Author : Shruti Jain

Published on Jun 18, 2020 Updated 0 Hours ago

राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा के लिए फंड में कमी नहीं आनी चाहिए. फिर से पटरी पर लाने की योजना में जेंडर बजटिंग, बच्चों पर नज़र रखना और स्कूल बंद होने की वजह से नुक़सान का जायज़ा ज़रूरी है.

कोविड-19 का असर: लॉकडाउन के बाद आसान नहीं होगा लड़कियों का स्कूल लौटना

दुनिया भर में कोविड-19 के सबसे बड़े शिकार में से एक शिक्षा है. कोविड-19 के ख़िलाफ़ जवाब के तौर पर स्कूल और उच्च शिक्षा संस्थानों को अनिश्चित काल के लिए बंद कर दिया गया है. यूनेस्को के मुताबिक़ भारत में देशव्यापी स्कूल बंद होने से प्री-प्राइमरी से लेकर शिक्षा के उच्च स्तर तक में दाख़िला कराने वाले 32 करोड़ बच्चों पर असर पड़ा है. एक अनुमान के मुताबिक़ इनमें से 15 करोड़ 80 लाख महिला छात्र हैं. वैसे स्कूलों को बंद करना ज़रूरी एहतियाती क़दम है लेकिन इसकी वजह से लाखों लड़कियों और नौजवान महिलाओं को दूसरे जोखिमों से जूझना पड़ सकता है. वो भी ऐसे देशों में जहां जेंडर को लेकर पक्षपात की वजह से शिक्षा हासिल करना पहले से एक संघर्ष है.

भारत में जहां सीमित सामाजिक सुरक्षा लोगों को मिली हुई है, वहां महामारी के कारण जो आर्थिक और सामाजिक मुश्किलों का सामना लोगों को करना पड़ रहा है, वो शिक्षा के मामले में जेंडर असमानता को और बढ़ा सकता है

इबोला संकट के दौरान घरेलू और देखभाल की ज़रूरत के साथ-साथ कमाई की ज़िम्मेदारी की वजह से बड़ी तादाद में लड़कियों को स्कूल की पढ़ाई छोड़नी पड़ी. ज़्यादातर मामलों में स्कूल जाने के लिए लड़कियों के मुक़ाबले लड़कों को तरजीह दी गई. एक जैसे सामाजिक-आर्थिक हालात होने, जहां कि घरेलू काम-काज और देखभाल की ज़्यादातर ज़िम्मेदारी लड़कियों और महिलाओं को उठानी पड़ती है,  भारत को भी आने वाले दिनों में ऐसे नतीजों का सामना करना पड़ सकता है.

देश में कोविड-19 संकट से भी पहले पाया गया था कि जो लड़कियां रोज़ाना दो घंटे घर का काम करती हैं, उनके माध्यमिक शिक्षा पूरा करने की संभावना कम है. भारत में जहां सीमित सामाजिक सुरक्षा लोगों को मिली हुई है, वहां महामारी के कारण जो आर्थिक और सामाजिक मुश्किलों का सामना लोगों को करना पड़ रहा है, वो शिक्षा के मामले में जेंडर असमानता को और बढ़ा सकता है. महामारी का दौरा गुज़र जाने के बाद इसकी वजह से लड़कियों के स्थायी रूप से स्कूल छोड़ने का जोखिम बढ़ सकता है और हाल के वर्षों में जो फ़ायदा हुआ है वो ख़त्म हो सकता है.

स्कूल छोड़ने पर इबोला संकट से सबक़

जिन देशों में लड़कों के मुक़ाबले लड़कियों की शिक्षा पहले से बदहाल है वहां स्कूलों के बंद होने से काफ़ी  ख़राब असर पड़ सकता है. महामारी की वजह से आर्थिक दिक़्क़तें बढ़ सकती हैं और लड़कियों की शिक्षा पर इसका असर पड़ सकता है. बढ़ते घरेलू आर्थिक बोझ की वजह से माता-पिता मजबूर हो सकते हैं कि वो लड़कियों को स्कूल भेजने पर फिर से विचार करें और इसकी वजह से लड़कियों को पढ़ाई छोड़नी पड़ सकती है.

2014 में इबोला महामारी की वजह से अफीक्रा के देशों गिनी, लाइबेरिया और सियरा लियोन में इसी तरह का देशव्यापी लॉकडाउन लागू करना पड़ा था. वहां 10 हज़ार से ज़्यादा स्कूलों को बंद करना पड़ा था जिसका असर क़रीब 50 लाख बच्चों पर पड़ा. एक अध्ययन के मुताबिक़ जब छह महीनों के बाद स्कूल फिर से खुले तो छात्रों को लगभग 1,848 घंटे की पढ़ाई का नुक़सान उठाना पड़ा. गिनी में जहां 33 हफ़्ते तक स्कूल बंद रहे तो सियरा लियोन में 39 हफ़्ते तक. सियरा लियोन से मिले इबोला महामारी के आंकड़ों के आधार पर अध्ययन ने लड़कियों के स्कूल छोड़ने के संभावित असर का अनुमान निकाला. इसके मुताबिक़ कोविड-19 की वजह से छह महीने की पढ़ाई-लिखाई का नुक़सान का असर कमजोड़ और निम्न मध्यमवर्गीय देशों में लड़कियों की शिक्षा पर ज़्यादा होगा. अध्ययन के अनुमान के मुताबिक़ कुछ देश तो अपनी शिक्षा के कुल वर्षों का 50 प्रतिशत तक खो सकते हैं जबकि माध्यमिक स्कूल जाने वाली क़रीब एक करोड़ और लड़कियां महामारी के बाद स्कूल से बाहर हो सकती हैं.

सेहत, साफ़-सफ़ाई और सुरक्षा

भारत जैसे देशों में ख़राब बुनियादी ढांचे, सांस्कृतिक नियमों और ग़रीबी की वजह से लड़कियों को रोज़ाना शिक्षा के लिए रुकावटों का सामना करना पड़ता है. ऐसे देशों में स्कूल सिर्फ़ शिक्षा मुहैया कराने के मक़सद से नहीं होते बल्कि दूसरे काम के लिए भी होते हैं जिनसे लड़कियों को सेहत, साफ़-सफ़ाई, मानसिक-सामाजिक समर्थन और सुरक्षा में मदद मिलती है.

इबोला संकट के बाद सियरा लियोन में कम उम्र की लड़कियों के गर्भधारण के मामलों में अच्छी-ख़ासी बढ़ोतरी हुई. इसका सीधा संबंध स्कूलों के बंद होने से था. ज़्यादातर मामलों में गर्भधारण करना लड़कियों के फिर से स्कूल लौटने में स्थायी रुकावट बन गया.

स्कूल अक्सर उपलब्ध संसाधनों जैसे खाना, पानी और लड़कियों के लिए साफ़-सफ़ाई के मामलों में समान अवसर की इजाज़त देते हैं. हालांकि इस मामले में अभी और करने की ज़रूरत है लेकिन बीते वर्षों के दौरान कई स्कूलों ने लड़कियों को माहवारी से जुड़ी पाबंदियों से लड़ने में मदद की है और उन्हें प्रजनन स्वास्थ्य और साफ़-सफ़ाई बनाये रखने के लिए सैनिटरी उत्पाद मुहैया कराए हैं. स्कूल लड़कियों को घर के गाली-गलौज और हिंसक माहौल से बचाने के लिए पनाह भी देते हैं. स्कूलों के बंद होने से न सिर्फ़ लड़कियों के लिए उचित पोषण और सैनिटरी सुविधा की उपलब्धता पर असर पड़ा है बल्कि उन्हें शारीरिक और यौन हिंसा को लेकर भी असुरक्षित बनाया है.

इबोला संकट के बाद सियरा लियोन में कम उम्र की लड़कियों के गर्भधारण के मामलों में अच्छी-ख़ासी बढ़ोतरी हुई. इसका सीधा संबंध स्कूलों के बंद होने से था. ज़्यादातर मामलों में गर्भधारण करना लड़कियों के फिर से स्कूल लौटने में स्थायी रुकावट बन गया. यौन और प्रजनन स्वास्थ्य सेवाओं की गैर-मौजूदगी की वजह से कम उम्र के गर्भधारण, मातृत्व सुरक्षा जोखिम और अनचाहे जन्म में बढ़ोतरी हो गई. स्कूलों को बंद करने की वजह से आर्थिक बोझ घटाने के ज़रिये के तौर पर सेक्स कारोबार, बाल श्रम और बच्चों की शादी के मामलों में भी बढ़ोतरी हुई.

स्कूलों में लड़कियों को बनाये रखना

राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा के लिए फंड में कमी नहीं आनी चाहिए. फिर से पटरी पर लाने की योजना में जेंडर बजटिंग, बच्चों पर नज़र रखना और स्कूल बंद होने की वजह से नुक़सान का जायज़ा ज़रूरी है. माता-पिता पर आर्थिक बोझ घटाने के लिए स्कॉलरशिप, लड़कियों की पढ़ाई की फीस माफ़ करना और मुफ़्त में किताब-कॉपी मुहैया कराने पर विचार किया जा सकता है. इसके अलावा स्कूल के फिर से खुलने पर सैनिटेशन की सुविधाएं, खाना और पानी की उपलब्धता बहाल करनी चाहिए.

कोविड-19 संकट से उबरने के बाद स्कूल शुरू करते वक़्त स्थानीय स्तर पर जेंडर का ख्याल ज़रूर रखा जाना चाहिए. ये महत्वपूर्ण है कि स्कूल फिर से खुलने के बाद लड़कियों की हाज़िरी पर निगरानी रखने के लिए स्थानीय स्तर पर विकेंद्रित डाटा इकट्ठा किया जाए.

पढ़ाई की नुक़सान की भरपाई के लिए अतिरिक्त क्लास का इंतज़ाम किया जा सकता है. स्कूल प्रिंसिपल और प्रशासनिक अधिकारी भी ऐसी लड़कियों के बारे में जानकारी जुटाएं जिन्होंने स्कूल छोड़ दिया है. इसके अलावा कमज़ोर लोगों के लिए लगातार संवाद और उन तक पहुंचने की व्यवस्था की जाए. आंगनवाड़ी और आशा कार्यकर्ताओं के ज़रिए ज़रूरी सेवाओं जैसे भोजन और सैनिटरी उत्पादों की उपलब्धता सुनिश्चित करके सामुदायिक भागीदारी बेहतर की जा सकती है. संवाद के माध्यमों को मज़बूत करना चाहिए ताकि घरेलू हिंसा और ज़बरन शादी के मामलों पर नज़र रखकर उनकी जानकारी दी जा सके.

फ़ायदों को नुक़सान में तब्दील होने से बचाने के लिए वैकल्पिक तौर-तरीक़ों को ज़रूर अपनाया जाना चाहिए. इबोला महामारी के दौरान ऑनलाइन पढ़ाई-लिखाई के विकल्पों के मुक़ाबले कम तकनीक वाले रेडियो कार्यक्रमों के ज़रिए शिक्षा की उपलब्धता आसान थी

भारत का डिजिटल बंटवारा पहले से मौजूद शिक्षा के फ़ासले को और बढ़ाएगा. एक तरफ़ जहां भारत की 36 प्रतिशत आबादी के पास इंटरनेट की सुविधा है, वहीं जिन घरों के बच्चे स्कूल जाते हैं, उनमें सिर्फ़ 12.5 प्रतिशत के पास घर में इंटरनेट की उपलब्धता है. ऐसे हालात में स्कूल बंद होने की वजह से जो चुनौतियां खड़ी हुई हैं, उन्हें सिर्फ़ ऑनलाइन पढ़ाई के ज़रिए कम कर पाना मुमकिन नहीं है. फ़ायदों को नुक़सान में तब्दील होने से बचाने के लिए वैकल्पिक तौर-तरीक़ों को ज़रूर अपनाया जाना चाहिए. इबोला महामारी के दौरान ऑनलाइन पढ़ाई-लिखाई के विकल्पों के मुक़ाबले कम तकनीक वाले रेडियो कार्यक्रमों के ज़रिए शिक्षा की उपलब्धता आसान थी.

भविष्य के लिए योजना बनाकर और अतीत से सीखकर सरकार को स्कूलों को फिर से शुरू करने के क़दम उठाने में मदद मिलेगी और लॉकडाउन की वजह से संभावित नुक़सानों को कम किया जा सकता है. संकट के बाद शिक्षा व्यवस्था के पुनर्निमाण में जेंडर आधारित उपायों के ज़रिए लड़कियों और युवा महिलाओं के लिए कोविड-19 के व्यापक स्तर की अपूरणीय क्षति को कम करने में मदद मिलेगी.

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