Published on Feb 04, 2022 Updated 0 Hours ago

भारत को एक जोड़ने वाली शक्ति के रूप में देखा जाता है जो नई और उभरती तकनीक के उपयोग और नियमन के माध्यम से विकसित और विकासशील देशों के बीच की दूरी को कम कर सकता है. 

उभरती और महत्वपूर्ण तकनीकें: आकांक्षाओं से भरे-पूरे ‘भारत’ के लिए नया मोर्चा!

ये लेख भारत की आजादी के 75 साल: आकांक्षाएं, महत्वाकांक्षाएं और दृष्टिकोण श्रृंखला का हिस्सा है.


भू-राजनीति, अर्थव्यवस्था, आजीविका और गवर्नेंस का भविष्य वेब आधारित माध्यमों में लिखा जाएगा. ये उभरती तकनीकों जैसे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई), रोबोटिक्स और क्वॉन्टम कम्प्यूटिंग से बंधा होगा और साइबर स्पेस से लेकर बाहरी अंतरिक्ष तक कई क्षेत्रों में घटित होगा. 

जब भारत अपनी आज़ादी के 76वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है, उस वक़्त वो बहुपक्षीय तकनीकी गठबंधनों और बहु-हिस्सेदारी वाले मंचों पर महत्वपूर्ण शक्ति बनता जा रहा है. इसलिए हर किसी की निगाहें दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र पर लगी हुई है कि वो किस तरह उभरती और महत्वपूर्ण तकनीकों के साथ समन्वय कर रहा है, किस तरह भारत न सिर्फ़ अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर बल्कि अपनी घरेलू नीतियों के माध्यम से भी नियमों को बनाने में लगा हुआ है. इस लेख में आने वाले दशक में भारत की भागीदारी के लिए दो महत्वपूर्ण तकनीकी क्षेत्रों की पहचान की गई है: अंतरिक्ष और क्वॉन्टम तकनीक. 

इस लेख में आने वाले दशक में भारत की भागीदारी के लिए दो महत्वपूर्ण तकनीकी क्षेत्रों की पहचान की गई है: अंतरिक्ष और क्वॉन्टम तकनीक. 

भीड़ से भरा बाहरी अंतरिक्ष 

अंतरिक्ष नीति के समुदाय में ये एक व्यापक तौर पर स्वीकार्य सच है कि बाहरी अंतरिक्ष तेज़ी से भरा हुआ, संकीर्ण और संघर्ष वाला क्षेत्र बनता जा रहा है. उभरती अंतरिक्ष सुरक्षा का परिदृश्य गंभीर परिणाम की तरफ़ संकेत देता है. इससे अंतरिक्ष में जान-बूझकर किया गया काम या दुर्घटना हो सकती है. वर्तमान परिस्थिति बाहरी अंतरिक्ष की गतिविधियों के लिए कुछ नियम बनाने की मांग करती है ताकि ये सुनिश्चित किया जा सके कि अंतरिक्ष सुरक्षित, सकुशल और टिकाऊ रहे. बाहरी अंतरिक्ष में नई और उभरती सुरक्षा चुनौतियों की संख्या को देखते हुए भारत अंतर्राष्ट्रीय बाहरी अंतरिक्ष की व्यवस्था को आकार देने में एक ज़रूरी भूमिका अदा कर सकता है और उसे करना भी चाहिए. 

भारत एक स्थापित अंतरिक्ष शक्ति है और एक मुक्त और सुरक्षित बाहरी अंतरिक्ष की व्यवस्था को बनाए रखने में उसका बहुत कुछ दांव पर है. नियम का मसौदा तैयार करने में भारत का हित इस तथ्य से बढ़ जाता है कि वो अंतरिक्ष तक अपना यान भेजने वाली शुरुआती शक्तियों में से एक है और बाहरी अंतरिक्ष की गतिविधियों के लिए नियम बनाने में वो एक सक्रिय भूमिका अदा करना चाहेगा. एशिया में चीन और जापान के साथ भारत तीन सबसे बड़ी अंतरिक्ष शक्तियों में से एक है और भविष्य में किसी भी तरह की व्यवस्था प्रमुख शक्तियों की हिस्सेदारी के बिना बेअसर होगी. साथ ही नियम और क़ानून कुछ ख़ास अंतरिक्ष गतिविधियों पर नियंत्रित करने वाला असर डाल सकता है जो सहज रूप से अस्थिर करता है. 

नियम का मसौदा तैयार करने में भारत का हित इस तथ्य से बढ़ जाता है कि वो अंतरिक्ष तक अपना यान भेजने वाली शुरुआती शक्तियों में से एक है और बाहरी अंतरिक्ष की गतिविधियों के लिए नियम बनाने में वो एक सक्रिय भूमिका अदा करना चाहेगा.

पड़ोस के देशों में जटिल सैन्य अंतरिक्ष कार्यक्रम और अंतरिक्ष में विरोधी क्षमता का विकास भारत के लिए काफ़ी चिंता की बात है और क़ानूनी तौर पर बाध्य करने वाली व्यवस्था किसी अस्थिर करने वाली क्षमता को कम करने का एक तरीक़ा हो सकता है. एंटी-सैटेलाइट हथियार (ए-सैट) एक प्रमुख उदाहरण है. जनवरी 2007 में चीन के द्वारा ए-सैट का प्रदर्शन भारत के लिए एक कड़ी चेतावनी थी कि उसे किस तरह की चुनौतियों के लिए तैयार होना चाहिए. साथ ही अंतरिक्ष के लिए नियम तैयार करने में भारत का हित उसके आर्थिक विकास की कहानी से जुड़ा हुआ है क्योंकि आर्थिक विकास भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम से नज़दीकी रूप से जुड़ा हुआ है. अगर भारत के बाहरी अंतरिक्ष के कार्यक्रम के साथ जुड़े ज़मीनी इंफ्रास्ट्रक्चर और मूल्य आधारित सेवाओं की गणना की जाए तो उसके पास 37 अरब अमेरिकी डॉलर की क़ीमत की संपत्ति है. इस तरह अंतरिक्ष कार्यक्रम को लेकर भारत का दांव अपेक्षाकृत ज़्यादा है. इससे भारत के लिए अपनी अंतरिक्ष की संपत्तियों की सुरक्षा करना महत्वपूर्ण हो जाता है. इसके अलावा भारतीय नागरिकों के प्रतिदिन के जीवन में  अंतरिक्ष की संपत्तियों का काफ़ी उपयोग है जो आने वाले वर्षों में कई गुना बढ़ने की संभावना है. 

आख़िर में, बाहरी अंतरिक्ष की व्यवस्था बनाने में भारत का हित हिंद-प्रशांत क्षेत्र में लगातार बढ़ते भू-राजनीतिक मुक़ाबले से जुड़ा है क्योंकि भारत नहीं चाहता है कि बाहरी अंतरिक्ष गला काट मुक़ाबले का एक और क्षेत्र बन जाए. आज की अंतरिक्ष व्यवस्था में भू-राजनीति का प्रभाव स्पष्ट है लेकिन भारत नहीं चाहता है कि इस तरह की सुरक्षा राजनीति काफ़ी आगे जाए जहां अलग-अलग देश रोकने वाली नीति अपनाएं जो कि हर किसी के लिए ख़राब साबित होगी. मार्च 2019 में भारत के द्वारा अपने दम पर एंटी-सैटेलाइट टेस्ट करने की पृष्ठभूमि में ये खोखला लग सकता है लेकिन भारत सिर्फ़ अपने पड़ोसी की क्षमता का जवाब दे रहा था. ये सामरिक तौर पर सोचा-समझा गया फ़ैसला था, चीन के एंटी-सैटेलाइट टेस्ट का आनन-फानन में जवाब नहीं. लेकिन ये उम्मीद बनी हुई है कि आगे जाकर सभी देश एक-दूसरे के सैटेलाइट को धमकी देने के रास्ते पर जाने से परहेज़ कर सकते हैं. वास्तव में सैन्य-अंतरिक्ष कार्यक्रम के सुरक्षा पहलू को नज़रअंदाज़ करना ख़तरनाक होगा. 

बाहरी अंतरिक्ष की व्यवस्था बनाने में भारत का हित हिंद-प्रशांत क्षेत्र में लगातार बढ़ते भू-राजनीतिक मुक़ाबले से जुड़ा है क्योंकि भारत नहीं चाहता है कि बाहरी अंतरिक्ष गला काट मुक़ाबले का एक और क्षेत्र बन जाए.

भारत का वैश्विक स्तर पर नियम बनाने में योगदान 

भारत पिछले दिनों की सभी पहल में एक सक्रिय साझेदार रहा है. इनमें यूरोपीय संघ की तरफ़ से पहल की गई बाहरी अंतरिक्ष की गतिविधियों के लिए आचार संहिता के साथ-साथ 2018-19 में पीएआरओएस (बाहरी अंतरिक्ष में हथियारों की स्पर्धा का निवारण) पर सरकारी विशेषज्ञों के संयुक्त राष्ट्र समूह (जीजीई) की पहल शामिल हैं. संयुक्त राष्ट्र आचार संहिता के समस्याओं में घिरने की बड़ी वजह प्रक्रियागत मुद्दे हैं. उदाहरण के लिए, भारतीय सिविल और सैन्य नौकरशाही के भीतर ज़्यादातर लोगों ने आचार संहिता के लिखे जाने के तरीक़े पर विरोध जताया. उन्होंने कहा कि ईयू ये तय नहीं कर सकता कि बाक़ी दुनिया के लिए अच्छा क्या है. कई एशियाई देशों, जिनमें भारत भी शामिल है, को आचार संहिता के विषय वस्तु पर भी आपत्ति थी. जहां कई ग़ैर-एशियाई देश इस तरह की आपत्तियों को बचकाना मानते हैं, वहीं इन मुद्दों को खारिज करने के बदले इनके निपटारे को राजनीतिक और भू-राजनीतिक अहमियत भी दी जाती है. इस तरह की कवायद का हिस्सा होने से आचार संहिता या किसी अंतिम नतीजे को लेकर इन देशों को स्वामित्व का एहसास मुहैया कराया जा सकेगा. ऐसा होने से आचार संहिता लंबे समय तक बनी रह सकेगी और उनका पालन सुनिश्चित किया जा सकेगा. ईयू की आचार संहिता के द्वारा किसी तरह की क़ानूनी रूप-रेखा या सत्यापन की व्यवस्था प्रदान नहीं किए जाने से एशिया की अंतरिक्ष शक्तियों की चिंता और बढ़ गई. जीजीई ने विशेष रूप से “बाहरी अंतरिक्ष में हथियारों की होड़ को रोकने, जिनमें अन्य बातों के साथ-साथ बाहरी अंतरिक्ष में हथियारों की तैनाती पर रोक भी शामिल हैं, पर अंतर्राष्ट्रीय रूप से वैध बाध्यकारी दस्तावेज के आवश्यक तत्वों पर विचार और सिफ़ारिश” की मांग की. 2018-19 में पीएआरओएस पर जीजीई का भी इसी तरह का अनिश्चित नतीजा हुआ. वैश्विक राजनीति के विभाजनकारी और प्रतिस्पर्धी स्वभाव की वजह से 25 सदस्य देशों के बीच कोई सहमति नहीं बनी. इसके परिणामस्वरूप जीजीई से कोई औपचारिक रिपोर्ट नहीं आई. 

पिछले दिनों यूके का अंतरिक्ष सुरक्षा प्रस्ताव, “उत्तरदायी व्यवहार के मानदंडों, नियमों और सिद्धांतों के द्वारा अंतरिक्ष के ख़तरों को कम करना” भारत के लिए अंतरिक्ष सुरक्षा की व्यवस्था पर बहस को आकार देने का अवसर पेश करता है. इस प्रस्ताव के नीचे से ऊपर और व्यवहारगत दृष्टिकोण को देखते हुए भारत और समान विचार वाले उसके साझेदारों के लिए ये महत्वपूर्ण है कि वो इसके साथ भागीदारी बढ़ाए और अंतरिक्ष के लिए मौजूदा एवं संभावित ख़तरों तथा जोखिमों की पहचान करें. इसके साथ-साथ प्रमुख संचालक के रूप में भरोसे के निर्माण पर ज़ोर देकर संभावित रास्तों पर विचार करें. 

ईयू की आचार संहिता के द्वारा किसी तरह की क़ानूनी रूप-रेखा या सत्यापन की व्यवस्था प्रदान नहीं किए जाने से एशिया की अंतरिक्ष शक्तियों की चिंता और बढ़ गई.

महाशक्तियों के संबंध के विवादास्पद स्वरूप और इसके परिणामस्वरूप बहुपक्षीय बातचीत में गतिरोध को देखते हुए भारत समझता है कि उसे एक मानदंड संबंधी प्रक्रिया शुरू करने की आवश्यकता हो सकती है और धीरे-धीरे क़ानूनी तौर पर बाध्यकारी उपायों को विकसित करना होगा. इस बात की संभावना कम है कि निकट भविष्य में वैश्विक शासन व्यवस्था से जुड़ी बहस में बहुत ज़्यादा प्रगति होगी. 

क्वॉन्टम तकनीक 

कुछ साल पहले तक एक सक्षम कमर्शियल क्वॉन्टम कम्प्यूटर, ज़्यादातर अनुमानों के मुताबिक़, 10 से लेकर 30 साल तक दूर था. लेकिन आईबीएम और यूनिवर्सिटी ऑफ टोक्यो के द्वारा लॉन्च दुनिया का पहला कमर्शियल क्वॉन्टम कम्प्यूटर जापान में 2021 में काम करने लगा. 

क्वॉन्टम तकनीक कई तरह के एप्लिकेशन के साथ आती है जो हमारे समय की कुछ सबसे चुनौतीपूर्ण समस्याओं को हल करने में हमारी प्रगति को तेज़ कर सकते हैं: क्वॉन्टम एन्क्रिप्शन संचार को सुनिश्चित कर सकते हैं; क्वॉन्टम सिमुलेशन हरित तकनीक समेत नये पदार्थ की खोज में हमारी मदद कर सकता है; और क्वॉन्टम सेंसिंग जलवायु परिवर्तन के असर का खाका खींचने में हमारी मदद कर सकता है. क्वॉन्टम क्रांति का फ़ायदा उठाने के लिए भारत के 2020-21 के केंद्रीय बजट में नये-नये शुरू नेशनल मिशन ऑन क्वॉन्टम टेक्नोलॉजीज़ एंड एप्लिकेशन (एनएमक्यूटीए) पर 8,000 करोड़ (1.2 अरब अमेरिकी डॉलर) खर्च करने का प्रस्ताव रखा गया. भारत तेज़ी से बढ़ते उन देशों के समूह में शामिल हो गया है जिन्होंने क्वॉन्टम के लिए समर्पित रणनीति और बजट की घोषणा की है. इन देशों में 360 मिलियन कैनेडियन डॉलर (287 मिलियन अमेरिकी डॉलर) की बजट प्रतिबद्धता के साथ कनाडा की राष्ट्रीय क्वॉन्टम रणनीति; पांच वर्षों में 1.8 अरब यूरो (1.8 अरब अमेरिकी डॉलर) की प्रतिबद्धता के साथ फ्रांस की राष्ट्रीय क्वॉन्टम तकनीकी रणनीति; और दक्षिण कोरिया की तरफ़ से 5 वर्षों में 44.5 अरब कोरियाई वॉन (38 मिलियन अमेरिकी डॉलर) के निवेश का एलान शामिल हैं. 

इसके साथ क्वॉन्टम एप्लिकेशन विकासोन्मुख डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर की स्थिरता को कमज़ोर कर सकता है जिनमें प्रमुख सार्वजनिक इंफ्रास्ट्रक्चर शामिल हैं जिस पर भारत का वित्तीय इंफ्रास्ट्रक्चर बना हुआ है. स्पष्ट नियमों के नहीं होने और क्वॉन्टम तकनीक के अनैतिक इस्तेमाल से क्वॉन्टम क्रांति दोधारी तलवार बन सकती है. क्वॉन्टम तकनीक के व्यापक संरचनात्मक तात्पर्य की भी खोज नहीं हुई है. क्या लीनियर से क्वॉन्टम की तरफ़ बदलाव के लिए शक्ति, नैतिकता और निर्णय लेने को लेकर हमारे सोचने के तरीक़े में मूलभूत परिवर्तन की आवश्यकता है? किस तरह हम एक ऐसी तकनीक में जवाबदेही डाल सकते हैं जहां कारण और असर अनिश्चित हो सकते हैं, जहां निगरानी का काम नतीजों को बदल सकता है और जहां किसी लिए गए फ़ैसले को लेकर कारण बताने और उसका पुनर्निर्माण असंभव हो सकता है? 

स्पष्ट नियमों के नहीं होने और क्वॉन्टम तकनीक के अनैतिक इस्तेमाल से क्वॉन्टम क्रांति दोधारी तलवार बन सकती है. क्वॉन्टम तकनीक के व्यापक संरचनात्मक तात्पर्य की भी खोज नहीं हुई है

आख़िर में, सभी क्षेत्रों में उभरती तकनीक तेज़ी से भू-राजनीति, ख़ास तौर पर अमेरिका और चीन के बीच सामरिक प्रतिस्पर्धा, में उलझ रही है. इसके परिणामस्वरूप क्वॉन्टम के इर्द-गिर्द अंतर्राष्ट्रीय मानदंड आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस या अंतरिक्ष यानी अनिश्चय की स्थिति में रहने या अलग-अलग सिद्धांतों में फैले हुए रास्ते का पालन कर सकता है. भारत को निश्चित तौर पर इन बदलती भू-राजनीतिक हवाओं के मुताबिक़ आकार लेने के बदले उसे आकार देने के लिए तैयार होना चाहिए. 

निष्कर्ष: दुनिया में भारत की स्थिति 

भारत को इस अवसर का इस्तेमाल समान विचार वाले देशों के गठबंधन को विकसित करने में अग्रणी भूमिका निभाने में करना चाहिए. ऐसा गठबंधन जो तकनीक की मदद से समाधान के लिए पूंजी लगा सकता है और जो धीरे-धीरे महाशक्तियों के बीच भी सहारा पा सकता है. इस तरह की कवायद का नेतृत्व करने में भारत के लिए ख़ास तौर पर फ़ायदा है. उदाहरण के लिए, एशिया, अफ्रीका और विश्व के दूसरे हिस्सों में कई विकासशील देश भारत के तकनीकी विकास को एक विकासशील देश के लिए प्रभावशाली उपलब्धि के तौर पर मानते हैं. वास्तव में भारत को एक जोड़ने वाली शक्ति के रूप में भी देखा जाता है जो विकसित और विकासशील देशों के बीच दूरी को कम कर सकता है. ये भारत के लिए अच्छा होगा अगर वो इन तकनीकों की व्यवस्था में महत्वपूर्ण लाभ लेने के लिए ठीक समय पर उपाय करता है. 

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