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ये हमारी दि चाइना क्रॉनिकल्स सीरीज़ का 146वां लेख है
कोविड-19 महामारी और उसके बाद रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध की वजह से पैदा हुए मौजूदा आर्थिक संकट का विकास वित्त के ढांचे पर मिला-जुला असर पड़ा है. वैसे तो, वैश्विक GDP में भारी गिरावट देखी गई. लेकिन, पारंपरिक दानदाताओं द्वारा आधिकारिक विकास सहायता (ODA) की मात्रा 2020 में 161 अरब डॉलर के साथ शीर्ष पर पहुंच गई. 2022 में डेवलपमेंट असिस्टेंस कमेटी (DAC) के सदस्यों द्वारा विकास के लिए दी जा रही सहायता (ODA) 204 अरब डॉलर पहुंच गई है, जिससे पता चलता है कि 2021 की तुलना में इसमें 13.6 प्रतिशत की वास्तविक बढ़ोत्तरी हुई है. इससे निश्चित रूप से ODA की बुनियादी ख़ूबी उजागर हुई है, और ये ख़ूबी यही है कि आपात स्थितियों में ये झटकों को बर्दाश्त करने में मदद का ज़रिया है. आर्थिक विकास की रफ़्तार धीमी होने और अनिश्चितताएं बढ़ने के बावजूद, आधिकारिक विकास सहायता में सबसे ज़्यादा विकास दर दर्ज की गई और इसके साथ साथ OECD देशों में ‘धीमी मगर सकारात्मक विकास दर’ दर्ज की गई. (Figure 1)
Figure 1: GDP की गति में सुस्ती की तुलना में ODA में वृद्धि
वहीं दूसरी ओर, ये बात भी सामने आई है कि बार बार ODA को आपातकालीन क़दम के तौर पर इस्तेमाल किए जाने का असल मतलब यही हुआ कि विकास की दूरगामी ज़रूरतों के लिए फंड में कमी आ गई. इसके अलावा, ख़ास तौर से सबसे कम विकसित देशों (LDCs) और कम आमदनी वाली अर्थव्यवस्थाओं के ऊपर क़र्ज़ का भारी बोझ भी चिंता को बढ़ा रहा है. वैसे तो ODA के माध्यम से उधार लेने का मतलब क़र्ज़ का बोझ बढ़ाना नहीं होता. लेकिन, इससे ये बात तो अपने आप ज़ाहिर हो जाती है कि रियायती संसाधनों से पूंजी जुटाने की मांग बढ़ रही है. इस मामले में चीन, विकासशील देशों को द्विपक्षीय क़र्ज़ देने वाला सबसे बड़ा दानदाता देश है. विश्व बैंक के मुताबिक़, चीन ने 2010 से 2021 के बीच 13.8 लाख डॉलर के नए क़र्ज़ दिए हैं; कुछ अनुमान तो उधार दी गई कुल रक़म लगभग 850 अरब डॉलर बताते हैं. (Figrue 2)
Figrue 2: क़र्ज़ देने वालों के बीच इसका आवंटन किस तरह है
निश्चित रूप से अपने 60 साल के इतिहास में आधिकारिक विकास सहायता (ODA) या फिर इसके अधिक लोकप्रिय नाम विकास में साझेदारी, विकासशील देशों के लिए बाहर से पूंजी हासिल करने का सबसे स्थिर और निर्णायक औज़ार बन गया है. फिर भी ODA भू-राजनीति से अछूता नहीं है. सच तो ये है कि बड़ी ताक़तों के बीच मुक़ाबला, स्पष्ट तौर पर अंतरराष्ट्रीय विकास के मैदान में भी दिखाई देने लगा है. इससे विकासशील देशों पर इस बात का दबाव बढ़ गया है कि वो बदलती हुई भू-राजनीतिक हक़ीक़तों से कैसे तालमेल बिठाएं. इस संदर्भ में चीन का धीरे धीरे हो रहे उभार ने न केवल भू-राजनीतिक मुक़ाबले को तेज़ कर दिया है, बल्कि इसने ‘विकास में साझेदारी’ को एक वैकल्पिक स्वरूप भी दे दिया है- यानी ऐसी साझेदारी जो मूल्यों पर आधारित हो, विचारधारा से प्रेरित हो और जिसमें सुरक्षा के मामले को भी अहमियत दी गई हो.
ग्लोबल साउथ (विकासशील देशों) के विकास में अग्रणी साझीदार के तौर पर चीन ने शुरुआती दौर में जिस तरह की परियोजनाओं में मदद की, वो उसके बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के तहत ठोस मूलभूत ढांचे के विकास और आर्थिक कनेक्टिविटी पर ज़ोर देने वाली थीं. हालांकि, महामारी की वजह से कई देशों में चीन की मदद से चलाई जा रही परियोजनाएं ‘अस्थायी तौर पर रोक दी गईं’, या ‘पूरी तरह स्थगित कर दी गईं’ जिससे परियोजनाओं को पूरा करने में देर हुई. चीन को आर्थिक क्षति हुई और कई मामलों में तो उसे इन परियोजनाओं पर नए सिरे से वार्ताएं करनी पड़ीं. सच तो ये है कि महामारी के बाद चीन ने, अफ्रीका के 17 सबसे कम विकसित देशों को क़र्ज़ में राहत देने वाले एक छोटे राहत पैकेज का भी ऐलान किया था. 2021 में ग्लोबल डेवलपमेंट इनिशिएटिव (GDI) की शुरुआत के साथ चीन, विकास में सहयोग को लेकर अपने नज़रिए और रणनीति में बदलाव ला रहा है. इसकी एक सच्चाई ये भी है कि चीन ने GDI का ऐलान करके एक सामरिक क़दम उठाया है; यानी एक ऐसा औज़ार जिसका इस्तेमाल चीन, वैश्विक प्रशासन में अपनी पहचान बनाने के लिए करने जा रहा है. कोविड-19 महामारी की आमद से पहले, चीन को BRI के माध्यम से अपनी ‘क़र्ज़ वाली कूटनीति’ के ज़रिए देशों को अपने जाल में फंसाने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काफ़ी आलोचना का सामना करना पड़ रहा था. इसीलिए, अब चीन दुनिया में अपनी छवि को चमकाने के लिए नई मुहिम शुरू कर रहा है. सच तो ये है कि GDI, BRI की कमियों को दुरुस्त कर रहा है. इसमें कोई शक नहीं कि विकास में सहयोग, ऐसा ही एक महत्वपूर्ण औज़ार है जो वैश्विक जनहित का सामरिक इस्तेमाल करने की कोशिश में केंद्रीय भूमिका निभा रहा है, विशेष रूप से यूरोप में चल रहे युद्ध और महामारी को देखते हुए ये बात और भी कही जा सकती है. GDI को टिकाऊ विकास की प्रक्रिया का रास्ता बताते हुए, चीन विकास में साझीदारी की अपनी भूमिका में धीरे धीरे बदलाव कर रहा है. GDI का एक बड़ा संदेश शायद चीन के सॉफ्ट सेक्टर्स की ओर झुकाव बढ़ाने का है. जैसे कि मानवीय विकास सहयोग, जिससे कम आमदनी वाले देशों के आर्थिक विकास को तेज़ किया जा सके और अंतत: उसका मेल चीन के एजेंडा 2030 से कराया जाए. उदाहरण के लिए, 2021 में विकास के लिए सहयोग के मुद्दे पर आया चीन का श्वेत पत्र, ग़रीबी घटाने, खाद्य आपूर्ति की लचीली श्रृंखलाएं बनाने के लिए कृषि क्षेत्र की उत्पादकता बढ़ाने, जन स्वास्थ्य व्यवस्थाओं में सुधार लाने और ग्रामीण क्षेत्रों की आमदनी बढ़ाने वग़ैरह की अहमियत को रेखांकित किया गया है.
एक सच्चाई ये भी है कि चीन ने GDI का ऐलान करके एक सामरिक क़दम उठाया है; यानी एक ऐसा औज़ार जिसका इस्तेमाल चीन, वैश्विक प्रशासन में अपनी पहचान बनाने के लिए करने जा रहा है.
हालांकि, कोविड-19 महामारी के फ़ौरन बाद ये श्वेत पत्र जारी करने से चीन की नीयत पर सवाल खड़े होते हैं. लेकिन, इससे ये भी ज़ाहिर होता है कि चीन वैश्विक मानवीय विकास के क्षेत्र पर अपनी छाप छोड़ने का प्रयास कर रहा है. जैसा लग रहा है, मानवीय मदद के क्षेत्र में क़दम बढ़ाना चीन के नेतृत्व को भू-सामरिक नज़रिए से काफ़ी आकर्षक लग रहा है. विशेषज्ञ ये मानते हैं कि GDI तो BRI के पूरक का ही काम करता है; सच तो ये है कि GDI को चीन के ग्लोबल सिक्योरिटी इनिशिएटिव (GSI) के साथ जोड़कर कसौटी पर कसा जाना चाहिए. GSI को चीन के भू-सामरिक प्रस्ताव के तौर पर देखा जा रहा है, जिसके ज़रिए वो सुरक्षा के साझा, व्यापक सहयोगात्मक और स्थायी चुनौतियों से निपटने का विकल्प देना चाह रहा है. चीन असल में GDI और GSI के ज़रिए अमेरिका के नेतृत्व वाली विश्व व्यवस्था के जवाब में विश्व की राजनीतिक और सामाजिक स्थितियों को बदलने का संकेत दे रहा है. हालांकि, जानकारों का कहना है कि भले ही ग्लोबल डेवलपमेंट इनिशिएटिव (GDI), बहुपक्षीय माध्यमों और संस्थाओं के ज़रिए टिकाऊ विकास के एजेंडे को आगे बढ़ाने की बात कर रहा है. लेकिन, सच तो ये है कि ये चीन के काम करने के तौर तरीक़े का ही उदाहरण है, जैसे कि ‘विकास पहले का सिद्धांत’ और ‘क्रियान्वयन आधारित तौर तरीक़ा.’
अगर हम हिंद प्रशांत क्षेत्र की बात करें, तो चीन इस क्षेत्र के लगभग 120 देशों का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार है. इस भौगोलिक क्षेत्र में चीन के बढ़ते दायरे के दो कारण समझ में आते हैं- अमेरिका की ताक़त में गिरावट के साथ सत्ता का बदलता संतुलन और विकास की बढ़ती चुनौतियां. ये दोनों मिलकर चीन की भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक आकांक्षाओं को ताक़त देते हैं. हक़ीक़त तो ये है कि चीन, संयुक्त राष्ट्र समेत कई बहुपक्षीय संगठनों के साथ अपने संवाद को बढ़ा रहा है, ताकि विकास में साझेदारी के अपने मॉडल का तालमेल एजेंडा 2030 से कर सके. इस मामले में हिंद प्रशांत क्षेत्र स्थायित्व का एक ज़रूरी तत्व है. ये इलाक़ा डिजिटल कनेक्टिविटी तक पहुंच के अभाव, लोकतंत्र की कमी, जलवायु परिवर्तन की वजह से हो रही तबाही, आर्थिक विकास के निम्न स्तर जैसी कई चुनौतियों का सामना कर रहा है. इसके अलावा, इन देशों के दूर-दराज़ में होने और मुख्य भूमि से नज़दीकी न होने से ये चुनौतियां और भी जटिल हो जाती हैं. विकास के लिए मदद पाने वाले देशों के तौर पर ये छोटे द्वीपीय देश, बड़ी ताक़तों के मुक़ाबले की अनदेखी नहीं कर सकते हैं. मिसाल के तौर पर इस साल मार्च में फ़ेडरेटेड स्टेट्स ऑफ़ माइक्रोनेशिया (FSM) के तत्कालीन राष्ट्रपति के तौर पर डेविड पानुएलो ने चीन द्वारा ताइवान को लेकर प्रशांत द्वीपों पर चलाए जा रहे ‘राजनीतिक युद्ध’ पर रोशनी डाली थी. छोटे द्वीपीय देशों की वफ़ादारी जीतने के लिए हिंद प्रशांत को लेकर चीन का नज़रिया सामरिक नीति से प्रेरित है. इसके साथ साथ अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए चीन से पूरी तरह अलग हो पाना मुश्किल है. मिसाल के तौर पर यूरोपीय संघ (EU) चीन को तीन भूमिकाओं यानी साझीदार, प्रतिद्वंदी और दुश्मन के रूप में देखता है.
चीन असल में GDI और GSI के ज़रिए अमेरिका के नेतृत्व वाली विश्व व्यवस्था के जवाब में विश्व की राजनीतिक और सामाजिक स्थितियों को बदलने का संकेत दे रहा है.
इसके उलट, इसी साल भारत के प्रधानमंत्री का पापुआ न्यू गिनी (PNG) का पहला और ऐतिहासिक दौरा, बेहद निर्णायक समय में हुआ है. प्रधानमंत्री मोदी का ये दौरा अहम है, क्योंकि ये ऐसे समय में हुआ जब संसाधनों से समृद्ध इस इलाक़े में चीन की बढ़ती उपस्थिति की वजह से चल रही भू-राजनीतिक होड़ चल रही है. फोरम फॉर इंडिया पैसिफिक आइलैंड्स को-ऑपरेशन (FIPIC) के तीसरे शिखर सम्मेलन को मिलकर आयोजित करके, भारत की विदेश नीति के लक्ष्यों में अब प्रशांत के द्वीपीय देशों (PICs) को भी शामिल किया गया है. विकासशील देशों की ताक़तवर नुमाइंदगी करते हुए भारत ने प्रशांत क्षेत्र के द्वीपों के साथ विकास में साझेदारी को लेकर 12 क़दमों वाले एक्शन प्लान पर से पर्दा उठाया और इसके साथ साथ, उसने स्वतंत्र, खुले और समृद्ध हिंद प्रशांत के साझा नज़रिए को भी मज़बूती देने की कोशिश की. G20 के अध्यक्ष के तौर पर भारत, विकास को ग्लोबल साउथ के मुख्य मुद्दे के तौर पर भी आगे बढ़ा रहा है. मिसाल के तौर पर भारत ने अफ्रीकी संघ (AU) को G20 के स्थायी सदस्य के तौर पर आमंत्रित करने का प्रस्ताव रखा है. ये निश्चित रूप से न केवल अफ्रीका महाद्वीप के लिए एक सकारात्मक क़दम है, बल्कि प्रशांत क्षेत्र के द्वीपीय देशों (PICs) के लिए भी है, क्योंकि कमज़ोर समुदायों के विकास को तरज़ीह दी जा रही है. सितंबर में G20 देशों के शिखर सम्मेलन को अब बस दो महीने ही बचे हैं. ऐसे में ये देखना दिलचस्प होगा कि भारत विकास के नैरेटिव को किस तरह सामरिक रूप देता है, ताकि हिंद प्रशांत क्षेत्र में टिकाऊ विकास के लक्ष्यों (SDG) के लिए पूंजी की कमी से निपटा जा सके.
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Dr Swati Prabhu is Associate Fellow with the Centre for New Economic Diplomacy at the Observer Research Foundation. Her research explores the interlinkages between development ...
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