Published on Feb 26, 2024 Updated 3 Days ago
मध्य पूर्व की राजनीति में जनता की राय और सोशल मीडिया की बढ़ती भूमिका!

ये लेख हमारी- रायसीना एडिट 2024 सीरीज़ का एक भाग है


हमास का हमला: मध्य पूर्व की शांति प्रक्रिया में खलल

 

2023 के दूसरे उत्तरार्ध तक मध्य पूर्वी और मुस्लिम देशों न फ़िलिस्तीन के मसले को हाशिए पर धकेल रखा था. इनमें से कई देशों ने फ़िलिस्तीन के प्रति वैचारिक समर्थन का प्रदर्शन करने के बजाय, व्यवहारिक राजनीतिक फ़ायदों को तरज़ीह देनी शुरू कर दी थी. राजनीतिक सौदेबाज़ी के मामले में इस क्षेत्र के सबसे प्रमुख देशों में से एक संयुक्त अरब अमीरात (UAE) ने, अब्राहम समझौतों के तह इज़राइल के साथ अपने रिश्ते सामान्य कर लिए थे (कई अन्य अरब देशों ने भी ऐसा ही किया था). ऐसा लग रहा था कि अमीरात का बेहद क़रीबी सहयोगी सऊदी अरब भी उसी रास्ते पर चलने जा रहा है, जिसके बाद फ़िलिस्तीन के मसले को भुला दिया जाता. यहां तक कि तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैयप अर्दोआन, जो हथियारबंद संगठन हमास के कट्टर वित्तीय और संसाधन देने के समर्थक हैं, उन्होंने भी ख़ुद अपने देश की गिरती अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए इज़राइल के साथ व्यापारिक और दूसरे रिश्ते बढ़ाने शुरू कर दिए थे, ताकि भूमध्य सागर में मिले गैस के भंडारों के बख़ूबी इस्तेमाल कर सकें. जो बाइडेन के नेतृत्व में अमेरिका, मध्य पूर्व की शांति प्रक्रिया के ऐसे विचार की तरफ़ बढ़ रहे थे, जिससे फ़िलिस्तीन पर इज़राइल के ज़ुल्मों का कोई ताल्लुक़ न हो.

 

फिर भी, 7 अक्टूबर को इज़राइल पर हमास के हमले का इन प्रक्रियाओं पर गहरा असर पड़ा. हमास ने ज़बरदस्त तालमेल के साथ ज़मीन, हवा और समुद्री रास्ते से एक साथ इज़राइल पर हमला किया और उसके तकनीकी रूप से बेहद उन्नत रक्षा कवच को छिन्न-भिन्न कर डाला. इस हमले की वजह से इज़राइली नागरिक मारे गए या अगवा कर लिए गए. जिसके बाद इज़राइल ने भी ग़ज़ा पर बर्बर हमला किया, जिसमें पिछले कुछ महीनों के दौरान बड़ी तादाद में फ़िलिस्तीनी नागरिक मारे जा चुके हैं.

 

हमले के नतीजे

 

इज़राइल और हमास के बीच अभी जो युद्ध चल रहा है, उसके बाद पूरी दुनिया से इज़राइल और हमास दोनों की निंदा करने वाली आवाज़ें उठ रही हैं. इस हमले के बाद मध्य पूर्व के भू-राजनीतिक समीकरणों में भी कई बड़े बदलाव आते दिख रहे हैं. पहला, अब्राहम समझौतों की रफ़्तार न केवल थम गई है, बल्कि कई मामलों में तो इसकी दिशा भी उलट गई है. सऊदी अरब, जो इज़राइल के साथ अपने रिश्ते सामान्य बनाने के मुहाने पर खड़ा था, उसे अपनी योजनाओं को स्थगित करके युद्ध को जितनी जल्दी मुमकिन हो, उतनी जल्दी ख़त्म करने पर ध्यान केंद्रित करना पड़ा. वहीं, तुर्की के राष्ट्रपति अर्दोआन जो शुरुआती दौर में निरपेक्ष दिख रहे थे, उन्होंने बहुत जल्दी इज़राइल और उसके नेता नेतान्याहू की खुलकर आलोचना करनी शुरू कर दी.

 

इज़राइल के नेतृत्व की खीझ इस बात से और बढ़ गई है कि वो न केवल हमास को तबाह करने के अपने शुरुआती लक्ष्य को हासिल कर पाने में नाकाम रहा, बल्कि उसकी गतिविधियों को नरसंहार के इल्ज़ाम में इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस में भी घसीट लिया गया. वैसे तो अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने कोई ठोस फ़ैसला नहीं सुनाया. पर, इज़राइल की कार्रवाइयों पर परिचर्चा की वजह से दुनिया की जनता की राय वाली अदालत में इज़राइल की छवि को गहरा धक्का लगा है.

 

हाल के दिनों में इस मसले के द्वि-राष्ट्र के समाधान की मांग काफ़ी बढ़ गई है. दो देशों के समाधान का मतलब है कि 1967 में जिन सीमाओं पर सहमति बनी थी, उनके दायरे में एक अलग और संप्रभु फ़िलिस्तीनी राष्ट्र का गठन किया जाए और उसके बाद, संयुक्त राष्ट्र जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में उसे नुमाइंदगी दी जाए. इज़राइल के प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने ऐसे क़दम को अपने देश की सुरक्षा के लिए ख़तरा मानते हुए इस प्रस्ताव को सिरे से नकार दिया है.

 

इसके बावजूद, युद्ध शुरू होने के बाद से अलग फ़िलिस्तीनी राष्ट्र के गठन की मांग लगातार ज़ोर पकड़ रही है. यहां तक कि इज़राइल के सबसे क़रीबी साथी अमेरिका के राष्ट्रपति बाइडेन ने भी युद्ध ख़त्म होने के बाद दो अलग राष्ट्रों के गठन की अपनी मांग को दोहराया है. सऊदी अरब ने एलान किया है कि वो इज़राइल के साथ तब तक अपने संबंध सामान्य नहीं करेगा, जब तक दो अलग राष्ट्रों के समाधान पर चर्चा नहीं होती और संप्रभु फ़िलिस्तीन का गठन नहीं होता.

 

राजनीतिक सुर बदलने के पीछे है जनता का दबाव

 

अक्टूबर 2023 से पहले इज़राइल के साथ मध्य पूर्व देशों के रिस्ते और इज़राइल को अमेरिका के लंबे समय से चला आ रहे समर्थन को देखते हुए ये स्पष्ट है कि दो राष्ट्रों के समाधान की नए सिरे से उठ रही मांगों के पीछे विचारधारा में आई तब्दीली जैसी कोई वजह नहीं है. विदेश नीति के निर्माण में जिस नए किरदार का उभार देखने को मिल रहा है, वो फ़िलिस्तीन के समर्थन में जनता की तरफ़ से उठी मज़बूत आवाज़ है. इसकी वजह से कई देशों के नेताओं को ऐसा रुख़ अपनाना पड़ा है, जो अगर फ़िलिस्तीन के प्रति सकारात्मक न भी हो, तो कम से कम निरपेक्ष तो हो.

 

फ़िलिस्तीन में इज़राइली सेना की बर्बरता और ज़ुल्मों पर रौशनी डालने के लिए आम नागरिक सोशल मीडिया को एक ताक़तवर औज़ार के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं. इसके दायरे में आम नागरिक समुदाय के पत्रकारों जैसे कि वाएल अल-दहलोह और मोताज़ अज़ाएज़ा ने फ़िलिस्तीन में ऐसे तमाम मसलों के दस्तावेज़ी सुबूत जुटाकर दुनिया भर के आम नागरिकों के सामने पेश किए हैं, जिनकी मीडिया के पारंपरिक संगठन अक्सर अनदेखी कर दिया करते थे. 

 

इस संघर्ष पर सोशल मीडिया का इतना गहरा असर हुआ है कि टिकटॉक के एक अधिकारी को ये स्पष्टीकरण जारी करना पड़ा कि उनका एल्गोरिदम फ़िलिस्तीन समर्थक राय को तवज्जो नहीं दे रहा, बल्कि टिकटॉक के यूज़र ही इसके पक्ष में बहुत ज़्यादा पोस्ट कर रहे हैं. इसके अतिरिक्त, अल जज़ीरा, TRT वर्ल्ड और RT न्यूज़ और वो वैकल्पिक मीडिया जो इस संघर्ष को लेकर पश्चिमी देशों की राय से इत्तिफ़ाक़ नहीं रखते, उन्होंने भी जनता को वो ख़बर देखने के और विकल्प मुहैया कराए हैं, जो फ़िलिस्तीन समर्थक हैं.

 

फ़िलिस्तीन के पक्ष में इस जन-समर्थन का बहुत से देशों की घरेलू राजनीति पर भी गहरा असर पड़ा है. मिसाल के तौर पर फ़िलिस्तीन के मसले पर प्रेसिडेंट जो बाइडेन की एप्रूवल रेटिंग्स में काफ़ी गिरावट देखी जा रही है. ये ऐसा पहला मामला है, जहां विदेश नीति के किसी ऐसे मसले पर अमेरिका के राष्ट्रपति की रेटिंग में गिरावट आई है, जिसमें अमेरिका के सैनिक शामिल नहीं (कम से कम कुछ शुरुआती महीनों के दौरान) हैं. 2024 में बाइडेन की डेमोक्रेटिक पार्टी के लिए राष्ट्रपति चुनाव का मुक़ाबला काफ़ी कड़ा होने जा रहा है, ख़ास तौर से इसलिए भी कि पूर्व राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप सत्ता में वापसी की कोशिश कर रहे हैं. इस परिदृश्य में अमेरिका के मिशिगन, एरिज़ोना, मिनेसोटा जैसे स्विंग स्टेट जहां पर काफ़ी अरब अमेरिकी आबादी रहती है, उन्होंने डेमोक्रेटिक पार्टी के ख़िलाफ़ वोट करने के अभियानों की शुरुआत की है. इसकी वजह से अमेरिकी सरकार ने मुस्लिम मतदाताओं का ग़ुस्सा शांत करने के लिए इस्लामोफोबिया रजिस्टर जैसी पहलों की शुरुआत की है.

 

इसी तरह जनता की राय के दबाव में तुर्की और सऊदी अरब को भी अपने रवैये में बदलाव लाना पड़ा है. यही वजह है कि संघर्ष की शुरुआत में जहां तुर्की के राष्ट्रपति अर्दोआन ने निरपेक्ष रुख़ अपनाया था और दोनों पक्षों के बीच मध्यस्थता की पेशकश भी की थी. लेकिन, तुर्की में फ़िलिस्तीन के समर्थन में बड़े विरोध प्रदर्शनों के ज़रिए सामने आई जनता की राय को देखकर, अर्दोआन ने अपना रुख़ बदला और इज़राइल की कड़ी निंदा की. इसके अलावा मिस्र, जॉर्डन और दुनिया के कई दूसरे अरब और मुस्लिम बहुल देशों में भी ऐसे ही हालात देखने को मिले. मिसाल के तौर पर जिस बहरीन ने इज़राइल के साथ रिश्ते सामान्य कर लिए थे, उसी ने इज़राइल से अपने राजदूत को वापस बुला (संबंध पूरी तरह तोड़ने से ठीक पहले का क़दम) लिया था. इससे इस क्षेत्र में इज़राइल द्वारा हासिल की गई सियासी बढ़त उल्टी पड़ती दिखी. जैसा कि प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के अरब बैरोमीटर प्रोजेक्ट ने आकलन किया था कि अरब देशों में जनता के एक बड़े तबक़े की राय लगातार फ़िलिस्तीन के पक्ष में झुकती जा रही है, और कई मामलों में तो हमास को भी विद्रोह का एक आंदोलन मानते हुए उसके पक्ष में भी समर्थन बढ़ा है, जो सोशल मीडिया और दूसरे स्थानीय मीडिया संगठनों की व्यापक पहुंच को ही दिखाते हैं.

 

निष्कर्ष

 

7 अक्टूबर को हमास का हमला केवल इज़राइल के हितों पर आक्रमण नहीं था, बल्कि ये हमला तमाम अरब देशों और मुस्लिम बहुल देशों में इज़राइल के साथ संबंध सामान्य करने के प्रयासों पर भी था. जनता की राय को जनसमर्थन जुटाने के एक ताक़तवर औज़ार के तौर पर इस्तेमाल करने के बढ़ते चलन की वजह से ही पश्चिमी और अरब देशों को इज़राइल और इस युद्ध के प्रति अपनी सोच को बदलना पड़ा है. ये बात तो है कि कि सिर्फ़ इसी वजह से विदेश नीति में बदलाव नहीं आ रहा है. लेकिन, भविष्य में इसकी एक बड़ी भूमिका निश्चित रूप से रहने वाली है.


इसीलिए, मध्य पूर्व के संघर्षों के भविष्य में निकलने वाले नतीजों को समझने के लिए हमें सियासत की पारंपरिक मजबूरियों से आगे बढ़ना होगा और इसमें सोशल मीडिया पर आधारित प्रक्रियाओं को बी जोड़ना होगा. वैसे तो पिछले कुछ दशकों के दौरान फ़िलिस्तीन की मांग के प्रति समर्थन में कुछ गिरावट तो आई थी. लेकिन, ख़बरों के वैकल्पिक माध्यम और सोशल मीडिया ने फ़िलिस्तीन के पक्ष में ज़बरदस्त समर्थन जुटाने में एक मज़बूत भूमिका अदा की है. इसीलिए, भविष्य में देशों के नेताओं को भविष्य के युद्धों को लेकर अपना रुख़ तय करने से पहले अपनी जनता की राय को समझना पड़ेगा. ख़ास तौर से जब बात इज़राइल की आती है, जो अब का ऐसा सबसे पेचीदा मसला साबित हुआ है, जिसको सुलझा पाना बेहद मुश्किल लग रहा है.

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