Published on Dec 26, 2023 Updated 0 Hours ago
साम्राज्य की गूंज: नव-उपनिवेशवाद और वैश्विक मीडिया

ये लेख ‘व्हाट टू एक्सपेक्ट इन 2024’ सीरीज़ का एक हिस्सा है.


मीडिया, दुनिया को लेकर हमारी समझ को आकार देता है. उसके नैरेटिव हमारे नज़रियों और व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं. उपनिवेशवादी इस बात को अच्छी तरह समझते थे. उन्होंने अपने उद्यम को जायज़ ठहराने के लिए, पश्चिम के बेहतर होने के विचार को लगातार प्रचारित किया. इसके लिए उन्होंने साहित्य, संस्कृति, राजनीति और भाषा को माध्यम बनाया. स्वयं के प्रगतिशील और तार्किक होने का प्रचार उन्होंने, ‘मूल निवासियों के रूढ़िवादी और अतार्किक होने’ के बरक्स खड़ा किया, जो उपनिवेशवाद के सभ्य बनाने के मक़सद और राजनीतिक नियंत्रण को सुरक्षित बनाने के लिहाज़ से अहम था. उपनिवेशवादियों द्वारा देशों और व्याख्यानों पर क़ब्ज़ा करने का वो अभियान आज भी जारी है, क्योंकि वैश्विक मीडिया कंपनियां अपनी पहुंच और प्रभाव का इस्तेमाल, उन्हीं नैरेटिव को बनाए रखने के लिए कर रही हैं, जिनसे जनता की राय को अपने हितों के मुताबिक़ ढाला जा सके. जन चेतना ये धूर्तता भरा ‘औपनिवेशीकरण’, लोकतंत्र को कमज़ोर करता है, हामी न भरने वाली आवाज़ों को हाशिए पर धकेलता है और सामाजिक विभेद की खाई को गहरा करता है.

मुनाफ़े पर चलने वाली बड़ी मीडिया कंपनियां अक्सर देशों और बड़े कारोबारियों के साथ साझा हित साधने वाले रिश्ते से बंधी होती हैं. वो अपने प्रभाव का इस्तेमाल उन बातों को गढ़ने के लिए इस्तेमाल करते हैं, जो उनके लक्ष्यों को पूरा कर सके.

मीडिया और औद्योगिक गठजोड़

मुनाफ़े पर चलने वाली बड़ी मीडिया कंपनियां अक्सर देशों और बड़े कारोबारियों के साथ साझा हित साधने वाले रिश्ते से बंधी होती हैं. वो अपने प्रभाव का इस्तेमाल उन बातों को गढ़ने के लिए इस्तेमाल करते हैं, जो उनके लक्ष्यों को पूरा कर सके. इस आयाम का एक हैरान कर देने वाला उदाहरण हमें पहले खाड़ी युद्ध के दौरान देखने को मिला था, जब NBC युद्ध की ख़बरें देने वाले एक अहम माध्यम के तौर पर उभरा. NBC की मालिक जनरल इलेक्ट्रिक कंपनी थी, जो उन हथियारों का निर्माण कर रही थी, जिनका इस्तेमाल युद्ध के दौरान बहुत बड़े पैमाने पर हो रहा था. NBC के संवाददाताओं को अपने रिपोर्टिंग के तौर-तरीक़े की वजह से आलोचनाओं का सामना करना पड़ा था, क्योंकि वो अक्सर अपनी ख़बरों में इस बात पर बहुत ज़ोर देते थे कि ये हथियार कितने कारगर साबित हो रहे हैं. कहा जाता है उन्होंने जिस तरह युद्ध की ख़बरें पेश कीं, उनसे न केवल जनता की राय युद्ध के पक्ष में बनी बल्कि, इन हथियारों की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बिक्री भी बढ़ गई, जिससे दुनिया भर में युद्ध छिड़ने की आशंकाओं में भी इज़ाफ़ा हुआ. ताक़तवर ताक़तवर सरकारी संस्थानों और अपने स्वार्थ के लिए जुड़े कारोबारी हितों ने अपने मीडिया के प्रभाव का इस्तेमाल वैश्विक अव्यवस्था और अराजकता को बढ़ाने और इसका फ़ायदा उठाने के लिए किया. ‘बॉर्डर वार्स’ नाम की अपनी सीरीज़ की रिपोर्ट में ट्रांसनेशनल इंस्टीट्यूट ने कहा था कि, ‘सीमा सुरक्षा के ठेके लेने के सबसे अधिक फ़ायदे उठाने वाले वो थे, जिन्होंने मध्य पूर्व और उत्तर अफ्रीका में हथियारों की सबसे ज़्यादा बिक्री की थी. जिससे पूरे इलाक़े में संघर्षों को बढ़ावा मिला, जिनकी वजह से शरणार्थियों को अपने घर-बार छोड़कर भागना पड़ा […] जिन कंपनियों ने इन शरणार्थी संकटों को बढ़ाने में योगदान दिया, वो अब इसके नतीजों से भी मुनाफ़ा कमा रहे हैं.’

नया मीडिया, नई चुनौतियां

नए मीडिया और ख़ास तौर से सोशल मीडिया के उभार ने नैरेटिवों की इस जंग को और भी संगीन बना दिया है. सोशल मीडिया कंपनियां व्यापक प्रभाव वाली बेहद ताक़तवर वैश्विक शक्तियां बनकर उभरी हैं. फिर भी, उनके एल्गोरिद्म में पारदर्शिता की कमी उन्हें सरकारी संगठनों के लिए उर्वर ज़मीन बना देते हैं जो उनकी अजनबियत के तमाम पहलुओं का शोषण करके, जवाबदेहियों से बचते हुए अपने एजेंडा को आगे बढ़ाते हैं. इससे उनके अपने नज़रियों का शोर मचता है, जिसकी प्रामाणिकता या प्रभाव पर कोई ख़ास लगाम नहीं लग पाती.

इसके अलावा, उनकी सरहदों के दायरे से परे होने की प्रवृत्ति उन्हें उन देशों के क़ानूनों का सामना करने से भी बचा देते हैं. बोलने की आज़ादी और सुरक्षित ठिकाने की आड़ में छुपने वाली सोशल मीडिया कंपनियों पर राजनीतिक दख़लंदाज़ी, कंटेंट के नियमन में पक्षपात, एल्गोरिद्म में हेरा-फेरी, ख़ारिज करने की संस्कृति को बढ़ावा देने और डेटा की निजता के उल्लंघन के इल्ज़ाम लगते रहे हैं. आपस में लगभग एक जैसे तरीक़ों से काम करने वाली इन विशाल सोशल मीडिया कंपनियों द्वारा ऐसी एकरूपता वाली डिजिटल दुनिया निर्मित करने का ख़तरा है, जो इकतरफ़ा नैरेटिव को बढ़ावा देगा. ऐसे में हैरानी की बात नहीं है कि इन कंपनियों पर वैचारिक रूप से असहमत इलाकों में लोगों की पसंद को प्रभावित करने के इल्ज़ाम लगाए गए हैं.

FAIR, मीडिया बायस फैक्ट चेक और अधिकारों के लिए काम करने वाले समूहों जैसे निगरानी संगठन जैसे कि रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स इन नैरेटिव्स का मुक़ाबला करने का प्रयास कर रहे हैं. लेकिन उनकी ये चुनौतियां, सरकार की ताक़त के समर्थन प्राप्त बेहतर संसाधनों वाली मीडिया कंपनियों की बाढ़ के आगे डूब जाती हैं.

जनता की पसंद को नीचा दिखाना

दुनिया के कई देशों को, विशाल वैश्विक मीडिया कंपनियों द्वारा सरकारों की मदद से चलाए जाने वाले ग़लत जानकारी और दुष्प्रचार के अभियान का शिकार होना पड़ा है. ये गतिविधियां अक्सर जान-बूझकर अपनाई जाने वाली उन रणनीतियों का नतीजा होती हैं, जिनका मक़सद जनता की राय बदलना और निर्णय लेने की प्रक्रिया को प्रभावित करना होता है. ये बात 2020 में श्रीलंका के राष्ट्रीय चुनावों में पश्चिम की दख़लंदाज़ी के तौर पर दिखा था, जो कई अंतरराष्ट्रीय ईलम लॉबियों के ज़रिए की गई थी और जिनका प्रचार विशाल वैश्विक मीडिया कंपनियों के ज़रिए किया गया. ऐसी दख़लंदाज़ियां अभी भी जारी हैं. इसकी मिसाल हमें बांग्लादेश में आम चुनावों से पहले सत्ताधारी अवामी लीग पार्टी के ख़िलाफ़ चल रहे इकतरफा दुष्प्रचार अभियान के रूप में दिख रहा है. ये हरकतें राजनीतिक व्यवस्था में जनता का भरोसा कमज़ोर करती हैं और लोकतांत्रिक संवादों की बुनियाद को कमज़ोर करते हैं. ये विशेष रूप से परेशान करने वाला है, क्योंकि जो देश इन हरकतों का निशाना बनते हैं उनके पास न तो इतने संसाधन होते हैं और न ही क्षमता कि वो इन बहुरूपिया और परिष्कृत अभियानों का मुक़ाबला कर सकें. जनता की राय को इस तरह तोड़ने-मरोड़कर और राजनीतिक नैरेटिव गढ़कर संप्रभुता को चुनौती दी जाती है, जो आत्म निर्णय और स्वतंत्रता के सिद्धांतों के बिल्कुल विपरीत है.

अक्स दिखाने वाला आईना

जैसे जैसे तकनीकें उपद्रवों को बढ़ावा दे रही हैं. एल्गोरिद्म और जटिल होते जा रहे हैं और दुनिया पर दबदबे की होड़ गंभीर होती जा रही है, तो ये हालात अभी और बिगड़ेंगे. जब एल्गोरिद्म व्यक्तिगत पसंद नापसंद के मुताबिक़ ढला कंटेंट पेश करने के लिए और बेहतर बनाए जाएंगे, तो वो पूर्वाग्रहों को और मज़बूती देंगे, जिससे और अधिक ध्रुवीकृत समूह बनेंगे, जहां लोगों को अपनी पसंद की आवाज़ सुनाई देगी. इनसे जनता की राय में और जड़ता आएगी. ख़ास मक़सद से काम करने वाले इन हालात को अपना एजेंडा आगे बढ़ाने के लिए इस्तेमाल करेंगे.

जेनरेटिव आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) लोकतांत्रिक वाद-विवाद पर बहुत गहरा असर डालेगा. चुनिंदा तरीक़े से ग़लत जानकारी का शोर बढ़ाने और नैरेटिव को प्रभावित करने की इसकी अभूतपूर्व क्षमता इसे विचारों की जंग का नया मोर्चा बना देगी, जिससे राजनीतिक व्यवस्था पर भरोसा और भी कमज़ोर होगा. संसाधनों से भरपूर संगठन और देश इसका इस्तेमाल अपने हित साधने के लिए करेंगे. डीप फेक का उभार और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसको लेकर अपनी जज़्बाती अपील में AI विनियमन की ज़रूरत पर बल इन्ही परिस्थितियों को देखते हुए दिया था. ये हालात, तथ्य और उनको तोड़-मरोड़कर पेश करने के बीच टकराव को और बढ़ाएंगे, जिससे हक़ीक़त को कल्पना से अलग कर पाना चुनौतीपूर्ण हो जाएगा. सार्वजनिक जीवन में व्यवधान डालने वाले नैरेटिव का सामना करने में सरकारों को बाधाओं का सामना करना पड़ेगा, क्योकं वो तो अफ़वाहों, साज़िशों और सनसनी के दलदल में ही फलते फूलते हैं.

मेटावर्स जैसी इमर्सिव वर्चुअल इकोसिस्टम को अपनाने में आ रही तेज़ी और इसके द्वारा भौतिक एवं डिजिटल दुनिया के मेल से लाए जा रहे क्रांतिकारी बदलाव से चुनौतियां और भी बढ़ेंगी.

मेटावर्स जैसी इमर्सिव वर्चुअल इकोसिस्टम को अपनाने में आ रही तेज़ी और इसके द्वारा भौतिक एवं डिजिटल दुनिया के मेल से लाए जा रहे क्रांतिकारी बदलाव से चुनौतियां और भी बढ़ेंगी. इससे जो नया मंज़र खड़ा होगा, जहां पारंपरिक सरहदें और नियमन बेमानी हो जाएंगे, उनसे हमारे संवाद करने और अर्थ निकालने के तौर-तरीक़ों पर असर पड़ेगा. इकोसिस्टम की विशेषताएं, जो इमर्सिव दुष्प्रचार करने और राय बदलने वाले सिमुलेटेड तजुर्बे देने में बहुत मददगार साबित होते हैं. इससे बदनीयती से प्रेरित संस्थना, धारणाओं के निर्माण पर अधिक नियंत्रण स्थापित कर लेंगे. ग़लत सूचना ज़्यादा तेज़ी और बदनीयती से फैलेगी. निजता की चिंताएं और पेचीदा हो जाएंगी और असली दुनिया वाली सोच पर डिजिटल नैरेटिव का असर और गहरा हो जाएगा. काट-छांटकर तैयार किए गए नैरेटिव से खलल डालने वाले ताक़तवर लोग इसका और दोहन करेंगे.

पश्चिम के इस दांव-पेंच से सीखते हुए अब कई उभरते स्टेट एक्टर भी परिष्कृत मल्टीमीडिया अभियान चला रहे हैं, ताकि ख़ास अपनी सोच वाले वैश्विक प्रशासन का प्रचार यूरोप और अफ्रीका जैसे दूर दराज के इलाक़ों तक कर सकें. ये चलन अभी और रफ़्तार पकड़ेगा. उनके नैरेटिव के प्रबंधन में ब्रॉडकास्ट और सोशल मीडिया की भूमिकाएं प्रमुख होंगी, जिनका राजनीतक, आर्थिक और सामाजिक असर दूर दूर तक फैलेगा. ये बात इसलिए और भी चिंताजनक होती जा रही है क्योंकि उनके मीडिया संगठन न केवल अपने पश्चिमी समकक्षों की तुलना में लापरवाह जांच पड़ताल से बच जाते हैं, बल्कि उनके डेटा को भी अक्सर उनकी सरकारें अपने लिए इस्तेमाल करती हैं, जिससे कहीं और भयानक ख़तरा पैदा होता है.

तमाम देश, इस तरह के दुष्प्रचार और ग़लत जानकारी के प्रसार से निपटने के लिए ख़ास तौर से इनके लिए एजेंसियों के ज़रिए अपनी कोशिशें तेज़ करेंगे. फ्रांस और स्वीडन जैसे देशों ने पहले ही फेक न्यूज़ और विदेशी दख़लंदाज़ी से निपटने के लिए इकाइयां स्थापित कर ली हैं. फिर भी स्वतंत्रता और निगरानी के बीच संतुलन बनाने के लिए ऐसे तरीक़े अपनाए जाएंगे, जो शायद आज़ादियों में दखल दें. इनकी वजह से इन देशों के प्रयासों को लेकर भी विवाद उठेंगे.

उपनिवेशवादियों की नैरेटिव पर दबदबा क़ायम करने की रणनीति अब आधुनिक तौर तरीक़ों वाली हो गई है, जहां सरकारी संगठन वैश्विक मीडिया का इस्तेमाल करके, अपने हित साधने के लिए अंतरराष्ट्रीय राय में हेरा-फेरी करते हैं. सूचना का ये ‘नव-उपनिवेशवाद’ लोकतंत्र को चुनौती देता है, संघर्षों को जन्म देता है और ध्रुवीकृत करने वाले परिणामों के तौर पर सामने आता है. इन झूठों का मुक़ाबला करने की ज़िम्मेदारी जितनी सरकार की है, उतनी ही नागरिकों की भी है. जब पेन और पिक्सेल, तलवार से ताक़तवर हो जाएं, तो समय आ गया है जब न केवल उन्हें कुशलता से थामा जाए, बल्कि अंतरात्मा से इस्तेमाल भी किया जाए. वरना याद रहे कि इसके नतीजे सभी को भुगतने होंगे.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.