दुनिया की अर्थव्यवस्था सुस्त पड़ रही है. जोख़िम बढ़ रहे हैं और दुनिया भर के आर्थिक नीति निर्माताओं के ज़हन पर अनिश्चितता के नए बादलों का बोझ तारी है. ये जुलाई 2022 में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा दुनिया के आर्थिक भविष्य को लेकर जारी पूर्वानुमान और निष्कर्ष हैं. हालांकि स्पष्ट सोच रखने वालों को इसका अंदाज़ा तो पहले से ही था. यहां पर तीन बातों का अध्ययन करने की ज़रूरत है. पहला, आर्थिक सुस्ती कितनी गंभीर होगी और इसका अलग अलग देशों पर कैसा असर रहेगा. दूसरा, आगे किस तरह के जोखिम हैं और तीसरा, जनता को प्रभावित करने के लिए चलाए जा रहे अभियान के तहत, दिए जा रहे वो तर्क वितर्क हैं, जो अब से पहले कभी देखा नहीं गए थे. हालांकि माहौल बनाने का ये अभियान अर्थशास्त्र के बुनियादी सिद्धांतों, परिभाषाओं और उसकी मूल भावना के ही ख़िलाफ़ है. ये सभी चुनौतियां एक साथ आकर G20 में भारत की अध्यक्षता के कार्यकाल के दौरान उसके बौद्धिक नेतृत्व का इम्तिहान लेने वाली हैं.
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) के मुताबिक़, वर्ष 2022 में दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ रही अर्थव्यवस्थाओं में सऊदी अरब, भारत, इंडोनेशिया, अर्जेंटीना और तुर्की हैं. इन देशों में भी सऊदी अरब और भारत की विकास दर बाक़ी देशों से बहुत अधिक है.
आंकड़े क्या कहते हैं?
इस लेख में हम उन 19 देशों का विश्लेषण करेंगे, जो G20 के सदस्य हैं. दुनिया की GDP में इन देशों की हिस्सेदारी 80 फ़ीसद है तो विश्व व्यापार में 75 प्रतिशत. दुनिया की 60 प्रतिशत आबादी G20 देशों में ही रहती है. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) के मुताबिक़, वर्ष 2022 में दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ रही अर्थव्यवस्थाओं में सऊदी अरब, भारत, इंडोनेशिया, अर्जेंटीना और तुर्की हैं. इन देशों में भी सऊदी अरब और भारत की विकास दर बाक़ी देशों से बहुत अधिक है.
भारत के ठोस विकास की अगर हम कुछ पैमानों से तुलना करें, तो 3.2 ख़रब डॉलर वाली अर्थव्यवस्था में 7.4 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी से दुनिया की अर्थव्यवस्था पर वैसा असर नहीं पड़ेगा, जैसा 17.7 अरब डॉलर GDP वाले चीन के 3.3 फ़ीसद की दर से आगे बढ़ने या फिर 23 खरब डॉलर वाली अमेरिकी अर्थव्यवस्था की 2.3 प्रतिशत की विकास दर से पड़ेगा.
बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में भारत की विकास दर, चीन और ब्रिटेन से चार प्रतिशत से भी अधिक है. वहीं, अमेरिका, जापान और फ्रांस से भारत की विकास दर 6 प्रतिशत अधिक है, तो जर्मनी की तुलना में भारत की विकास दर छह प्रतिशत से भी ज़्यादा है. इसके अलावा, भले ही दुनिया की अर्थव्यवस्था में सुस्ती आ रही है. लेकिन, सारे देशों की विकास दर में गिरावट नहीं हो रही है; इनमें से आठ देशों- सऊदी अरब, अर्जेंटीना, मेक्सिको, दक्षिण अफ्रीका, इटली, ब्राज़ील, तुर्की और रूस- के विकास की दर में इज़ाफ़ा होने का अनुमान लगाया गया है (नीचे की सारणी देखें)
G20 देशों की अनुमानित विकास दर* |
देश |
GDP विकास दर का अनुमान (वर्ष 2022) |
अप्रैल 2022 के अनुमानों की तुलना में अंतर |
सऊदी अरब |
7.6 |
0.0 |
भारत |
7.4 |
-0.8 |
इंडोनेशिया |
5.3 |
-0.1 |
अर्जेंटीना |
4.0 |
0.0 |
तुर्की |
4.0 |
1.3 |
ऑस्ट्रेलिया |
3.8 |
-0.4 |
कनाडा |
3.4 |
-0.5 |
चीन |
3.3 |
-1.1 |
ब्रिटेन |
3.2 |
-0.5 |
इटली |
3.0 |
0.7 |
मेक्सिको |
2.4 |
0.4 |
फ्रांस |
2.3 |
-0.6 |
कोरिया |
2.3 |
-0.2 |
दक्षिण अफ्रीका |
2.3 |
0.4 |
अमेरिका |
2.3 |
-1.4 |
ब्राज़ील |
1.7 |
0.9 |
जापान |
1.7 |
-0.7 |
जर्मनी |
1.2 |
-0.9 |
रूस |
-6.0 |
2.5 |
* अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष |
अब इसे नीतियों के तालमेल का नतीजा कहें या फिर कम आधार का लाभ. लेकिन, हक़ीक़त यही है कि भारत, दुनिया की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के तौर पर इतना विशाल है कि उसकी नीतियों का विश्लेषण किया जाए. भारत की विकास दर को ठोस रूप में मापें, तो भारत की अर्थव्यवस्था में 236 अरब डॉलर का इज़ाफ़े का मतलब, ईरान, यूनान या यूक्रेन की GDP से ज़्यादा विकास होगा. फिर भी, भारत की अर्थव्यवस्था चीन या अमेरिका जितनी बड़ी नहीं है जो विश्व अर्थव्यवस्था के विकास को नेतृत्व दे सके.
भारत के ठोस विकास की अगर हम कुछ पैमानों से तुलना करें, तो 3.2 ख़रब डॉलर वाली अर्थव्यवस्था में 7.4 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी से दुनिया की अर्थव्यवस्था पर वैसा असर नहीं पड़ेगा, जैसा 17.7 अरब डॉलर GDP वाले चीन के 3.3 फ़ीसद की दर से आगे बढ़ने या फिर 23 खरब डॉलर वाली अमेरिकी अर्थव्यवस्था की 2.3 प्रतिशत की विकास दर से पड़ेगा. दिलचस्पी का एक और मुद्दा, G20 देशों की विकास दर के अनुमानों में की गई कटौती भी है. दुनिया की छह सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की विकास दर में सबसे अधिक कमी का अनुमान लगाया गया है- अमेरिका की विकास दर में 1.4 प्रतिशत की कमी आने, चीन की विकास दर में 1.1 फ़ीसद की गिरावट होने, जर्मनी की अर्थव्यवस्था की विकास दर में 0.9 प्रतिशत, भारत की दर में 0.8 फ़ीसद, जापान की दर में 0.7 प्रतिशत, फ्रांस की दर में 0.6 प्रतिशत और ब्रिटेन की विकास दर के पूर्वानुमान में 0.5 प्रतिशत की कमी का अंदाज़ा लगाया गया है.
विकसित देशों के केंद्रीय बैंकों की अगुवाई में बढ़ी हुई ब्याज दरें, पूरी दुनिया में ब्याज दरों में इज़ाफ़े का सबब बनेंगी. इससे न केवल कारोबार की लागत बढ़ेगी, बल्कि इससे ‘अंतरराष्ट्रीय मुद्रा भंडारों पर दबाव बढ़ेगा और डॉलर की तुलना में बाक़ी देशों की करेंसी की क़ीमत गिरेगी.
वहीं दूसरी तरफ़ 1.7 ख़रब डॉलर वाला रूस, जो इस वक़्त सबसे कठोर आर्थिक प्रतिबंधों का सामना कर रहा है और जिसकी GDP में छह प्रतिशत की कमी आने का आकलन पहले किया गया था, अब उसकी GDP विकास दर 2.5 प्रतिशत रहने का पूर्वानुमान लगाया गया है. वहीं, महंगाई और मुद्रा के मोर्चे पर ज़बरदस्त दबाव झेल रहे 815 अरब डॉलर की GDP वाले तुर्की की विकास दर में 1.3 फ़ीसद बढ़ोत्तरी करके इसके 4 प्रतिशत की दर से तरक़्क़ी करने का अंदाज़ा लगाया गया है. भले ही ये बातें तर्क की दृष्टि से ग़लत लगें, मगर कम से कम आंकड़े तो यही तस्वीर पेश करते हैं.
जोख़िम क्या हैं?
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के मुताबिक़, ऐसे छह बड़े जोखिम हैं, जो विकास दर पर असर डाल सकते हैं. पहला, रूस यूक्रेन का युद्ध और इसके चलते ऊर्जा संसाधनों की क़ीमत पर पड़ने वाला असर है. यूरोप को रूस की गैस आपूर्ति में पहले ही 40 फ़ीसद की कमी आ चुकी है. मांग में कमी न आने के बावजूद, रूस से यूरोप को गैस की आपूर्ति में कमी का मतलब होगा महंगाई के ज़रिए ऊर्जा संसाधनों की ऊंची क़ीमत, अर्थव्यवस्था पर चोट करेगी.
दूसरा, ऊर्जा की बढ़ती क़ीमतों की आग खाद्यान्न की क़िल्लत से और भड़केगी और इससे महंगाई में भी बढ़ोत्तरी होगी. अगर ये हालात लंबे समय तक बने रहते हैं तो ज़ाहिर है स्टैगफ्लेशन यानी आर्थिक मंदी के साथ साथ महंगाई की मार का दोहरा झटका झेलना पड़ेगा. श्रमिकों द्वारा ज़्यादा मज़दूरी की मांग करने के चलते नीति निर्माताओं को विकास के अर्थशास्त्र के बजाय, स्थिरता की राजनीति को तवज्जो देने को मजबूर होना पड़ेगा.
भारत की छवि ख़राब करने वाले ये क़िस्से उस वक़्त गढ़े जा रहे हैं, जब अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष अपने आकलन में ये कहता है कि, ‘भारत की अनुमानित विकास दर में कमी के पीछे बाक़ी दुनिया का उम्मीद से कम मुफ़ीद माहौल और तेज़ी से उठाए जा रहे सख़्ती वाले नीतिगत क़दम हैं’.
तीसरा, ब्याज दरें बढ़ाकर महंगाई को क़ाबू करने की कोशिशों से नीति निर्माताओं के सामने भयंकर बेरोज़गारी और कम क़ीमत की चुनौती खड़ी होने का डर होगा. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के पूर्वानुमान में नीति निर्माताओं को चेतावनी दी गई है कि अगर वो हालात का ग़लत विश्लेषण करके सही नीतियां नहीं बनाते हैं, तो ‘डिस्फ्लेशन यानी बेरोज़गारी और गिरती क़ीमतों से अर्थव्यवस्था के विकास में अनुमान से कहीं ज़्यादा खलल पड़ सकता है.’
चौथा, उभरती अर्थव्यवस्थाओं और विकासशील देशों में कठोर वित्तीय शर्तों के चलते क़र्ज़ का बोझ बढ़ सकता है और वो क़र्ज़ समय पर चुका पाने में असमर्थ हो सकते हैं. विकसित देशों के केंद्रीय बैंकों की अगुवाई में बढ़ी हुई ब्याज दरें, पूरी दुनिया में ब्याज दरों में इज़ाफ़े का सबब बनेंगी. इससे न केवल कारोबार की लागत बढ़ेगी, बल्कि इससे ‘अंतरराष्ट्रीय मुद्रा भंडारों पर दबाव बढ़ेगा और डॉलर की तुलना में बाक़ी देशों की करेंसी की क़ीमत गिरेगी. इससे डॉलर के रूप में देनदारी के बोझ तले दबे देशों की बैलेंस शीट का गणित पूरी तरह गड़बड़ा सकता है’.
पांचवां जोख़िम, चीन की आर्थिक सुस्ती का है. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की चिंता ये है कि चीन की ज़ीरो कोविड रणनीति और उसके चलते लगने वाले लॉकडाउन और अधिक संक्रामक वायरस के बड़े पैमाने पर प्रकोप से विकास दर पर बुरा असर पड़ सकता है. इसमें अगर हम ‘प्रॉपर्टी सेक्टर की क़ीमतों और बैलेंस शीट के असंतुलन’ को भी जोड़ दें, तो चीन एक ऐसी आर्थिक मंदी का शिकार हो सकता है, जिससे ‘पूरी दुनिया पर गहरा असर पड़ने की आशंका’ है.
छठा जोख़िम ये है कि रूस और यूक्रेन के युद्ध के चलते विश्व अर्थव्यवस्था के छिन्न भिन्न होने के चलते दुनिया के ‘कई भू-राजनीतिक खेमों में बंटने का डर है. इन ख़ेमों के अलग अलग तकनीकी मानक, सीमा के आर-पार भुगतान की व्यवस्था और रिज़र्व मुद्रा होगी.’
कैसे क़िस्से गढ़े जा रहे हैं?
अमेरिका में लगातार दो तिमाही में नकारात्मक विकास दर सबको दिख रही है. हालांकि, अभी भी अर्थशास्त्री इस आर्थिक सुस्ती को आर्थिक मंदी कहने से क़तरा रहे हैं. दुनिया का सबसे ताक़तवर देश, ऐसे मीडिया की मदद से अपने आपको बचा लेता है, जो ख़ुद के ‘उदारवादी’ होने का दावा करता है. जबकि वो उदारवाद की बुनियादी परिभाषा में भी फिट नहीं बैठता. चीन की विकास दर में बड़ी तेज़ी से गिरावट आ रही है. लेकिन, चीन के मामले में भी सुर्ख़ियां हक़ीक़त से परे हैं. चीन के पास भी कट्टर वामपंथी बुद्धिजीवी समर्थकों की जमात है, जिसे चीन में अपने कारोबारी हित बचाने में जुटी बड़ी कंपनियों से ताक़त मिलती है.
इन सबकी तुलना में भले ही भारत, G20 देशों के बीच दूसरी सबसे तेज़ी से विकसित हो रही अर्थव्यवस्था बना हुआ है. मगर उसके ख़िलाफ़ माहौल बनाने की खुली जंग चल रही है. आंकड़ों को काट- छांटकर अपने तर्क के हिसाब से मुफ़ीद बनाकर पेश किया जा रहा है. जैसे कि भारत की विकास दर में गिरावट आने की वजह, ‘विभाजनकारी राजनीति’ है. भारत की छवि ख़राब करने वाले ये क़िस्से उस वक़्त गढ़े जा रहे हैं, जब अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष अपने आकलन में ये कहता है कि, ‘भारत की अनुमानित विकास दर में कमी के पीछे बाक़ी दुनिया का उम्मीद से कम मुफ़ीद माहौल और तेज़ी से उठाए जा रहे सख़्ती वाले नीतिगत क़दम हैं’. लेकिन, जानकारों के निराशाजनक रूप से ग़ैर पेशेवराना बर्ताव के चलते, ऐसे निष्कर्षों के बजाय कुछ और ही कहानी गढ़ी जा रही है.
आगे चलकर अगर दुनिया की 60 प्रतिशत आबादी वाले G20 देश इन झूठे क़िस्सों पर यक़ीन करती है, तो मज़ाक़ उसी का बनेगा. शुक्र है कि भले ही राजनीति के पिछले दरवाज़े से ये झूठे क़िस्से आर्थिक क्षेत्र में घुसपैठ कर रहे हैं. लेकिन, विशुद्ध अर्थशास्त्र में विश्वास करने वाले बढ़त बना रहे हैं और वो ऐसे झूठे क़िस्सों की पोल खोल रहे हैं. मिसाल के तौर पर, रॉबर्ट जे. शिलर की किताब ‘नैरेटिव इकॉनमिक्स’ (प्रिंसटन यूनिवर्सिटी प्रेस 2019) इस विषय में कई नए नज़रिए पेश करने वाली है.
आंकड़ों, जोख़िमों और क़िस्से कहानियों के बीच एक ऐसा भविष्य है, जो ख़लल डालने वाला भी है और अनिश्चित भी है. जैसा कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष अपने आकलन में कहता है कि, ‘विश्व अर्थव्यवस्था का एक संभावित वैकल्पिक मंज़र ये भी हो सकता है, जिसमें ये जोख़िम हक़ीक़त में तब्दील हो जाएं, महंगाई और बढ़े और विश्व अर्थव्यवस्था की विकास दर 2022 में 2.6 फ़ीसद और 2023 में और गिरकर 2.0 प्रतिशत ही रह जाए, तो ये 1970 के बाद के सभी पूर्वानुमानों के सबसे निचले दस प्रतिशत वाले नतीजे होंगे.’ हमें इस बात पर ध्यान देते हुए ज़िम्मेदारी भरी राजनीति करनी होगी, जिससे हम जोख़िमों से निपटकर विकास की राह पर आगे बढ़ सकें.
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