जब भारत ने 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्रता प्राप्त की, तब राजनीतिक स्वतंत्रता का उल्लास अग्रणी था. लगभग दो सौ बरसों के ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के बाद ऐसा उत्सव अपेक्षित ही था, लेकिन आर्थिक एवं सामाजिक स्वतंत्रता पाने की समाज के सभी वर्गों की आकांक्षा भी वहां उपस्थित थी. ब्रिटिश शासन ने कभी समृद्ध होने की सम्मानित स्थिति से देश को वंचित कर दिया था. कैंब्रिज इतिहासकार एंगस मैडिसन ने एक बार आकलन लगाया था कि विश्व अर्थव्यवस्था में भारत की जो भागीदारी 1770 में 22.6 प्रतिशत थी (यह उसी वर्ष समूचे यूरोप की भागीदारी 23.3 प्रतिशत के लगभग बराबर थी), वह 1952 में सिकुड़कर 3.8 प्रतिशत के निराशाजनक स्तर पर आ गयी. ‘ब्रिटिश राजमुकुट का सबसे चमकदार रत्न’ बीसवीं सदी के प्रारंभ में प्रति व्यक्ति आय के मामले में दुनिया का सबसे निर्धन देश बन गया था. सर्वोच्च समृद्धि से संपूर्ण निर्धनता में हुआ यह पतन दो सदियों के औपनिवेशिक शोषण, देश से बाहर धन जाने के निरंतर प्रवाह तथा ब्रिटिश राज के लगातार अऔद्योगिकीकरण एवं क्रूर उदासीन नीति निर्धारण का परिणाम था. स्वतंत्रता से ठीक पहले 1943 का भयावह बंगाल अकाल औपनिवेशिक शासन की क्रूरता और उदासीनता का ज्वलंत उदाहरण प्रस्तुत करता है.
भारत में औद्योगिकीकरण का सफर
इन दिनों पहले चार दशकों में भारत सरकार के किये कार्यों को नकारने और उसे ‘असफल समाजवाद’ की संज्ञा देने का फैशन बन गया है. लेकिन भारत की आर्थिक नीतियों को शोषण और ब्रिटेन धन ले जाने के औपनिवेशिक विरासत के प्रभाव के संदर्भ में देखा जाना चाहिए. महायुद्ध एवं महामंदी के दौर के बाद की तत्कालीन दुनिया में कींसवाद भी उभार पर था. ब्रिटिश अर्थशास्त्री जॉन मेनार्ड कींस द्वारा प्रस्तावित हस्तक्षेप आधारित सरकारी नीति निर्धारण सत्तर के दशक तक आर्थिक नीतियों पर हावी रही. यूरोपीय व अमेरिकी महादेशों के बड़े देशों समेत दुनियाभर में इसे आर्थिक ढांचे के रूप में अपनाया गया. भारत ने भी इसे अपनी मिश्रित अर्थव्यवस्था की संरचना में लागू किया. आम विमर्श में इसे लगभग हमेशा समाजवादी विकास के सोवियत मॉडल के साथ जोड़कर देखा गया. लेकिन यह इतिहास की गलत समझ है. सदियों के औद्योगिकीकरण के बाद भारत को औद्योगिकीकरण करना था. निजी क्षेत्र अपने स्तर पर ऐसा करने में सक्षम नहीं था. ऐसे में स्वतंत्र भारत में औद्योगिकीकरण का प्रमुख कर्ता–धर्ता सरकार को ही होना था. उस समय के आठ सबसे प्रभावशाली उद्योगपतियों द्वारा प्रस्तावित प्रसिद्ध बॉम्बे प्लान इस तथ्य का प्रमाण है.
आम विमर्श में इसे लगभग हमेशा समाजवादी विकास के सोवियत मॉडल के साथ जोड़कर देखा गया. लेकिन यह इतिहास की गलत समझ है. सदियों के औद्योगिकीकरण के बाद भारत को औद्योगिकीकरण करना था. निजी क्षेत्र अपने स्तर पर ऐसा करने में सक्षम नहीं था.
आत्मनिर्भर भारत का दर्शन
बाद में राज्य का यह हस्तक्षेपकारी मॉडल दुर्भाग्यपूर्ण लाइसेंस राज व्यवस्था के रूप में पतित हो गया, जिसका दोहन निजी क्षेत्र–सरकारी नौकरशाही–राजनेताओं के गठजोड़ ने किया. लेकिन इससे यह ऐतिहासिक तथ्य प्रभावित नहीं होता है कि उस समय औद्योगिकीकरण प्रारंभ करने की आवश्यकता थी और ऐसा करने का उस समय विश्व में सबसे लोकप्रिय रास्ता राज्य का हस्तक्षेप ही था. इस औद्योगिक नीति का एक अंतर्निहित हिस्सा था आयात को स्थानापन्न करना. इसका चलन भी तब दुनियाभर में था. आधारभूत विचार दीर्घकाल में आत्मनिर्भर होने और आयात में कटौती कर विदेशी मुद्रा बचाने का था. बाद में यह भी लाइसेंस राज की ख़ामियों की भेंट चढ़ गया. बहरहाल, 2021 में भी नीति–निर्धारक और टिप्पणीकार जिस ‘आत्मनिर्भर भारत’ का मंत्रजाप कर रहे हैं, वह उसी दर्शन से आता है.
चूंकि कृषि का सकल घरेलू उत्पादन में सर्वाधिक योगदान था तथा इस पर अधिकतर लोगों की जीविका निर्भर थी (आज भी है), तो उस ओर ध्यान गया और बांध, नहर आदि इंफ्रास्ट्रक्चर विकास तथा कृषि ऋण देने के प्रयास होने लगे. औद्योगिकीकरण की प्रारंभिक लहर का परिणाम औद्योगिक ऋण के हिस्से में बढ़त के रूप में हुआ और सरकार ने सचेतन रूप से ऋण को कृषि क्षेत्र की ओर मोड़ना शुरू किया. इसमें बाद के बैंक राष्ट्रीयकरण से मदद मिली. इस प्रक्रिया का वर्तुल अब 2021 में पूरा होता दिख रहा है, जब वर्तमान सरकार कुछ सरकारी बैंकों को निजी क्षेत्र को देना चाह रही है. अस्सी के दशक आते–आते दुनिया में बड़े बदलाव हो चुके थे, सो नीति निर्धारण भी इससे अछूता नहीं रहा. हर तरह की नीतियों की एक आयु होती है और अगर बदलाव के साथ उनकी संगति नहीं रही, तो वे बेकार हो जाती हैं. भारत में अस्सी के दशक में मिश्रित अर्थव्यवस्था के राज्य-केंद्रित हिस्से का भी यही हश्र हुआ.
हर तरह की नीतियों की एक आयु होती है और अगर बदलाव के साथ उनकी संगति नहीं रही, तो वे बेकार हो जाती हैं. भारत में अस्सी के दशक में मिश्रित अर्थव्यवस्था के राज्य-केंद्रित हिस्से का भी यही हश्र हुआ.
प्रयासों के बावजूद देशभर में औद्योगिकीकरण नहीं हो सका. निर्यात अनदेखा रहा, आयात को स्थानापन्न नहीं किया जा सका और लाइसेंस राज ने अर्थव्यवस्था की प्रारंभिक गति को कुंद कर दिया. वर्ष 1947 में प्राप्त ‘सामाजिक एवं आर्थिक स्वतंत्रता’ के लाभ से सभी वर्ग वंचित रहे. अर्थव्यवस्था निरंतर विदेशी मुद्रा की कमी और भुगतान संतुलन के संकट से जूझती रही. इस स्थिति ने भारत में नीतियों में बड़े बदलाव को प्रेरित किया और वह मुक्त बाजार की ओर मुड़ गया, जिसकी शुरुआत अस्सी के दशक में की गयी थी. वर्ष 1991 तक भारतीय अर्थव्यवस्था भुगतान के सबसे बड़े संकट से ग्रस्त थी. विडंबना देखें, भारतीय सोने को बैंक ऑफ इंग्लैंड में गिरवी रखना पड़ा, मुद्रा कोष व विश्व बैंक से धन लेना पड़ा और इसी के साथ व्यापक स्तर पर उदारीकरण का दौर शुरू हुआ.
तमाम उतार-चढ़ाव से मिले सबक़
तब से तीस साल का समय गुजर चुका है. लाइसेंस राज और अन्य पाबंदियां हटाने से सकल घरेलू उत्पादन में कुछ समय के बाद बढ़ोतरी होने लगी. राजनीतिक विचारधारा से परे लगातार आयीं सरकारों ने बाजार–समर्थक मुक्त अर्थव्यवस्था के झंडे को थामे रखा और यह प्रक्रिया 2005-08 की अवधि में अपने चरम पर पहुंच गयी. सरल ऋण नीति से उत्साहित अर्थव्यवस्था ने वृद्धि दर में लगातार बढ़त बनाये रखी. ऐसे में आकांक्षाओं ने भी उड़ान भारी, स्टॉक बाजार अभूतपूर्व उत्साह दिखाया और नीति निर्धारक तीसरे चरण के सुधारों की बात करने लगे. तभी 2008 का वैश्विक वित्तीय संकट आ गया.
उदारीकरण के तीस वर्षों में बढ़ी विषमताओं को महामारी ने और विकराल बना दिया है. सरकार को आशा है कि महामारी के समाप्त होते ही अर्थव्यवस्था तेजी से करवट लेगी. लेकिन दुखद सत्य यह है कि महामारी से पहले की अवस्था में आने में अर्थव्यवस्था को कुछ साल लगेंगे.
इस संकट के तुरंत बाद भारत ने उबरने की शक्ति दिखायी, पर 2011 के आसपास विभिन्न क्षेत्रों में रूकावट के संकेत दिखने लगे. आभिजात्य और 1991 के बाद लाभान्वित हुआ नया धनी वर्ग बेचैन होने लगा. फिर 2014 में केंद्र में सरकार बदली. नयी सरकार ने प्रारंभिक दो वर्षों में कुछ आशा जगायी. तभी नोटबंदी और वस्तु एवं सेवा कर प्रणाली लागू कर दी गयी. वास्तव में भारतीय अर्थव्यवस्था उसके बाद उबर नहीं सकी है. फिर यह महामारी का दौर आ गया. उदारीकरण के तीस वर्षों में बढ़ी विषमताओं को महामारी ने और विकराल बना दिया है. सरकार को आशा है कि महामारी के समाप्त होते ही अर्थव्यवस्था तेजी से करवट लेगी. लेकिन दुखद सत्य यह है कि महामारी से पहले की अवस्था में आने में अर्थव्यवस्था को कुछ साल लगेंगे.
वर्ष 1947 की अधिकांश आर्थिक आकांक्षाएं अभी भी अधूरी हैं, लेकिन मध्य वर्ग के एक हिस्से को बीते तीस वर्षों में बहुत लाभ हुआ है. फिर भी, बीते दो दशकों में आय विषमता की खाई बहुत अधिक बढ़ी है. आबादी के बड़े हिस्से के लिए बुनियादी मानव विकास सूचकांकों में गिरावट से भारतीय समाज आज चौराहे पर खड़ा है. क्रूर महामारी स्थिति को और भयावह बना सकती है.
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