2024 में चुनावों का सीज़न शुरू हो गया है, तो एक दूसरे से होड़ लगाने वाले नियम और नैरेटिव, मूल्य और विचारधाराएं, राजनीतिक बयानबाज़ी और सामरिक सच्चियां हिंद प्रशांत की भू-राजनीति को और तीखा बनाएंगी. ये चुनौतियां पुराने गठबंधनों और तालमेलों का इम्तिहान लेंगी. ताइवान में डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (DPP) को लगातार तीसरी बार जनादेश मिलने ने निश्चित रूप से चीन को परेशान कर दिया है और 2024 में दोनों के बीच तनाव में तेज़ उछाल से क्षेत्र में अव्यवस्था को बढ़ावा मिलेगा. वैसे तो इस क्षेत्र में बहुत से लोगों ने ताइवान की कूटनीति की तारीफ़ की. लेकिन, चीन लगातार ताइवान के कूटनीतिक सहयोगियों की संख्या घटाने में जुटा हुआ है.
पेंटागन में अमेरिका और चीन के बीच, ‘मुक़ाबले को संघर्ष में तब्दील होने से रोकने’ के लिए रक्षा नीति समन्वय की बातचीत दोबारा शुरू होने के बावजूद पूर्वी एशिया में भी टकराव के मुद्दे गर्म हो रहे हैं.
यही नहीं, आज जब नियमों पर चलने वाली विश्व व्यवस्था का तरह तरह से इम्तिहान हो रहा है. फिर चाहे वो रूस और यूक्रेन का युद्ध हो, हमास और इज़राइल का संघर्ष हो, या फिर लाल सागर में पैदा हो रहे हालात से समुद्र में आज़ादी से आवाजाही में खलल का पैदा होना- सामरिक ग़लतियां होने के ख़तरे बढ़ते जा रहे हैं. इसी बीच, पेंटागन में अमेरिका और चीन के बीच, ‘मुक़ाबले को संघर्ष में तब्दील होने से रोकने’ के लिए रक्षा नीति समन्वय की बातचीत दोबारा शुरू होने के बावजूद पूर्वी एशिया में भी टकराव के मुद्दे गर्म हो रहे हैं.
एक तरफ़ चीन के विदेश मंत्री वैंग यी ने 2024 में अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव के साल की शुरुआत इस तर्क के साथ की है कि अमेरिका और चीन के बीच सहयोग ‘आवश्यक’ है. पिछले कुछ वर्षों के दौरान वैंग यी लगातार अमेरिका पर ये इल्ज़ाम लगाते रहे हैं कि वो अपनी पांच-चार-तीन-दो की रणनीति के ज़रिए हिंद प्रशांत में नाटो जैसा ढांचा खड़ा करने का प्रयास कर रहा है.
इस निर्णायक चुनाव में बड़ी ताक़तों के बीच होड़ तेज़ हो गई है. इस वजह से ताइवान के भविष्य के राजनीतिक सफर पर काफ़ी दांव लगा है, क्योंकि चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ये कहते रहे हैं कि ताइवान की चीन में विलय की सोच एक ‘ऐतिहासिक निश्चितता’ है. चूंकि, राष्ट्रपति बाइडेन ने अपने पूरे कार्यकाल के दौरान इस नैरेटिव को बार बार बढ़ावा दिया है कि ‘मुक़ाबला तानाशाहियों और लोकतंत्रों के बीच’ है. वहीं, चीन ने ताइवान के चुनाव को ‘युद्ध और शांति’ के बीच एक विकल्प का नाम दिया है.
पूर्वी एशिया में अव्यवस्था का माहौल
जहां एक तरफ़ ताइवान के ख़िलाफ़ ग़लत जानकारी के अभियान, आर्थिक दादागिरी और ग़ैर सरकारी मुहिम छेड़ दी गई, वहीं चीन के गाइडेड मिसाइल डेस्ट्रॉयर और जंगी जहाज़, दक्षिणी चीन सागर और अन्य इलाक़ों में फिलीपींस और अमेरिकी नौसेना के जहाज़ों का पीछा करते रहे. इस दौरान आज जब चीन और रूस अपने कूटनीतिक संबंधों की स्थापना की 75वीं सालगिरह मना रहे हैं, तो रूस के साथ चीन, अपने सामरिक संवाद और रक्षा सहयोग को लगातार बढ़ाता रहा.
सैन्य अभ्यासों और आपसी तालमेल वाले अभियानों के ज़रिए, दो त्रिपक्षीय गठबंधनों द्वारा एक दूसरे से होड़ लगाने ने उत्तरी पूर्वी एशिया की राजनीति औऱ व्यवस्था को आकार दिया है, जो आने वाले समय में भी एक महत्वपूर्ण पहलू बना रहेगा.
अगर हम इसमें उत्तर कोरिया द्वारा धमकियां दे देकर दक्षिण कोरिया के साथ रिश्तों को अस्थिर करने की कोशिशों को भी जोड़ दें, तो दोनों देशों के बीच 2018 के समझौते पर ख़तरा और बढ़ गया है. उकसावे की बड़ी बड़ी कार्रवाइयों का मुक़ाबला करने के लिए नेताओं के स्तर पर आला दर्जे का कूटनीतिक संवाद भी हो रहा है, जिससे इस क्षेत्र के सामरिक समीकरण और भी जटिल हो गए हैं. जैसे कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) के तमाम प्रस्तावों का उल्लंघन करते हुए रूस ने यूक्रेन में उत्तर कोरिया की बनी बैलिस्टिक मिसाइलों का इस्तेमाल किया.
आगे चलकर, जैसे जैसे उत्तर कोरिया जब, अमेरिका के नेतृत्व वाली क्षेत्रीय व्यवस्था के ख़िलाफ़, रूस और चीन के साथ अपना सैन्य सहयोग बढ़ा रहा है, तो अमेरिका और उसके पूर्वी एशियाई सहयोगियों ने भी ऐतिहासिक कैम्प डेविड शिखर सम्मेलन में सामरिक सहयोग बढ़ाने की मज़बूत इच्छाशक्ति का प्रदर्शन किया है. सैन्य अभ्यासों और आपसी तालमेल वाले अभियानों के ज़रिए, दो त्रिपक्षीय गठबंधनों द्वारा एक दूसरे से होड़ लगाने ने उत्तरी पूर्वी एशिया की राजनीति औऱ व्यवस्था को आकार दिया है, जो आने वाले समय में भी एक महत्वपूर्ण पहलू बना रहेगा.
पूर्वी एशिया में उसके सहयोगियों को कूटनीति पर ज़ोर और बढ़ाना पड़ेगा, ताकि वो अपनी इच्छाशक्ति दिखाकर, संसाधनों को जुटाकर वैश्विक जनहित का बोझ उठाने की ज़िम्मेदारी दिखा सकें.
चीन एक और त्रिपक्षीय रूप-रेखा का लाभ उठाने की कोशिश कर रहा है. चीन, जापान और दक्षिण कोरिया के बीच 2008 से तालमेल चला आ रहा है. इसके ज़रिए चीन, अमेरिका और उसके पूर्वी एशियाई सहयोगियों के बीच दरार डालने के प्रयास करता रहा है. हालांकि, इस झांसे में आने के बजाय दक्षिण कोरिया और जापान, अपने क्षेत्रीय व्यापार और निवेश के एजेंडे को तय करके उसको आगे बढ़ाने पर ज़ोर दे रहे हैं. इस तरह दोनों देशों ने चीन द्वारा इस त्रिपक्षीय व्यवस्था को एक औज़ार के तौर पर इस्तेमाल करके अपने पर केंद्रित क्षेत्रीय व्यवस्था को आगे बढ़ाने के प्रभाव को सीमित कर दिया है.
2024 में ताइवान में हुए महत्वपूर्ण चुनाव और अमेरिका में होने वाले चुनाव, इस क्षेत्र की भू-राजनीति को परिभाषित करेंगे. इसके अतिरिक्त, तमाम अप्रूवल रेटिंग्स में जिस तरह जापान के प्रधानमंत्री फूमियो किशिदा और उनकी सरकार पर जनता का भरोसा कम होता दिख रहा है. उसे और जापान में घरेलू राजनीति के माहौल को देखते हुए हो सकता है कि सितंबर के आस-पास जापान की लेफ्ट डेमोक्रेटिक पार्टी (LDP) के नेतृत्व में भी बदलाव देखने को मिले. रूस में भी चुनाव होंगे. लेकिन, वो चुनाव तो बदलाव से ज़्यादा सत्ता पर अपनी पकड़ और मज़बूत बनाने का अभियान होंगे.
अमेरिका के क्षेत्रीय साथियों जैसे कि जापान के लिए, आने वाले महीनों में ताइवान और चीन के रिश्ते काफ़ी महत्वपूर्ण होंगे, क्योंकि ख़ुद जापान की राष्ट्रीय सुरक्षा इस पर निर्भर करती है. इस बात को हम लेफ्ट डेमोक्रेटिक पार्टी के उपाध्यक्ष तारो असो द्वारा हाल ही में वाशिंगटन में दिए गए बयान में देख सकते हैं. अपने बयान में तारो असो ने ताइवान के हवाले से कहा था कि, ‘एक के बाद दूसरी टूटी हुई खिड़कियों की तादाद बढ़ने से रोकने के लिए भय पैदा करने वाले अंतरराष्ट्रीय ढांचे’ को मज़बूती से तुरंत खड़ा करने की ज़रूरत है. तारो असो का बयान इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है कि वो फूमियो किशिदा के बाद नेतृत्व की होड़ में किंगमेकर होंगे. आज जब LDP की गुटबाज़ी वाली राजनीति फंड जुटाने में घोटाले के झटकों का सामना कर रही है, तब जापान की चीन नीति में कौन से बदलाव होंगे, इस पर नज़र रखने की ज़रूरत होगी.
इससे भी अहम बात ये है कि अमेरिका में इस साल होने वाले राष्ट्रपति चुनाव से ध्रुवीकरण वाली राजनीति और बढ़ेगी और ये अमेरिका के लोकतंत्र और इसके संस्थानों का इम्तिहान लेगी. ट्रंप के दोबारा सत्ता में लौटने की संभावना न केवल अमेरिका की घरेलू राजनीति में ज़ोर पकड़ रही है, बल्कि यूरोप और एशिया में अमेरिका के सहयोगियों के बीच ये चर्चा भी तेज़ हो गई है कि ट्रंप के सत्ता में लौटने पर दुनिया में चल रहे तमाम संघर्षों के बीच गठबंधनों के प्रति अमेरिका की नीति कैसी रहेगी.
निष्कर्ष
इस बीच भू-अर्थशास्त्र की बात करें, तो जब G7 के नीतिगत अगुवा आर्थिक सुरक्षा को प्राथमिकता दे रहे हैं और निर्यात नियंत्रण पर चर्चा तेज़ हो रही है, जोखिम कम करने और कारोबार को दोस्त देशों में ले जाने की रणनीतियों पर काम हो रहा है, तो इन नीतियों का प्रभाव इनको लागू कर पाने की क्षमता पर निर्भर करेगा. हालांकि, ये सब इतना आसान नहीं रहने वाला है. हम ये बात यूएस स्टील और निप्पोन स्टील के सौदे और अमेरिकी संसद और कामगारों के संगठनों के कुछ सदस्यों द्वारा इसके विरोध के तौर पर देख चुके हैं. इस बीच, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने कहा है कि बड़ी अर्थव्यवस्थाओं द्वारा ‘जोखिम कम करने’ की जो रणनीतियां लागू की जा रही हैं इनके ‘नकारात्मक प्रभाव’ चीन से परे भी देखने को मिलेंगे. वहीं, चीन में व्यापक सुधारों का काफ़ी सकारात्मक असर देखने को मिल सकता है.
2024 में जब अमेरिका की घरेलू राजनीतिक बयानबाज़ी की वजह से नियमों पर आधारित विश्व व्यवस्था बनाए रखने के अमेरिकी नेतृत्व पर दबाव बढ़ रहा है, तो पूर्वी एशिया में उसके सहयोगियों को कूटनीति पर ज़ोर और बढ़ाना पड़ेगा, ताकि वो अपनी इच्छाशक्ति दिखाकर, संसाधनों को जुटाकर वैश्विक जनहित का बोझ उठाने की ज़िम्मेदारी दिखा सकें. फिर चाहे वो दक्षिणी पूर्वी एशिया हो या फिर प्रशांत क्षेत्र के द्वीप समूह, उन्हें ये दिखाना होगा कि वो तानाशाही ताक़तों के लिए कोई गुंजाइश नहीं छोड़ने वाले.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.