बिख़रते तालिबान का दहकता अफ़ग़ानिस्तान!
साल 2021 की गर्मियों में अफ़ग़ानिस्तान में किए गए आक्रमण के दौरान, तालिबान ने एकजुट सैन्य-राजनीतिक इकाई के रूप में काम करने की अपनी क्षमता का प्रदर्शन किया. इसमें कोई संदेह नहीं था कि आंदोलन की कमान एक एकल कमांड सेंटर के पास थी, जिसमें बेहद अनुशासित, योग्य इकाइयाँ थीं और वह केंद्रीकृत नेतृत्व के निर्देशों का पालन कर रही थीं. अफ़ग़ानिस्तान में घुसने से की पूर्व संध्या पर, तालिबान ने अपने समर्थकों को काबुल में प्रवेश कराया, जो तब तक संख्या में काफी हद तक बढ़ चुके थे. दक्षिण और पूर्व में हमले के साथ ही उत्तर में तालिबान बलों की कार्रवाइयों ने एक सुनियोजित और दृढ़ रणनीति का प्रदर्शन किया. तालिबानी सेना ने जिस तरह आतंकवादियों की भटकाव की रणनीति का इस्तेमाल करते हुए, छोटे-छोटे गुट बनाकर अलग अलग तकनीकों का इस्तेमाल किया उसने अफ़ग़ान सेना और पुलिस के लिए उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई और लड़ाई को असंभव बना दिया. अनुभवजन्य सामग्री के आधार पर, समय के साथ यह स्पष्ट हो रहा है कि तालिबान ने एकल सैन्य-राजनीतिक इकाई के रूप में काम करने की क्षमता का प्रदर्शन किया.
इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि काबुल पर जीत के दौरान तालिबान की सैन्य और राजनीतिक सफलता स्पष्ट रूप से पाकिस्तानी सेना के पूरे सहयोग और समर्थन से जुड़ी हुई थी.
यह कोई आश्चर्य की बात नहीं थी, क्योंकि विद्रोही आंदोलनों के ऐसे उदाहरण इतिहास में कई जगह पाए जा सकते हैं जहां महत्वपूर्ण समय पर विद्रोही आंदोलन सुरक्षा बल और संसाधन जुटाने में सक्षम रहे हों. सैद्धांतिक रूप में, इस तरह के दृष्टिकोण की कल्पना तभी की जा सकती है जब ऐसे समूहों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किसी घटक द्वारा समर्थन प्राप्त हो, जैसे कि कोई राष्ट्र-राज्य या अंतरराष्ट्रीय प्रमुख शक्तियां. अफ़ग़ानिस्तान के मामले में यह एक क्षेत्रीय खिलाड़ी, पाकिस्तान था (और अब भी है), जिसने विद्रोहियों को संरक्षण व संसाधन दिए.
गौरतलब है कि तालिबान नेताओं के काबुल पहुंचने के कुछ ही दिनों बाद फैज़ हमीद के नेतृत्व में एक इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (आईएसआई) प्रतिनिधिमंडल ने उनसे मुलाकात की थी. उसके बाद, इस तरह के दौरे नियमित होते गए, और काबुल और अन्य अफ़ग़ान शहरों में पाकिस्तानी सुरक्षा बलों के साथ खुले संबंध आम हो गए. यही वजह है कि इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि काबुल पर जीत के दौरान तालिबान की सैन्य और राजनीतिक सफलता स्पष्ट रूप से पाकिस्तानी सेना के पूरे सहयोग और समर्थन से जुड़ी हुई थी. कूटनीतिक तौर पर और इस्लामाबाद ने ऐतिहासिक रूप से इस तथ्य का हमेशा खंडन किया है, लेकिन पाकिस्तान का इस तथ्य को नकारना विशेषज्ञ समुदाय के भीतर कोई चिंता की बात नहीं है.
चीन इस क्षेत्र में प्राथमिक या यू कहें कि मुख्य अभिनेता नहीं है, और वह निश्चित रूप से विद्रोही संगठनों का विरोध करने की पहल करने में माहिर नहीं है. इस मायने में चीन की ताक़त कम से कम आने वाले कुछ समय के लिए यानी निकट और मध्यम अवधि में आर्थिक धरातल पर बने रहने की ही संभावना है.
विद्रोही समूहों ने अतीत में कुछ लड़ाइयाँ जीती हैं, लेकिन इसके बाद सफल और दीर्घकालिक सरकारें स्थापित करने की मिसालें दुर्लभ हैं. ऐसा इसलिए है, क्योंकि एक बार दुश्मन की हार के बाद, किसी भी विद्रोही संगठन के भीतर एक साझा दुश्मन-के लिए एकजुट अस्तित्व बनाए रखने की सैद्धांतिक ज़रूरत गायब हो जाती है. तालिबान का अब अफ़ग़ानिस्तान पर मजबूत नियंत्रण है. तालिबान के पास सैन्य, राजनीतिक या आर्थिक संसाधनों के मामले में अपनी स्थिति को कम करने में सक्षम कोई विरोधी नहीं है. साथ ही तालिबान की कट्टरपंथी विचारधारा में कोई सार्थक बदलाव नहीं आया है. यह अभी भी एक आतंकवादी संगठन है जिसके पास संयुक्त राष्ट्र के एक सदस्य देश पर खासा अधिकार है.
अफ़ग़ानिस्तान के बाहर और अंदर, 10 से अधिक विपक्षी संगठन, दल और संघ पहले ही बन चुके हैं. अफ़ग़ानिस्तान फ्रीडम फ्रंट, अफ़ग़ान नेशनल लिबरेशन फ्रंट, अफ़ग़ान नेशनल रेजिस्टेंस फ्रंट, और तुर्की में राष्ट्रीय प्रतिरोध की सर्वोच्च परिषद सभी शक्तिशाली सरदारों और राज्यपालों के नेतृत्व में हैं. वास्तव में, ऐसे समूह सुस्त रहते हैं और, ऐसा महसूस होता है, उनके पास वास्तविक संसाधन क्षमता नहीं है और समर्थन व नेटवर्क की कमी है. हालाँकि, सबसे पहले, हम एक ऐसी राजनीतिक प्रक्रिया से निपट रहे हैं जो लगातार बदलने की प्रवृत्ति रखती है. दूसरा, ऐतिहासिक रूप से, ऐसे संघर्ष महान और क्षेत्रीय शक्तियों की इच्छा और बदलती नीतियों से जुड़े हुए हैं.
अफ़ग़ानिस्तान में बड़ी ताक़तों की भूमिका
इसका मतलब यह नहीं है कि निकट या दूर भविष्य में वैश्विक राजधानियों में राजनीतिक धूरियां बदलने की स्थितियां नहीं पैदा हो सकतीं. विश्व की प्रमुख शक्तियों के रूप में- संयुक्त राज्य अमेरिका (अमेरिका) और चीन ने तालिबान के ख़िलाफ़ अपने रुख को सख़्त करने के कोई ठोस संकेत नहीं दिखाए हैं. इसके उलट, बीजिंग आर्थिक और बुनियादी ढांचों से संबंधित परियोजनाओं को सुरक्षित करने के लिए अफ़ग़ानिस्तान में नए नेतृत्व के साथ काम करने में हिचकिचा रहा है. बीजिंग और इस्लामाबाद के बीच संबंध भी इसी तरह उल्लेखनीय हैं, और इसे पारंपरिक व सैद्धांतिक रूप में संरक्षक-ग्राहक के संबंध के रूप में देखा जा सकता है. संक्षेप में, इस मोर्चे पर चीन की नीति पाकिस्तान द्वारा निर्देशित होती है, जिसे अफ़ग़ान वास्तविकताओं की बेहतर समझ है. हालाँकि, चीन इस क्षेत्र में प्राथमिक या यू कहें कि मुख्य अभिनेता नहीं है, और वह निश्चित रूप से विद्रोही संगठनों का विरोध करने की पहल करने में माहिर नहीं है. इस मायने में चीन की ताक़त कम से कम आने वाले कुछ समय के लिए यानी निकट और मध्यम अवधि में आर्थिक धरातल पर बने रहने की ही संभावना है.
विश्व राजनीति में हाल के महीनों की घटनाओं के बीच हम यह देखते हैं कि विश्व की बड़ी शक्तियों के सामने क्षेत्रीय ताक़तें बेहद कम प्रभुत्व रखती हैं.
संयुक्त राज्य अमेरिका, अंतरराष्ट्रीय मामलों में सबसे शक्तिशाली अभिनेता के रूप में बाकी सभी ताक़तों पर भारी है और यही वजह है कि अफ़ग़ानिस्तान के इतिहास में सबसे पेचीदा खिलाड़ी भी रहा है. ज़ाहिर है, वाशिंगटन अफ़ग़ान मुद्दे से आगे बढ़ना चाहता है और अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करना चाहता है, जैसे कि चीन द्वारा बढ़ते ख़तरे. ये गहरी भू-आर्थिक और भू-राजनीतिक चुनौतियां हैं, जिनके लिए अमेरिका अपनी पूरी ताक़त और संसाधन क्षमता को प्रतिबद्ध करना चाहता है. हालाँकि, विश्व राजनीति में सामाजिक वास्तविकता को आकार देने की वाशिंगटन की अद्वितीय क्षमता वाशिंगटन को अफ़ग़ान नीति में अपनी ज़रूरत के मुताबिक बदलाव की अनुमति देती है.
क्षेत्रीय ताक़तों का अफ़ग़ान राजनीति पर असर
अंतरराष्ट्रीय फलक पर देखें तो क्षेत्रीय ताक़तों की अफ़ग़ान राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं है और वे मौजूदा सत्ता संतुलन को बदलने का प्रयास नहीं करते हैं. आमतौर पर यह रुख उनके द्वारा अपने शीर्ष स्तरीय सहयोगियों या भागीदारों की स्थिति की समीक्षा करने के बाद अपनाया जाता है. इसके अलावा क्षेत्रीय ताक़तों की अफ़ग़ान राजनीति में रुचि कम हो गई है और वे महसूस करते हैं कि अफ़ग़ानिस्तान की राजनीति में घटनाओं के क्रम में वास्तविक मूलभूत बदलाव केवल बड़ी ताक़तों द्वारा ही किए जा सकते हैं. हालांकि यह पूरी तरह सच नहीं है, लेकिन विश्व राजनीति में हाल के महीनों की घटनाओं के बीच हम यह देखते हैं कि विश्व की बड़ी शक्तियों के सामने क्षेत्रीय ताक़तें बेहद कम प्रभुत्व रखती हैं.
भारत, आतंकवादी ताक़तों की लगातार बढ़ती पहुंच को ले कर चिंतित है और इस क्षेत्र में पाकिस्तान की भूमिका को लेकर लगातार सावधान रहता है. हालांकि, यह माना जा सकता है कि नई दिल्ली ऐसे कदम नहीं उठाएगी, जो कुछ विशेषज्ञों के अनुसार, उसके राष्ट्रीय हित में होगा. पूर्वी यूरोप में अपनी अपेक्षाकृत विवादास्पद स्थिति को देखते हुए, ऐसा प्रतीत होता है कि रूस ने कुछ समय के लिए खुद को प्रमुख क्षेत्रीय राजनीति से बाहर कर लिया है. रूस पर लगाए गए अभूतपूर्व प्रतिबंध, जिनका आगे आने वाले समय और इतिहास में शायद ही कोई सानी हो, रूस के विकास को धीमा कर देंगे. यह निश्चित तौर पर दुनिया में मॉस्को के प्रभुत्व को प्रभावित करेगा – खासतौर पर और ज़्यादातर यूरेशियन महाद्वीप को. मास्को, जिसने कई गलतियां की हैं, वह अब गंभीर चुनौतियों का सामना कर रहा है. उसके पास अब “बिग गेम” के बारे में सोचने का कोई मौका नहीं है और उसकी अप्रभावी विदेश नीति को देखते हुए, अफ़ग़ान समस्या में उलझना रूस के लिए एक विलासिता बन जाएगा.
तज़िकिस्तान तालिबान के उदय के बारे में गहराई से चिंतित है, लेकिन यह तथ्य कि उस के पास मज़बूत आर्थिक मददगारों की कमी है और वह मॉस्को के साथ संबद्ध अपने हितों से बाध्य है, तालिबान के प्रति उसके विरोधी रुख को नहीं बढ़ाएगा.
इस बीच मध्य एशियाई देश रूस के पतन से प्रभावित होंगे और इस बात की सबसे अधिक संभावना है कि वे इन मामलों में बेहद सतर्क रहेंगे. उज़्बेकिस्तान का मानना है कि तालिबान प्रशासन के लिए गुप्त समर्थन सही है. यह सिलसिला किसी न किसी रूप में जारी है. तज़िकिस्तान तालिबान के उदय के बारे में गहराई से चिंतित है, लेकिन यह तथ्य कि उस के पास मज़बूत आर्थिक मददगारों की कमी है और वह मॉस्को के साथ संबद्ध अपने हितों से बाध्य है, तालिबान के प्रति उसके विरोधी रुख को नहीं बढ़ाएगा. कमज़ोर ईरान के लिए अफ़ग़ान संकट से बड़ी चिंताएं हैं. यही वजह है कि इन अलग-अलग कारणों से, क्षेत्रीय शक्तियाँ अफ़ग़ानिस्तान में शक्ति के मौजूदा संतुलन को बदलने वाली घटक नहीं बन पाएंगी.
जैसा कि पहले कहा गया है, विद्रोही आंदोलनों और दलों की प्रतिस्पर्धी और प्राथमिक ताक़त लक्ष्य के प्रति प्रेरित रहना है. यह तभी संभव है जब कोई बाहरी (या आंतरिक) विरोधी लगातार बना रहे. अफ़ग़ानिस्तान में फिलहाल ऐसा कुछ नहीं है. तालिबान को अफ़ग़ान के जटिल आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों के साथ अकेला छोड़ दिया गया है. संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, यह देश मानवीय आपदा और भूखमरी का सामना कर रहा है. बाहरी वित्तीय संसाधनों पर रोक लगा दी गई है और इस बात को मानने का कोई कारण नहीं है कि तालिबान बहुत जल्द उन तक पहुंच प्राप्त कर सकेगा. पिछले कुछ दशकों में, देश का बजट मुख्य रूप से विदेशी वित्तीय सहायता के बल पर बनाया गया है. अर्थव्यवस्था अभी भी अपने आप चलने की स्थिति में नहीं है और निर्यात क्षमता अनिवार्य रूप से न के बराबर है. अफ़ग़ानिस्तान की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से मादक पदार्थों पर टिकी है. आंदोलन का शीर्ष नेतृत्व मुख्य रूप से पुरातनपंथी सदस्यों से बना है. ये वरिष्ठ नागरिक हैं जिन्होंने अपना अधिकांश जीवन जिहाद के लिए भूमिगत रहकर बिताया है. एक संस्था के रूप में तालिबान कभी भी आर्थिक या राजनीतिक संस्थानों के विकास में शामिल नहीं रहा है. तालिबान को यह नहीं पता कि क्या करना है या कम या ज़्यादा कार्यात्मक प्रणाली कैसे स्थापित करना है. यहां यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि तालिबान प्रशासन के तहत अफ़ग़ानिस्तान ने जिन परिस्थितियों में खुद को पाया, वे अत्यधिक प्रतिकूल हैं. छह महीने बाद भी, अंतरराष्ट्रीय समुदाय के किसी भी सदस्य द्वारा तानाशाही को मान्यता नहीं दी गई है.
नतीजतन, विद्रोही, जो केवल तोड़फोड़ और आतंकवादी युद्ध करना जानते हैं, वह खुद को एक बर्बाद अर्थव्यवस्था के साथ अलग-थलग पा रहे हैं और लाखों की आबादी भुखमरी और मानवीय आपदा का सामना कर रही है. आंतरिक संघर्ष पैदा होने पर ऐसी परिस्थितियों में कोई भी व्यवस्था आत्म-विनाश के लिए अभिशप्त है. यह सब बिगड़ती अर्थव्यवस्था और संसाधन की कमी की पृष्ठभूमि में हो रहा है. विदेशी प्रायोजक केवल आंशिक रूप से ही इन स्थितियों का प्रतिकार कर सकते हैं. यही वजह है कि संरक्षकों के बीच व उनके साथ संभावित विवाद की स्थितियां पैदा हो रही हैं और इस तरह के मामले सामने आ रहे हैं. पिछले दिनों विश्व मीडिया ने तालिबान और पाकिस्तानी सुरक्षा बलों के बीच झड़पों और प्रांतों में तालिबान नेताओं पर अफगानों द्वारा हमलों के कुछ मामलों की सूचना दी है.
यहां यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि तालिबान प्रशासन के तहत अफ़ग़ानिस्तान ने जिन परिस्थितियों में खुद को पाया, वे अत्यधिक प्रतिकूल हैं. छह महीने बाद भी, अंतरराष्ट्रीय समुदाय के किसी भी सदस्य द्वारा तानाशाही को मान्यता नहीं दी गई है.
ये घटक एक ऐसी स्थिति बनाने की ओर बढ़ रहे हैं जिसमें निकट भविष्य में आंदोलन को अस्थिर करने की क्षमता है – यानी आंदोलन के भीतर संघर्ष और अस्थिरता. तालिबान के अंतर्विरोध अब लगातार स्पष्ट होते जा रहे हैं. हम दो मज़बूत प्रतिस्पर्धी गुटों की उपस्थिति देख रहे हैं जिनके बीच एक अंतर्निहित संघर्ष है जो लगातार मुठभेड़ों, आपसी रिश्तों और बातचीत के बीच झूल रहा है. कुछ लोग बातचीत की इस प्रणाली को संघर्ष के बजाय सरकार में कई समूहों के बीच प्रतिद्वंद्विता के रूप में व्याख्यायित करते हैं. उदाहरण के लिए, सिलोवोकी बनाम प्रणालीगत उदारवादियों के बीच का अंतर क्रेमलिन अध्ययनों में विस्तार से सामने आया है. इस टिप्पणी से सहमत हुआ जा सकता है लेकिन यह एक अस्थिर राज्य की संरचना के संदर्भ में एक ऐसे संघर्ष की नींव रख सकता है जो तेज़ी से सैन्य टकराव में बदल जाए. अफ़ग़ान स्थितियां, संस्थाओं, नियंत्रण और संतुलन की प्रणाली पर नहीं टिकी नहीं हैं. इसके अलावा आर्थिक पतन की स्थिति में विरोध और विद्रोह को बढ़ावा मिलने व संघर्ष की संभावना बहुत हद तक बढ़ जाती है. साथ ही यह बात भी ज़ोर देने योग्य है कि तालिबान सभी कठिनाइयों के बावजूद, कम से कम काबुल में एक एकीकृत कमान बनाए रखने का प्रबंधन कर रहा है. हालांकि, इन कारकों को देखते हुए, ऐसी संरचना में कुछ बदलाव हो सकते हैं.
अलगाव की संभावना?
लेखक का अध्ययन और उससे जुड़ी परिकल्पना बताती है कि तालिबान आंदोलन के भीतर दो सशर्त कबीलाई (समूह) हैं. पहला कबीला: पूर्वी पश्तून, पश्तून आदिवासी संघ के प्रतिनिधि-गिल्ज़य- और ज़ादरान यूनियन ऑफ़ फ्री एंड मिलिटेंट ट्राइब्स का है. यह कबीला सबसे अधिक कट्टरपंथी है, और यह काफी हद तक उन कट्टरपंथियों से मिलकर बना है, जो पिछले दो दशकों के दौरान अफ़ग़ान राजधानी में हुए अधिकांश आतंकवादी हमलों के लिए ज़िम्मेदार हैं. हक्कानी नेटवर्क, तालिबान की सबसे कट्टर शाखा, इस कबीले का एक अभिन्न अंग है, और इसका कमांडर सिराजुद्दीन हक्कानी है. कई मायनों में, यह समूह अफ़ग़ानिस्तान के “बिग पंक्तियाँ” या पूर्वी क्षेत्रों के प्रतिनिधियों से बना है. गिलज़े-ज़ादरान साझेदारी असामान्य रूप से स्थिर है, फिर भी इसे शाश्वत रूप से मज़बूत नहीं कहा जा सकता है. बहुत मुमकिन है कि हक्कानी नेटवर्क (ज़ादरान) और मुल्ला याकूब (गिलज़े) के समर्थकों के साथ, यह कबीला कबीलाई आधार पर विभाजित हो जाए. इस कबीले पर पाकिस्तानी सेना और आईएसआई की पैनी नज़र है.
यह मुल्ला बरादर के नेतृत्व में उदारवादी तालिबान का एक सशर्त “दोहा समूह” है. इस कबीले के नेता अंतरराष्ट्रीय संबंधों में सुधार, संवाद और समावेश के लिए प्रतिबद्ध हैं.
दूसरा कबीला: दुर्रानी आदिवासी परिसंघ दक्षिणी पश्तूनों का एक समूह है. यह समूह तथाकथित “ग्रेटर कंधार” के सांसदों से बना है, जिसमें हेलमंद और कंधार के सबसे बड़े प्रांत शामिल हैं. इस वर्ग के कई सदस्य वार्ता प्रक्रिया में भाग ले रहे थे और तालिबान नेताओं की तुलना में विदेशी बातचीत में बेहतर रूप से एकीकृत थे. यह मुल्ला बरादर के नेतृत्व में उदारवादी तालिबान का एक सशर्त “दोहा समूह” है. इस कबीले के नेता अंतरराष्ट्रीय संबंधों में सुधार, संवाद और समावेश के लिए प्रतिबद्ध हैं.
इस कबीले ने इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ अफ़ग़ानिस्तान की विशिष्ट उपलब्धियों को संरक्षित करने के लिए हर संभव प्रयास किया. यह राजनीतिक व्यवस्था के बुनियादी ढांचे के अंधाधुंध विनाश का समर्थक नहीं था, और अफ़ग़ानिस्तान के इस्लामी गणराज्य के झंडे को लेकर बहुत हद तक हठधर्मी नहीं था. वे मुख्य रूप से मानवीय और आर्थिक मंत्रालयों के प्रभारी हैं. पाकिस्तान और आईएसआई के साथ उनके संबंध बेहतर हैं लेकिन परस्पर विरोधी हैं. दूसरा समूह, चरमपंथियों, अमीरात समर्थकों और 1990 के दशक के व्यवहार की वापसी का प्रतिनिधित्व करता है. वे ज़्यादातर कानून प्रवर्तन अधिकारियों के तौर पर नेतृत्व में हैं.
आने वाले कुछ समय में तालिबान आंदोलन में फूट पड़ने की संभावनाएं हैं. कई कबीले एक दूसरे के साथ गुप्त रूप से टकराव की स्थिति में हैं. यह कारक अपने आप में जल्द ही देश को और अधिक अस्थिरता की ओर ले जा सकते हैं.
निष्कर्ष
निष्कर्ष के रूप में, पिछले छह महीनों में, तालिबान ने अविभाजित रूप से अफ़ग़ानिस्तान पर शासन किया है. कट्टरपंथी आंदोलन की आक्रामक जीत ने सत्ता के क्षेत्रीय संतुलन और विदेशी ताक़तों की प्राथमिकताओं को बदल दिया है. इसने क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के अभिनेताओं के राजनीतिक समीकरण को बदल दिया. साथ ही, देश में आर्थिक स्थिति आपदा के कगार पर है, क्योंकि तालिबान के संसाधन और उसकी क्षमताएं कम हो रही हैं. दूसरे, बाहरी और आंशिक रूप से एक आंतरिक दुश्मन के लापता होने से संभावित संघर्ष और तनाव में बढ़ोत्तरी हो रही है. इस संबंध में यह सोचा जाना मुमकिन है कि आने वाले कुछ समय में तालिबान आंदोलन में फूट पड़ने की संभावनाएं हैं. कई कबीले एक दूसरे के साथ गुप्त रूप से टकराव की स्थिति में हैं. यह कारक अपने आप में जल्द ही देश को और अधिक अस्थिरता की ओर ले जा सकते हैं.
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