Published on Dec 30, 2022 Updated 0 Hours ago

वैसे तो ये विधेयक अच्छी कोशिश है लेकिन इसको लेकर क़ानून में पक्षपात और लोगों की प्राइवेसी के उल्लंघन को लेकर कुछ चिंताएं भी हैं.

DNA तकनीक नियमन विधेयक में डेटा प्राइवेसी, निर्भरता और पक्षपात को लेकर चिंताएं

अप्रैल 2022 में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने DNA तकनीक (उपयोग एवं अनुप्रयोग) नियमन विधेयक के मसौदे की घोषणा की. इस घोषणा के साथ विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने अधिसूचना जारी की कि वो यौन हमले के मामलों में सबूत जमा करने की मानक किट का इस्तेमाल करके फॉरेंसिक प्रमाण जमा करने के लिए 20,000 जांच अधिकारियों, अभियोजन अधिकारियों और मेडिकल प्रोफेशनल्स को ट्रेनिंग देगा.

DNA तकनीक विधेयक के मसौदे के अनुसार इसका उद्देश्य DNA प्रोफाइल की जांच एवं भंडारण के लिए देश भर में DNA डेटा बैंक एवं DNA लैबोरेटरी की स्थापना करने और इनका इस्तेमाल अपराधों (मुख्य रूप से यौन हिंसा के अपराध) को सुलझाने में करना है. बिल का ड्राफ्ट आने से पहले भारत में DNA संग्रह, भंडारण और नियम को लागू करने में इसके इस्तेमाल पर दिशा-निर्देश जारी करने को लेकर कोई विशेष क़ानून नहीं था. हालांकि भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 की धारा 45 के तहत ‘वैज्ञानिक सबूत’ के अंतर्गत DNA सबूत को शामिल किया गया था.

DNA तकनीक विधेयक के मसौदे के अनुसार इसका उद्देश्य DNA प्रोफाइल की जांच एवं भंडारण के लिए देश भर में DNA डेटा बैंक एवं DNA लैबोरेटरी की स्थापना करने और इनका इस्तेमाल अपराधों (मुख्य रूप से यौन हिंसा के अपराध) को सुलझाने में करना है.

वैसे तो भागीदारों ने पूरी न्यायिक प्रणाली में DNA के उपयोग का विस्तार करने को लेकर पूछताछ की है लेकिन विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने इस तरह की योजना की अभी तक पुष्टि नहीं की है. इस बिल में नयेपन के बावजूद भारतीय न्याय प्रणाली में DNA को सबूत के रूप में पेश नहीं किया गया है. हालांकि DNA प्रोफाइलिंग और क़ानून लागू करने में इसका इस्तेमाल 1991 में कुन्हीरामन बनाम मनोज के केस से पितृत्व के प्रमाण के रूप में देखा गया है. इस तरह यौन हमले से परे दूसरे मामलों में DNA प्रोफाइलिंग के संभावित विस्तार की न्यायोचित रूप से आशा की जा रही थी.

ये बिल जहां जैविक सैंपल के सबूत के उपयोग को नियमित करने में मौजूदा कमियों को दूर करने की अच्छी कोशिश है लेकिन ये क़ानून में पक्षपात और निजता की कमी एवं लोगों की गरिमा के इर्द-गिर्द चिंताएं खड़ी करता है. नीति निर्माताओं और प्रशासनिक अधिकारियों को ऐसे क़ानून का विस्तार विधि प्रवर्तन के दूसरे क्षेत्रों में करने से पहले इन मुद्दों का निश्चित रूप से समाधान करना चाहिए.

डेटा पक्षपात का दुष्चक्र

DNA बिल में उन दीवानी मामलों की सूची है जहां क़ानूनी प्रक्रिया में DNA प्रोफाइलिंग का इस्तेमाल किया जा सकता है. इसका इस्तेमाल वंशावली से जुड़े झगड़ों, प्रजनन संबंधी तकनीकों से जुड़े मुद्दों, प्रवासन या विदेश गमन और राष्ट्रीय पहचान को स्थापित करने से जुड़े मुद्दों में किया जा सकता है. दस्तावेज़ में ये परिभाषित करने की आवश्यकता है कि कैसे अलग-अलग हिस्सेदार ऊपर बताए गए क्षेत्रों में क़ानून को लागू करेंगे. इस बिल में विशेष क़ानूनों के तहत अपराधों जैसे कि अनैतिक देह व्यापार (निवारण) अधिनियम, 1956; गर्भ का चिकित्सकीय समापन अधिनियम (मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट), 1971; अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 और अन्य को शामिल किया गया है.

अलग-अलग तरीक़े से इन क़ानूनों की पहले ही आलोचना हो चुकी है. इसका कारण ये है कि इन क़ानूनों में जिन समूहों के संरक्षण का दावा किया गया है, उनके ख़िलाफ़ ही इन पर भेदभाव बढ़ाने का आरोप है. उदाहरण के लिए, अनैतिक देह व्यापार (निवारण) अधिनियम उन ट्रांसजेंडर लोगों के ख़िलाफ़ भेदभाव करता है जिनकी पहुंच औपचारिक रोज़गार तक नहीं है और इस तरह उन्हें सेक्स वर्क और दूसरों से मांगने पर निर्भर रहना पड़ता है.

डेटा जमा करने वाली DNA लैबोरेटरी को लेकर असुरक्षा, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस में मौजूदा पक्षपात, मौजूदा डेटा बेस एवं जिन एल्गोरिदम की ये निगरानी करता है और जिन नीतियों में इनका इस्तेमाल किया जाता है, उनमें पक्षपात के साथ फॉरेंसिक सबूत के लिए DNA की जानकारी का क्षेत्र एक विवादास्पद काम है जिससे अल्पसंख्यकों को नुक़सान होता है (मेडिकल या रिसर्च लैबोरेटरी में DNA जांच का इस्तेमाल लोगों, पृष्ठभूमि, संबंधों और अन्य व्यक्तिगत जानकारी की पहचान करने में की जा सकती है. ये साफ़ नहीं है कि DNA बिल ऐसी लैबोरेटरी में डेटा स्टोरेज का नियमन कैसे करेगा).

बिल में दीवानी मामलों में न्यायालय की मंज़ूरी, आपराधिक छानबीन में लोगों की सहमति और लापता लोगों की पहचान की आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया है. लेकिन इस बिल में दीवानी मामलों में इस्तेमाल के लिए आवश्यक सहमति की ज़रूरत के बारे में नहीं बताया गया है. इस तरह दीवानी विवादों में शामिल लोगों से दूर ले जाया गया है.

इसके अलावा बिल के एक भाग में “शरीर के एक हिस्से के घाव की तस्वीर या वीडियो रिकॉर्डिंग या निशान” को लेकर चर्चा की गई है. इसको शामिल करना ये संकेत देता है कि तस्वीर वाले फॉरेंसिक सैंपल को शामिल करके बिल में जैविक नमूने के रूप में DNA सबूत को लेकर असंगति है. तस्वीरों या वीडियो सामग्री के एकीकरण को इस क़ानून में शामिल करने से एक अनावश्यक विरोध खड़ा हो गया है कि कैसे सबूत इकट्ठा, उनका भंडारण और इस्तेमाल किया जा सकता है क्योंकि ये नमूने प्राइवेसी की आवश्यकताओं के ख़िलाफ़ जा सकते हैं (अगर तस्वीरों वाले फॉरेंसिक डेटा को दूसरे डिजिटाइज़्ड डेटा के साथ जोड़कर इस्तेमाल किया जाता है) भले ही सबूत इस नियमन के तहत संग्रह के दिशा-निर्देशों की सहायता से जमा किया गया हो.

क़ानून को लागू करने में पक्षपात

फॉरेंसिक सैंपल का इस्तेमाल डेटा संग्रह और उसके भंडारण वाले डेटा बेस के बिना अधूरा है. DNA जांच एक केस में युग्मक (बाइनरी) (मिलान के लिए एक आसान हां या न) के रूप में हो सकता है या ऐतिहासिक डेटा बेस के इस्तेमाल के ज़रिए शामिल पक्षों की पहचान करके क़ानून लागू करने में सहायता के रूप में. ये डेटा बेस, जिनमें ऐतिहासिक, बायोमेट्रिक या स्वास्थ्य डेटा हो सकते हैं, अल्पसंख्यकों के प्रति भेदभाव के आधार पर सामान्य पक्षपात बना सकते हैं. पुलिस की स्वचालित व्यवस्था, जहां ज़्यादा निगरानी एवं पुलिस अधिकारियों को लगाने की वजह से अधिक संख्या में केस रजिस्टर होते हैं, की तरह DNA डेटा बेस को श्रेणीबद्ध करने का परिणाम अक्सर ग़लत होता है. इसका कारण है दूसरों के मुक़ाबले कुछ कमज़ोर समुदायों की असमान जांच.

क़ानून को लागू करने में फेशियल रिकॉग्निशन टेक्नोलॉजी (FRT) का इस्तेमाल पहले बताई गई प्राइवेसी की चिंताओं के अलावा ये पक्षपात भी दिखाता है. इसकी वजह से ग़लत परिणाम आते हैं (एक मामले में तो 140 में से 138 चेहरों को FRT ने ग़लत पहचाना).

डेटा एवं एल्गोरिद्मिक पक्षपातों से परे फॉरेंसिक विज्ञान में दूसरी समस्याएं भी हैं, ख़ास तौर पर DNA प्रमाण. बाल, रेशा और मौक़ा-ए-वारदात पर मौजूद अलग-अलग सैंपल के मानकीकृत विश्लेषण के अभाव में बेकसूर लोगों को सज़ा मिल सकती है. मानकीकृत विश्लेषण की ये कमी फिंगरप्रिंट विश्लेषण के मामले में भी सही है, विशेष रूप से इसलिए क्योंकि दो सैंपल के बीच न्यूनतम आवश्यक अंतर का मानकीकरण होना अभी बाक़ी है. फिंगरप्रिंट का विश्लेषण करने वाले अक्सर अपना निष्कर्ष प्रिंट पर अतिरिक्त एवं क्रमिक सूचना के आधार पर बदल देते हैं. इसका मतलब ये है कि प्रिंट से मिलान की सत्यता को सही ठहराने का काम दूसरे सबूतों के बिना निर्धारित करना मुश्किल है.

वैसे तो DNA सबूत फॉरेंसिक में महत्वपूर्ण बदलाव करने वाली चीज़ है लेकिन क़ानून को लागू करने में मदद के लिए DNA सबूत की भी एक सीमा है. उदाहरण के लिए, पूर्ण प्रोफाइल के मुक़ाबले आंशिक प्रोफाइल कई लोगों से मिल सकती है. पूर्ण प्रोफाइल भी दोषी व्यक्ति के अलावा किसी अन्य व्यक्ति से मिल सकती है. मामला उस समय और जटिल हो जाता है जब मौक़ा-ए-वारदात से कई लोगों का सैंपल जमा करने पर एक DNA प्रोफाइल ग़लत ढंग से उत्पन्न हो जाता है. ये परिणाम DNA सैंपल जमा करने, एक-दूसरे से मिल जाने, छानबीन करने वाले के पक्षपात, इत्यादि से और भी जटिल हो जाते हैं. इन सभी मुद्दों का DNA बिल में पूरी तरह समाधान करने की आवश्यकता है.

DNA सबूत संदिग्ध को अपराध की जगह पर बता सकते हैं लेकिन ये उसको कसूरवार ठहराने के लिए पर्याप्त नहीं है. इसलिए दूसरे सबूतों जैसे कि मौक़े पर होने का भौगोलिक प्रमाण, मोबाइल रिकॉर्ड, इत्यादि की आवश्यकता केस को पूरी तरह से हल करने में होगी. इसके अलावा डिजिटाइज़ किए गए और डेटा बेस में सुरक्षित डिजिटल एवं जैविक डेटा प्राइवेसी की चिंताओं को और बढ़ाते हैं.

ये चिंताएं केवल संदिग्ध को लेकर ही नहीं हैं बल्कि अगर मौक़ा-ए-वारदात पर किसी वजह से कोई और भी गया हो तो डेटा लैबोरेटरी में उसके DNA को लेकर जोखिम भी बढ़ जाता है. इसके अलावा, DNA प्रोफाइल में संभवत: कई लोग होंगे क्योंकि मौक़ा-ए-वारदात पर अपराध होने से पहले और अपराध होने के बाद कई लोगों का DNA छूट जाता है जो कि अपराध में किसी भी तरह से शामिल नहीं होते हैं.

अगर क़ानून को लागू करने में मौजूदा डेटा पक्षपातों को मिला दिया जाए तो DNA बिल का दुरुपयोग देश में जाति आधारित या सामुदायिक प्रोफाइलिंग में किया जा सकता है, विशेष रूप से उन मामलों में जहां अल्पसंख्यक समूह को उनकी संख्या से काफ़ी ज़्यादा मात्रा में अपराधी माना गया है.

इस तरह अगर क़ानून को लागू करने में मौजूदा डेटा पक्षपातों को मिला दिया जाए तो DNA बिल का दुरुपयोग देश में जाति आधारित या सामुदायिक प्रोफाइलिंग में किया जा सकता है, विशेष रूप से उन मामलों में जहां अल्पसंख्यक समूह को उनकी संख्या से काफ़ी ज़्यादा मात्रा में अपराधी माना गया है. DNA उन संवेदनशील सूचनाओं को उजागर कर सकता है जिनका उपयोग किसी समुदाय को अपराधी घोषित करने में होता है और वंशावली के बारे में जानकारी प्रकट कर सकता है. इससे सामाजिक भेदभाव में बढ़ोतरी होती है.

साथ ही, इस बिल में पुलिस की व्यवस्था को मज़बूत करने के लिए वीडियो सबूत को इकट्ठा डेटा के तहत होने और FRT की शुरुआत के कारण निगरानी प्रणाली के साथ फॉरेंसिक डेटा के संभावित संयोजन पर तुरंत ध्यान देने की आवश्यकता है क्योंकि ज़िम्मेदारी की कमी प्राइवेसी को लेकर मौजूदा चिंताओं में बढ़ोतरी कर सकती है.

ये बिल कई उद्देश्यों के लिए एक बड़े डेटा बैंक का निर्माण करता है लेकिन मुख्य चिंता है इस स्पष्टता की आवश्यकता कि किस डेटा का भंडारण किया जा सकता है. पिछले दिनों नये डिजिटल पर्सनल डेटा प्राइवेसी बिल को पेश करने के साथ संवेदनशील व्यक्तिगत डेटा और व्यक्तिगत डेटा के बीच अंतर ख़त्म हो गया है और इसमें सिर्फ़ डिजिटल डेटा के संचालन की बारीकी जुड़ने के कारण प्राइवेसी एक बड़ी चिंता बन गई है. चूंकि व्यक्तिगत प्राइवेसी को लेकर आलोचना को हर पहलू में लाया जाता है, ऐसे में DNA तकनीक बिल को एक व्यक्तिगत डेटा संरक्षण बिल की शुरुआत करने पर निर्भर नहीं होना चाहिए और इसकी अनुपस्थिति में निजता को लेकर और ज़्यादा स्पष्टता वाले दिशा-निर्देश जारी करना चाहिए. इसके अलावा, DNA प्रोफाइलिंग को और विश्वसनीय बनाने के लिए न्यायिक प्रणाली में इस्तेमाल किए जाने वाले दूसरे साधनों के साथ DNA तकनीक के उपयोग को लेकर विशिष्ट दिशा-निर्देश जारी होने चाहिए ताकि भविष्य में न्याय को कुचलने से परहेज किया जा सके.

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