल होता है.

उस नज़रिए से देखें तो, आज ये ज़रूरी है कि हम ग़लत जानकारियों की इस बाढ़ के कारणों और उनके निदान के बारे में चर्चा करें. ऐसी जानकारियों की बाढ़ अक्सर किसी आम समय के बजाय संकट के दौर में ज़्यादा आती हैं. सामान्य तौर पर संकट के समय के संवाद से जुड़े अध्ययन में अक्सर फ़ेक न्यूज़ को कुछ लोगों द्वारा असली जानकारी को तोड़-मरोड़कर पेश करने के तौर पर देखते रहे हैं. आम तौर पर ऐसा किसी क़ुदरती आपदा या राजनीतिक घटना के समय पर होता रहा है. लेकिन, कोरोना वायरस की महामारी के दौरान जिस तरह से सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़ी संस्थाओं ने ग़लत जानकारियों के प्रवाह का मुक़ाबला किया है. उससे एक बात सामने आई है कि आम लोग ऐसी बातों पर आसानी से न सिर्फ़ ख़ुद यक़ीन कर लेते हैं. बल्कि वो ऐसी ग़लत और अपुष्ट बातों को दूसरों के साथ शेयर भी करते हैं. ऐसा अक्सर राजनीतिक अखाड़ों के दायरे से बाहर होता है.

वैज्ञानिक समुदाय, स्वास्थ्य के पेशेवरों और स्वास्थ्य संगठन लंबे समय से ये मांग करते आए हैं कि मास मीडिया के अलावा सोशल मीडिया पर भी जनता से सीधे संवाद करने की ज़रूरत है. ऐसे नियमित संवाद से सूचना की विश्वसनीयता की पुष्टि होती है

इससे पहले की महामारियों जैसे कि ज़ीका वायरस के प्रकोप के दौरान हुई रिसर्च से ये बात सामने आई है कि जानकारियों के प्रवाह में फ़ेक न्यूज़ का हिस्सा बहुत ज़्यादा था. ख़ासतौर से सोशल मीडिया पर तो फ़ेक न्यूज़ की बाढ़ सी आ गई थी. सार्वजनिक स्वास्थ्य के संकटों के दौरान, संचार के नेटवर्क पर बोझ बहुत बढ़ जाता है. जबकि ऐसे अवसरों पर मांग में बहुत अधिक वृद्धि हो जाती है. वैज्ञानिक समुदाय, स्वास्थ्य के पेशेवरों और स्वास्थ्य संगठन लंबे समय से ये मांग करते आए हैं कि मास मीडिया के अलावा सोशल मीडिया पर भी जनता से सीधे संवाद करने की ज़रूरत है. ऐसे नियमित संवाद से सूचना की विश्वसनीयता की पुष्टि होती है. इन जानकारियों का इस्तेमाल करने वाले किसी आपात परिस्थिति में, भरोसेमंद सूत्रों के हवाले से सच्ची जानकारियों की तलाश करते हैं. हालांकि, बंद सोशल मीडिया नेटवर्क पर संचार के प्रवाह की निगरानी कर पाना बहुत बड़ी चुनौती बना हुआ है. विकेंद्रीकृत और एनक्रिप्टेड मैसेज से ये सुनिश्चित होता है कि एडमिन के विशेषाधिकार वाला व्यक्ति ही सूचनाओं के प्रवाह पर पूर्ण नियंत्रण रख सकता है.

इसके अतिरिक्त, जैसा कि कनाडा की टोरंटो यूनिवर्सिटी में स्थित थिंक टैंक, सिटिज़न लैब के लोटस रुआन ने इशारा किया था. ग़लत जानकारियों के प्रवाह पर नियंत्रण करने की राह में सबसे बड़ी चुनौती ये होती है कि इनका नियंत्रण किसके हाथ में हो. ख़ुद से नियमन करने वाली संस्थाएं ये काम करें, या फिर ये ज़िम्मेदारी सरकार निभाए. इसके अलावा पारदर्शिता और जवाबदेही के पैमाने तय करना भी एक बड़ा सवाल होता है. सिटिज़न लैब द्वारा हाल ही में जारी की गई एक रिपोर्ट के अनुसार, वी-चैट जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ज़रूरत से अधिक सावधानी बरतने के भी शिकार हो जाते हैं. इसलिए वो अपने मंच पर मौजूद जानकारी को लगातार सेंसर करते रहते हैं. क्योंकि सरकार के अधिकारी उन्हें इस बात के निर्देश लगातार देते रहते हैं. इस मामले से साफ है कि ख़ुद से सेंसरशिप को लागू करने से सही समय पर सटीक जानकारी का प्रचार भी थम जाता है. जबकि ऐसा होने पर बहुत से लोगों की जान बचा लिए जाने की संभावना होती है.

चीन के अधिकारियों ने 31 दिसंबर 2019 को वुहान में नए तरह के वायरस के प्रकोप की आधिकारिक घोषणा की थी. लेकिन, सार्स जैसे एक संदिग्ध वायरस के वुहान में लोगों को संक्रमित करने की अटकलें, वी चैट पर काफ़ी पहले से चल रही थीं. वी चैट एक चीनी सोशल मीडिया ऐप है. लेकिन, वी चैट से तुरंत ही इससे जुड़े कई की-वर्ड को सेंसर कर दिया था. इस जानकारी को सरकार के निर्देश पर दबाया गया. क्योंकि शुरुआत में ये दावा किया गया कि ये जानकारी ही ग़लत है. जब चीन ने आधिकारिक रूप से नए वायरस के प्रकोप की ख़बर विश्व स्वास्थ्य संगठन को दी. उससे ठीक एक दिन पहले, इस वायरस के प्रकोप की ख़बर डॉक्टरों के एक वी चैट ग्रुप पर देने वाले चीन के डॉक्टर ली वेनलियांग को वुहान पुलिस ने मजबूर किया कि वो ये घोषणा करें कि उन्होंने एक ग़लत जानकारी फैलायी है. डॉक्टर वेनलियांग, बाद में ख़ुद इस वायरस से संक्रमित हो गए थे. और सात फ़रवरी 2020 को कोविड-19 के कारण उनकी मौत हो गई. डॉक्टर वेनलियांग की मौत से ये प्रश्न उठता है कि ख़ुद से सेंसरशिप करने की मानवीय क़ीमत क्या होगी. और अगर किसी महामारी के फैलने के दौरान सूचना पर नियंत्रण किया गया, तो उसके परिणाम क्या होंगे.

केवल सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के सहारे संचार के प्रतिमान बदलना बहुत बड़े जोखिम का काम है. और कोविड-19 की महामारी के इस संकट से एक बात और साफ़ हो गई है कि सरकारी अधिकारियों को चाहिए कि वो भरोसेमंद माध्यमों और प्रभावशाली लोगों का इस्तेमाल करके सोशल मीडिया पर संवाद को अधिक भरोसेमंद व सटीक ख़बरों से लैस करें

तानाशाही व्यवस्था वाले देश, फिल्टर की तकनीक से सोशल मीडिया पर बहुत सी सामग्रियों का प्रसार रोकने का काम करते हैं. ताकि जनता के बीच राय को नियंत्रित कर सकें. इससे भी निष्पक्ष और सही जानकारी सेंसर की शिकार हो जाती है. इससे जनता के पास जानकारी हासिल करने के अवसर कम हो जाते हैं. और जानकारी के अभाव से वो ख़ुद को सुरक्षित नहीं कर पाते हैं. हालांकि, अभी सोशल मीडिया पर सरकार का नियंत्रण नहीं है. और ख़ुद इन सोशल मीडिया की तरह से लापरवाही बरतने के कारण ही हाल के दिनों में भारत में लिंचिंग और दूसरों के जीवन में दख़लंदाज़ी की घटनाएं बढ़ी हैं.

केवल सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के सहारे संचार के प्रतिमान बदलना बहुत बड़े जोखिम का काम है. और कोविड-19 की महामारी के इस संकट से एक बात और साफ़ हो गई है कि सरकारी अधिकारियों को चाहिए कि वो भरोसेमंद माध्यमों और प्रभावशाली लोगों का इस्तेमाल करके सोशल मीडिया पर संवाद को अधिक भरोसेमंद व सटीक ख़बरों से लैस करें. ताकि जनता को बिल्कुल सही जानकारी मिल सके. इसका एक अर्थ ये भी हो सकता है कि वैचारिक रूप से जिन्हें सरकार का विरोधी माना जाता है, जैसे कि स्वतंत्र रूप से तथ्यों की पड़ताल करने वाले संगठन, इस काम में उनका सहयोग भी लिया जा सकता है. क्योंकि आम तौर पर ऐसे फैक्ट चेक संगठन, सरकार के संवाद में ख़ामियों की पड़ताल करके उन्हें उजागर करते रहते हैं.

पिछले कुछ महीनों में तकनीकी कंपनियों, सरकारों और सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़े स्वतंत्र संगठनों ने ग़लत जानकारियों के विरुद्ध इस संघर्ष को और मज़बूती दी है. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने लोकप्रिय सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म टिक टॉक में अपना खाता बना कर कई विश्वसनीय, मगर नीरस स्वास्थ्य सलाहों वाले वीडियो जारी किए. ब्रिटेन की नेशनल हेल्थ सर्विस ने कई सोशल मीडिया मंचो के साथ सहयोग करके साज़िश वाली अटकलों को ग़लत ठहराने वाला अभियान चलाया. ताकि सोशल मीडिया पर मौजूद ग़लत जानकारियां हटाई जा सकें. और कोरोना वायरस से जुड़ी भरोसेमंद और सही ख़बरों का प्रचार किया और जनता तक पहुंचाया. इसी तरह, भारत में गोवा की राज्य सरकार ने तकनीकी स्टार्ट अप कंपनी के साथ साझेदारी करके एक चैटबॉट लॉन्च किया है. जो इसका इस्तेमाल करने वालों को कोरोना वायरस के बारे में सटीक जानकारी देता है. उन्हें और अधिक मदद हासिल करने के लिए हेल्पलाइन नंबर बताता है.

हालांकि, ऐसे प्रयास शायद पर्याप्त न हों. और अधिकारियों को और सक्रियता दिखाते हुए, डॉक्टरों, स्वास्थ्य नीतियां बनाने वाले विशेषज्ञों और पत्रकारों की मदद से विश्वसनीयता बनाने का प्रयास करना चाहिए. ताकि आधिकारिक संवाद के माध्यमों से सही जानकारी कम ख़र्च में हर नागरिक तक पहुंचाई जा सके. स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के प्रयासों, मेडिकल एसोसिएशन और अकादमिक परिषदों द्वारा सटीक जानकारी देने और अफ़वाहें फैलाने वालों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के अभियानों को भी और मज़बूत किए जाने की ज़रूरत है. इस काम में सरकारी संवाद व्यवस्था का सहारा लिया जा सकता है.

केवल सूचनाओं की सेंसरशिप के दायरे से आगे जाकर, मौजूदा संकट ये बताता है कि अधिक सक्रियता से नियामक क़दम उठाए जाने की ज़रूरत है. जिससे सही और विश्वसनीय जानकारी के स्रोतों को प्राथमिकता के आधार पर आगे बढ़ाया जा सके. साथ ही साथ आंकड़ों पर आधारित वास्तविक विश्लेषण को जनता तक पहुंचाया जा सके. इससे ग़लत जानकारियों की मौजूदा महामारी से लड़ने में काफ़ी मदद मिलेगी. साथ ही साथ डिजिटल श्रोताओं के बड़े समुदाय तक सही जानकारी पहुंचने के विश्वसनीय माध्यमों का विकास हो सकेगा.

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