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भारत के पास अभी भी समय और मौक़ा है कि वो अपनी आबादी की इस ख़ूबी का फ़ायदा उठाकर तरक़्क़ी कर सके.
8 दिसंबर 2019 को रविवार के दिन, दिल्ली में एक छोटे से औद्योगिक इलाक़े की एक फैक्ट्री में लगी भयंकर आग की वजह 43 लोगों की मौत की दर्दनाक घटना हुई थी. इस अग्निकांड के ज़्यादातर शिकार झारखंड, उत्तर प्रदेश और बिहार से आए युवा अप्रवासी मज़दूर थे. मीडिया ने रिपोर्ट दी थी कि इस अग्निकांड के शिकार ज़्यादातर कारखाने रिहाइशी इलाक़ों में अवैध रूप से चलाए जा रहे थे. और, आग संभवत: एक शॉर्ट सर्किट की वजह से लगी थी. अग्निकांड में मारे गए 43 लोगों में से कम से कम 5 नाबालिग थे. इनमें से कई की उम्र तो 13 साल या उस से भी कम थी. जब कि इन लोगों को नौकरी पर रखना भारत के मौजूदा श्रम क़ानूनों का साफ़ तौर पर उल्लंघन है. ख़बरों के मुताबिक़, अधिकारियों को आशंका है कि हादसे में मरने वालों की संख्या और भी बढ़ सकती है.
मीडिया के तमाम हलकों में इस बात को ज़ोर शोर से उछाला जा रहा है कि पिछले पांच बरसों में दिल्ली ने लक्ष्य से ज़्यादा टैक्स वसूली की है. सरकार इस का जश्न मना रही है. सरकार की आमदनी में ये इज़ाफा टैक्स वसूली में लगातार हो रही बढ़ोत्तरी की वजह से मुमकिन हो सका है. 2008-09 में ये 16 हज़ार 352 करोड़ था. तो 2018-19 में दिल्ली का राजस्व बढ़कर 47 हज़ार 557 करोड़ रुपए (अनुमानित आय) पहुंच गया था. इन आंकड़ों से साफ़ है कि दिल्ली का राजस्व हर साल क़रीब दस फ़ीसद की दर से बढ़ रहा है. हालांकि, दिल्ली में हुए दर्दनाक अग्निकांड और फैक्ट्री में लगी आग में बाल मज़दूरों के भी मारे जाने से हम एक सवाल पूछने को मजबूर हो गए हैं. और वो ये है कि दिल्ली की इस चमक-दमक में उन बाल मज़दूरों और नाबालिगों का कितना योगदान है, जो बेहद ‘ख़राब हालात’ में काम करने को मजबूर हैं? यहां पर सबसे ज़्यादा ध्यान देने वाली बात ये है कि सरकार सभी कम उम्र कामगारों को बाल मज़दूर नहीं मानती. केवल 14 साल से कम उम्र के कामगारों को ही बाल मज़दूर माना जाता है. दिल्ली में बाल मज़दूरों पर किए गए अध्ययन बताते हैं कि वो बेहद ख़राब हालात में रहने को मजबूर हैं. उन्हें बहुत से ख़तरों के बीच जान का जोखिम उठाते हुए काम करना पड़ताथा. ये बाल मजदूर, ख़राब रौशनी, शोर, हवा आने-जाने की ख़राब परिस्थिति के बीच बेहद ख़तरनाक औज़ारों के साथ काम करते हैं. दिल्ली में आग लगने के शिकार हुए लोगों जिसहाल में काम कर रहे थे, उस बारे में जो रिपोर्ट सामने आई, तो वो बेहद डरावनी थी औरइस स्टडी से मिलती-जुलती थी. मीडिया की रिपोर्ट्स के मुताबिक़, फैक्ट्री मेंज्वलनशील पदार्थों की भरमार थी. उस से निकलने का केवल एक ही दरवाज़ा था. और कारखाने में काम करने वाले वहीं सो रहे थे, जहां सिलाई मशीनें, प्लास्टिक के खिलौने, गत्ते, रैक्सीन के बंडल, प्लास्टिक के बंडल, पैकेजिंग का सामान और कपड़े भी रखे हुए थे. दिल्ली में ऐसे बहुत से कारखाने हैं, जो ऐसे हालात में काम कर रहे हैं और जहां कभी भी ऐसी दुर्घटना हो सकती है.
भारत में बाल मज़दूरी के सबसे ताज़ा आंकड़े, जो इस साल तक तमाम राज्यों में बाल मज़दूरों का अनुमान बता सकते हैं, वो हैं रोज़गार-बेरोज़गारी सर्वे (EUS) 2011-12 के आंकड़े. इन्हें भारतीय सैंपल सर्वे संगठन ने इकट्ठा किया था. इस सर्वे के यूनिट स्तर के आंकड़ों का विश्लेषण करके ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन ने एक अध्ययन किया था, जिसका नाम था, रिटायर्ड ऐट 18: पॉलिटिकल इकोनॉमी ऑफ़ चाइल्ड लेबर इन द टेक्सटाइल ऐंड एलाइड इंडस्ट्रीज़ इन इंडिया. इस के मुताबिक़ दिल्ली में 14 साल से कम आयु के बाल मज़दूरों की संख्या 2 हज़ार 358 है. ये कमोबेश सब के सब दलित समुदाय से आते हैं.
लेकिन, इस साल की शुरुआत में पीरियॉडिक लेबर फ़ोर्स सर्वे (PLFS) 2017-18 के आंकड़े जारी किएगए. तो इन के आधार पर हमें राज्य स्तर पर बाल मज़दूरों की स्थिति के सब से ताज़ा आंकड़े मिल गए हैं. जानकार चेतावनी देते हैं कि ईयूएस और पीएलएफस को एक बराबर सैंपलिंग के दर्जे पर नहीं मापा जा सकता है. क्योंकि दोनों ही सर्वे में गणना का तरीक़ा बिल्कुल अलग-अलग होता है. पीएलएफएस में घरेलू बाल मज़दूरों को ज़्यादा तवज्जो दी जाती है. जिसमें 15 साल से ज़्यादा आयु वर्ग के पढ़े लिखे लोगों की संख्या ज़्यादा होती है. तर्क दिया जाता है कि इस की वजह से बेरोज़गारी के आंकड़े बढ़ सकते हैं.
लेकिन, बाल मज़दूरी के मामले में, अगर हम पढ़े लिखे लोगों को सैंपल में शामिल कर के सर्वे करने के इस नए तरीक़े को देखें, तो जो अनुमान निकलता है, वो बेहद ख़ूबसूरत तस्वीर गढ़ता है. जबकि, हक़ीक़त कुछ और ही है. इस पेंच को ध्यान में रख कर अगर हम दिल्ली में बाल मज़दूरों के आंकड़ों को नए सिरे से देखें, तो भी ये आंकड़े एक भयावह तस्वीर पेश करते हैं. शुरुआती विश्लेषण से पता चलता है कि वित्तीय वर्ष 2017-18 में क़ानूनी परिभाषा के मुताबिक़, यानी 14 साल से कम उम्र के बाल मज़दूरों की संख्या दिल्ली में 32 हज़ार 330 थी. यानी वित्तीय वर्ष 2011-12 से 2017-18 के क़रीब आधे दशक के दौरान ही, दिल्ली में बाल मज़दूरों की संख्या दो हज़ार, 358 से बढ़ कर 32 हज़ार 330 पहुंच गई. ये इज़ाफ़ा बहुत ही डराने वाला है.
दिल्ली में काम कर रहे इन बाल मज़दूरों में से ज़्यादातर लड़के थे. और, उन में से 55 फ़ीसद मुस्लिम समुदाय से थे. 2011-12 में जहां दिल्ली के क़रीब 100 प्रतिशत बाल मज़दूर दलित थे. वहीं, 2016-17 में इन का अनुपात घट कर 41 प्रतिशत हो गया था. अब दिल्ली में काम करने वाले क़रीब 55 फ़ीसद बाल मज़दूर अन्य पिछड़े वर्ग से ताल्लुक रखते हैं. और ये सब के सब मुस्लिम समुदाय से आते हैं. दिल्ली के कुल बाल मज़दूरों में से केवल तीन फ़ीसद सामान्य वर्ग से आते हैं.
दिल्ली में बाल मज़दूरों की संख्य़ा में इतनी तेज़ी से तब इज़ाफ़ा हो रहा है, जब पूरे देश में इन की संख्या में अच्छी ख़ासी कमी आई है. 2011-2012 में बाल मज़दूरों की देश भर में कुल संख्या 27 लाख के आस-पास थी, जो 2017-18 में घट कर केवल 13 लाख के आस पास रह गई थी. ऐसे में आम आदमी पार्टी के जिस स्कूली शिक्षा कार्यक्रम की गुणवत्ता में बड़े स्तर पर सुधार का शोर मचाया जा रहा है, उसका दिल्ली के बाल मज़दूरों की संख्या घटाने की दिशा में कोई असर नहीं हुआ है.
ओआरएफ़ के अध्ययन के मुताबिक़, भारत में बाल मज़दूरों की समस्या इसलिए और भी बढ़ जाती है कि इस के एक बड़े हिस्से को क़ानूनी तौर पर वैध माना जाता है. बाल मज़दूरों की जो मौजूदा परिभाषा है, इस में 14 से 18 साल उम्र के किशोरों को अधर में ही छोड़ दिया गया है. उन्हें युवा के तौर पर तो गिना ही नहीं जाता, लेकिन उनका स्कूल छोड़ कर कम उत्पादकता और कम तनख़्वाह वाले काम करना वैध माना जाता है. ये बच्चे अपने पूरे वयस्क जीवन के दौरान छुपी हुई बेरोज़गारी के शिकार होते हैं, या फिर कम पैसे वाले काम करने को मजबूर होते हैं. और आख़िर में उनकी जगह और युवा और सस्ते कामगार काम करने के लिए आ जाते हैं. तब तक ये किशोर कोई ऐसा हुनर नहीं सीख पाते हैं कि किसी और काम को करके अच्छे पैसे कमा सकें. इस तरह वो एक ऐसे दुष्चक्र में फंस जाते हैं जहां पर उनकी ज़िंदगी सरकार की कल्याणकारी योजनाओं और सब्सिडी के सहारे ही कटती है.
भारत की आबादी दुनियाभर में सबसे युवा मानी जाती है. क्योंकि इस की दो तिहाई से ज़्यादा जनसंख्या की उम्र इस समय 35 साल से कम है. भारत के पास अभी भी समय और मौक़ा है कि वो अपनी आबादी की इस ख़ूबी का फ़ायदा उठाकर तरक़्क़ी कर सके. शिक्षा के अधिकार के क़ानून का दायरा बढ़ने और इसमें अच्छी माध्यमिक शिक्षा को अनिवार्य बनाने का जो प्रस्ताव राष्ट्रीय शिक्षा नीति के 2019 के ड्राफ्ट में रखा गया है, अगर वो मंज़ूर हो जाता है, बाल मज़दूरों की परिभाषा बदलनी होगी और इसे रोकने की दिशा में ठोस काम हो सकेगा. तब तक सामाजिक क्षेत्र में निवेश की प्रतिबद्धता जताने वाली दिल्ली जैसी सरकारों को आगे बढ़ कर अर्थव्यवस्था से बाल मज़दूरी के ग्रहण को दूर करना होगा. उम्मीद की जानी चाहिए कि अनाज मंडी में हुआ दर्दनाक अग्निकांड दिल्ली के प्रशासन को उसकी गहरी नींद से जगाने का काम करेगा.
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Oommen C. Kurian is Senior Fellow and Head of Health Initiative at ORF. He studies Indias health sector reforms within the broad context of the ...
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