पिछले एक दशक से तमाम विकासशील देशों, ख़ास तौर से सहारा क्षेत्र के अफ्रीकी देशों और भारत (India) में मोबाइल फ़ोन रखने और डिजिटल आविष्कारों के इस्तेमाल का चलन तेज़ रफ़्तार से चल रहा है. आज तमाम देश अपनी उत्पादकता बढ़ाने और विकास के लिए डिजिटल समाधान और आविष्कार अपनाने को तरज़ीह दे रहे हैं. लेकिन, एक महाद्वीप के तौर पर अफ्रीका(Africa) अभी भी डिजिटल क्रांति (digital revolution) के उस मोड़ तक नहीं पहुंच सका है, जहां दुनिया के बाक़ी इलाक़े खड़े हैं. फिर चाहे बात डिजिटल संसाधनों की पहुंच की हो, इस्तेमाल या फिर क्षमताओं की हो. अभी भी डिजिटल मूलभूत ढांचे(digital infrastructure) के मामले में अफ्रीका बाक़ी दुनिया से बहुत पीछे खड़ा है. हालांकि, यहां ये स्वीकार करना उपयोगी होगा कि भौगोलिक विभाजन के बावजूद, डिजिटल (digital) और उभरती हुई तकनीकें अफ्रीकी महाद्वीप को एकजुट बनाने में अहम भूमिका निभा सकती हैं.
आज अफ्रीका महाद्वीप ऐसे आविष्कारों को बढ़ावा देने की उपजाऊ ज़मीन है, जिनसे अफ्रीका की कुछ सख़्त ज़रूरतें पूरी की जा सकती हैं और इनसे तरक़्क़ी के कारोबारी तौर पर फ़ायदेमंद अवसर विकसित किए जा सकते हैं. पूरे महाद्वीप में आज सेंसर, नेटवर्क, आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस और ऑटोमैटिक तकनीक का जाल बिछ रहा है. इसके चलते ड्रोन, चेहरे की पहचान कर सकने वाले सीसीटीवी कैमरे और स्मार्ट सिटी जैसी कई उभरती हुई तकनीकों का विस्तार हो रहा है. आज ड्रोन के ज़रिए अफ्रीका के दुर्गम इलाक़ों में जान बचाने वाली दवाएं मुहैया कराई जा रही हैं. इसकी मिसाल हम ज़िपलाइन के तौर पर देख रहे हैं.
पूरे महाद्वीप में आज सेंसर, नेटवर्क, आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस और ऑटोमैटिक तकनीक का जाल बिछ रहा है. इसके चलते ड्रोन, चेहरे की पहचान कर सकने वाले सीसीटीवी कैमरे और स्मार्ट सिटी जैसी कई उभरती हुई तकनीकों का विस्तार हो रहा है.
जहां तक अफ्रीका में इंटरनेट की पहुंच का सवाल है तो मोरक्को, सेशेल्स, मिस्र, कीनिया और तंज़ानिया में आबादी के ज़्यादातर हिस्सों तक ये सेवा पहुंचने का दावा किया जाता है. वहीं, दक्षिण अफ्रीका और नाइजीरिया जैसे देशों में इंटरनेट सेवा औसत स्तर की है तो, माली, मोज़ांबीक़, कॉन्गो लोकतांत्रिक गणराज्य, नाइजर और चाड में इंटरनेट सेवा बहुत कम आबादी तक पहुंच सकी है. इंटरनेट सेवा का लाभ लेने का सबसे बड़ा ज़रिया मोबाइल फ़ोन हैं और इनके ज़रिए ग्राहक, ई-कारोबार कर लेते हैं. हालांकि, सहारा क्षेत्र के ज़्यादातर देशों में लोगों के पास मोबाइल फ़ोन हैं, लेकिन इनमें से स्मार्टफ़ोन की संख्या बहुत कम है.
इस वक़्त इंटरनेट की सुविधा अफ्रीका की महज़ एक तिहाई आबादी तक उपलब्ध है. लेकिन ये उम्मीद जताई जा रही है कि 2030 तक अफ्रीका इंटरनेट की पहुंच के मामले में दुनिया के बाक़ी हिस्सों की बराबरी तक पहुंच जाएगा और अफ्रीका की तीन चौथाई आबादी तक इंटरनेट सुविधा की पहुंच होगी. इस बात के भी पर्याप्त सुबूत हैं कि जिन अफ्रीकी देशों ने इबोला वायरस जैसी महामारी को हराने के लिए ट्रेसिंग, ट्रैकिंग और इलाज का सहारा लिया है, उन्होंने तकनीक की पहुंच का फ़ायदा उठाकर ही ये कामयाबी हासिल की है. इसी वजह से महामारियों से लड़ने के लिए अफ्रीका का तकनीकी रूप से सक्षम और डिजिटल होना ज़रूरी है. इसके साथ ये भी सुनिश्चित करना होगा कि कमज़ोर तबक़े के लोग और समुदायों की पहचान हो और उनका पता लगाया जा सके.
वैसे तो अफ्रीकी देशोंको ऐसी नीतियां बनाने और उन्हें लागू करने पर ज़ोर देने की ज़रूरत है, जिससे इंटरनेट की कनेक्टिविटी बढ़ती है. पर इसके साथ-साथ, इंटरनेट सेवा को कम दाम पर साइबर सुरक्षा के साथ हर नागरिक को बराबरी से पहुंचाने पर भी ज़ोर होना चाहिए. ब्रॉडबैंड इंटरनेट सेवा का दायरा बढ़ने के बावजूद बहुत से अफ्रीकी देशों में मोबाइल डेटा ख़रीदना बहुत महंगा सौदा है. मिसाल के तौर पर साओ तोम और प्रिंसिप में 1 जीबी मोबाइल डेटा 29 अमेरिकी डॉलर का पड़ता है. वहीं, बोस्तवाना में इसकी लागत 16 डॉलर आती है. टोगो और नामीबिया जैसे कई देशों में भी मोबाइल डेटा बहुत महंगा है. ऐसे महंगे डेटा पैक होने से आर्थिक विकास और रोज़गार पैदा होने की राह में बाधाएं आती हैं.
इसमें भारत की क्या भूमिका हो सकती है?
अफ्रीका हो या भारत, दोनों ने ही डिजिटल परिवर्तन की ओर क़दम बढ़ाने के दौरान एक जैसी चुनौतियों का सामना किया है. जैसे कि इंटरनेट की कम कनेक्टिविटी, लोगों के बीच डिजिटल सुविधा का फ़ासला और ज़रूरत के मुताबिक़ हुनरमंद लोगों की कमी. हालांकि, अफ्रीका के डिजिटल सशक्तिकरण और आर्थिक समृद्धि को भारत की तेज़ी से विकसित हो रही डिजिटल अर्थव्यवस्था से काफ़ी लाभ मिल सकता है. भारत की डिजिटल क्रांति से अफ्रीका के सीखने की अपार संभावनाएं हैं, जिन्हें विकासशील देशों के आपसी सहयोग के ढांचे के तहत साकार किया जा सकता है.
भारत ने आधार के रूप में दुनिया के सबसे विशाल डिजिटल पहचान पत्र की योजना को लागू किया है, जिसका अर्थ ही बुनियाद होता है. क्लाउड तकनीक का इस्तेमाल करते हुए, एक अरब से ज़्यादा भारतीय नागरिकों आधार व्यवस्था से जोड़ा गया है.
हाल के वर्षों में डिजिटल बदलाव के लिए भारत ने बहुत सी योजनाओं को कामयाबी से लागू किया है, क्योंकि किसी डिजिटल अर्थव्यवस्था के काम करने की बुनियादी शर्त ही डिजिटल पहचान का होना है. भारत ने आधार के रूप में दुनिया के सबसे विशाल डिजिटल पहचान पत्र की योजना को लागू किया है, जिसका अर्थ ही बुनियाद होता है. क्लाउड तकनीक का इस्तेमाल करते हुए, एक अरब से ज़्यादा भारतीय नागरिकों आधार व्यवस्था से जोड़ा गया है. आधार के तहत, देश के हर नागरिक को उसके नाम, जाति, समुदाय और इलाक़े के हिसाब से 12 अंकों का एक विशेष पहचान अंक जारी किया जाता है. इससे भारत सरकार को देश के नागरिकों के बैंकिंग लेन-देन, सुविधाओं के बिल के भुगतान, फोन नंबरों और घर के पते को एक दूसरे से जोड़ने में मदद मिली है.
अफ्रीका में आधार की एक तुलनात्मक मिसाल हम ‘घाना कार्ड’ के रूप में देख पाते हैं. इसके ज़रिए अभी सरकारी सेवाएं भी मुहैया करायी जा रही हैं. हालांकि इसमें लोगों को जोड़ने और उसका वितरण बहुत सीमित स्तर पर ही हो सकता है. प्रिंटिंग के केंद्र सीमित हैं. लेकिन, घाना कार्ड के पास, भारत की आधार व्यवस्था से सीखने की काफ़ी संभावनाएं हैं. आधार से डेटा के प्रबंधन के लिए क्लाउड तकनीक का इस्तेमाल करने के तरीक़े सीखा जा सकते हैं. क्योंकि इन जानकारियों से भारी तादाद में आंकड़े जमा होते हैं. लेकिन, आधार कार्ड के उलट, घाना कार्ड राष्ट्रीय पहचान के लिए इस्तेमाल किया जाता है और इसके धारकों को नागरिकता का हक़ भी इसी से हासिल होता है.
अफ्रीका की डिजिटल कामयाबी की अन्य मिसालें हम कीनिया के ‘ऐम-पेसा’ के रूप में देखते हैं, जिसकी सेवाएं अब अफ्रीका के सात देशों के 5.1 करोड़ लोगों तक उपलब्ध हैं. इसी तरह नाइजीरिया का ‘जुमिया ग्रुप’, अफ्रीका की सबसे अच्छी पूंजी वाली ई-कॉमर्स की स्टार्ट अप कंपनी है. 2012 में इसकी स्थापना रॉकेट इंटरनेट ने की थी. जुमिया ग्रुप ने मोटरबाइक और ट्रकों का एक ऐसा नेटवर्क तैयार किया है, जो ग्राहकों तक सामान पहुंचाता है.
भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था को डिजिटल बनाने के लिए कई अनूठी पहलें की हैं. जैसे कि ‘डिजिटल इंडिया’, जिसके ज़रिए पूरे देश में ऑप्टिकल फाइबर बिछाकर भारत के ग्रामीण इलाक़ों और ग्राम पंचायतों तक इंटरनेट सेवा पहुंचाई जा रही है. 2015 में भारत ने स्किल इंडिया मिशन की भी शुरुआत की थी, जिसका मक़सद कौशल विकास की गतिविधियों का एक व्यापक ढांचा तैयार करना था. लोगों को डिप्लोमा कोर्स के ज़रिए तकनीकी और पेशेवर शिक्षा का प्रशिक्षण देना इस योजना के मुख्य लक्ष्यों में से एक था. इसके अलावा भारतनेट, प्रधानमंत्री जन धन योजना, इंडियास्टैक जैसी कई डिजिटल बदलाव वाली योजनाएं शुरू की गई हैं. अगर भारत की इन योजनाओं की कामयाबी को अफ्रीकी देशों में दोहराया जाए और सही तरीक़े से लागू किया जाए, तो इससे अफ्रीका के लोगों के बीच का डिजिटल फ़ासला कम किया जा सकेगा और अफ्रीकी युवाओं को रोज़गार हासिल करने की बेहतर स्थिति में पहुंचाया जा सकेगा. वैसे तो भारत अपनी इस जानकारी और कारोबार के अनुभव को अफ्रीकी देशों के साथ साझा करने को तैयार है. लेकिन, अफ्रीकी देशों को भी चाहिए कि वो अपने यहां सूचना प्रौद्योगिकी के हुनर से लैस और अधिक युवाओं को तैयार करें, ताकि ये युवा भारतीयों के अनुभव से सीखकर उसे अपने देश की ज़रूरतों के हिसाब से इस्तेमाल कर सकें.
भारत-अफ्रीका सहयोग
भारत और अफ्रीका के बीच डिजिटल तकनीक के क्षेत्र मे सहयोग की सबसे कामयाब मिसाल, पैन अफ्रीकन ई-नेटवर्क प्रोजेक्ट (PAeNP) है. ये योजना अफ्रीका के 48 देशों में लागू है. इस योजना के ज़रिए अफ्रीकी देशों को सैटेलाइट, फाइबर ऑप्टिक्स और वायरलेस के एक ऐसे नेटवर्क से जोड़ा गया है, जो उन्हें सीधे भारत के सुपर स्पैशियालिटी अस्पतालों और नामी शिक्षण संस्थानों से जोड़ता है. ये परियोजना 2018 से आगे बढ़ा दी गई है, और अब इसे दूरस्थ शिक्षा और टेलीमेडिसिन की ई-विद्याभारती और ई-आरोग्यभारती (e-VBAB) सेवा के नाम से भी जाना जाता है. इस योजना के तहत भारत अगले पांच वर्षों के दौरान टेली एजुकेशन के 4 हज़ार मुफ़्त कोर्स उपलब्ध करा रहा है. इसके साथ साथ एक हज़ार अफ्रीकी डॉक्टर्स, नर्सों और पैरा-मेडिकल कर्मचारियों का मेडिकल इम्तिहान करा रहा है. भारत के डॉक्टर इस योजना के ज़रिए अफ्रीकी डॉक्टरों को मुफ़्त में मेडिकल सलाह देते हैं. ये परियोजना बहुत लोकप्रिय है और इसे भारत और अफ्रीका के बीच शिक्षा और स्वास्थ्य के डिजिटल पुल के तौर पर जाना जाता है.
डिजिटल सशक्तिकरण, भारत और अफ्रीका की साझेदारी और विकास के समझौतों की एक अहम कड़ी के रूप में उभरा है. पिछले कुछ वर्षों के दौरान भारत की निजी कंपनियों ने आधुनिक तकनीकों में निवेश किया है, ताकि कई क़दमों के ज़रिए अफ्रीकी देशों की तरक़्क़ी में मदद पहुंचाई जा सके.
भारत और अफ्रीका के बीच, विश्व व्यापार संगठन (WTO), अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक जैसे वैश्विक संस्थानों में एक जैसे विचारों और प्रयासों में सहयोग का भी लंबा इतिहास रहा है. वैश्विक संगठनों में लोकतांत्रिक सुधार बहुत ज़रूरी हैं. यही कारण है कि भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में ठोस सुधार करने की मांग मज़बूती से उठाता रहा है, जो अफ्रीका के साझा रुख और एज़ुलविनी आम सहमति से मेल खाता है.
2018 में इलेक्ट्रॉनिक संचार पर सीमा शुल्क पर रोक लगाने के मुद्दे पर भी भारत और अफ्रीका के बीच सहमति थी. इस तरह की रियायत से विकासशील देशों की मुक़ाबला करने की शक्ति बढ़ जाएगी, क्योंकि उनके यहां सामानों के ऊपर व्यापार कर का बोझ अधिक है. लेकिन, उसी उत्पाद के डिजिटल स्वरूप पर कोई कर नहीं लगेगा. इसके बाद भारत और अफ्रीका लगातार विकसित देशों को ये चेतावनी देते आए हैं कि ई-कॉमर्स के नियमों को विश्व व्यापार संगठन के ढांचे से बाहर तय करने से आम सहमति के सिद्धां को ठेस पहुंचेगी.
भारत और अफ्रीका के बीच ऐसा ही सहयोग हमने तब देखा था, जब विकासशील देशों ने कोविड-19 वैक्सीन को विकासशील देशों में बनाने के लिए अस्थायी तौर पर बौद्धिक संपदा के अधिकारों को स्थगित करने का प्रस्ताव रखा था.
डिजिटल सशक्तिकरण, भारत और अफ्रीका की साझेदारी और विकास के समझौतों की एक अहम कड़ी के रूप में उभरा है. पिछले कुछ वर्षों के दौरान भारत की निजी कंपनियों ने आधुनिक तकनीकों में निवेश किया है, ताकि कई क़दमों के ज़रिए अफ्रीकी देशों की तरक़्क़ी में मदद पहुंचाई जा सके. इसमें आर्थिक मदद और रियायती दरों पर क़र्ज़ उपलब्ध कराना भी शामिल है.कीनिया और बोत्सवाना जैसे देशों में भारत ने आईटी की शिक्षा के क्षेत्र में भी निवेश किया है. वहीं, घाना, तंज़ानिया और युगांडा जैसे देशों को आला दर्ज़े के कंप्यूटर भारत से मिले हैं. भारत ने घाना की राजधानी अक्रा में घाना- भारत कोफी अन्ना सेंटर ऑफ़ एक्सेलेंस इन इन्फॉर्मेशन ऐंड कम्युनिकेशन टेक्नोलॉजी की स्थापना में भी मदद की है और इथियोपिया में भी इसी तरह का आईटी सेंटर स्थापित करने के समझौते पर दस्तख़त किए हैं. इन उदाहरणों से ज़ाहिर है कि भारत, अफ्रीका की डिजिटल क्रांति में निवेश का इच्छुक भी है और उसके पास इसकी क्षमता भी है.
एक बड़ा संघीय लोकतंत्र होने के कारण, भारत का डिजिटल परिवर्तन का अपना तजुर्बा, किसी अन्य एशियाई या पश्चिमी देश की तुलना में अफ्रीकी देशों के लिए अपने से ज़्यादा मिलता जुलता मॉडल पेश करता है, जिसके ज़रिए वो अपनी चुनौतियों को समझ सकते हैं, उनसे निपट सकते हैं. आज जब दुनिया और अधिक डिजिटल आविष्कारों को अपनाने के लिए तैयार है, तो भारत के पास एक सुनहरा मौक़ा है कि वो अफ्रीका में डिजिटल क्रांति लाने में अपनी क्षमता और इच्छाशक्ति से योगदान दे सके.
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