Author : Shivam Shekhawat

Published on Aug 10, 2023 Updated 0 Hours ago

क्या वित्तीय परेशानियों से जूझ रहे पाकिस्तान के लिए IMF का एक और क़र्ज़ मददगार साबित होगा?

IMF के राहत पैकेज कितने असरदार: क्या रहा है पाकिस्तान का तजुर्बा
IMF के राहत पैकेज कितने असरदार: क्या रहा है पाकिस्तान का तजुर्बा

2 महीने के ज़बरदस्त सियासी उथल-पुथल और उपद्रव के बाद शहबाज़ शरीफ़ ने पाकिस्तान के 23वें प्रधानमंत्री पद का कार्यभार संभाला. इमरान ख़ान की सरकार के ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव पारित होने के बाद शरीफ़ को प्रधानमंत्री की कुर्सी हासिल हुई. इस तरह इमरान ख़ान का नाम पाकिस्तानी इतिहास के उन नेताओं में शुमार हो गया जिन्हें वक़्त से पहले अपना पद छोड़ना पड़ा. बहरहाल, देश में मचे सियासी बवाल के बीच अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) की विस्तारित कोष सुविधा (EEF) को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया. ये सुविधा पाकिस्तान की आर्थिक परेशानियों के लिए संजीवनी का काम कर सकती थी. अपने सबसे ताज़ा अनुमान में IMF ने पाकिस्तान में वित्त वर्ष 2022 में चालू खाते का घाटा जीडीपी के 5.3 प्रतिशत पर रहने की आशंका जताई है. जबकि महंगाई दर के 12.7 फ़ीसदी पर रहने का अनुमान लगाया गया है. ऐसे में मुल्क के नए निज़ाम के लिए स्थिरता बहाल करने की क़वायद में IMF की मदद और भी ज़्यादा अहम हो गई है. ज़ाहिर है आने वाले महीने नई हुकूमत के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण रहने वाले हैं. पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था के हालात को समझने और आस-पड़ोस पर उसके प्रभावों की पड़ताल के लिए IMF सहायता पैकेजों के असर की तफ़्तीश करना लाज़िमी हो जाता है. साथ ही दीर्घकाल में टिकाऊ विकास को आगे बढ़ाने में उनकी कामयाबी या नाकामियों का पता लगाना भी ज़रूरी हो जाता है.

पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था के हालात को समझने और आस-पड़ोस पर उसके प्रभावों की पड़ताल के लिए IMF सहायता पैकेजों के असर की तफ़्तीश करना लाज़िमी हो जाता है. साथ ही दीर्घकाल में टिकाऊ विकास को आगे बढ़ाने में उनकी कामयाबी या नाकामियों का पता लगाना भी ज़रूरी हो जाता है.

पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था का सूरत-ए-हाल और IMF का 13वां बेलआउट

ब्लूमबर्ग को दिए इंटरव्यू में स्टेट बैंक ऑफ़ पाकिस्तान (SBP) के पूर्व गवर्नर रेज़ा बाक़िर ने यूक्रेन में चल रहे जंग के चलते बाहरी वातावरण में अनिश्चितता और पाकिस्तान में घरेलू मोर्चे पर उथल-पुथल भरे सियासी माहौल को स्वीकार किया. हालांकि उन्होंने अर्थव्यवस्था की मज़बूत बुनियाद पर भरोसा जताया है. इस बीच IMF के सबसे ताज़ा अनुमान के मुताबिक पाकिस्तान में चालू खाते का घाटा अब-तक के सर्वोच्च स्तर पर पहुंच गया है. मार्च के अंत में मुल्क का विदेशी मुद्रा भंडार घटकर महज़ 11 अरब डॉलर रह गया था, जिससे बमुश्किल जून तक गुज़ारा मुमकिन है. पाकिस्तान का व्यापार घाटा भी 35 अरब डॉलर तक पहुंच गया है. पिछले तीन सालों से पाकिस्तानी रुपया लगातार गोते लगाता आ रहा है. निवेशकों की भावनाएं और रुख़ भी नकारात्मक हैं. ज़्यादातर निवेशकों को डर है कि पाकिस्तान एक वित्तीय संकट से बस चंद महीने दूर है.

फ़रवरी में जब विपक्षी दलों ने अविश्वास प्रस्ताव पेश किया था तब इमरान ख़ान ने कई लोकलुभावन घोषणा की. उन्होंने जून के बजट सत्र से पहले पेट्रोल समेत कई सामानों की क़ीमतों में कटौती की थी. 2.1 अरब डॉलर की लागत वाले इन सब्सिडी की उस वक़्त तीखी आलोचना हुई थी. इनसे IMF की 2 मुख्य शर्तों का उल्लंघन हो रहा था. हालांकि पद संभालने के कुछ ही दिनों बाद शहबाज़ शरीफ़ ने भी इन सब्सिडी को बरक़रार रखने का फ़ैसला किया है. ज़ाहिर है विरोध और प्रतिकूल प्रतिक्रियाओं के डर से उन्होंने ये क़दम उठाया है. सब्सिडी बरक़रार रखने की इस क़वायद से सरकारी ख़ज़ाने पर भारी बोझ पड़ेगा. नतीजतन पहले से चले आ रहे मुश्किल  भरे हालात और संगीन हो सकते हैं.  .

फ़रवरी में जब विपक्षी दलों ने अविश्वास प्रस्ताव पेश किया था तब इमरान ख़ान ने कई लोकलुभावन घोषणा की. उन्होंने जून के बजट सत्र से पहले पेट्रोल समेत कई सामानों की क़ीमतों में कटौती की थी. 2.1 अरब डॉलर की लागत वाले इन सब्सिडी की उस वक़्त तीखी आलोचना हुई थी.

पाकिस्तान की नई हुकूमत के वित्त मंत्री मिफ़्ता इस्माइल के मुताबिक सरकार देश की अर्थव्यवस्था में स्थिरता लाने के लिए IMF के साथ मिलकर काम करेगी. मुल्क में गहराते सियासी संकट के बीच 13वें बेलआउट प्रोग्राम को  ख़ारिज कर दिया गया था. इससे पहले अप्रैल 2020 में महामारी के चलते इस कार्यक्रम को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया था. मार्च 2021 में भी इसे कई महीनों के लिए टाल दिया गया था. IMF के रेज़िडेंट चीफ़ एस्थर पेरेज़ रुइज़ ने पाकिस्तान में नई सरकार के गठन के बाद IMF की ओर से मदद जारी रखने की बात दोहराई है. सातवीं समीक्षा में रुकावट आने की वजह से पाकिस्तान को 5 अरब डॉलर की वित्तीय खाई को पूरा करना होगा. देश के सामने भुगतान संतुलन से जुड़ा संकट मुंह खोले खड़ा है. इसे टालने के लिए उसे IMF और दूसरे द्विपक्षीय दानदाताओं की मदद लेनी होगी. तक़रीबन 90 करोड़ डॉलर जारी किए जाने को लेकर वार्ता प्रक्रियाओं में बाधा आने के बाद दूसरी बहुपक्षीय फ़ंडिंग एजेंसियों ने भी अपनी बजटीय सहायता रोक दी. इनमें विश्व बैंक और एशियाई विकास बैंक शामिल हैं. उन्होंने अपनी मंज़ूरियों को IMF के ‘लेटर ऑफ़ कंफ़र्ट’ से जोड़ दिया है. हाल ही में वॉशिंगटन डीसी में आयोजित ब्रेटन वूड्स स्प्रिंग मीटिंग में पाकिस्तान ने एक आर्थिक प्रतिनिधि मंडल भेजा था. इसमें वित्त सचिव, SBP के गवर्नर और एक्सटर्नल फ़ाइनेंस के अतिरिक्त सचिव शामिल थे. वहां उन्होंने IMF की टीम से भी मुलाक़ात की. IMF के साथ टेक्निकल मीटिंग भी शुरू हो चुकी है, लेकिन निकट भविष्य में समीक्षा बैठक को लेकर अभी किसी तरह की चर्चा नहीं हुई है.

संकेतक 2018/19 2019/20 2020/21 2021/22 2022/23 (अनुमानित)
वास्तविक जीडीपी में बढ़ोतरी (स्थिर बाज़ार क़ीमतें) 2.5% -1.3% 6% 4.3% 4%
जीडीपी के प्रतिशत के तौर पर चालू खाते का संतुलन -4.2 -1.5 -0.6 -4.4 -5.3
मुद्रास्फीति (मियाद के अंत की उपभोक्ता क़ीमतें, सालाना प्रतिशत) 5.2 % 8 % 8.6% 9.7% 12.7%
ऋण (जीडीपी के प्रतिशत के तौर पर) 78.0 81.1 76 76 74.4

स्रोत: IMF, स्टेट बैंक ऑफ़ पाकिस्तान, विश्व बैंक- पाकिस्तान डेवलपमेंट अपडेट

PTI सरकार के सत्ता में आने के एक साल बाद 2019 में IMF के 13वें बेलआउट पैकेज को अमल में लाया गया था. इसके तहत “टिकाऊ विकास” सुनिश्चित करने और देश की “ढांचागत विषमताओं” के निपटारे का लक्ष्य रखा गया था. पाकिस्तान के लिए 39 महीनों की मियाद में कुल मिलाकर 6 अरब डॉलर की रकम तय की गई थी. हालांकि ये क़वायद कुछ चुनिंदा शर्तों को पूरा करने पर निर्भर थी. इस रकम का आवंटन तीन-तीन महीनों पर होने वाली समीक्षा के बाद किया जाना था. कुछ चुनिंदा पैमानों पर देश के प्रदर्शन का आकलन किए जाने की बात कही गई थी. इस सिलसिले में अब तक आधी रकम पाकिस्तान को मिल चुकी है. मौजूदा हालातों में बाक़ी रकम की प्राप्ति थोड़ी मुश्किल दिखाई देती है. इस कार्यक्रम का लक्ष्य– विकास के रास्ते की घरेलू और बाहरी अड़चनों को कम करना, पारदर्शिता बढ़ाना और सामाजिक ख़र्चों में इज़ाफ़ा करना रहा है. कोविड-19 महामारी के मद्देनज़र जिंदगी और रोज़गार बचाने पर भी इस कार्यक्रम के तहत ख़ासा ज़ोर दिया गया. साथ ही व्यापक अर्थव्यवस्था और कर्ज़ की व्यावहारिकता और टिकाऊपन सुनिश्चित करने पर भी तवज्जो दिया गया है. इस पैकेज के हिस्से के तौर पर पाकिस्तान को अपने करों में बढ़ोतरी करनी थी, ताकि वो अपने विदेशी कर्ज़ चुका सके. साथ ही उसे विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ाने के उपाय भी करने थे. इस सिलसिले में मुद्रा का अवमूल्यन करते हुए उसे बाज़ार आधारित मूल्य निर्धारण के हवाले करना था. साथ ही SBP को और आज़ादी देते हुए मौद्रिक नीति को सख़्त बनाने का लक्ष्य भी था.

सवाल उठता है कि वो कौन-कौन सी वज़ह हैं जिनके चलते दुनिया भर की सरकारें IMF से मदद की गुहार लगाती हैं. SBP के पूर्व गवर्नर इशरत हुसैन ने ऐसे 6 सामान्य कारकों की सूची बनाई है. इनमें- भुगतान संतुलन का संकट टालने के लिए वित्तीय संसाधन का जुगाड़, दूसरे स्रोतों से कोष जुटाने में आसानी, निवेशकों की ओर से सकारात्मक भावनाओं के लिए ‘मंज़ूरी की मुहर’, राजनीतिक रूप से अलोकप्रिय फ़ैसलों का ठीकरा दूसरों पर फोड़ने की सहूलियत, कुछ सुधारवादी अर्थशास्त्रियों द्वारा लोकलुभावनी नीतियों पर लगाम लगाने की कोशिशें और ऋण राहत और पुनर्निर्धारण से निजात पाने के साधन शामिल हैं. कार्यपालिका द्वारा ऐसे बेलआउट पैकेज जुटाने की जद्दोजहद के पीछे मुख्य मक़सद अर्थव्यस्था में अल्पकालिक तरलता का संचार करना होता है. पैकेज की शर्तों के तौर पर किए जाने वाले बदलाव अल्पकालिक खुराक के तौर पर होते हैं. दरअसल ये दीर्घकालिक ढांचागत सुधार लाने की बजाए थोड़ी मोहलत जुटाने की क़वायद भर होती है. सभी सरकारों के अपने निजी हित होते हैं. ऐसे में ज़्यादातर बदलाव दिखावटी होते हैं क्योंकि सत्तारूढ़ राजनीतिक दल को मुल्क पर अपनी सियासी पकड़ ढीली होने की चिंता सताती रहती है. इस कड़ी में सुधार के जो भी क़़दम उठाए जाते हैं उनके फ़ायदे दीर्घकाल में ही नज़र आते हैं. ऐसे में वक़्त के घालमेल से जुड़ा कारक भी हमारे सामने आ जाता है. नतीजतन प्रभावी सुधार लागू करने के पीछे का सबब घट जाता है.

सवाल उठता है कि वो कौन-कौन सी वज़ह हैं जिनके चलते दुनिया भर की सरकारें IMF से मदद की गुहार लगाती हैं.

बेल आउट पैकेज कितने असरदार: एक आम पड़ताल

1970 के दशक के मध्य और आख़िर में आए वित्तीय संकट के बाद IMF ने वित्त पोषण से जुड़ी अनेक तरह की सुविधाओं का एलान किया था. EFF इसका एक प्रमुख हिस्सा है. ऋण के साथ जुड़ी शर्तें हमेशा से ही बहस और मतभेद का विषय रही हैं. 1979 में और ज़्यादा लोचदार रुख़ अपनाया गया. उसके बाद IMF ने ऋण से जुड़ी शर्तों को देशों के हिसाब से तय करना शुरू कर दिया. इसके तहत ग़रीबी उन्मूलन, विकास और वक़्त-वक़्त पर कार्यक्रमों के मूल्यांकन पर ज़ोर दिया गया.

अर्थशास्त्री जोसेफ़ स्टिग्लिट्ज़ ने इन शर्तों की ज़ोरदार आलोचना करते हुए IMF को खूब खरी-खोटी सुनाई है. उनके मुताबिक ये शर्तें किसी आर्थिक विश्लेषण या विचार पर आधारित न होकर “मुक्त बाज़ार की श्रेष्ठता और सरकार से चिढ़” वाली विचारधारा पर टिकी हैं. उनका मानना है कि IMF का रुख़ ‘लकीर के फ़क़ीर’ वाला है और वो हर मुल्क के लिए एक समान शर्तें सामने रखता है. स्टिग्लिट्ज़ के मुताबिक IMF की शर्तें ज़मीनी हक़ीक़तों से दूर हैं. नतीजतन लोगों पर सुधारों का बेहिसाब रूप से असर होता है. IMF ‘ढांचागत समायोजन’ पर क़िताबी रुख़ अपनाता है और उसका नज़रिया यूरोप-केंद्रित है. राजकोषीय मोर्चे पर IMF ने संयम बरतने और ख़र्चे कम करने को अनिवार्य बना रखा है. इसकी बेइंतेहा सामाजिक क़ीमत चुकानी होती है. ब्याज़ की ऊंची दरों के चलते मुल्कों के लिए अपने क़र्ज़चुकता करना दुश्वार हो जाता है. नीति निर्माण में शुरुआती हालातों, बाज़ार की ख़ामियां और ढांचागत परेशानियों का कोई ज़िक्र ही नहीं होता.

आमतौर पर इन बेलआउट पैकेजों के असर को लेकर एक राय नहीं है. कुछ लोगों को लगता है कि नियमित कर्ज़ नैतिक रूप से नुक़सानदेह होते हैं. इससे सरकारों के सामने राष्ट्रीय ऋण की अदायगी को लेकर नाकामी (sovereign default) के हालात पैदा हो जाते हैं. इस सिलसिले में 1.5-2 फ़ीसदी तक चूक होने की आशंकाएं बढ़ जाती हैं. कुछ अन्य लोगों का मानना है कि संगीन वित्तीय प्रभावों की रोकथाम करने में ये बेलआउट पैकेज बेहद उपयोगी होते हैं. बेलआउट के असर को लेकर उपलब्ध दस्तावेज़ों से अल्पकाल में आर्थिक वृद्धि में प्रत्यक्ष सुधार आने या भुगतान संतुलन संकट के निपटारे से कुल मिलाकर आर्थिक हालात में प्रगति होने के कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिले हैं. कोई ख़ास कार्यक्रम क्यों नाकाम हुआ इसे समझने के लिए अनेक वजहों पर ग़ौर करना होगा. इनमें- कार्यक्रम की संरचना, उसके क्रियान्वयन में नाकामी या बेलआउट पैकेज प्राप्त करने वाले देशों की अपनी कमज़ोरियां या नाज़ुक हालात शामिल हैं. कुछ लोगों का विचार है कि पैकेज की मियाद के दौरान बेलआउट प्राप्त करने वाले देश की विकास दर नीचे आ जाती है, लेकिन मियाद पूरी हो जाने के बाद उन देशों में विकास की रफ़्तार पहले से आगे निकल जाती है. हालांकि ये तेज़ी बेलआउट कार्यक्रम से जुड़े बिना हासिल हुई तेज़ी के मुक़ाबले धीमी ही रहती है. बहरहाल, पैकेज पाने वाले मुल्क को अलोकप्रिय सुधारों को लागू करने के लिए मजबूर करने की मौजूदा क़वायद पर बहस का दौर जारी है. इनके असर को लेकर भी स्पष्ट रूप से कोई समझ नहीं बन पाई है. पाकिस्तान जैसे देश के लिए ये हालात ख़ासतौर से चिंताजनक हैं क्योंकि वो इन पैकेजों पर बहुत ज़्यादा निर्भर है. IMF के कार्यक्रमों का पाकिस्तान में मिला-जुला रिकॉर्ड रहा है. सरकारों में बार-बार बदलावों के चलते ज़्यादातर कार्यक्रमों को अधूरा ही छोड़ दिया गया है. कई बार तो मंज़ूर की गई रकम के सिर्फ़ आधे हिस्से का ही इस्तेमाल मुमकिन हो सका है.

आमतौर पर इन बेलआउट पैकेजों के असर को लेकर एक राय नहीं है. कुछ लोगों को लगता है कि नियमित कर्ज़ नैतिक रूप से नुक़सानदेह होते हैं. इससे सरकारों के सामने राष्ट्रीय ऋण की अदायगी को लेकर नाकामी के हालात पैदा हो जाते हैं. इस सिलसिले में 1.5-2 फ़ीसदी तक चूक होने की आशंकाएं बढ़ जाती हैं.

पाकिस्तानी नज़रिया

पाकिस्तान के नवनियुक्त प्रधानमंत्री ने हाल ही में मुल्क के लिए सही मायनों में आर्थिक आज़ादी हासिल करने की दिशा में काम करने की ज़रूरत दोहराई है. उन्होंने पाकिस्तान के लिए दान और मदद पर निर्भरता से दूर निकलने की ज़रूरत बताई है. पिछले सालों में वित्तीय मदद के बदले देश की संप्रभुता के सौदे को लेकर विरोध देखा जा रहा है. 2019 में अवामी वर्कर्स पार्टी के पूर्व महासचिव और प्रवक्ता फ़ारूक़ तारिक़ ने द डिप्लोमैट को दिए इंटरव्यू में IMF की ओर से सामने रखी गई शर्तों की आलोचना की थी. उनका कहना था कि इन शर्तों की वजह से आम लोगों पर बेतहाशा बोझ पड़ गया है. उनके विचार में फ़ौज पर होने वाले भारी-भरकम ख़र्चे और कर्ज़ चुकाने की ज़रूरतों के चलते मुल्क को कुछ सालों के अंतराल पर IMF की शरण में जाना पड़ता है. उन्होंने ऊंची कुर्सियों पर IMF द्वारा अपने लोगों को बिठाए जाने पर भी सवाल खड़े किए थे. PTI के पूर्व प्रवक्ता फ़ारूख़ सलीम ने भी बेलआउट की क़वायद को अर्थव्यवस्था के लिए ‘ज़ंजीर’ क़रार दिया है. पाकिस्तान के रक्षा उत्पाद मंत्रालय के एक पूर्व सचिव ने IMF पर संगीन इल्ज़ाम लगाया है. उनके मुताबिक IMF नहीं चाहता है कि पाकिस्तान अपनी परंपरागत सैन्य शक्ति के विकास में भारत की बराबरी कर ले. बेलआउट पैकेजों पर पश्चिम का असर साफ़ दिखाई देता है, लिहाज़ा उसे भू-सामरिक कारकों से प्रभावित क़वायद के तौर पर देखा जा रहा है. Dawn के मुताबिक पाकिस्तानी नागरिकों को आर्थिक मोर्चे पर दशकों से जारी कुप्रबंधन और बचाव के लिए IMF की पनाह में जाने की सरकारी फ़ितरत की आदत लग चुकी है. लिहाज़ा वो बेलआउट पैकेज को किसी अप्रिय घटना के तौर पर न लेकर राहत की बात समझने लगी है.

लंबा दुष्चक्र

एक मुल्क के तौर पर पाकिस्तान और वहां की अर्थव्यवस्था का ज़्यादातर वक़्त IMF कार्यक्रमों के बीच ही गुज़रा है. बेलआउट पैकेज और IMF द्वारा बताए गए सुधारों की प्रक्रिया पर चलने को ‘क़ाबिल-ए-तारीफ़‘ माना गया है. इससे पाकिस्तान के लिए अन्य द्विपक्षीय स्रोतों से मदद हासिल करना आसान हो जाता है. अलग-अलग देशों की इलाक़ाई ख़ासियतों पर तवज्जो दिए बिना IMF की ओर से लागू की गई शर्तों के असर को लेकर जताई गई चिंताएं जायज़ हैं. हालांकि मुहैया करवाई गई रकम मुनासिब जगह और मक़सद से ख़र्च हो, ये सुनिश्चित करने के लिए ऐसी क़वायद ज़रूरी है. पाकिस्तान की सभी हुकूमतों के लिए IMF का राहत पैकेज एक बड़ा हथकंडा बन गया है. दरअसल वहां के हुक्मरानों के पास जनता के कल्याण और अर्थव्यवस्था की सेहत को देखते हुए प्रभावी सुधार लागू करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति और क़ाबिलियत ही नहीं रही है. हर नेता IMF से रकम उठाता है, ख़र्चे कम करने की क़वायदों के ज़रिए जनता के समक्ष  मुश्किलें प्रकट करता है और उन्हें उसी हिसाब से चलने को मजबूर करता है. फिर अपने उद्देश्य को लेकर ढीले-ढाले रवैये के कारण अपने वायदे से मुकर जाता है. अप्रैल में सुप्रीम कोर्ट ने देश के संवैधानिक मूल्यों को सर्वोच्च दर्जा देने का फ़ैसला सुनाया था. कोर्ट का ये फ़ैसला अंधेरी गुफ़ा में उम्मीद की रोशनी जैसा है.  बहरहाल, आने वाला वक़्त कठिनाइयों से भरा है. शरीफ़ की हुकूमत के सामने मुश्किलों का पहाड़ है. पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था और सियासी वातावरण में तत्काल स्थिरता लाए जाने की दरकार है.

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Shivam Shekhawat

Shivam Shekhawat

Shivam Shekhawat is a Junior Fellow with ORF’s Strategic Studies Programme. Her research focuses primarily on India’s neighbourhood- particularly tracking the security, political and economic ...

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